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चन्नी: कहानी एक अनाथ अल्हड़ लड़की की (लेखिका: शिवानी)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
September 4, 2021
in क्लासिक कहानियां, ज़रूर पढ़ें, बुक क्लब
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चन्नी: कहानी एक अनाथ अल्हड़ लड़की की (लेखिका: शिवानी)
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चन्नी एक अनाथ और अल्हड़ लड़की थी. सांवली रंगत की चन्नी की अदाएं ऐसी थीं कि मुहल्लेभर के लड़के उसके पीछे-पीछे घूमते थे. पर फिर उसकी शादी हो गई. क्या हुआ चन्नी की शादी के बाद जानने के लिए पढ़ें शिवानी की यह कहानी.

ट्रेन पूरी रफ़्तार से चली आ रही थी. नीचे की बर्थ पर एक बुज़ुर्ग-से नवाब साहब लेटे ‘स्टेट्समैन’ पढ़ रहे थे. पास ही उनका नाम लिखा सूटकेस धरा था, जिस पर नवाबज़ादा शौकत अली का नाम, उन्हीं की जवानी की तरह धुंधला पड़ गया था. दूसरी बर्थ पर एक सिन्धी नया जोड़ा, कबूतर की-सी गुटर-गूं में मस्त था. बार-बार लड़की-सी दिखती नई दुल्हन अपने जवान पति को ऊपर की बर्थ पर जाने के लिए ठेल रही थी और वह दुगुने जोश से उससे छेड़खानियां किए जा रहा था. ऊपर की बर्थ पर लेटी, मैं मन ही मन सोच रही थी कि ये नये-नये ताजे जोड़े, अपने आसपास की भीड़ से कितने बेख़बर रहते हैं. मेरे लिए यह कोई नई चीज़ नहीं थी. नैनीताल की ठंडी सड़क पर दिन-दहाड़े ऐसे बीसियों जोड़े एक-दूसरे से लिपटे-लिपटाए घूमते रहते हैं, पर मैं देख रही थी कि बुज़ुर्ग नवाबज़ादा शौकत अली को उस जोड़े ने बेहद परेशान कर दिया था. बेचारे बार-बार खांसते-खंखारते अपनी उपस्थिति का आभास दे रहे थे. जब लखीमपुर में वह रसीला जोड़ा उतर गया, तो उन्होंने चैन की सांस ली और करवट बदलकर सो गए. गर्मी बेहद थी. पंखा चल रहा था, पर ट्रेन के अधिकांश पंखों की भांति यात्रियों को छोड़कर, डिब्बे की हर दिशा को हवा भेज रहा था. मैंने कई बार उसे घुमा-फिराकर मनाने की कोशिश की, पर हार मानकर चुपचाप लेट जाना पड़ा. मैं सोच ही रही थी कि नीचे की बर्थ पर अपना बिस्तर बिछा लूं. इतने में ही बहुत सारा सामान लेकर दो-तीन कुली धंस आए. भूरे-भूरे बालोंवाले एक लड़के ने बड़ी फुर्ती से निचली बर्थ पर होल्डाल फैला दिया और एक पिस्तई रंग के बुर्के की सर्र-सर्र के साथ एक महिला उस बर्थ पर जम गई.
‘जमील, लो, इन कुलियों को पैसे दे देना और बचे तुम रख लेना.’ एक पांच का नोट उन्होंने उस भूरे बालोंवाले लड़के को थमाया ही था कि गाड़ी चल पड़ी और वह चट से उतर गया.
नवाबज़ादा हल्के-हल्के खर्राटे ले रहे थे. डिब्बे की बत्तियां पहले से ही बुझी थीं. उस महिला ने अपना रेशमी बुर्का उतारकर खूंटी पर टांग दिया.
महिला मेरे नीचेवाली बर्थ पर थी, इसी से चेहरा न दिखा, लेकिन गाड़ी स्टेशन छोड़ रही थी. स्टेशन की बत्तियों के अस्पष्ट-से धुंधलके में भी, बुर्का टांगनेवाली की लम्बी-लम्बी अंगुलियां मुझे स्पष्ट दीख गईं. कुछ बुर्के की रेशमी खसखस और कुछ अंगुली में पड़ी हीरे की अंगूठी की दमक ने मेरा ध्यान आकर्षित किया. कैसी लम्बी-लम्बी सुडौल अंगुलियां थीं! और दूसरे ही क्षण मुझे एक अजब घुटन ने व्याकुल कर दिया. ऐसी ही लम्बी और सिरे से टेपरिंग अंगुलियां मैंने कहां देखी हैं कहां देखी हैं? ठीक-ठीक याद न कर सकने की विचित्र झुंझलाहट ने मुझे ऐसा व्याकुल कर दिया कि याद न आने पर शायद नीचे कूदकर उस अपरिचिता महिला की अंगुलियां फिर देख डालती, पर तभी अचानक याद आया अंगुलियां जिन हाथों में मैंने देखी थीं, वे जल-भुनकर कब के राख हो चुके थे. उनके फिर दीख जाने का कोई प्रश्न ही नहीं उठ सकता था.
आज से दस वर्ष पहले मेरे पति ही तो उन अंगुलियों का अस्तित्व गंगा में बहा आए थे. हां-हां, चन्नी की अंगुलियां ऐसी ही थीं. मैं उससे कहती, ‘चन्नी, तेरी अंगुलियां तो चम्पे की कलियां हैं.’
‘चल हट!’ वह कहती, ‘ताई तो कहती है, ऐसी लम्बी-लम्बी अंगुलियां चुड़ैल की होती हैं.’
ताई की नजर में तो वह हमेशा चुड़ैल ही रही. चन्नी मेरे मंझले मामा की इकलौती लड़की थी. जन्मते ही उसने जननी को डंसा और पिता को तो गर्भ से ही डंस चुकी थी. अनाथ चन्नी को बड़े मामाजी ने ही पाला.
मेरी ननिहाल में तीन अल्सेशियन भी पलते थे. अभागिनी चन्नी को भी उसी स्तर से पाला जाता था. घर-भर की उतरनें वह पहनती, फिर भी कुन्दकली-सी चटकती रहती. घर-भर की बासी जूठन उदरस्थ करने पर भी उसके स्वास्थ्य ने कभी हार नहीं मानी.
मेरे ननिहाल की सब लड़कियां गोरी-चिट्ठी थीं, पर चन्नी थी सांवली.
उसे अपने कृष्णवर्ण का कोई दुख नहीं था. वह जानती थी कि विधाता ने उसकी शोख आंखों और मोती-सी दन्त-पंक्ति में लावण्य का ऐसा अपरिमित कोष भर दिया था, जिसे अपने गौरवर्ण की महिमा से भी उसकी चचेरी बहनें तुच्छ सिद्ध नहीं कर सकती थीं. एक से एक महंगे विदेशी शैम्पू से अपने सुनहरे बालों को धोकर, उसकी गोरी-गोरी मेम-सी बहनें कान्वेंट स्कूलों में पढ़ने जातीं और वह केवल रीठे से ही समृद्ध अपनी एड़ी तक लहराती चोटी पीठ पर डालकर ‘जगततारिणी’ स्कूल में पढ़ती. उसकी अध्यापिकाओं का कहना था कि ऐसी तेज़ लड़की उनके स्कूल में आज तक नहीं आई.
एक बार अपने स्कूल की खेल की टीम के साथ वह रूस भी घूम आई, तो चाची-ताइयों के दिल पर छुरियां चल गईं. बड़े मामाजी ने ही ज़िद करके उसे भेज भी दिया, नहीं तो बेचारी जा भी ना पाती. विदेश से लौटने के बाद चन्नी की बोटी-बोटी फड़कने लगी. शोख पहले से ही थी, अब वह ढीठ भी हो गई. जब छोटी थी, तभी पास-पड़ोस से शिकायतें आने लगी थीं चन्नी ने किसी की चूड़ियां मसक दीं, किसी की गुड़िया कुएं में डाल दी, कहीं से कच्ची इमलियां चुरा लाई, तो कहीं से कच्चे अमरूद. जवान हुई तो, क़यामत ही आ गई. उसकी किताबों से एक-आध प्रेम-पत्र का गिरकर बड़ी मामा जी के हाथ में पड़ जाना तो नित्य की घटना थी, तिस पर मुहल्ले भर के छोकरों की भ्रमरावलि उसके इर्द-गिर्द मंडराने लगी. होने को तो बड़े मामाजी की लड़की सरला उससे कहीं सुन्दर थी, किन्तु बड़ी-बड़ी आंखों की चंचल पुतलियां घुमाना, खिलखिलाकर हंसी के मंजीरे बजाना यह सब उसे कहां आता! अपनी सामान्य-सी साड़ी के आंचल-सिगनल से, चन्नी मुहल्ले-भर के युवकों के हृदय इंजनों को रोक सकती थी, तभी तो बड़ी मामीजी अम्मा से कहतीं,‘बीवी, छोरी बंगाल का जादू जाने है. किसी तरह छोरी के हाथ पीले करूं, तो छुट्टी मिले. सुन तो रही हो शास्त्रीजी की बिटिया भी मुसलमान साइकिलवाले के साथ भाग गई.’
शास्त्रीजी की बिटिया साइकिलवाले के साथ न भागी होती तो शायद चन्नी के विवाह की इतनी जल्दी न मचती. उसी दिन से मेरे दोनों मामा उसके लिए दाएं-बाएं वर ढूंढ़ने लगे. किन्तु इसी बीच एक सुयोग्य पात्र ने उसे स्वयं ढूंढ़ लिया. चन्नी अपने मामा के यहां अलीगढ़ गई हुई थी, वहीं की नुमाइश में उसे चटखारे ले-लेकर चाट खाते योगेन जीजा ने देख लिया.
‘अब चाट खानेवाले भी दो तरह के होते हैं.’ चन्नी ने मुझसे हंस-हंसकर कहा था. आज भी उसकी हिरनी की-सी आंखों की काली भंवर पुतलियां मेरे स्मृति-पटल पर खिंच जाती हैं. ‘एक तो प्लेट में चाट धरकर चम्मच से ऐसे चुगते हैं, जैसे मोती हों, न मिर्च की सिसकारियां, न हा-हा, हू-हू, न अंगुलियां चाटना, न आंखों में पानी; और एक चाट खानेवाले होते हैं हम सरीखे, आंखें लाल, होंठ लाल, यानी दृगन बीच डोरे लाल, डोरे लाल झलकें बस, तेरे जीजा ने हमें देखा और पसन्द कर लिया!’ काश, जीजा उस पर रीझे ही रहते!
ननिहाल की वह विष-वल्लरी मुझे प्राणों से प्रिय थी. उसकी कुख्याति सुनकर भी मुझे कभी घृणा नहीं हुई. एक दिन बड़ी मामी ने मुझे निराले में खींचकर समझाया भी था,‘देख बिट्टो, उस छोकरी के पीछे-पीछे मत फिरै. वह जहर की बुझी है, जहर की! अपनी नानी पै गई है, रंडी!’ चन्नी के नाना ने वेश्या से विवाह किया था. हो सकता है, चन्नी में अपनी रूपजीवा नानी के ही संस्कार आए हों. मंझले मामा ने घर-भर की अवहेलना करके ही मामी से विवाह किया था, इसी से वर्जित कुल की स्मृतिचिन्ह चन्नी सबकी आंखों की किरकिरी थी. मैं छुट्टियों में ननिहाल जाती, तो वह मुझसे लिपट जाती. हाथ नचा-नचा, पुतलियां घुमा, ऐसे-ऐसे रंगीन किस्से लेकर बैठ जाती कि जी में आता सुनते ही रहो. प्रेम-पत्रों का उसके पास एक बड़ा-सा पुलिन्दा रहता, जिसे वह पिछवाड़े के बरामदे में मुझे ले जाकर पढ़-पढ़कर सुनाती.
‘सरला से मत कहना, बड़ी चुगलखोर है, चट ताई से कह देगी.’ वह कहती और संकरे पिछवाड़े में, पास के पागलखाने से आती दुर्गन्ध के दुःसह भार को वहन कर भी मैं उसके प्रेम-पत्रों के रस-भंडार का रसास्वादन करती. एक उम्र ऐसी होती है, जब ऐसे प्रेमपत्रों का लड़कियों के मनोरंजन के लिए विशेष महत्त्व होता है. हमारी शायद वही उम्र थी. मैं सोलह की थी और चन्नी सत्रह की. उसी साल चन्नी का विवाह भी हो गया. मुझे आज भी उसके विवाह की एक-एक घटना कंठस्थ है. भारी जामदानी लहंगे में चन्नी की मुट्ठी-भर की कमर दुहरी हुई जा रही थी, उसकी नाक छिदी नहीं थी, इसी से उसकी ससुराल से स्प्रिंगवाली बड़ी-सी नथ आयी थी जिसका स्प्रिंग या तो ढीला हो जाता था या घूंघट की उमस से घुटकर चन्नी स्वयं ढीला कर सबके सामने घूंघट पलटकर कह उठती थी,‘देखो ताई, यह नथ हमसे नहीं संभलती.’
आंखें दिखाती, दांत पीसती बड़ी मामी दुगुना घूंघट खींच देती और उसकी फुसफुसाहट तीखी होकर शायद उसी दिन योगेन जीजा के कानों में पड़ गई,‘अरी, आज के दिन तो हमारी लाज-शरम रख ले!’
योगेन जीजा शायद जान गए थे कि बिगड़ी घोड़ी को लगाम और चाबुक की शान में नहीं साधा तो, वह उन्हें भी अनाड़ी सवार की तरह मिट्टी में लिटा देगी. सिर से पैर तक गहनों से लदी चन्नी विदा हुई, तो मेरी दोनों मामियों ने निश्चिन्त सांस लेकर कहा था,‘चलो भई, हमने तो अब गंगा नहा ली.’ फिर कई साल तक मुझे चन्नी की ख़बर ही नहीं मिली. मेरे विवाह पर भी योगेन जीजा ने उसे नहीं भेजा. सरला तो कहती थी कि उसके प्रेमपत्रों के पुलिन्दे के बारे में किसी ने योगेन जीजा को बतला दिया. क्या पता, बतानेवाली स्वयं सरला ही हो?
फिर सरला के ब्याह में बड़े मामा उसे स्वयं जाकर लिवा लाए. मुझे लगता है, उस अभागिनी को बड़े मामा बहुत चाहते थे, इसी से मामी के बहुत बुरा-भला कहने पर भी वे उसे लिवाने चले ही गए और कैसा आश्चर्य कि जीजा ने चटपट भेज भी दिया. तीन अदद मरियल-सी बच्चियों को लेकर वह तांगे से उतरी, तो मैं अवसन्न रह गई. यह वही चन्नी थी, जो छूने से भी मैली होती थी. न आंखों में वह शोखी थी, न चेहरे पर रौनक. मुझे देखते ही सिर झुका लिया, जैसे अपनी गन्दी बदशक्ल लड़कियों के लिए माफी मांग रही हो. तीनों बच्चियों ने मां का रंग और बाप का नक्शा पाया था. तीनों ही के चेहरे पर योगेन जीजा की सुग्गे की नाक का मनहूस साया था. उनके जिन अंगों को ढंकने के लिए उनके धारीदार कच्छों की सृष्टि हुई थी, उन्हें खुला छोड़कर, वे उनके घुटनों तक बड़े ही फूहड़ ढंग से लटक आए थे. नाक बह रही थी, जिन्हें पोंछने की चन्नी को कोई चिन्ता नहीं थी. विवाह के पश्चात सुघड़ से सुघड़ नारी भी कितनी बदल जाती है! यह वही चन्नी थी, जिसके प्रेमपत्रों के प्रतिभाशाली लेखक, उसके मनोहर व्यक्तित्व की बलैयां लेते, उसका आदेश पाते ही किसी भी मेल ट्रेन के धड़धड़ाते पहियों के नीचे लेट जाने को तत्पर रहते थे.
‘हाय राम! चन्नी, तुझे यह क्या हो गया? बारात आने को है, कम से कम आज तो साड़ी बदल ले.’ मैंने उसे खींच-खांचकर अपनी एक साड़ी पहना दी, बालों को संवारकर जूड़ा बनाया, बिन्दी लगाने लगी तो वह दोनों हाथों से मुंह ढंककर सिसक पड़ी.
‘अरे भई, हमारी कमीज कहां डाल दी, हद हो तुम!’ योगेन जीजा की चिड़चिड़ी आवाज़ सुनते ही वह भीगी बिल्ली-सी दुबक गई. मैं समझ गई कि हृदयहीन पति के कठोर शासन ने ही उसकी मुख-श्री छीन ली है. बारात विदा होते ही जीजाजी उसे लेकर चले गए. उन्हें किसी मीटिंग में दिल्ली जाना था.
‘योगेन जीजा, चन्नी को यहीं छोड़ जाइए ना, हमें भी तो दिल्ली जाना है, हमारे साथ चली जाएगी.’ मैंने कहा और चन्नी का चेहरा फक पड़ गया, जैसे मेरे दुस्साहस से योगेन जीजा सबके सामने उसका अपमान न कर बैठें.
‘नहीं, यहां कैसे छोड़ दें? होटल का खाना हमसे नहीं खाया जाता.’
वह गई, तो मारे भय के मुझसे ठीक से मिली भी नहीं. एक सहमी-सी हंसी के पीछे उसके दोनों होंठ बरबस रोकी गई रुलाई के भार से कांप रहे थे. मैं मोड़ पर अचानक ओझल हो गए उसके तांगे को देख रही थी कि न जाने कहां से बड़ी मामी आ गईं. उनकी पुत्री को ससुराल से बहुत ही साधारण-सा चढ़ावा आया था. उसी की भड़ास उन्होंने चन्नी के मत्थे निकाली.
‘क्या सुख है चन्नी को? ज़मींदार से जाकर सुना, योगेन तालों में बन्द करके धरै है! लच्छन जो वैसे ठहरे. इससे तो अपनी सरला अच्छे घर गई. ऐसा भी क्या गहना, जिससे गर्दन टूटे! चन्नी तो राह पर आ गई. दामाद करी न मिलता, तो आज ‘शमी मंजिल’ में होती!’
सामने ‘शमी मंजिल’ के गुम्बद दीख रहे थे. सबसे ऊंची मंजिल पर बने आधे चांद पर नये मालिक ने काला रंग पोत दिया था. जिस छत की मुंडेर पर बिगोनिया के गमले महकते थे, वहां पर कई जोड़ी कच्छे और मैली- सी पाण्डुजीर्ण सलवारें सूख रही थीं. चन्नी की शादी के साल ही ‘शमी मंजिल’ ने उजड़कर पहले से ही उसकी मौत का मातम मना लिया था. आबिद चचा पाकिस्तान भाग गए और अब उनकी ‘शमी मंजिल’ किसी सरदार को क्लेम में मिल गई थी.
सरदारजी के सत्रह बच्चे थे, जो उनकी छत की हर मुंडेर पर लंगूरों की तरह चढ़े रहते थे. उनकी छत से मिली एक संकरी-सी मुंडेर मामाजी के दीवानखाने की छत पर उतरती थी और कभी वही मुंडेर, डूबते सूरज की छाया में ‘शमी मंजिल’ और ‘तुलसी कुटीर’ की प्रेमपुण्य सलिला का संगम थी. इरफान अहमद चन्नी के पीछे दीवाना था. उसकी सारी चिट्ठियां हिना और खस से तर आती थीं. उन्हें सूंघ-सूंघकर किताबों से ढूंढ़ निकालना सरला के लिए बड़ा आसान होता. इसी से इरफान उन्हें मुंडेर की एक खपरैल के नीचे छिपा जाता. बड़े मामाजी से आबिद चचा की पुरानी मित्रता थी, इसी से मुस्लिम परिवार से मिलने-जुलने पर हम पर भी कोई रोटटोक नहीं थी. इरफान भाई अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से घर आते, तो बड़ी मामी चैकन्नी होकर चन्नी के पैरों में बेड़ियां डाल देतीं. पर चन्नी उन कैदियों में से थी, जो बेड़ियों को काटने का साधन जेलखाने की ऊंची दीवारों में भी जुटा ही लेते हैं. बात शायद बहुत बढ़ जाती, पर बीच ही में हिन्दुस्तान और पाकिस्तान ने एक-दूसरे की ओर बड़ी बेरुखी से पीठ फेर ली.
जब मेरे पति की बदली दिल्ली हो गई तो मैं ख़ुशी से उछल पड़ी. चन्नी वहीं थी. अब मैं उसकी उदासी को दूर कर लूंगी और वह फिर पहाड़ी मैना-सी चहकने लगेगी. किन्तु चहकती कैसे? मैना के गले में सुना, एक कांटा उग आता है और वह चहकना बन्द कर एक दिन गर्दन डाल देती है.
चन्नी के गले में भी ऐसा ही कांटा उग आया था. मेरे और उसके मकान के बीच कुल तीन मकानों का फासला था और काम निबटाते ही मैं उसके पास पहुंच जाती. पर धीरे-धीरे मुझे लगने लगा कि जो चन्नी मुझे देखकर कली-सी खिल उठती थी, अब मुरझाकर बिखर जाती है.
योगेन जीजा के ऑफ़िस से लौटने से पहले ही मुझे किसी प्रकार विदा देने को वह छटपटाने लगती. मेरे यहां आती भी तो सहमी-सहमी निगाहों से इधर-उधर देखती, बार-बार चौंक पड़ती और कभी अपनी बड़ी-बड़ी आंखें मेरे चेहरे पर गड़ाए मुझे देखती रहती. मैं पूछती भी तो किससे? घर के भेदी प्रायः नौकर या बच्चे ही होते हैं. नौकर जीजाजी रखते ही नहीं थे, और चन्नी की तीनों बच्चियां वज्रमूर्खा थीं. इसी बीच मैं बाबूजी की बीमारी का तार पाकर मायके चली गई. वहीं मुझे एक दिन अपने पति की चिट्ठी मिली कि चन्नी किसी के साथ भाग गई.
मैं स्तब्ध थी, मन-ही-मन. मैं जानती थी कि चन्नी कभी भाग नहीं सकती. भागने की भी तो आखिर एक उम्र होती है. चौंतीस वर्ष की पढ़ी-लिखी तीन बच्चियों की मां चन्नी भला किसके साथ भाग सकती थी!
‘किसके साथ भागी, यह पता नहीं.’ मेरे पति ने लिखा था,‘लेकिन योगेन का कहना है कि वह किसी प्रेमी के साथ ही भागी है.’
चन्नी क्या ऐसी नासमझ थी? योगेन जीजा के निर्मम व्यवहार और शक्की स्वभाव से ही ऊबकर वह किसी ताल-बावड़ी में कूद गई होगी. बेचारी ने पति का विश्वास पाने के लिए कितनी चेष्टा की थी. मैं नित्य बड़ी आशा से अख़बार देखती. शायद किसी युवती की लाश मिलने का समाचार हो.

इसी बीच मेरे पति का एक पत्र आया कि चन्नी के किसी सरदार के यहां छिपने का समाचार मिला था. वहां पुलिस की सहायता से योगेन जीजा ने छापा मारा, तो सरदार फरार हो चुका था और दरवाज़ा तोड़ने तक चन्नी ने अपने शरीर पर मिट्टी का तेल छिड़ककर लाग लगा ली.
पड़ोसियों ने बतलाया कि वह सरदार कुछ ही दिन पहले दस साल की सज़ा भुगतकर लौटा था और एक दिन वह सुन्दर सांवली बंगालिन-सी लड़की उसके साथ आकर रहने लगी थी. दिन-भर वह कमरे में बन्द रहती और रात को सरदार के साथ घूमने निकलती. दरवाज़ा तोड़ने तक वह ख़त्म हो चुकी थी. बाद में योगेन जीजा और मेरे पति ही उसकी मिट्टी ठिकाने लगा आए थे.
आज ट्रेन में किसी अपरिचिता की लम्बी अंगुलियां देखकर अभागिनी चन्नी की स्मृति फिर ताजी हो उठी थी. एक बार बर्थ से झांककर देखने की चेष्टा की तो देखा, वह अपरिचिता, मुस्लिम महिला करवट बदले सो रही थी. नवाब साहब के खर्राटों और ट्रेन के झकोरों के बीच मुझे भी नींद ने दबोच लिया. काफ़ी देर बाद किसी स्टेशन पर गाड़ी रुकी. फिर चली और फिर न जाने कितने स्टेशनों पर रुकती-चलती बढ़ती चली गई. मैं गहरी नींद में पड़ी ही रही. जब उठी तो हलका गुलाबी उजाला होने लगा था.
नीचे झांककर देखा तो बर्थ खाली थी. लम्बी अंगुलियों वाली मुस्लिम महिला न जाने किस स्टेशन पर उतर चुकी थी. हाथ में गडुवा लिए नवाब साहब बाथरूम में घुस गए, तो मैं भी बिस्तर से उतरकर नीचे की बर्थ पर आ गई. एक छोटा-सा रूमाल, शायद वह महिला भूल गई थीं, बड़ा प्यारा-सा लेस लगा केम्ब्रिक का रूमाल था, जिसे देखकर फ्लौबेयर की किसी फ्रेंच नायिका का स्मरण हो आया और न जाने क्या सोचकर मैंने उसे उठा लिया. स्पर्श और भी प्यारा लगा. नाक से लगाया तो मुझे सांप सूंघ गया. कैसी परिचित मीठी खुशबू थी! वही जानी-पहचानी मीठी ख़ुशबू, जो इरफान अहमद के हिना के तर खतों से आया करती थी. लखनऊ आने तक वह रूमाल मेरी मुट्ठी में ही धरा रहा. वह रूमाल नहीं, जैसे शादी के पसीने से तर चन्नी का हाथ मेरे हाथ में बन्द था.
घर पहुंचते ही मैंने अपने पति से पूछा,‘क्यों, उस दिन आप भी जीजाजी के साथ मरघट तक गए थे न?’ मेरे पति मुझे ऐसे देखने लगे जैसे मेरा दिमाग़ फिर गया हो. चन्नी को मरे दस साल हो चुके थे.
‘हद करती हो तुम भी! आज अचानक क्या याद आई?’
‘नहीं, ऐसे ही पूछा.’ मैंने कुछ खिसियाकर कहा,‘आप कहते थे न, उसने अपने को जला डाला था, फिर मरघट तक क्या ले गए होंगे, यही सोच रही थी.’
‘इस बुरी तरह जली थी कि पहचान में ही नहीं आती थी. वे तो दोनों हाथ बच गए थे, बस.’
‘हाय, राम! क्या दोनों हाथ देखकर ही आप लोगों ने उसे पहचान लिया था?’ मेरा कलेजा बुरी तरह धड़के जा रहा था.
‘नहीं, अंगुलियां देखकर. योगेन कहता था कि वैसी लम्बी-लम्बी अंगुलियां और किसी की नहीं हो सकतीं, फिर बाएं हाथ पर गुदना भी तो था.’
मुझे याद आया. उसके बाएं हाथ पर गुदा फूलों का एक नीला गमला! किन्तु क्या उस गमले पर उसका कॉपीराइट था? ‘क्या वैसा ही गमला किसी और के हाथों पर नहीं गुद सकता था?’
‘योगेन जीजा ने कहा था कि वैसी अंगुलियां और किसी की नहीं हो सकतीं.’
जब ट्रेन में मुझे लम्बी-लम्बी अंगुलियां दिखीं…यही तो मैं भी ज़ोर-ज़ोर से कहना चाह रही हूं, कि वैसी अंगुलियां और किसी की नहीं हो सकतीं, पर कैसे कहूं? मेरी बात मानेगा ही कौन? मेरे पास सबूत है परिचित ख़ुशबू से तर छोटे से केम्ब्रिक के रूमाल का. संसार ऐसी भावुक कमज़ोर दलील पर विश्वास नहीं करता. फिर उस ख़ुशबू ही को भला कब तक सहेज पाऊंगी? हिना और ख़स की ख़ुशबू अब चन्नी के रहस्यमय अस्तित्व की भांति धीरे-धीरे उड़ती जा रही है. जिस दिन वह बिल्कुल ही उड़ जाएगी, उस दिन शायद मैं भी मान लूंगी कि चन्नी सचमुच ही मर गई.

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