• होम पेज
  • टीम अफ़लातून
No Result
View All Result
डोनेट
ओए अफ़लातून
  • सुर्ख़ियों में
    • ख़बरें
    • चेहरे
    • नज़रिया
  • हेल्थ
    • डायट
    • फ़िटनेस
    • मेंटल हेल्थ
  • रिलेशनशिप
    • पैरेंटिंग
    • प्यार-परिवार
    • एक्सपर्ट सलाह
  • बुक क्लब
    • क्लासिक कहानियां
    • नई कहानियां
    • कविताएं
    • समीक्षा
  • लाइफ़स्टाइल
    • करियर-मनी
    • ट्रैवल
    • होम डेकोर-अप्लाएंसेस
    • धर्म
  • ज़ायका
    • रेसिपी
    • फ़ूड प्लस
    • न्यूज़-रिव्यूज़
  • ओए हीरो
    • मुलाक़ात
    • शख़्सियत
    • मेरी डायरी
  • ब्यूटी
    • हेयर-स्किन
    • मेकअप मंत्र
    • ब्यूटी न्यूज़
  • फ़ैशन
    • न्यू ट्रेंड्स
    • स्टाइल टिप्स
    • फ़ैशन न्यूज़
  • ओए एंटरटेन्मेंट
    • न्यूज़
    • रिव्यूज़
    • इंटरव्यूज़
    • फ़ीचर
  • वीडियो-पॉडकास्ट
  • लेखक
ओए अफ़लातून
Home बुक क्लब क्लासिक कहानियां

दंड: कहानी कर्म और कर्मफल की (लेखिका: शिवानी)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
March 2, 2022
in क्लासिक कहानियां, ज़रूर पढ़ें, बुक क्लब
A A
दंड: कहानी कर्म और कर्मफल की (लेखिका: शिवानी)
Share on FacebookShare on Twitter

शहर का एक जाना-माना डॉक्टर अचानक एक दिन किसी को कुछ बताए कहीं चला जाता है. क्यों जाता है वह डॉक्टर और कहां जाता है वह? पढ़ें रोमांच और मानवीय भावनाओं से ओतप्रोत शिवानी की कहानी.

सिंह नर्सिंग होम में बड़ा-सा ताला लटक रहा था. लोकप्रिय डॉ. सिंह के अकस्मात् इस तरह अलोप हो जाने पर, उनके कई मरीजों की अवस्था और बिगड़ गई थी. अब क्या होगा? अपने हाथों का चमत्कार दिखा, उन्हें मृत्युंजयी औषधि पिलानेवाला मसीहा ऐसे अदृश्य क्यों हो गया? यह ठीक था कि कई दिनों से डॉ. सिंह ने अपने क्लीनिक में किसी भी नए मरीज को नहीं लिया था, फिर भी निराश मरीजों के असहाय आत्मीयों की एक लम्बी कतार, उनके सेक्रेटरी के चरणों पर सिर रखकर गिड़गिड़ाती रही थी. जैसे भी हो, एक बार डॉ. सिंह उनके मरीजों को देख-भर लें, पर सेक्रेटरी बेचारा क्या करता? डॉ. साहब अपनी सजी कोठी के सबसे ऊपर के कमरे में स्कॉच लेकर बन्द थे. किसकी मजाल थी कि द्वार खटखटा दे. बीच-बीच में उनका गूंगा नौकर बदलू, काली तेज़ कॉफी की ट्रे वहीं पहुंचाता रहता. ‘साहब क्या कर रहे हैं?…कैसा मूड है?…बैठे हैं या लेटे हैं ?’…किसी भी प्रश्न का उत्तर गूंगा नहीं दे पाता तो डॉक्टर सिंह का सेक्रेटरी सुशील रॉय झुंझला उठता. कैसी भी अटूट सम्पत्ति क्यों न हो, ऐसे भला कितने दिनों तक काम चलेगा? बंधे मरीज क्या उनके लिए बैठ रहेंगे? यही सब कहना चाहता था उनका युवा सेक्रेटरी डॉक्टर सुशील रॉय पर कठोर प्रभु का आदेश था कि सिवा गूंगे बदलू के उनके कमरे में कोई न आने पाए. न जाने कितने इष्ट-मित्र आ-आकर लौट गए. जब रंगे बालों और लम्बे नाखुनोंवाली विधानसभा की सदस्या रानी शिवसुन्दरी भी बड़ी देर तक व्यर्थ द्वार भड़भड़ाकर भुनभुनाती लौट गई, और शान्त स्वर में डॉक्टर सिंह को कहते सुशील ने सुन लिया,‘शिवी मुझे कुछ दिन क्षमा कर दो, मैं शरीर और मन दोनों से अस्वस्थ हूं’ तो वह समझ गया कि लौहद्वार अब किसी मिलनेवाले के लिए नहीं खुलेगा. पर दूसरे दिन आधी रात में कुछ पलों तक द्वार खुला था. नर्सिंग होम के जिस वी.आई.पी. मरीज को दूसरे दिन छुट्टी मिलनेवाली थी, उसे अचानक दिल का दूसरा दौरा पड़ गया. डरते-डरते डॉक्टर रॉय ने द्वार खटखटाया. न खटखटाता और इसी बीच मरीज को कुछ जाता तो शायद सिंह नर्सिंग होम की नींव ही हिल जाती. मरीज किसी जनसंघी मन्त्री का साला था, एकदम टाइम बम, कब घातक रूप से फट पड़े, ठीक नहीं! देखभाल करने को साथ में निरन्तर बनी रहती उनकी समाज-सेविका साली. उसी ने डॉक्टर सुशील को एक प्रकार से कन्धा पकड़कर सीढ़ियों पर धकेल दिया था.
‘‘जैसे भी हो, डॉक्टर सिंह को नीचे खींच ले आओ. नहीं आएं तो उनके हक में ठीक नहीं होगा. मरीज को जब यहां लाए हैं, तब उनके जीवन की ज़िम्मेदारी भी ठीक नहीं होगा. मरीज को जब यहां लाए हैं, तब उनके जीवन की ज़िम्मेदारी भी वहन करनी होगी…’’
डॉक्टर सुशील ने शायद घबराकर द्वार कुछ ज़ोर से ही भड़भड़ा दिए थे,‘‘सर, मन्त्रीजी के साले की हालत बहुत ख़राब है, एक बार चलकर देख लिया जाए…’’
‘‘भाड़ में जाए तुम्हारा मन्त्री का साला.’’ सौ दानव कंठ एकसाथ गरज उठे थे.
पर फिर कुछ सोचकर उन्होंने स्वयं ही द्वार खोल दिया.
प्रभु का स्याह चेहरा देखकर सुशील सहम गया था. लगता था, कई दिनों से कमरे में स्वेच्छा से बन्दी बने डॉक्टर सिंह ने शरीर पर मनमाना अत्याचार किया है. अव्यक्त व्यथा से चेहरा झुलसकर एकदम काला पड़ गया था. जिसे अपने दस वर्ष के साहचर्यकाल में एक बार भी बिना दाढ़ी बनाए नहीं देखा था, जिसका तीखा-सुडौल चिबुक, भरे कपोल सदा नवजात शिशु के नरम गालों-से ही दिखते, उन्हीं पर खुरदरी सफेद झाड़ी-सी दाढ़ी बनाए नहीं देखा था, जिसका तीखा-सुडौल चिबुक, भरे कपोल सदा नवजात शिशु के नरम गालों-से ही दिखते, उन्हीं पर खुरदरी सफेद, झाड़ी-सी दाढ़ी उग आई थी. जो व्यक्ति दिन में नित्य दो बार भड़कीले सूट बदलकर ही मरीजों की नाड़ी पकड़ता था, और जिसकी रोबीली पकड़ में आते ही नाड़ी स्वयं आश्वस्त हो ऐक्यूजर बनी, किसी अपराधी-से पक्के रोग दस्यु को पकड़ा, उसका पूरा इतिहास उगल देती थी, वही सुदर्शन व्यक्ति आज स्वयं कठधरे में खड़ा अभियुक्त-सा लग रहा था. केवल बनियान और पायजामा पहने ही वह मरीज देखने उतरने लगा तो सुशील के जी में आया उसे टोक दे,‘सर, ड्रेसिंग गाउन डाल लीजिए, वहां उनकी साली भी है.’ वह जानता था कि स्वाभाविक मानसिक अवस्था होने पर ऐसी बेढंगी पोशाक में डॉक्टर सिंह शायद घर की जमादारिनी के सम्मुख भी नहीं खड़े होते.
मरीज की अवस्था सचमुच ही शोचनीय थी. पर डॉक्टर सिंह उसे देखते ही एक बार फिर पुराने डॉक्टर सिंह हो गए. मरीज की शोचनीय अवस्था ही तो उन्हें पुलकित कर उठती थी. शत्रुपक्ष के साथ ही ली गई टक्कर तब ही आनन्द दे सकती है जब दोनों ओर का पलड़ा समान हो. अपने कठिन शत्रु की दुर्बलता को उन्होंने इस बार भी पकड़ लिया. सिद्ध पहलवान की भांति आत्मविश्वास का गंडा बांधकर वह अखाड़े में कूदे, और पल-भर में शत्रु उनके चतुर दांव-पेंच से उलटा पड़ा था.
‘‘ऑक्सीजन प्लांट लाओ…फलां इंजैक्शन, फलां दवा…’’
‘‘आप यहां क्या कर रही हैं? जाइए बाहर.’’ उन्होंने हो-हल्ला मचाती मरीज की तेजस्वी साली को ऐसे डपट दिया, जैसे वह स्कूल की बच्ची हो. मरीज के कमरे में आत्मीय स्वजनों की भीड़ देखकर वह तुनकमिजाज डॉक्टर ऐसे ही भड़क जाता था. रात-भर वह मरीज की छाती पर अपने हाथों से ऐसे मालिश करता रहा, जैसे कोई स्नेही घोसी अपनी भैंस को रगड़-रगड़कर नहला रहा हो. पौ फटी तो मृत्यु-द्वार से प्रत्यावर्ती रोगी चैन की नींद सो रहा था. समाज-सेविका साली विधुर जीजा के धड़क रहे हृदय पर हाथ धर एक बार फिर आश्वस्त हो बैठ गई थी. इस अद्भुत डॉक्टर की कृपा से काल-कुठार इस बाद उसके वैधव्य कल्पतरु के तने का स्पर्श भी नहीं कर पाया था. धन्यवाद देती, इससे पहले ही वह रूखा डॉक्टर धड़धड़ाता अपने कमरे में चला गया था और उसने कुंडी चढ़ा ली थी. विधि की भी कैसी विचित्र विडम्बना थी कि सहस्त्रों मुर्दों में ऐसी जान फूंक देनेवाला यह अनोखा जादूगर आठ दिन पूर्व हाथ बांधे खड़ा देखता ही रह गया था. और बलवती मृत्यु अपनी शत-सहस्त्र पराजयों का एक ही आघात में प्रतिशोध ले, उसे अंगूठा दिखाकर चली गई थी.
फ्रिज में धरे तरबूज के लुभावने रक्तिम अन्तस्तल में छिपी घातक कुटिल मृत्यु मुस्करा रही है, यह तब पिता-पुत्र क्या जानते थे? तरबूज की एक फांक तो पिता ने भी खाई थी, फिर मृत्यु पुत्र को ही क्यों ले गई? पिता और पुत्र भी क्या ऐसे वैसे थे? दोनों साथ-साथ खड़े होते तो लगता कि दो जुड़वां भाई खड़े हैं. डॉक्टर सिंह पचास से कुछ ऊपर ही थे, पर चाहने पर अब भी सेहरा बांध सकते थे. न एक बाल सफेद, न एक झुर्री. दिल्ली के उच्चतर लबके के नारी-समाज की प्रौढ़ सदस्याएं लुक-छिपकर डॉक्टर सुशील से भेद लेने की चेष्टा करतीं,‘कौन-सा हेयर डाई यूज करते हैं डॉक्टर सिंह?’और जब हंसकर सुशील उनसे कहता कि डॉक्टर के व्यक्तित्व में किसी हेयर टॉनिक के विज्ञापन-से चमकते उनके सिर से लेकर स्त्रियों को भी लजानेवाले और गौर चरणयुगल तक सबकुछ विधाता प्रदत्त है, तो वे उसे अविश्वास से घूरकर चली जातीं! दोष उनका भी नहीं था. डॉक्टर सिंह की मोती-सी दन्त-पंक्ति देखकर तो तीन-चार वर्षों तक स्वयं सुशील को ही धोखा हो गया था. यहां बत्तीस वर्ष की आयु में ही सामने के तीन नकली दांत बनवाने में उसके डेढ़ सौ लग गए थे, उस पर भी दिल्ली के प्रसिद्ध डेंटिस्ट ने ऐसा ठगा कि जीभ का स्पर्श पाते ही तीनों दांत कागजी शटल कार्क से उछलने लगते.
‘आप ही का-सा डेंचर बनवाना चाहता था सर, डेंटिस्ट कौन था आपका?’ उसने लड़कियों की भांति लजाकर पूछा था. ‘डेंचर?’ डॉक्टर सिंह ठठाकर हंस पड़े थे,‘किसने कहा, मेरा डेंचर है? हिलाकर देखो.’ वह फिर ज़ोर-ज़ोर से अपने दांत हिलाने लगे थे,‘किसी डेंटिस्ट के बाप की हथौड़ी भी इन्हें नहीं हिला सकती-जानते हो इस डेंचर का रहस्य?’ टेढ़े होंठों की हंसी हंसने पर वह कठोर व्यक्ति कितना मधुर लगने लगता था! चेहरे में अब भी न जाने कैसा नारी-सुलभ आकर्षण था!
‘मेरे जीवन के पचास वर्षों में आरम्भ के बीस वर्ष छोड़ शेष तीस वर्षों में चीनी के एक कण ने भी मेरे दांतों का स्पर्श नहीं किया है.’ ठीक ही तो कह रहे थे वह. कृतज्ञ मरीजों के घर से आए न जाने कितने मिष्ठान्न-भरे टोकरे इधर-उधर पड़े रहते. कभी रानी शिवसुन्दरी अपनी कार में भरकर ले जाती, कभी नौकर-चाकर नाक-मुंह से ठूंसते.
‘अरे बेटा, अन्धाधुन्ध के राज में गदहा पंजीरी खाए.’ सुशील की मां कहतीं, पत्नी होती तो ऐसा होता?’
मृत पत्नी का बड़ा-सा तैलचित्र उनके विजिटिंग रूम में टंगा रहता. कुछ दिनों पूर्व उनका एक प्रतिभाशाली मरीज अपनी समस्त कृतज्ञता डॉक्टर-पत्नी की एक विराट् ताम्र मूर्ति में ढालकर उन्हें उपहार दे गया था. कैसी तेजस्वी महिला रही होंगी वह! ताम्रतेज से घुल-मिल गया अद्वितीय गढ़न के चेहरे का गम्भीर तेज आंखों को बरबस बांध लेता था. बालों की एक घनी लट को चतुर मूर्तिकार ने सुडौल बक्षस्थल पर शायद जान-बूझकर ही उतार दिया था. उस मूर्ति का वही अंग उसके लिए मृत्यु का सन्देश लेकर आया था. पच्चीस वर्ष की अल्पावस्था में ही डॉक्टर-पत्नी की अकाल मृत्यु का कारण बना था असाध्य ब्रेस्ट कैंसर.
फिर उन्होंने पिता के लाख कहने पर भी विवाह नहीं किया.
अपनी अधूरी डॉक्टर पूरी कर वह कुछ दिनों विदेश में ही बसे रहे, फिर स्वदेश लौट आए. ताल्लुकेदारी बेचकर दिल्ली में ही उन्होंने अपना क्लिनिक खोल लिया था. पुत्र विदेश में ही पिता के पेशे की शिक्षा ग्रहण कर रहा था. पिछले ही वर्ष वह आश्चर्यजनक रूप से छोटी अवस्था में एस.आर.सी.एस. कर लौटा, और अनायास ही पिता की दक्षिण भुजा बन गया. पुत्र-प्रेम के लिए जिस अर्द्धागिनी के विरह की कफनी उन्होंने स्वेच्छा से ही ओढ़ ली थी, उस त्याग का पुरस्कार दे दिया स्वयं पुत्र ने. पिता लाखों में एक सर्जन था तो पुत्र लाखों में एक चिकित्सक. पिता वामहस्त से भी कठिन ट्यूमर चीरकर ऐसे रख देता, जैसे सुगृहिमी सधे हाथों से अचार का नींब चीरती है, और पुत्र उसी अनुभव के अन्दाज से औषधि के मसाले भर देता. फिर वर्षों तक शरीर के पारदर्शी कांच के-से बोयाम में भरे उस स्वरचित प्रिजर्व को पिता-पुत्र बड़े गर्व से देखते. अब वर्षों तक उसके सड़ने-गलने का प्रश्न ही नहीं उठ सकता था.
पर कभी-कभी नाम की भी कैसी व्यर्थ मरीचिका बनकर रह जाती है! डॉक्टर सिंह के श्वसुर थे, रसिक कवि, अवध के सुप्रसिद्ध ताल्लुकेदार. उन्होंने नाती का नाम धरा था मृत्युंजय. पर मृत्यु को नहीं जीत सका बेचारा! मृत्यु ने ही उसे जीत लिया. उसके क्लिनिक में बैठते ही मरीजों की संख्या में समृद्ध गृहों की सुन्दर किशोरियां ही स्वेच्छा से नकली रोगों का वरण कर डॉक्टर सिंह की पैनी छुरी पर गिरने बहुत बड़ी संख्या में आने लगीं तो डॉक्टर सिंह मुस्कराए थे. चंचल पतंग सुदर्शन पुत्र के पौरुष दीप पर ही जलकर झुलसने जुट रहे हैं, वह समझ गए. कुछ बीमारी नहीं जुटती तो अपने टौंसिल ही सुजा लेतीं. पुत्र के आते ही किशोरी रोगिणियों की संख्या ऐसी बढ़ी कि उन्हें अपने क्लिनिक में नया विंग बढ़ाना पड़ा. रिश्तों का तो पूछना ही क्या था! पर पुत्र पिता से भी अधिक चतुर था.
विदेश की सुरा-सुन्दरियों ने क्या कभी उनके कार्तिकेय-से पुत्र को निरामिषभोजी रहने दिया होगा? अपने अनुभव की डायरी खोल वह अपने विदेश प्रवास के रंगीन की स्मृति में घंटों तक डूब जाते. भारत के सुस्वादु छाया-ग्रास को विदेशी सिंहकाएं किस स्वाभाविकता से ग्रस लेती हैं, वे ख़ूब जानते थे. इंडियन करी की ही भांति इंडियन पुरुष को देखकर भी उनकी लार अनायास ही बड़े गंवारू ढंग से टपकने लगती है, इसका उन्हें स्वयं अनुभव था. पुत्र के चेहरे को देखकर वे सन्तुष्ट हो गए थे. वह चेहरा अनुभवहीन युवक का नहीं था. ऐसा न होता तो अब तक वह न खाए-पिए भिक्षुक की भांति उनके क्लिनिक की विमान-परिचारिकाओं-सी सुन्दरी नर्सों के इंगित मात्र से परसे जाने को तत्पर थालों पर कब का टूट पड़ा होता! स्वयं विधुर पिता के मिलनेवालों में आकर्षक मिलनेवालियां ही अधिक संख्या में रहती हैं, यह संसारी पुत्र भी समझता था. मां की आदमकद ताम्रमूर्ति की ओर कभी डॉक्टर सिंह आंख उठाकर भी नहीं देखते या शायद देख नहीं सकते, यह वह ख़ूब समझता था, फिर नर्सिंग होम का नाम धरा था,‘सुधा नर्सिंग होम. कभी-कभी दिवंगता मां के चित्र को एकान्त में देखता तो युवा मृत्युंजय के होंठ व्यंग्य से टेढ़े हो जाते. पिता का यह कैसा खोखला प्रदर्शन था. उसी मूर्ति के पास ब्रिज-टेबल पर क्या वह उस विधानसभा की धूर्त सदस्ता के साथ पिता की ही-ही-ठी-ठी नहीं सुन चुका है?
‘जिस पति को अपनी पत्नी से सच्चा प्रेम होगा, वह कम-से-कम अपनी कोठी, किसी कॉलेज या उद्यान-पार्क का नाम अपनी पत्नी के नाम पर कभी नहीं धरेगा सुशील!’ उसने एक दिन अपने मित्र डॉक्टर सुशील से हंसकर कहा था,‘सच पूछो तो मुझे ताजमहल देखने की कभी इच्छा नहीं हुई. यह सब दिखावा भला क्यों? अरे, अपनी बीवी को चाबते हो तो सारी दुनिया कर क्लीनिक से अपनी दिवंगता मां का नाम हटा दिया था. पर पिता की समस्त दुर्बलताओं को जानने पर भी वह स्नेही पुत्र पिता से एक क्षण भी विलग नहीं हो पाता था. शॉयलॉक-सा क्रूर पिता, मरीज के प्राण जाने से पूर्व भी अपनी ऊंची फीस का बीमा करवा लेता है, यह मृत्युंजय से छिपा न था. पिता की आसव से आसक्ति, नारी-लोलुप चटोरी जिह्ना, कुछ भी उससे लुका-छुपा नहीं था, पर फिर भी स्वेच्छा से अनजान बना, वह डॉक्टर सिंह के समस्त दुर्गुणों को काला परदा डालकर ढांप देता. पुत्र के इसी क्षमाशील व्यक्तित्व को देखकर पिता ने सन्तोष की सांस ली थी, पर ठीक तीसरे महीने ही वर्षों से मित्र बना पुत्र अचानक शत्रु बनकर कलेजे में खंजर भोंक देगा, वह क्या जानते थे? पलक झपकते ही सबकुछ हो गया था. दो उल्टियां, दो-तीन और नैन-पुतलियां उलट गई थीं. केवल एक बार अरथी पर अबोध शिशु की भांति पछाड़ खाकर डॉक्टर सिंह ने पूछा था, ‘यह मुझे कैसा दंड दे दिया प्रभो?’ कुछ ही क्षणों को वह लौहपुरुष टूट गया था, फिर भागकर उन्होंने कमरा बन्द कर लिया था.
अरथी कौन ले गया, किसने कन्धा दिया, किसने मुखाग्नि दी? उन्हें कुछ पता नहीं रहा.
कभी-कभी सुशील के जी में आता, उन्हें बांहों में बांधकर कहे,‘सर, क्यों जी छोटा करते हैं, मैं अब आपका बेटा हूं. वचन देता हूं सर, जीवन-भर कुंआरा रहकर आपके पास बना रहूंगा. आपका पुत्र नहीं रहा तो दूसरों के पुत्र तो हैं. उन्हें असाध्य रोगों से मुक्त कर अपने पुत्र का अमर स्मारक बनाइए.’ पर वह मन-ही-मन सब समझता था. सगे पुत्र का धुंधला टिमटिमाता तारा जब टूटकर गिरता है तब फिर नक्षत्रखचित व्योम भी उस क्षतिग्रस्त शून्य की पूर्ति नहीं कर सकता. फिर भी रात-भर जागकर उसने कई बार रटकर वे वाक्य कंठ में साधे थे, जो वह डॉक्टर सिंह से कहेगा, जैसे भी होगा, वह उन्हें आज क्लीनिक में खींच ही लाएगा. वह जाने के लिए तैयार हो ही रहा था कि गूंगा बदलू डॉक्टर सिंह का पुत्र थमा गया:
‘सुशील,
लम्बी छुट्टी पर जा रहा हूं-शायद लौटूं और शायद नहीं. सारा एकाउंट और क्लीनिक तुम्हें सौंप गया हूं, जी में आए तो चलाना और जी में आए तो ताला डाल देना.
तुम्हारा
डॉ. सिंह

बदलू की आंखों से अविरल अश्रुधारा बह रही थी-कहां गए? कब गए? एक प्रकार से उसे हिला-हिलाकर सुशील ने झिंझोड़कर रखा दिया था, पर फलहीन ठूंठ वृक्ष-सा बदलू हिलाए जाने पर भी फल कैसे गिरा सकता था? गूंगी जिह्ना को बड़ी चेष्टा से हिलाकर उसने कहा,‘पफ पफ’. फिर विवशता से शून्य में फैले दोनों हाथओं के दुहत्थड़ माथे पर मार दिए. डॉक्टर सिंह, लूप लाइन की उसी गाड़ी में जाकर बैठ गए थे, जिसमें अट्ठाईस वर्ष पूर्व बैठे थे, यह कौन जान सकता था? वीरभूम का युगपुरुष करवट बदलकर शायद बेसुध पड़ा होगा. जहां से एक बार सांस रोककर भाग आए थे, वहीं अब फिर सांस रोककर भारे जा रहे थे. क्या खींच रहा था उन्हें? गांगामाटी के बीच सर्पिणी-सी बल खाती कोपाय नदी या वर्षा से भीगी सन्थाल झोंपड़ियां की खस के भीगे पंखे-सी सुगन्ध या कच्ची सन्थाल ताड़ी की मादक स्मृति? जीवन के रस के छलकती गागर, जब रीती होकर ढुलक गई, तब इस ग्राम की स्मृति ने उन्हें क्यों पुकारा?
पिता के अंतरंग मित्र थे, वीरभूमि के ज़मींदार सुधीर रंजन रॉय चौधरी. पूजा की छुट्टियों में उन्हीं सन्तानहीन ज़मींदार स्नेही दम्पति द्वय का अथिति बनकर वह गोआलपाड़ा गया था. अपने विदेशी मित्रों के लिए बनाए गए अतिथिगृह को, स्नेही ज़मींदार साहब ने उसे लिए खोल दिया था,‘एकान्त में तुम मन लगाकर परीक्षा की तैयारी कर सकते हो. यहां कोई व्याघात डालने नहीं आएगा.’ उन्होंने कहा था, वह स्वयं नित्य ही व्याघात डालने पहुंच जाएं तो भला कोई क्या कर सकता था ?
मोटी-मोटी चिकित्सा विज्ञान की पुस्तकों में डूबा तरुण डॉक्टर जैसे ही खिड़की खोलकर बैठता, वैसे ही पास ही ज़मींदार साहब की पुत्री की स्मृति में बन रहे कन्या पाठशाला भवन का निर्माण कार्य आरम्भ हो जाता.
छत पीटती सन्थाल युवतियों की आकर्षक पदचाप का मृदु संगीत उसके अध्ययनशील चित्त को नीरस जीवविज्ञान की पुस्तकों से उत्कोच देकर, फुसला रहे किसी लम्पट व्यसनी मित्र की ही भांति खींच ले जाता.
राजा गेलो सरके-सरके
रानी गेलो कांची सरके
ओ राजार छाता पड़े गेलो जले
रानी हांसिलो मने मने.
(राजा पक्की सड़क पर चल रहा है, रानी कच्ची सड़क पर.–राजा का छाता पानी में गिर पड़ा और रानी मन-ही-मन हंसने लगी.)

इन्हें भीपढ़ें

grok-reply-1

मामला गर्म है: ग्रोक और ग्रोक नज़र में औरंगज़ेब

March 24, 2025
इस दर्दनाक दौर की तुमको ख़बर नहीं है: शकील अहमद की ग़ज़ल

इस दर्दनाक दौर की तुमको ख़बर नहीं है: शकील अहमद की ग़ज़ल

February 27, 2025
फटी एड़ियों वाली स्त्री का सौंदर्य: अरुण चन्द्र रॉय की कविता

फटी एड़ियों वाली स्त्री का सौंदर्य: अरुण चन्द्र रॉय की कविता

January 1, 2025
democratic-king

कहावत में छुपी आज के लोकतंत्र की कहानी

October 14, 2024

कभी-कभी सरल सन्थाल भाव-व्यंजना सुनकर युवा डॉक्टर मन-ही-मन हंसने लगता. फिर देखता, पतली रज्जुसोपान के टेपोज पर किसी सर्कस सुन्दरी की सहज भंगिमा से चल रही कतारबद्ध सन्थाल किशोरियां खिलखिलाती गारा-सीमेंट ढो रही हैं. सांचे में ढले अंग, चिकना मोहक मरोड़ में बंधा पंखे के आकार का सन्थाली जूड़ा काले कोबरा की-सी चिकनी काली खमकती नंगी पीठ, घुटनों तक बंधी धोती और चेहरे के काले रंग का विरोधाभास प्रस्तुत करता लाल जवा का फूल. कभी किसी सुडौल वक्षस्थल से अचानक ही उस युवा डॉक्टर की निर्दोष आंखें टकरा जातीं और वह सहमकर आंखें फेर लेता, पर जिन्हें देखकर वह लजाकर आंखें फेरता, उन्हें लजाने का न अवकाश था, न चिन्ता. शायद उसका चित्त पढ़-लिखकर सयाना हो गया था और उन अनपढ़, प्रकृति की निर्जन वनस्थली में जन्मी-पली वन-कन्याओं का चित्त था शिशु-सा निष्कपट, निर्दोष. अबोध शिशु को क्या कभी अपने नग्न अंगों की लज्जा डस सकती है? कभी-कभी ठेकेदार के कर्कश स्वर में, एक ही नाम की बार-बार आवृत्ति होती,‘अरी चांदमनी, तू छोकरी अपने को समझती क्या है री? अपने इस रूप का इतना घमंड क्यों है री तुझे? अतिरूप से ही जनकसुता हरी गई थी, इतना याद रख छोकरी! तब से बस एक ही तसला गारा लाई है!’
अतिरूप से हरे जाने का भय दिखाकर डराई गई उस सुन्दरी जनकसुता को देखने का लोभ, एक दिन सिंह भी नहीं संवरण कर सका. तसला सिर पर धरे, ढीठ चांदमनी जान-बूझकर ही अलस मन्थर गति से चली जा रही थी कि बूढ़ा ठेकेदार कर्कश स्वर में चीखा,‘तुमसे अब काम नहीं होने का. घाघू से आज ही कहना होगा कि तुझे अब बीरू को सौंप दे. एक लाठी धरेगा बीरू और यह कमर की लचक-पचक सब भूलकर रह जाएगी.’
खिलखिलाकर चांदमनी हंसी और चौंककर डॉक्टर की आंखें स्वयं उठ गईं. बांस-वनों के झुरमुट से घिरे उस जंगल में सन्ध्या नित्य कुछ समय से पूर्व ही उतर आती थी. झुटपुटे अन्धकार के म्लान कैनवस पर तसलाधारिणी मुग्धा की वह सांवली-सलोनी छवि, सिंह को किसी कलाकार के बनाए काले लिनोकट-सी ही आकर्षक लगी. चटपट उसने खिड़की बन्द कर दी. अच्छा, तो वही थी घाघू की बेटी! एक दिन वह कुछ कह तो रहा था कि उसकी एक ही बेटी है, उसने सगाई भी कर दी है, पर ठेकेदार के यहां काम कर रही है, कुछ पैसे कमा लेगी तो ब्याह देगा.
घाघू मांझी, जमींदार साहब का सन्थाल भृत्य था और उन्होंने उसे मित्र-पुत्र की सेवा के लिए वहीं भेज दिया था. काले हब्शी-सा वह चुपचाप रहनेवाला भृत्य, परदेशी नवीन स्वामी की भाषा न समझने पर भी उसके एक-एक आदेश को ऐसे पूरा कर देता कि सिंह दंग रह जाता. ऐसे कदर्य-कुत्सित पिता की पुत्री ऐसी सुन्दर कैसे हो गई होगी! बड़ी देर तक पुस्तकें पढ़ता सिंह दूसरे दिन देर तक सोता रहा. अचानक तीखे अपरिचित नारी कंठ को सुन, वह हड़बड़ाकर उठ बैठा. देखा, उसकी खिड़की पर खड़ी सुन्दरी चांदमनी ठेकेदार को अंगूठा दिखा रही है. वह जिस भाषा में हंस-हंसकर अपनी सखियों से जो कुछ कह रही थी, उसका एक शब्द भी सिंह के पल्ले नहीं पड़ा, पर अंगूठा प्रदर्शन की विजयी मुद्रा से वह जान गया कि वह अब ठेकेदार के यहां काम नहीं करेगी.
अचानक उसने खिड़की बन्द कर दी और उसकी ओर मुड़कर हंसने लगी. दूर से आकर्षक दीखनेवाली यह श्यामांगी निकट से देखने पर निश्चित रूप से सुन्दरी थी. मोती जैसे उजले दांतों की मनोहारी पंक्ति को पहले सिंह देखता रहा, फिर अचानक उसे स्मरण हो आया कि वह केवल नाइटसूट का पायजामा ही पहनकर सो रहा था. उसका चेहरा लाल हो गया. कैसी बेहया लड़की थी यह, उसके नग्न शरीर को कैसी मुग्ध दृष्टि से देख रही थी! प्रकृति भी कैसी उल्टी गंगा बहा रही थी!
‘कौन हो तुम? यहां कैसे चली आईं? घाघू-घाघू!’ सिंह ने विवश स्वर में हांक लगाई.
तभी उस वनकन्या ने मराल ग्रीवा को झटके से पीछे कर अपनी पहाड़ी झरने की-सी मीठी हंसी से कमरा गुंजा दिया.
‘चैचाद्दिश कैनो रे बाबू?’ (चिल्ला क्यों रहा है रे बाबू) फिर अपने गूंगे पैंटोमाइम से उसने माथे पर हाथ धर, नकली खांसी खांस अपनी कलाई पकड़कर उसे समझा दिया कि घाघू बीमार है और अब वही काम करेगी. अजीब मूर्ख है जंगली घाघू. अपनी इस सुन्दरी चंचल पुत्री को उसने परदेशी युवक के कमरे में भेज कैसे दिया!
फिर तो कुछ ही घंटों में चांदमनी ने उसके कमरे की छत ही किसी प्रचंड गति के साइक्लोन की भांति उड़ाकर धर दी थी. पहले महा उत्साह से उसके लाल जूते पर काला पालिश पोत आई. जब तक वह जूते की दुर्गति देख, छीनने लपका, नए लाल जूते का अद्र्धांग काला बन चुका था. फिर उसने स्टोव में न जाने कितने अनाड़ी पम्प भर डाले कि मिट्टी के तेल की फुहारें छोड़ता स्टोव क्रुद्ध सर्प-सा फुंफकारने लगा. भागकर झुंझलाए सिंह ने स्टोव बुझाया और हाथ हिला-हिलाकर उसे दूध का कटोरा, डबल रोटी दिखाकर समझाया कि वह चली जाए. खाने को यह सब है, वह खा लेगा. मुस्कराकर वह ऐसे बैठ गई, जैसे वह समझ गई हो. तब बैठ क्यों गई? हारकर वह अपने पलंग पर बैठ गया. बड़ी देर तक जब उसके जाने की आहट नहीं मिली तो उसने सहमकर चौके में झांका. देखा, तो सुन्दरी चांदमनी दूध के कटोरे में समूची डबलरोटी डुबो-डुबोकर खा रही थी. नवीन स्वामी को देखते ही निर्दोष हंसी से सांवला चेहरा उज्ज्वल हो उठा.
‘तुई बोलेहीश खा.’ (तूने कहा था खा) उसने कहा.
हाय रे दुर्भाग्य! पता नहीं, ये कुछ-का-कुछ समझनेवाली पगली, कभी कुछ अनर्थ न कर बैठे. खा-पीकर चांदमनी उसकी भोजन-व्यवस्था में जुट गई. न जाने कहां से वह आंचल में ढेर सारी ‘शुकटी’ (सुखाई गई छोटी मछलियां) ले आई थी, उन्हीं को तेल में चटपट भूंजकर वह पल-भर में आतप चावल रांध लाई. मेज पर चावल की प्लेट लगाकर उसने गलाया गर्म गाय का घी, महा औदार्य से स्तूपाकार चावल पर बिखेर दिया. जितनी देर वह खाता रहा, वह स्वयं चौके के अन्तराल में छिप गई. शायद वह जान गई थी कि उसकी उपस्थिति संकोचशील अतिथि को पेट-भर खाने नहीं देगी. वह हाथ धोने उठा तो अपने पिता ही की भांति चिलमची, जग, तौलिया लेकर उपस्थित हो गई. तसले में सीमेंट-गारा ढोनेवाली वह मजदूरनी कैसे यह सब सीख गई थी.
तीन ही दिनों में उस कर्मपरायण सुन्दरी-सेविका ने अपनी निःस्वार्थ सेवा से सिंह को ऐसा जीत लिया कि तीन दिन पूर्व जिसकी वन्य उपस्थिति युवा डॉक्टर को झुंझलाहट से बौखला देती थी, अब उसी के आने का समय होता, तो उसकी आंखें स्वयं ही दर्पण की ओर उठ जातीं. पहले दिन अपनी छाती और पीठ की नग्नता का स्मरण कर वह लज्जा से लाल पड़ गया था और नाइट कोट ढूंढ़ने को छटपटा उठा था. अब स्वयं ही वह अपने पौरुष का दर्पण उस किशोरी की आंखों पर डाल, उसे चौंधिया देता और वह मुग्धा एकटक उसकी नंगी छाती को देखती रहती. अधूरा डॉक्टर, शायद नवीन प्रेमिका को प्रभावित करने के लिए ही उसके पिता की पसलियां ठोंक-पीट, एक छोटा-मोटा नुस्खा भी लिख आया था. चांदमनी की बड़ी आंखें प्रशंसा में विस्फारित होकर और बड़ी हो गई थीं.
कभी-कभी प्रणयकेलि में डूबी याचिका को चूल्हे पर जलती मछली का ध्यान ही नहीं रहता. जलांध पाकर वह मछली उतारने भागती तो युवा प्रेमी उसे फिर बांहों में खींच लेता.
कैसी अद्भुत देहगन्ध थी उस वनकन्या की! नई बन रही इमारत की सोंधी गन्ध ही उसके शरीर में रिस गई थी, या कच्ची ताड़ी के रस की मादक सुगन्ध थी, उस मधुर श्वास-प्रश्वास में. कैसा सरल आत्मसमर्पण था उसका! एक बार तरुण डॉक्टर के संस्कारी चित्त के अधमरे विवेक ने विरोध में गर्दन उठाकर घोर आपत्ति भी की थी यह तुम्हारा सरासर अन्याय है, क्या परिणाम से आंखें मूंद रहे हो? इस निर्दोष अनुभवहीन किशोरी के साथ की गई छलना, क्या तुम्हें जीवन-भर नहीं डसेगी?’ पर उद्दाम मुंहफट चौबीस वर्ष का यौवन, सोलह वर्ष का कैशोर्य, तालतमाल अरण्य से घिरा अतिथिगृह और डूबती सन्ध्या सब मिल-जुलकर विवेक को मुंह, हाथ-पैर बांध दूर कोने में पटक देते. क्रूर नियति दोनों को शतमुखी विनिपात की खाई में खींच ले गई.
चांदमनी सचमुच ही चन्द्रपातमणि-सी ही तेजस्वी बनती जा रही थी. सातवें दिन घाघू स्वस्थ होकर लौट आया. चांदमनी को कभी-कभी वह उसके पिता के सम्मुख ही हंसी-हंसी में छेड़ देता.
‘क्यों घाघू कब कर रहे हो इसका ब्याह? बीरू तो कह रहा था, इसी बैसाख में वह इसे ब्याह ले जाएगा.’
बीरू मांझी का नाम सुनते ही वह भड़क उठती. घाघू कुछ कहता, इससे पहले ही वह कहती,‘बीरू मुखे आगुन’ (बीरू के मुंह में आग). सात दिन के लिए आए पाहुने को बीस दिन हो गए थे. चांदमनी नित्य आधी रात को निर्भीक अभिसारिका बनी, उसकी खिड़की के नीचे खड़ी हो जाती. दो लम्बे-लम्बे हाथों की रस्सी उसे ऐसे ऊपर खींच लेती, जैसे वह कागज का फूल हो.
एक दिन दोनों हाथ उसे उठाने झुके तो वह नित्य की भांति खड़ी नहीं थी. महुआ वृक्ष के नीचे बैठी उल्टी कर रही चांदमनी थोड़ी ही देर में फिर हंसती खिड़की के नीचे खड़ी हो गई. ‘आज मौसी ने ढेर-सा रस पिला दिया, इसी से सिर चकरा गया.’ उसने हंसी के फूल बिखेर दिए.
सिंह रात-भर नहीं सो पाया. क्या मौसी के पिलाए ताड़ी के रस से ही उसका माथा चकराया था? ईश्वर करे ऐसा ही हो. सारी रात वह यही मनाता रहा. दूसरे दिन उठते ही उसने अपना सामान बांध लिया. चांदमनी उस दिन अपनी मौसी के साथ शिउड़ी के मेले में रस बेचने जा रही थी. चांदमनी से उसने अपने जाने की बात ही नहीं की और चुपचाप खिसक गया. चलने लगा तो उसने घाघू के हाथ में सौ-सौ के दो नोट धर दिए. कॉलेज फीस के लिए धरे दो सौ घाघू के हाथ में धर उस मूर्ख स्वार्थी युवक को लगा था कि वह संसार का सबसे उदार व्यक्ति है.
इतने रुपए! सरल घाघू की आंखें ही फट गई थीं. ऐसी टिप तो उसे ज़मींदार साहब के अतिथियों ने कभी नहीं दी. ‘चांदमनी के ब्याह में लगा देना.’ उसने फिर बुजुर्गाना आवाज़ में कहा था,‘अब विवाह में देरी मत करना घाघू!’
फिर तीसरे ही महीने डॉक्टर सिंह ने पिता को अपने विवाह की स्वीकृति दे दी थी. इतने वर्षों तक अपने वैभव और प्रभुता के मद से अन्धा बना वह जान-बूझकर ही अतीत को सशक्त भुजाओं से पीछे ढकेलता रहा था, पर आज उन सशक्त भुजाओं की शक्ति चुककर रह गई थी. जिस सरला किशोरी को वह असहाय अवस्था में छोड़कर भाग आया था जिसके निःस्वार्थ आत्मसमर्पण की सुध शायद ही कभी सुख के क्षणों में आई थी उसी सांवले चेहरे पर जड़ी दो करुण आंखों का मूक उपालम्भ आज उसे अपने जीवन के चरम दुःख के क्षणों में पागल बना उठा. अपनी निरुपायता, आवारापन उसे धिक्कारने लगा और वह फिर उसी विस्मृत गांव की ओर भागने लगा. पहुंचा तो दिन डूब चुका था. पंसारी की छोटी-सी दुकान कालचक्र में विलुप्त होकर, वहां एक जगमगाता डिपार्टमेंटल स्टोर खड़ा था. ज़मींदार साहब का पता पूछना व्यर्थ था, वह सन्थाल ग्राम की ओर बढ़ गया. वही वेणुवन और एक कद की, परेड-सी करती झोंपड़ियां. अंधेरे ने बढ़कर परिचित हाथ कन्धे पर धर दिया. अचानक विलाप का करुण स्वर सुनकर वह ठिठक गया.
‘‘आ बलाई चांद रे सोना!’’
उसका सर्वांग सिहर उठा. धीरे-धीरे उसने चोर की भांति बढ़कर खिड़की से झांका. पहले उसके जी में आया, वह ज़ोर से चीख पड़े. छोटे-से कमरे का संकुचित क्षेत्रफल घेरे, जो लम्बी लाश पड़ी थी, वह तो स्वयं ही मृत्युंजय का जीवित संस्करण था. क्या वही पिता को चमत्कृत करने एक बार फिर अरथी में बंधने लौट आया था? वही चेहरा, देह की वही सुगठित ललाम-श्यामल कान्ति. उसके चारों ओर घेरा-सा बनाए सन्थाल स्त्रियां घुटनों में सिर डाले, करुण सिसकियों का वैसा ही छन्दबद्ध संगीत प्रस्तुत कर रही थीं, जैसा छत पीटने में किया करती थीं. मृतक के सामने पछाड़ खाती मां को पाश्र्व में बैठे व्यक्ति ने बड़े यत्न से उठाया और डॉक्टर सिंह ने कच्ची मिट्टी की दीवार थाम ली. बूढ़े बीरू मांझी को घनी सफेद मूंछों के बीच भी उन्होंने पहचान लिया.
‘‘मत रो चांद, वह अब क्या तेरे रोने से लौटेगा?’’
उन्मादिनी चांदमनी एक बार फिर पछाड़ खाकर गिर पड़ी.
डॉक्टर सिंह मुड़े और तेज़ी से भागने लगे. कुछ पलों के लिए शायद वह सचमुच ही मानसिक सन्तुलन खो बैठे थे. उन्हें लग रहा था, उन्मत्त सन्थाल भीड़ उनका पीछा कर रही है, मृत बलाई की लाश लेकर. उन्हें पकड़, वे अरथी उन्हीं के कन्धों पर टिका देंगे. हांफते पसीने से लथपथ जब डॉक्टर सिंह बोलपुर पहुंचे तो सब पैसेंजर गाड़ियां जा चुकी थीं.
‘‘पर मुझे तो अभी जाना है.’’ उन्होंने फटे स्वर में कहा.
‘‘अभी कोई गाड़ी नहीं जाएगी साहब.’’ छोकरे स्टेशन मास्टर ने उस विक्षिप्त-से व्यक्ति के प्रश्न के उत्तर में कहा,‘‘एक मालगाड़ी यार्ड में अवश्य खड़ी है. आठवें दिन कलकत्ता पहुंचेगी, चाहें तो उसी में चले जाइए.’’ पर उसके व्यंग्य को ग्रहण करने की अवस्था भी शायद उनकी नहीं रही थी.
‘‘धन्यवाद, धन्यवाद.’’ कहता वह नित्य एयरकंडीशन गाड़ी में यात्रा करनेवाला सुरुचि-समृद्ध स्वामी, चोरों की भांति इधर-उधर देखता, सचमुच ही मालगाड़ी के डिब्बे में बैठ गया. सहयात्री थे बड़ी-बड़ी दाढ़ीवाले दो पछांही बकरे और चार गायें.
सबने एकसाथ चौंककर, उस डरे-सहमे यात्री को देखा, फिर जुगाली करती बड़ी-बड़ी करुण आंखोंवाली गाय ने सींगों की स्वीकृति दे दी, जैसे सबकुछ जान गई हो.
अंजर-पंजर हिलाती मालगाड़ी चली.
बकरों के साथ-साथ वह भी धक्का खाकर गिरा, फिर तिकोनी खुली खिड़की पकड़कर बैठ गया. खिड़की के उसी छिद्र से वर्षों पूर्व के परिचित स्टेशन एक-एक कर हाथ मिला गए. मुस्करा, बोनपास, तालित और भेदिया गीली घास और गोबर मिश्रित सुगन्ध, उसे संसार की सर्वश्रेष्ठ सुगन्ध लगने लगी. अपने दोनों परिष्कृत रुचि के नथुने भींचकर उसने आंखें मूंद लीं. पास खड़ा दढ़ियल पछांही बकरा उसका घुटना चाटने लगा. शायद एक पशु ने दूसरे पशु को अब पहचान लिया था. हिलती मालगाड़ी के कम्पन से, टुनटुनाती गाय के गले की घंटियां बज रही थीं. डॉक्टर सिंह को लगा, वह किसी पवित्र देवस्थल में बैठे हैं और उसी मन्दिर की नन्हीं घंटियां बजने लगी हैं.
‘‘मुझे यह दंड क्यों दिया प्रभो?’’ पन्द्रह दिन पूर्व, जवान बेटे की अरथी पकड़, इस मूर्ख ने विधाता के न्यायालय में अपनी तर्कहीन नालिश की थी. जिसने जीवन-भर कभी जन्मदाता का स्मरण नहीं किया, उसी नास्तिक सन्तान के कमज़ोर मुक़दमे का निर्णय देने शायद वह न्यायप्रिय न्यायाधीश उसे इतनी दूर ले आया था.
मृत्युदंड सुनकर, बहुत-से अभियुक्त चेहरे पर स्वयं ही रूमाल बांध लेते हैं.
डॉक्टर सिंह ने अपने कांपते घुटनों में मुंह छिपा लिया.

Illustration: Pinterest

Tags: DandFamous writers storyHindi KahaniHindi KahaniyaHindi KahaniyainHindi StoryHindi writersKahaniShivaniShivani ki kahaniShivani ki kahani DandShivani storiesकहानीदंडमशहूर लेखकों की कहानीशिवानीशिवानी की कहानियांशिवानी की कहानीशिवानी की कहानी दंडहिंदी कहानियांहिंदी कहानीहिंदी के लेखकहिंदी स्टोरी
टीम अफ़लातून

टीम अफ़लातून

हिंदी में स्तरीय और सामयिक आलेखों को हम आपके लिए संजो रहे हैं, ताकि आप अपनी भाषा में लाइफ़स्टाइल से जुड़ी नई बातों को नए नज़रिए से जान और समझ सकें. इस काम में हमें सहयोग करने के लिए डोनेट करें.

Related Posts

Butterfly
ज़रूर पढ़ें

तितलियों की सुंदरता बनाए रखें, दुनिया सुंदर बनी रहेगी

October 4, 2024
त्रास: दुर्घटना के बाद का त्रास (लेखक: भीष्म साहनी)
क्लासिक कहानियां

त्रास: दुर्घटना के बाद का त्रास (लेखक: भीष्म साहनी)

October 2, 2024
ktm
ख़बरें

केरल ट्रैवल मार्ट- एक अनूठा प्रदर्शन हुआ संपन्न

September 30, 2024
Facebook Twitter Instagram Youtube
Oye Aflatoon Logo

हर वह शख़्स फिर चाहे वह महिला हो या पुरुष ‘अफ़लातून’ ही है, जो जीवन को अपने शर्तों पर जीने का ख़्वाब देखता है, उसे पूरा करने का जज़्बा रखता है और इसके लिए प्रयास करता है. जीवन की शर्तें आपकी और उन शर्तों पर चलने का हुनर सिखाने वालों की कहानियां ओए अफ़लातून की. जीवन के अलग-अलग पहलुओं पर, लाइफ़स्टाइल पर हमारी स्टोरीज़ आपको नया नज़रिया और उम्मीद तब तक देती रहेंगी, जब तक कि आप अपने जीवन के ‘अफ़लातून’ न बन जाएं.

संपर्क

ईमेल: [email protected]
फ़ोन: +91 9967974469
+91 9967638520
  • About
  • Privacy Policy
  • Terms

© 2022 Oyeaflatoon - Managed & Powered by Zwantum.

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

No Result
View All Result
  • सुर्ख़ियों में
    • ख़बरें
    • चेहरे
    • नज़रिया
  • हेल्थ
    • डायट
    • फ़िटनेस
    • मेंटल हेल्थ
  • रिलेशनशिप
    • पैरेंटिंग
    • प्यार-परिवार
    • एक्सपर्ट सलाह
  • बुक क्लब
    • क्लासिक कहानियां
    • नई कहानियां
    • कविताएं
    • समीक्षा
  • लाइफ़स्टाइल
    • करियर-मनी
    • ट्रैवल
    • होम डेकोर-अप्लाएंसेस
    • धर्म
  • ज़ायका
    • रेसिपी
    • फ़ूड प्लस
    • न्यूज़-रिव्यूज़
  • ओए हीरो
    • मुलाक़ात
    • शख़्सियत
    • मेरी डायरी
  • ब्यूटी
    • हेयर-स्किन
    • मेकअप मंत्र
    • ब्यूटी न्यूज़
  • फ़ैशन
    • न्यू ट्रेंड्स
    • स्टाइल टिप्स
    • फ़ैशन न्यूज़
  • ओए एंटरटेन्मेंट
    • न्यूज़
    • रिव्यूज़
    • इंटरव्यूज़
    • फ़ीचर
  • वीडियो-पॉडकास्ट
  • लेखक

© 2022 Oyeaflatoon - Managed & Powered by Zwantum.