हिंदी के महान लेखकों में अपना स्थान रखनेवाली दिवंगत मन्नू भंडारी का यह आत्मकथानात्मक लेख है. इसमें उन्होंने अपने बचपन से लेकर किशोरावस्था तक के कालखंड का वर्णन किया है. अपने पिता के बारे में बताया है. पिता से अपने संबंध, वैचारिक मतभेद बयां किए हैं. आज़ादी आंदोलन के उस दौर में कई बार उनके पिता उनकी हरक़तों से दुखी हुए तो ऐसे भी लम्हे आए, जब उन्हें अपनी सबसे छोटी पुत्री पर गर्व भी हुआ.
जन्मी तो मध्य प्रदेश के भानपुरा गांव में थी, लेकिन मेरी यादों का सिलसिला शुरू होता है अजमेर के ब्रह्मपुरी मोहल्ले के उस दो-मंज़िला मकान से, जिसकी ऊपरी मंज़िल में पिताजी का साम्राज्य था, जहां वे निहायत अव्यवस्थित ढंग से फैली-बिखरी पुस्तकों-पत्रिकाओं और अख़बारों के बीच या तो कुछ पढ़ते रहते थे या फिर ‘डिक्टेशन’ देते रहते थे. नीचे हम सब भाई-बहिनों के साथ रहती थीं हमारी बेपढ़ी-लिखी व्यक्तित्वविहीन मां…सवेरे से शाम तक हम सबकी इच्छाओं और पिता जी की आज्ञाओं का पालन करने के लिए सदैव तत्पर. अजमेर से पहले पिता जी इंदौर में थे जहां उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी, सम्मान था, नाम था. कांग्रेस के साथ-साथ वे समाज-सुधार के कामों से भी जुड़े हुए थे. शिक्षा के वे केवल उपदेश ही नहीं देते थे, बल्कि उन दिनों आठ-आठ, दस-दस विद्यार्थियों को अपने घर रखकर पढ़ाया है जिनमें से कई तो बाद में ऊंचे-ऊंचे ओहदों पर पहुंचे. ये उनकी ख़ुशहाली के दिन थे और उन दिनों उनकी दरियादिली के चर्चे भी कम नहीं थे. एक ओर वे बेहद कोमल और संवेदनशील व्यक्ति थे तो दूसरी ओर बेहद क्रोधी और अहंवादी.
पर यह सब तो मैंने केवल सुना. देखा, तब तो इन गुणों के भग्नावशेषों को ढोते पिता थे. एक बहुत बड़े आर्थिक झटके के कारण वे इंदौर से अजमेर आ गए थे, जहां उन्होंने अपने अकेले के बल-बूते और हौसले से अंग्रेज़ी-हिंदी शब्दकोश (विषयवार) के अधूरे काम को आगे बढ़ाना शुरू किया जो अपनी तरह का पहला और अकेला शब्दकोश था. इसने उन्हें यश और प्रतिष्ठा तो बहुत दी, पर अर्थ नहीं और शायद गिरती आर्थिक स्थिति ने ही उनके व्यक्तित्व के सारे सकारात्मक पहलुओं को निचोड़ना शुरू कर दिया. सिकुड़ती आर्थिक स्थिति के कारण और अधिक विस्फारित उनका अहं उन्हें इस बात तक की अनुमति नहीं देता था कि वे कम-से-कम अपने बच्चों को तो अपनी आर्थिक विवशताओं का भागीदार बनाएं. नवाबी आदतें, अधूरी महत्वाकांक्षाएं, हमेशा शीर्ष पर रहने के बाद हाशिए पर सरकते चले जाने की यातना क्रोध बनकर हमेशा मां को कंपाती-थरथराती रहती थीं. अपनों के हाथों विश्वासघात की जाने कैसी गहरी चोटें होंगी वे जिन्होंने आंख मूंदकर सबका विश्वास करने वाले पिता को बाद के दिनों में इतना शक्की बना दिया था कि जब-तब हम लोग भी उसकी चपेट में आते ही रहते.
पर यह पितृ-गाथा मैं इसलिए नहीं गा रही कि मुझे उनका गौरव-गान करना है, बल्कि मैं तो यह देखना चाहती हूं कि उनके व्यक्तित्व की कौन-सी खूबी और खामियां मेरे व्यक्तित्व के ताने-बाने में गुंथी हुई हैं या कि अनजाने-अनचाहे किए उनके व्यवहार ने मेरे भीतर किन ग्रंथियों को जन्म दे दिया. मैं काली हूं. बचपन में दुबली और मरियल भी थी. गोरा रंग पिता जी की कमज़ोरी थी सो बचपन में मुझसे दो साल बड़ी, खूब गोरी, स्वस्थ और हंसमुख बहिन सुशीला से हर बात में तुलना और फिर उसकी प्रशंसा ने ही, क्या मेरे भीतर ऐसे गहरे हीन-भाव की ग्रंथि पैदा नहीं कर दी कि नाम, सम्मान और प्रतिष्ठा पाने के बावज़ूद आज तक मैं उससे उबर नहीं पाई? आज भी परिचय करवाते समय जब कोई कुछ विशेषता लगाकर मेरी लेखकीय उपलब्धियों का ज़िक्र करने लगता है तो मैं संकोच से सिमट ही नहीं जाती बल्कि गड़ने-गड़ने को हो आती हूं. शायद अचेतन की किसी पर्त के नीचे दबी इसी हीन-भावना के चलते मैं अपनी किसी भी उपलब्धि पर भरोसा नहीं कर पाती…सब कुछ मुझे तुक्का ही लगता है. पिता जी के जिस शक्की स्वभाव पर मैं कभी भन्ना-भन्ना जाती थी, आज एकाएक अपने खंडित विश्वासों की व्यथा के नीचे मुझे उनके शक्की स्वभाव की झलक ही दिखाई देती है…बहुत ‘अपनों’ के हाथों विश्वासघात की गहरी व्यथा से उपजा शक. होश संभालने के बाद से ही जिन पिता जी से किसी-न-किसी बात पर हमेशा मेरी टक्कर ही चलती रही, वे तो न जाने कितने रूपों में मुझमें हैं…कहीं कुंठाओं के रूप में, कहीं प्रतिक्रिया के रूप में तो कहीं प्रतिच्छाया के रूप में. केवल बाहरी भिन्नता के आधार पर अपनी परंपरा और पीढ़ियों को नकारने वालों को क्या सचमुच इस बात का बिलकुल अहसास नहीं होता कि उनका आसन्न अतीत किस कदर उनके भीतर जड़ जमाए बैठा रहता है! समय का प्रवाह भले ही हमें दूसरी दिशाओं में बहाकर ले जाए…स्थितियों का दबाव भले ही हमारा रूप बदल दे, हमें पूरी तरह उससे मुक्त तो नहीं ही कर सकता!
पिता के ठीक विपरीत थीं हमारी बेपढ़ी-लिखी मां. धरती से कुछ ज़्यादा ही धैर्य और सहनशक्ति थी शायद उनमें. पिता जी की हर ज़्यादती को अपना प्राप्य और बच्चों की हर उचित-अनुचित फरमाइश और ज़िद को अपना फ़र्ज समझकर बड़े सहज भाव से स्वीकार करती थीं वे. उन्होंने ज़िन्दगी भर अपने लिए कुछ मांगा नहीं, चाहा नहीं…केवल दिया ही दिया. हम भाई-बहिनों का सारा लगाव (शायद सहानुभूति से उपजा) मां के साथ था लेकिन निहायत असहाय मजबूरी में लिपटा उनका यह त्याग कभी मेरा आदर्श नहीं बन सका…न उनका त्याग, न उनकी सहिष्णुता. खैर, जो भी हो, अब यह पैतृक-पुराण यहीं समाप्त कर अपने पर लौटती हूं.
पांच भाई-बहिनों में सबसे छोटी मैं. सबसे बड़ी बहिन की शादी के समय मैं शायद सात साल की थी और उसकी एक धुंधली-सी याद ही मेरे मन में है, लेकिन अपने से दो साल बड़ी बहिन सुशीला और मैंने घर के बड़े से आंगन में बचपन के सारे खेल खेले-सतोलिया, लंगड़ी-टांग, पकड़म-पकड़ाई, काली-टीलो…तो कमरों में गुड्डे-गुड़ियों के ब्याह भी रचाए, पास-पड़ोस की सहेलियों के साथ. यों खेलने को हमने भाइयों के साथ गिल्ली-डंडा भी खेला और पतंग उड़ाने, कांच पीसकर मांजा सूतने का काम भी किया, लेकिन उनकी गतिविधियों का दायरा घर के बाहर ही अधिक रहता था और हमारी सीमा थी घर. हां, इतना ज़रूर था कि उस ज़माने में घर की दीवारें घर तक ही समाप्त नहीं हो जाती थीं बल्कि पूरे मोहल्ले तक फैली रहती थीं इसलिए मोहल्ले के किसी भी घर में जाने पर कोई पाबंदी नहीं थी, बल्कि कुछ घर तो परिवार का हिस्सा ही थे. आज तो मुझे बड़ी शिद्दत के साथ यह महसूस होता है कि अपनी ज़िन्दगी खुद जीने के इस आधुनिक दबाव ने महानगरों के फ़्लैट में रहने वालों को हमारे इस परंपरागत ‘पड़ोस-कल्चर’ से विच्छिन्न करके हमें कितना संकुचित, असहाय और असुरक्षित बना दिया है. मेरी कम-से-कम एक दर्जन आरंभिक कहानियों के पात्र इसी मोहल्ले के हैं जहां मैंने अपनी किशोरावस्था गुज़ार अपनी युवावस्था का आरंभ किया था. एक-दो को छोड़कर उनमें से कोई भी पात्र मेरे परिवार का नहीं है. बस इनको देखते-सुनते, इनके बीच ही मैं बड़ी हुई थी लेकिन इनकी छाप मेरे मन पर कितनी गहरी थी, इस बात का अहसास तो मुझे कहानियां लिखते समय हुआ. इतने वर्षों के अंतराल ने भी उनकी भाव-भंगिमा, भाषा, किसी को भी धुंधला नहीं किया था और बिना किसी विशेष प्रयास के बड़े सहज भाव से वे उतरते चले गए थे. उसी समय के दा साहब अपने व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति के लिए अनुकूल परिस्थितियां पाते ही ‘महाभोज’ में इतने वर्षों बाद कैसे एकाएक जीवित हो उठे, यह मेरे अपने लिए भी आश्चर्य का विषय था… एक सुखद आश्चर्य का.
उस समय तक हमारे परिवार में लड़की के विवाह के लिए अनिवार्य योग्यता थी-उम्र में सोलह वर्ष और शिक्षा में मैट्रिक. सन् ’44 में सुशीला ने यह योग्यता प्राप्त की और शादी करके कोलकाता चली गई. दोनों बड़े भाई भी आगे पढ़ाई के लिए बाहर चले गए. इन लोगों की छत्र-छाया के हटते ही पहली बार मुझे नए सिरे से अपने वज़ूद का एहसास हुआ. पिता जी का ध्यान भी पहली बार मुझ पर केंद्रित हुआ. लड़कियों को जिस उम्र में स्कूली शिक्षा के साथ-साथ सुघड़ गृहिणी और कुशल पाक-शास्त्री बनाने के नुस्खे जुटाए जाते थे, पिता जी का आग्रह रहता था कि मैं रसोई से दूर ही रहूं. रसोई को वे भटियारखाना कहते थे और उनके हिसाब से वहां रहना अपनी क्षमता और प्रतिभा को भट्टी में झोंकना था. घर में आए दिन विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के जमावड़े होते थे और जमकर बहसें होती थीं. बहस करना पिता जी का प्रिय शगल था. चाय-पानी या नाश्ता देने जाती तो पिता जी मुझे भी वहीं बैठने को कहते. वे चाहते थे कि मैं भी वहीं बैठूं, सुनूं और जानूं कि देश में चारों ओर क्या कुछ हो रहा है. देश में हो भी तो कितना कुछ रहा था. सन् ’42 के आंदोलन के बाद से तो सारा देश जैसे खौल रहा था, लेकिन विभिन्न राजनैतिक पार्टियों की नीतियां, उनके आपसी विरोध या मतभेदों की तो मुझे दूर-दूर तक कोई समझ नहीं थी. हां, क्रांतिकारियों और देशभक्त शहीदों के रोमानी आकर्षण, उनकी कुर्बानियों से ज़रूर मन आक्रांत रहता था.
सो दसवीं कक्षा तक आलम यह था कि बिना किसी खास समझ के घर में होने वाली बहसें सुनती थी और बिना चुनाव किए, बिना लेखक की अहमियत से परिचित हुए किताबें पढ़ती थी. लेकिन सन् ’45 में जैसे ही दसवीं पास करके मैं ‘फ़र्स्ट इयर’ में आई, हिंदी की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल से परिचय हुआ. सावित्री गर्ल्स हाई स्कूल…जहां मैंने ककहरा सीखा, एक साल पहले ही कॉलिज बना था और वे इसी साल नियुक्त हुई थीं, उन्होंने बाकायदा साहित्य की दुनिया में प्रवेश करवाया. मात्र पढ़ने को, चुनाव करके पढ़ने में बदला…खुद चुन-चुनकर किताबें दीं…पढ़ी हुई किताबों पर बहसें कीं तो दो साल बीतते-न-बीतते साहित्य की दुनिया शरत्-प्रेमचंद से बढ़कर जैनेंद्र, अज्ञेय, यशपाल, भगवतीचरण वर्मा तक फैल गई और फिर तो फैलती ही चली गई. उस समय जैनेंद्र जी की छोटे-छोटे सरल-सहज वाक्यों वाली शैली ने बहुत आकृष्ट किया था. ‘सुनीता’ (उपन्यास) बहुत अच्छा लगा था, अज्ञेय जी का उपन्यास ‘शेखर: एक जीवनी’ पढ़ा ज़रूर पर उस समय वह मेरी समझ के सीमित दायरे में समा नहीं पाया था. कुछ सालों बाद ‘नदी के द्वीप’ पढ़ा तो उसने मन को इस कदर बांधा कि उसी झोंक में शेखर को फिर से पढ़ गई…इस बार कुछ समझ के साथ. यह शायद मूल्यों के मंथन का युग था…पाप-पुण्य, नैतिक-अनैतिक, सही-गलत की बनी-बनाई धारणाओं के आगे प्रश्नचिन्ह ही नहीं लग रहे थे, उन्हें ध्वस्त भी किया जा रहा था. इसी संदर्भ में जैनेंद्र का ‘त्यागपत्र’, भगवती बाबू का ‘चित्रलेखा’ पढ़ा और शीला अग्रवाल के साथ लंबी-लंबी बहसें करते हुए उस उम्र में जितना समझ सकती थी, समझा.
शीला अग्रवाल ने साहित्य का दायरा ही नहीं बढ़ाया था बल्कि घर की चारदीवारी के बीच बैठकर देश की स्थितियों को जानने-समझने का जो सिलसिला पिता जी ने शुरू किया था, उन्होंने वहां से खींचकर उसे भी स्थितियों की सक्रिय भागीदारी में बदल दिया. सन् ’46-47 के दिन…वे स्थितियां, उसमें वैसे भी घर में बैठे रहना संभव था भला? प्रभात-फेरियां, हड़तालें, जुलूस, भाषण हर शहर का चरित्र था और पूरे दमखम और जोश-खरोश के साथ इन सबसे जुड़ना हर युवा का उन्माद. मैं भी युवा थी और शीला अग्रवाल की जोशीली बातों ने रगों में बहते खून को लावे में बदल दिया था. स्थिति यह हुई कि एक बवंडर शहर में मचा हुआ था और एक घर में. पिता जी की आज़ादी की सीमा यहीं तक थी कि उनकी उपस्थिति में घर में आए लोगों के बीच उठूं-बैठूं, जानूं-समझूं. हाथ उठा-उठाकर नारे लगाती, हड़तालें करवाती, लड़कों के साथ शहर की सड़कें नापती लड़की को अपनी सारी आधुनिकता के बावजूद बर्दाश्त करना उनके लिए मुश्किल हो रहा था तो किसी की दी हुई आज़ादी के दायरे में चलना मेरे लिए. जब रगों में लहू की जगह लावा बहता हो तो सारे निषेध, सारी वर्जनाएं और सारा भय कैसे ध्वस्त हो जाता है, यह तभी जाना और अपने क्रोध से सबको थरथरा देने वाले पिता जी से टक्कर लेने का जो सिलसिला तब शुरू हुआ था, राजेंद्र से शादी की, तब तक वह चलता ही रहा.
यश-कामना बल्कि कहूं कि यश-लिप्सा, पिता जी की सबसे बड़ी दुर्बलता थी और उनके जीवन की धुरी था यह सिद्धांत कि व्यक्ति को कुछ विशिष्ट बन कर जीना चाहिए…कुछ ऐसे काम करने चाहिए कि समाज में उसका नाम हो, सम्मान हो, प्रतिष्ठा हो, वर्चस्व हो. इसके चलते ही मैं दो-एक बार उनके कोप से बच गई थी. एक बार कॉलिज से प्रिंसिपल का पत्र आया कि पिता जी आकर मिलें और बताएं कि मेरी गतिविधियों के कारण मेरे खिलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई क्यों न की जाए? पत्र पढ़ते ही पिता जी आग-बबूला. “यह लड़की मुझे कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रखेगी…पता नहीं क्या-क्या सुनना पड़ेगा वहां जाकर! चार बच्चे पहले भी पढ़े, किसी ने ये दिन नहीं दिखाया.’’ गुस्से से भन्नाते हुए ही वे गए थे. लौटकर क्या कहर बरपा होगा, इसका अनुमान था, सो मैं पड़ोस की एक मित्र के यहां जाकर बैठ गई. मां को कह दिया कि लौटकर बहुत कुछ गुबार निकल जाए, तब बुलाना. लेकिन जब मां ने आकर कहा कि वे तो ख़ुश ही हैं, चली चल, तो विश्वास नहीं हुआ. गई तो सही, लेकिन डरते-डरते. “सारे कॉलिज की लड़कियों पर इतना रौब है तेरा…सारा कॉलिज तुम तीन लड़कियों के इशारे पर चल रहा है? प्रिंसपल बहुत परेशान थी और बार-बार आग्रह कर रही थी कि मैं तुझे घर बिठा लूं, क्योंकि वे लोग किसी तरह डरा-धमकाकर, डांट-डपटकर लड़कियों को क्लासों में भेजते हैं और अगर तुम लोग एक इशारा कर दो कि क्लास छोड़कर बाहर आ जाओ तो सारी लड़कियां निकलकर मैदान में जमा होकर नारे लगाने लगती हैं. तुम लोगों के मारे कॉलिज चलाना मुश्किल हो गया है उन लोगों के लिए.’’ कहां तो जाते समय पिता जी मुंह दिखाने से घबरा रहे थे और कहां बड़े गर्व से कहकर आए कि यह तो पूरे देश की पुकार है…इस पर कोई कैसे रोक लगा सकता है भला? बेहद गद्गद स्वर में पिता जी यह सब सुनाते रहे और मैं अवाक्. मुझे न अपनी आंखों पर विश्वास हो रहा था, न अपने कानों पर. पर यह हकीकत थी.
एक घटना और. आज़ाद हिंद फ़ौज के मुकदमे का सिलसिला था. सभी कॉलिजों, स्कूलों, दुकानों के लिए हड़ताल का आह्वान था. जो-जो नहीं कर रहे थे, छात्रें का एक बहुत बड़ा समूह वहां जा-जाकर हड़ताल करवा रहा था. शाम को अजमेर का पूरा विद्यार्थी-वर्ग चौपड़ (मुख्य बाशार का चौराहा) पर इकठ्ठा हुआ और फिर हुई भाषणबाज़ी. इस बीच पिता जी के एक निहायत दकियानूसी मित्र ने घर आकर अच्छी तरह पिता जी की लू उतारी, “अरे उस मन्नू की तो मत मारी गई है पर भंडारी जी आपको क्या हुआ? ठीक है, आपने लड़कियों को आज़ादी दी, पर देखते आप, जाने कैसे-कैसे उलटे-सीधे लड़कों के साथ हड़तालें करवाती, हुड़दंग मचाती फिर रही है वह. हमारे-आपके घरों की लड़कियों को शोभा देता है यह सब? कोई मान-मर्यादा, इज़्ज़त-आबरू का खयाल भी रह गया है आपको या नहीं?” वे तो आग लगाकर चले गए और पिता जी सारे दिन भभकते रहे, “बस, अब यही रह गया है कि लोग घर आकर थू-थू करके चले जाएं. बंद करो अब इस मन्नू का घर से बाहर निकलना.’’
इस सबसे बेख़बर मैं रात होने पर घर लौटी तो पिता जी के एक बेहद अंतरंग और अभिन्न मित्र ही नहीं, अजमेर के सबसे प्रतिष्ठित और सम्मानित डॉ. अंबालाल जी बैठे थे. मुझे देखते ही उन्होंने बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया, आओ, आओ मन्नू. मैं तो चौपड़ पर तुम्हारा भाषण सुनते ही सीधा भंडारी जी को बधाई देने चला आया. ‘आई एम रिअली प्राउड ऑफ़ यू’-..क्या तुम घर में घुसे रहते हो भंडारी जी…घर से निकला भी करो. ‘यू हैव मिस्ड समथिंग’, और वे धुआंधार तारीफ़ करने लगे—वे बोलते जा रहे थे और पिता जी के चेहरे का संतोष धीरे-धीरे गर्व में बदलता जा रहा था. भीतर जाने पर मां ने दोपहर के गुस्से वाली बात बताई तो मैंने राहत की सांस ली.
आज पीछे मुड़कर देखती हूं तो इतना तो समझ में आता ही है क्या तो उस समय मेरी उम्र थी और क्या मेरा भाषण रहा होगा! यह तो डॉक्टर साहब का स्नेह था जो उनके मुंह से प्रशंसा बनकर बह रहा था या यह भी हो सकता है कि आज से पचास साल पहले अजमेर जैसे शहर में चारों ओर से उमड़ती भीड़ के बीच एक लड़की का बिना किसी संकोच और झिझक के यों धुआंधार बोलते चले जाना ही इसके मूल में रहा हो. पर पिता जी! कितनी तरह के अंतर्विरोधों के बीच जीते थे वे! एक ओर ‘विशिष्ट’ बनने और बनाने की प्रबल लालसा तो दूसरी ओर अपनी सामाजिक छवि के प्रति भी उतनी ही सजगता. पर क्या यह संभव है? क्या पिता जी को इस बात का बिलकुल भी अहसास नहीं था कि इन दोनों का तो रास्ता ही टकराहट का है?
सन् ’47 के मई महीने में शीला अग्रवाल को कॉलिज वालों ने नोटिस थमा दिया—लड़कियों को भड़काने और कॉलिज का अनुशासन बिगाड़ने के आरोप में. इस बात को लेकर हुड़दंग न मचे, इसलिए जुलाई में थर्ड इयर की क्लासेज़ बंद करके हम दो-तीन छात्राओं का प्रवेश निषिद्ध कर दिया.
हुड़दंग तो बाहर रहकर भी इतना मचाया कि कॉलिज वालों को अगस्त में आखिर थर्ड इयर खोलना पड़ा. जीत की ख़ुशी, पर सामने खड़ी बहुत-बहुत बड़ी चिर प्रतीक्षित खुशी के सामने यह ख़ुशी बिला गई.
शताब्दी की सबसे बड़ी उपलब्धि…15 अगस्त 1947
Illustrations: Pinterest