एक लड़की के कॉल गर्ल बनने की बेहद मार्मिक कहानी, जो अंत तक पहुंचते-पहुंचते आपको रुला देगी. इस कहानी के बारे में लेखिका अमृता प्रीतम ने लिखा था,‘‘गुरुवार का व्रत कहानी उस ज़मीन पर खड़ी है, जिससे मैं वाकिफ़ नहीं थी. एक बार एक अजनबी लड़की ने आकर मिन्नत-सी की कि मैं उसकी कहानी लिख दूं. और एक ही सांस में उसने कह दिया,‘मैं कॉलगर्ल हूं.’ उसी से, तन-बदन बेचने वाली लड़कियों के रोज़गार का कुछ अता-पता लिया, और उसके अंतर में पलती हुई उस पीड़ा को जाना, जो घर का एक स्वप्न लिए हुए, मन्नत-मुराद मांगती हैं किसी आने वाले जन्म के लिए.’’
आज गुरुवार था, इसलिए पूजा को आज काम पर नहीं जाना था.
बच्चे के जागने की आवाज़ से पूजा जल्दी से चारपाई से उठी और उसने बच्चे को पालने में से उठाकर अपनी अलसाई-सी छाती से लगा लिया,‘‘मन्नू देवता! आज रोना नहीं, आज हम दोनों सारा दिन बहुत-सी बातें करेंगे…सारा दिन….’’
यह सारा दिन पूजा को हफ़्ते में एक बार नसीब होता था. इस दिन वह मन्नू को अपने हाथों से नहलाती थी, सजाती थी, खिलाती थी और उसे कन्धे पर बिठाकर आसपास के बगीचे में ले जाती थी.
यह दिन आया का नहीं, मां का दिन होता था.
आज भी पूजा ने बच्चे को नहला-धुलाकर और दूध पिलाकर जब चाबी वाले खिलौने उसके सामने रख दिए, तो बच्चे की किलकारियों से उसका रोम-रोम पुलकित हो गया.
चैत्र मास के प्रारम्भिक दिन थे. हवा में एक स्वाभाविक ख़ुशबू थी, और आज पूजा की आत्मा में भी एक स्वाभाविक ममता छलक रही थी. बच्चा खेलते-खेलते थककर उसकी टांगों पर सिर रखकर ऊंघने लगा, तो उसे उठाकर गोदी में डालते हुए वह लोरियों जैसी बातें करने लगी,‘मेरे मन्नू देवता को फिर नींद आ गई…मेरा नन्हा-सा देवता…बस थोड़ा-सा भोग लगाया, और फिर सो गया…’’
पूजा ने ममता से विभोर होकर मन्नू का सिर भी चूम लिया, आंखें भी, गाल भी, गरदन भी-और जब उसे उठाकर चारपाई पर सुलाने लगी तो मन्नू कच्ची नींद के कारण रोने लगा. पूजा ने उसे उठाकर फिर कन्धे से लगा लिया और दुलारने लगी,‘‘मैं कहीं नहीं जा रही, मन्नू! आज मैं कहीं नहीं जाऊंगी.’’
लगभग डेढ़ वर्ष के मन्नू को शायद आज भी यह अहसास हुआ था कि मां जब बहुत बार उसके सिर व माथे को चूमती है, तो उसके बाद उसे छोड़कर चली जाती है.
और कन्धे से कसकर चिपटे हुए मन्नू को वह हाथ से दुलारती हुए कहने लगी,‘‘हर रोज तुम्हें छोड़कर चली जाती हूं न… जानते हो कहां जाती हूं? मैं जंगल में से फूल तोड़ने नहीं जाऊंगी, तो अपने देवता की पूजा कैसे करूंगी?’’
और पूजा के मस्तिष्क में बिजली के समान वह दिन कौंध गया, जब एक ‘गेस्ट हाउस’ की मालकिन मैडम डी. ने उसे कहा था,‘‘मिसिज़ नाथ! यहां किसी लड़की का असली नाम किसी को नहीं बताया जाता. इसलिए तुम्हें जो भी नाम पसन्द हो रख लो.’’
और उस दिन उसके मुंह से निकला था,‘‘मेरा नाम पूजा होगा.’’
गेस्ट हाउस वाली मैडम डी. हंस पड़ी थी,‘‘हां, पूजा ठीक है, पर किस मन्दिर की पूजा?’’
और उसने कहा था,‘‘पेट के मन्दिर की.’’
मां के गले से लगी बांहों ने जब बच्चे को आंखों में इत्मीनान से नींद भर दी, तो पूजा ने उसे चारपाई पर लिटाते हुए, पैरों के बल चारपाई के पास बैठकर अपना सिर उसकी छाती के निकट, चारपाई की पाटी पर रख दिया और कहने लगी,‘‘क्या तुम जानते हो, मैंने अपने पेट को उस दिन मन्दिर क्यों कहा था? जिस मिट्टी में से किसी देवता की मूर्ति मिल जाए, वहां मन्दिर बन जाता है-तू मन्नू देवता मिल गया तो मेरा पेट मन्दिर बन गया.’’
और मूर्ति को अर्ध्य देने वाले जल के समान पूजा की आंखों में पानी भर आया,‘‘मन्नू, मैं तुम्हारे लिए फूल चुनने जंगल में जाती हूं. बहुत बड़ा जंगल है, बहुत भयानक, चीतों से भरा हुआ, भेड़ियों से भरा हुआ, सांपों से भरा हुआ…’’
और पूजा के शरीर का कंपन, उसकी उस हथेली में आ गया, जो मन्नू की पीठ पर पड़ी थी…और अब वह कंपन शायद हथेली में से मन्नू की पीठ में भी उतर रहा था.
उसने सोचा-मन्नू जब खड़ा हो जाएगा, जंगल का अर्थ जान लेगा, तो मां से बहुत नफ़रत करेगा-तब शायद उसके अवचेतन मन में से आज का दिन भी जागेगा, और उसे बताएगा कि उसकी मां किस तरह उसे जंगल की कहानी सुनाती थी-जंगल की चीतों की, जंगल के भेड़ियों की और जंगल के सांपों की-तब शायद….उसे अपनी मां की कुछ पहचान होगी.
पूजा ने राहत और बेचैनी का मिला-जुला सांस लिया. उसे अनुभव हुआ जैसे उसने अपने पुत्र के अवचेतन मन में दर्द के एक कण को अमानत की तरह रख दिया हो.
पूजा ने उठकर अपने लिए चाय का एक गिलास बनाया और कमरे में लौटते हुए कमरे की दीवारों को ऐसे देखने लगी जैसे वह उसके व उसके बेटे के चारों ओर बनी हुई किसी की बहुत प्यारी बांहें हों…उसे उसके वर्तमान से भी छिपाकर बैठी हुई….
पूजा ने एक नज़र कमरे के उस दरवाज़े की तरफ़ देखा-जिसके बाहर उसका वर्तमान बड़ी दूर तक फैला हुआ था….
शहर के कितने ही गेस्ट हाउस, एक्सपोर्ट के कितने ही कारखाने, एअर लाइन्स के कितने ही दफ़्तर और साधारण कितने ही कमरे थे, जिनमें उसके वर्तमान का एक-एक टुकड़ा पड़ा हुआ था.
परन्तु आज गुरुवार था-जिसने उसके व उसके वर्तमान के बीच में एक दरवाज़ा बन्द कर दिया था.
बन्द दरवाज़े की हिफ़ाज़त में खड़ी पूजा को पहली बार यह ख़याल आया कि उसके धन्धे में गुरुवार को छुट्टी का दिन क्यों माना गया है?
इस गुरुवार की गहराई में अवश्य कोई राज़ होगा-वह नहीं जानती थी, अतः ख़ाली-ख़ाली निगाहों से कमरे की दीवारों को देखने लगी…
इन दीवारों के उस पार उसने जब भी देखा था-उसे कहीं अपना भविष्य दिखाई नहीं दिया था, केवल यह वर्तमान था…जो रेगिस्तान की तरह शहर की बहुत-सी इमारतों में फैल रहा था….
और पूजा यह सोचकर कांप उठी कि यही रेगिस्तान उसके दिनों से महीनों में फैलता हुआ-एक दिन महीनों से भी आगे उसके बरसों में फैल जाएगा.
और पूजा ने बन्द दरवाज़े का सहारा लेकर अपने वर्तमान से आंखें फेर लीं. उसकी नज़रें पैरों के नीचे फर्श पर पड़ीं, तो बीते हुए दिनों के तहखाने में उतर गईं. तहखाने में बहुत अंधेरा था….बीती हुई ज़िन्दगी का पता नहीं क्या-क्या, कहां-कहां पड़ा हुआ था, पूजा को कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था. परन्तु आंखें जब अंधेरे में देखने की अभ्यस्त हुईं तो देखा-तहखाने के बाईं तरफ़, दिल की ओर, एक कण-सा चमक रहा था. पूजा ने घुटनों के बल बैठकर उसे हाथ से छुआ. उसके सारे बदन में एक गरम-सी लकीर दौड़ गई और उसने पहचान लिया-यह उसके इश्क़ का ज़र्रा था, जिसमें कोई आग आज भी सलामत थी.
और इसी रोशनी में नरेन्द का नाम चमका-नरेन्द्रनाथ चौधरी का जिससे उसने बेपनाह मुहब्बत की थी. और साथ ही उसका अपना नाम भी चमका-गीता, गीता श्रीवास्तव.
वह दोनों अपनी-अपनी जवानी की पहली सीढ़ी चढ़े थे-जब एक-दूसरे पर मोहित हो गए थे. परन्तु चौधरी और श्रीवास्तव दो शब्द थे-जो एक-दूसरे के वजूद से टकरा गए थे
उस समय नरेन्द्र ने अपने नाम से चौधरी व गीता ने अपने नाम से श्रीवास्तव शब्द झाड़ दिया था. और वह दोनों टूटे हुए पंखों वाले पक्षियों की तरह हो गए थे.
चौधरी श्रीवास्तव दोनों शब्दों की एक मजबूरी थी-चाहे-अलग-अलग तरह की थी. चौधरी शब्द के पास अमीरी का गुरूर था. इसलिए उसकी मजबूरी उसका यह भयानक ग़ुस्सा था, जो नरेन्द्र पर बरस पड़ा था. और श्रीवास्तव के पास बीमारी और ग़रीबी की निराशा थी-जिसकी मजबूरी गीता पर बरस पड़ी थी, और पैसे के कारण दोनों को कॉलेज की पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी.
और जब एक मन्दिर में जाकर दोनों ने विवाह किया था, तब चौधरी और श्रीवास्तव दोनों शब्द उनके साथ मन्दिर में नहीं गए थे. और मन्दिर से वापस लौटते क़दमों के लिए चौधरी-घर का अमीर दरवाज़ा ग़ुस्से के कारण बन्द हो गया था और श्रीवास्तव-घर का ग़रीबी की मजबूरी के कारण.
फिर किसी रोज़गार का कोई भी दरवाज़ा ऐसा नहीं था, जो उन दोनों ने खटखटाकर न देखा हो. सिर्फ़ देखा था कि हर दरवाज़े से मस्तक पटक-पटककर उन दोनों मस्तकों पर सख़्त उदासी के नील पड़ गए थे.
रातों को वह बीते हुए दिनों वाले होस्टलों में जाकर, किसी अपने जानने वाले के कमरे में पनाह मांग लेते थे और दिन में उनके पैरों के लिए सड़कें खुल जाती थीं. वही दिन थे-जब गीता को बच्चे की उम्मीद हो आई थी.
गीता की कॉलेज की सहेलियों ने और नरेन्द्र के कॉलेज के दोस्तों ने उन दिनों में कुछ पैसे इकट्ठे किए थे, और दोनों ने जमुना पार की एक नीची बस्ती में सरकण्डों की एक झुग्गी बना ली थी-जिसके बाहर चारपाई बिछाकर गीता आलू, गोभी और टमाटर बेचने लगी थी, और नरेन्द्र नंगे पांव सड़कों पर घूमता हुआ काम ढूंढ़ने लगा था.
खैरायती हस्पताल के दिन और भी कठिन थे-और जब गीता अपने सात दिन के मन्नू को गोद में लेकर, सरकण्डों की झुग्गी में वापस आई थी-तो बच्चे के लिए दूध का सवाल भी झुग्गी में आकर बैठ गया था.
और कमेटी के नलके से पानी भरकर लाने वाला समय.
पूजा के पैरों में दर्द की एक लहर उठकर आज भी, उसके पैरों को सुन्न करती हुई, ऊपर की रीढ़ की हड्डी में फैल गई, जैसे उस समय फैलती थी, जब वह गीता थी, और उसके हाथ में पकड़ी हुई पानी की बाल्टी का बोझ, पीठ में भी दर्द पैदा करता था, और गर्भ वाले पेट में भी.
पूजा ने तहखाने में पड़े हुए दिनों को वहीं हाथ से झटककर अंधेरे में फेंक दिया और उस सुलगते हुए कण की ओर देखने लगी, जो आज भी उसके मन के अंधेरे में चमक रहा था.
जब वह घबराकर नरेन्द्र की छाती से कसकर लिपट जाती थी-तो उसकी अपनी छाती में से सुख पिघलकर उसकी रगों में दौड़ने लगता था.
पूजा के पैरों से फिर एक कंपन उसके माथे तक गया-जब तहखाने में पड़े हुए दिनों में से-अचानक एक दिन उठकर कांटे की तरह उसके पैरों में चुभ गया-जब नरेन्द्र को हर रोज़ हल्का-हल्का बुखार चढ़ने लगा था, और वह मन्नू को नरेन्द्र की चारपाई के पास डालकर नौकरी की तलाश करने चली गई थी. उसे यह विचार आया कि वह इस देश में जन्मी-पली नहीं थी, बाप की तरफ़ से वह श्रीवास्तव कहलाती थी, परन्तु वह नेपाल की लड़की थी, मां की तरफ़ से नेपाली, इस कारण उसे शायद अपने या किसी और देश के दूतावास में ज़रूर कोई नौकरी मिल जाएगी-और इसी सिलसिले में वह सब्ज़ी बेचने का काम नरेन्द्र को सौंपकर हर रोज़ नौकरी की तलाश में जाने लगी थी.
‘मिस्टर एच’ पूजा को यह नाम अचानक इस तरह याद आया जैसे वह जीवन के जलकर राख हुए कुछ दिनों को कुरेद रही हो, और अचानक उसका हाथ उस राख में किसी गर्म अंगारे को छू गया हो.
वह उसे एक दूतावास के ‘रिसेप्शन रूम’ में मिला था. एक दिन कहने लगा,‘‘गीता देवी ! मैं तुम्हें हर रोज़ यहां चक्कर लगाते देखता हूं. तुम्हें नौकरी चाहिए? मैं तुम्हें नौकरी दिलवा देता हूं. यह लो, तुम्हें पता लिख देता हूं, अभी चली जाओ. आज ही नौकरी का प्रबन्ध हो जाएगा…’’ और पूजा, जब गीता होती थी, काग़ज़ का वह टुकड़ा पकड़कर, अचानक मेहरबान हुई किस्मत पर हैरान खड़ी रह गई थी.
वह पता एक गेस्ट हाउस की मालकिन,‘मैडम डी’ का था, जहां पहुंचकर वह और भी हैरान रह गई थी, क्योंकी नौकरी देने वाली मैडम डी उसे ऐसे तपाक से मिली जैसे पुराने दिनों की कोई सहेली मिली हो. गीता को एक ठण्डे कमरे में बिठाकर उसने गर्म चाय और भुने हुए कबाब खिलाए थे.
नौकरी किस-किस काम की होगी, कितने घंटे वह कितने तनख़्वाह-जैसे सवाल उसकी होंठों पर जितनी बार आते रहे, मैडम डी उतनी बार मुस्करा देती थी. कितनी देर के बाद उसने केवल यह कहा था,‘‘क्या नाम बताया था? मिसिज़ गीता नाथ? परन्तु इसमें कोई आपत्ति तो नहीं अगर मैं मिसिज़ नाथ की अपेक्षा तुम्हें मिस नाथ कहा करूं?’’
गीता हैरान हुई, पर हंस पड़ी,‘‘मेरे पति का नाम नरेन्द्र नाथ है. इसी कारण अपने आपको मिसिज़ नाथ कहती हूं. आप लोग मुझे मिस नाथ कहेंगे तो आज जाकर उन्हें बताऊंगी कि अब मैं उनकी पत्नी के साथ-साथ उनकी बेटी हो गई हूं.’’
मैडम डी कुछ देर तक उसके मुंह की तरफ़ देखती रही, कुछ बोली नहीं, और जब गीता ने पूछा,‘‘तनख़्वाह कितनी होगी?’’ तो उसने जवाब दिया था,‘‘पचास रुपए रोज़.’’
‘‘सच?’’ कमरे के सोफ़े पर बैठी गीता-जैसे ख़ुशी से दोहरी होकर मैडम डी के पास घुटनों के बल बैठ गई थी.
‘‘देखो! आज तुमने कोई अच्छे कपड़े नहीं पहने हैं! मैं तुम्हें अपनी एक साड़ी उधार देती हूं, तुम साथ वाले बाथरूम में हाथ धोकर वह साड़ी पहन लो.’’ मैडम डी ने कहा, और गीता मन्त्रमुग्ध-सी उसके कहने पर जब कपड़े बदलकर आई तो मैडम डी ने पचास रुपए उसके सामने रख दिए,‘‘आज की तनख़्वाह.’’
इस परी-कहानी जैसी नौकरी के जादू के प्रभाव से अभी गीता की आंखें मुंदी जैसी थीं कि मैडम डी. उसका हाथ पकड़कर उसे ऊपर की छत के उस कमरे में छोड़ आई, जहां परी-कहानी का एक राक्षस उसकी प्रतीक्षा कर रहा था.
*****
कमरे के दरवाज़े पर बार-बार दस्तक सुनी, तो पूजा ने इस तरह हांफते हुए दरवाज़ा खोला जैसे वह तहखाने में से बहुत-सी सीढ़ियां चढ़कर बाहर आई हो.
‘‘रात की रानी-दिन में सो रही थी?’’ दरवाज़े से अन्दर आते हुए शबनम ने हंसते-हंसते कहा, और पूजा के बिखरे हुए बालों की तरफ़ देखते हुए कहने लगी,‘‘तेरी आंखों में तो अभी भी नींद भरी हुई है, राम के खसम ने क्या सारी रात जगाए रखा था?’’
शबनम को बैठने के लिए कहते हुए पूजा ने ठण्डी सांस ली,‘‘कभी-कभी जब रात का खसम नहीं मिलता, तो अपना दिल ही अपना खसम बन जाता है, वह कम्बख्त रात को जगाए रखता है….’’ शबनम हंस पड़ी, और दीवान पर बैठते हुए कहने लगी,‘‘पूजा दीदी! दिल तो जाने कम्बख्त होता है या नहीं, आज का दिन ही ऐसा होता है, जो दिल को भी कम्बख्त बना देता है. देख, मैंने भी तो आज पीले कपड़े पहने हुए हैं और मन्दिर में आज पीले फूलों का प्रसाद चढ़ाकर आई हूं….’’
‘‘आज का दिन? क्या मतलब?’’ पूजा ने शबनम के पास दीवान पर बैठते हुए पूछा.
‘‘आज का दिन, गुरुवार का. तुझे पता नहीं?’’
‘‘सिर्फ़ इतना पता है कि आज के दिन छुट्टी होती है’’ पूजा ने कहा. तो शबनम हंसने लगी,‘‘देख ले. हमारे सरकारी दफ़्तर में भी छुट्टी होती है.’’
‘‘मैं सोच रही थी कि हमारे धन्धे में इस गुरुवार को छुट्टी का दिन क्यों माना गया है.’’
‘‘हमारे संस्कार’’ शबनम के होंठ पर एक बल खाकर हंसने जैसे हो गए. वह कहने लगी,‘‘औरत चाहे वेश्या भी बन जाए परन्तु उसके संस्कार नहीं मरते. यह दिन औरत के लिए पति का दिन होता है. पति व पुत्र के नाम पर वह व्रत भी रखती है, पूजा भी करती है. छः दिन धन्धा करके भी वह पति और पुत्र के लिए दुआ मांगती है…’’
पूजा की आंखों में पानी-सा भर आया,‘‘सच.’’ और वह धीरे से शबनम को कहने लगी,‘‘मैंने तो पति भी देखा है, पुत्र भी. तुमने तो कुछ भी नहीं देखा…’’
‘‘जब कुछ न देखा हो, तभी तो सपना देखने की ज़रूरत पड़ती है…’’ शबनम ने एक गहरी सांस ली,‘‘इस धन्धे में आकर किसने पति देखा है…?’’ और कहने लगी,‘‘जिसे कभी मिल भी जाता है, वह भी चार दिन के बाद पति नहीं रहता, दलाल बन जाता है…तुझे याद नहीं, एक शैला होती थी…’’
‘‘शैला ?’’ पूजा को वह सांवली और बांकी-सी लड़की याद हो आई, जो एक दिन अचानक हाथ में हाथी-दांत का चूड़ा पहनकर और मांग में सिन्दूर भरकर, मैडम को अपनी शादी का तोहफ़ा देने आई थी, और गेस्ट हाउस में लड्डू बांट गई थी. उस दिन उसने बताया था कि उसका असली नाम कान्ता है. शबनम कहने लगी,‘‘वही शैला, जिसका नाम कान्ता था. तुझे पता है उसका क्या हुआ?’’
‘‘कोई उसका ग्राहक था, जिसने उसके साथ विवाह कर लिया था…’’
‘‘ऐसे पति विवाह के मन्त्रों को भी धोखा दे देते हैं. उससे शादी करके उसे बम्बई ले गया था, यहां दिल्ली में उसे बहुत-से लोग जानते होंगे, बम्बई में कोई नहीं जानता, इसलिए वहां वे नेक ज़िन्दगी शुरू करेंगे…’’
‘‘फिर?’’ पूजा की सांस जैसे रुक-सी गई.
‘‘अब सुना है कि वहां बम्बई में वह आदमी उस ‘नेक ज़िन्दगी’ से बहुत पैसे कमाता है’’…
पूजा के माथे पर त्योरियां पड़ गईं, वह कहने लगी,‘‘फिर तू मन्दिर में उस तरह का पति क्यों मांगने गई थी?’’
शबनम चुप-सी हो गई, फिर कहने लगी,‘‘नाम बदलने से कुछ नहीं होता. मैंने नाम तो शबनम रख लिया है, परन्तु अन्दर से वही शकुन्तला हूं-जो बचपन में किसी दुष्यन्त का सपना देखती थी…अब ये समझ लिया है कि जैसे शकुन्तला की ज़िन्दगी में वह भी दिन आया था, जब दुष्यन्त उसे भूल गया था…मेरा यह जन्म उसी दिन जैसा है.’’
पूजा का हाथ अनायास ही शबनम के कन्धे पर चला गया और शबनम ने आंखें नीची कर लीं. कहने लगी,‘‘मैं जानती हूं…इस जन्म में मेरा यह शाप उतर जाएगा.’’
पूजा का निचला होंठ जैसे दांतों तले आकर कट गया. कहने लगी,‘‘तू हमेशा यह गुरुवार का व्रत रखती है?’’
‘‘हमेशा…आज के दिन नमक नहीं खाती, मन्दिर में गुण और चने का प्रसाद चढ़ाकर केवल वही खाती हूं…बृहस्पति की कथा भी सुनती हूं, जप का मन्त्र भी लिया हुआ है….और भी जो विधियां हैं…’’ शबनम कह रही थी, जब पूजा ने प्यार से उसे अपनी बांहों में ले लिया और पूछने लगी,‘‘और कौन-सी विधियां?’’
शबनम हंस पड़ी,‘‘यही कि आज के दिन कपड़े भी पीले ही रंग के होते हैं, उसी का दान देना और वही खाने….मन्त्र की माला जपने और वह भी सम में….इस माला के मोती दस, बारह या बीस की गिनती में होते हैं. ग्यारह, तेरह या इक्कीस की गिनती में नहीं-यानी जो गिनती-जोड़ी-जोड़ी से पूरी आए, उसका कोई मनका अकेला न रह जाए…’’
शबनम की आंखों में आंसू आने को थे कि वह ज़ोर से हंस पड़ी. कहने लगी,‘‘इस जन्म में तो यह ज़िन्दगी का मनका अकेला रह गया है, पर शायद अगले जन्म में इसकी जोड़ी का मनका इसे मिल जाए…’’ और पूजा की ओर देखते हुए कहने लगी, ‘‘जिस तरह दुष्यन्त की अंगूठी दिखाकर शकुन्तला ने उसे याद कराया था-उसी तरह शायद अगले जन्म में मैं इस व्रत-नियम की अंगूठी दिखाकर उसे याद करा दूंगी कि मैं शकुन्तला हूं…’’
पूजा की आंखें डबडबा आई ..आज से पहले उसने किसी के सामने ऐसे आंखें नहीं भरी थी कहने लगी तू जो शाप उतार रही है, वह मैं चढ़ा रही हूं… मैंने इस जन्म में पति भी पाया ,पुत्र भी…पर…’’
‘‘सच तेरे पति को बिलकुल मालूम नहीं?’’ शबनम से हैरानी से पूछा.
‘‘बिलकुल पता नहीं… जब मैंने यह कहा था की मुझे दूतावास में काम मिल गया है तब बहुत डर गई थी जब उसने दूतावास का नाम पूछा था उस समय एक बात सूझ गई मैंने कहा की मुझे एक जगह बैठने का काम नहीं मिला है काम इनडायरेक्ट है मुझे कई कम्पनियों में जाना पड़ता है उनसे इश्तिहार लाने होते हैं .जिनमें इतनी कमीशन मिल जाती है जो ऑफ़िस में बैठने में नहीं मिलती,’’पूजा ने बताया और कहने लगी,‘‘वह बहुत बीमार था इसलिए हमेशा डॉक्टरों और दवाई की बातें होती रहती थीं…फिर डॉक्टर ने उसको सोलन भेज दिया हस्पताल में क्योंकि घर में रहने से बच्चों को बीमार होने का ख़तरा रहता…इस लिए अभी तक शक का कोई मौक़ा नहीं मिला उसको.’’
शबनम ने कहा,‘‘कई लड़कियों ने जिन्होंने घर में बताया हुआ है वह किसी एक्सपोर्ट कंपनी में काम करती है उनके घर वाले सब जानते हैं पर चुप रहते हैं.’’
पूजा ने कहा,‘‘अगर नरेंदर को पता चल जाएगा तो वह तो आत्महत्या कर लेगा. वह जी नहीं पाएगा.’’
‘‘पर जब वह हस्पताल से वापस आएगा और किसी दिन उसको कुछ पता चल गया तो…’’
शबनम की बात सुन कर पूजा कहने लगी,‘‘कुछ पैसा इकट्ठा हो जाए तो दो-तीन रिक्शा किराए पर दाल दूंगी पैसे आ जाएंगे.’’
शबनम ने यह सुन कर कहा,‘‘यह काम कोई आसान नहीं है वह दिन बीत गए जब यह मज़दूर अपने मालिकों को कुछ कमा कर देते थे.’’
पूजा चिंता में डूब गई… तो शबनम ने कहा,‘‘तुम्हें अगर यह धंधा छोड़ना भी है तो अभी इस साल मत सोचना यह 1982 में सीज़न का साल है. शहर में ट्रेड फे़यर लगने वाला है, जितनी कमाई इस साल होगी उतनी पांच सालों में नहीं हो सकती है… एक बार हाथ में पैसा इकट्ठा हो जाए…’’
पूजा इस साल के पैसों की गिनती-सी करने लगी. जब मन्नू के जागने की आवाज़ आई तो वह जल्दी से दीवान से उठते हुए शबनम से बोली,‘‘तू जाना मत, कुछ खा कर जाना.’’ और साथ ही हंस पड़ी,‘‘तुम्हारे व्रत के खाने में नमक खाना मना है न, इसलिए किसी चीज़ में इस दुनिया का नमक नहीं डालूंगी.’’
Illustrations: Manisha Ghosh @Pinterest