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ओए अफ़लातून
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जड़ें: विभाजन की पृष्ठभूमि पर लिखी कहानी (लेखिका: इस्मत चुग़ताई)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
March 1, 2021
in क्लासिक कहानियां, ज़रूर पढ़ें, बुक क्लब
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जड़ें: विभाजन की पृष्ठभूमि पर लिखी कहानी (लेखिका: इस्मत चुग़ताई)
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विभाजन के दौर में नई खिंची सरहद के दोनों ओर अफ़रातफ़री का माहौल था. जानमाल की हिफ़ाज़त के लिए हिंदुस्तान की ज़मीन पर खिंची इस ताज़ातरीन लकीर को पार करने की जद्दोजहद के बीच, कुछ लोग ऐसे भी थे, जो अपनी जड़ों को छोड़कर, नए मुल्क़ में जाने के लिए तैयार नहीं थे.

सबके चेहरे उड़े हुए थे. घर में खाना तक न पका था. आज छठा दिन था. बच्चे स्कूल छोड़े, घर में बैठे, अपनी और सारे परिवार की ज़िंदगी बवाल किए दे रहे थे. वही मार पिटाई, धौल धप्पा वही उधम, जैसे कि आया ही न हो. कमबख़्तों को यह भी ध्यान नहीं कि अंग्रेज़ चले गए और जाते जाते ऐसा गहरा घाव मार गए जो वर्षों रिसता रहेगा. भारत पर अत्याचार कुछ ऐसे क्रूर हाथों और शस्त्रों से हुआ है कि हज़ारों धमनियां कट गई हैं, ख़ून की नदियां बह रही हैं. किसी में इतनी शक्ति नहीं कि टांका लगा सके.
कुछ दिनों से शहर का वातावरण ऐसा गन्दा हो रहा था कि शहर के सारे मुसलमान एक तरह से नज़रबन्द बैठे थे. घरों में ताले पड़े थे और बाहर पुलिस का पहरा था. और इस तरह कलेजे के टुकड़ों को, सीने पर मूंग दलने के लिए छोड़ दिया गया था. वैसे सिविल लाइंस में अमन ही था, जैसा कि होता है. ये तो गन्दगी वहीं अधिक उछलती है, जहां ये बच्चे होते हैं. जहां ग़रीबी होती है, वहीं अज्ञानता के घोड़े पर धर्म के ढेर बजबजाते हैं. और ये ढेर कुरेदे जा चुके हैं. ऊपर से पंजाब से आनेवालों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही थी जिससे अल्पसंख्यकों के दिलों में ख़ौफ़ बढ़ता ही जा रहा था. गन्दगी के ढेर तेज़ी से कुरेदे जा रहे थे और दुर्गन्ध रेंगती-रेंगती साफ़-सुथरी सड़कों पर पहुंच चुकी थी.
दो स्थानों पर तो खुला प्रदर्शन भी हुआ. लेकिन मारवाड़ राज्य के हिन्दू और मुसलमान इस प्रकार एक-दूसरे के समान हैं कि इन्हें नाम, चेहरे या कपड़े से भी बाहर वाले बड़ी मुश्क़िल से पहचान सकते हैं. बाहर वाले अल्पसंख्यक लोग जो आसानी से पहचाने जा सकते थे, वो तो पन्द्रह अगस्त की महक पाकर ही पाकिस्तान की सीमाओं से खिसक गए थे. बच गए राज्य के पुराने निवासी, तो उनमें ना तो इतनी समझ थी और ना ही इनकी इतनी हैसियत थी कि पाकिस्तान और भारत की समस्या इन्हें कोई बैठकर समझाता. जिन्हें समझना था, वह समझ चुके थे और वह सुरक्षित भी हो चुके थे. शेष जो ये सुनकर गए थे, कि चार आने का गेहूं और चार आने की हाथ भर लम्बी रोटी मिलती है, वो लूट रहे थे. क्योंकि वहां जाकर उन्हें यह भी पता चला कि चार सेर का गेहूं ख़रीदने के लिए एक रुपए की भी ज़रूरत होती है. और हाथ भर लम्बी रोटी के लिए पूरी चवन्नी देनी पड़ती है. और ये रुपया, अठन्नियां न किसी दुकान में मिलीं न ही खेतों में उगीं. इन्हें प्राप्त करना इतना ही कठिन था जितना जीवित रहने के लिए भाग-दौड़.
जब खुल्लमखुल्ला इलाकों से अल्पसंख्यकों को निकालने का निर्णय लिया गया तो बड़ी कठिनाई सामने आई. ठाकुरों ने साफ़ कह दिया कि साहब जनता ऐसी गुंथी-मिली रहती है कि मुसलमानों को चुनकर निकालने के लिए स्टाफ़ की ज़रूरत है. जो कि एक फ़ालतू ख़र्च है. वैसे आप अगर ज़मीन का कोई टुकड़ा शरणार्थियों के लिए ख़रीदना चाहें तो वो ख़ाली कराए जा सकते हैं. जानवर तो रहते ही हैं. जब कहिए जंगल साफ़ करवा दिया जाए.
अब शेष रह गए कुछ गिने-चुने परिवार जो या तो महाराजा के चेले-चपाटे में से थे और जिनके जाने का सवाल ही कहां. और जो जाने को तुले बैठे थे उनके बिस्तर बंध रहे थे. हमारा परिवार भी उसी श्रेणी में आता था. जल्दी न थी. मगर इन्होंने तो आकर बौखला ही दिया. फिर भी किसी ने अधिक महत्त्व नहीं दिया. वह तो किसी के कान पर जूं तक न रेंगती और वर्षों सामान न बंधता जो अल्लाह भला करे छब्बा मियां का, वो पैंतरा न चलते. बड़े भाई तो जाने ही वाले थे, कह-कहकर हार गए थे तो मियां छब्बा ने क्या किया कि स्कूल की दीवार पर ‘पाकिस्तान ज़िंदाबाद’ लिखने का फ़ैसला कर लिया. रूपचन्द जी के बच्चों ने इसका विरोध किया और उसकी जगह ‘अखंड भारत’ लिख दिया. निष्कर्ष ये कि चल गया जूता और एक-दूसरे को धरती से मिटा देने का वचन. बात बढ़ गई. यहां तक कि पुलिस आ गई और जो कुछ गिनती के मुसलमान बचे थे उन्हें लॉरी में भरकर घरों में भिजवा दिया गया.
अब सुनिए, कि ज्योंही बच्चे घर में आए, हमेशा हैजा, महामारी के हवाले करनेवाली मांएं ममता से बेक़रार होकर दौड़ीं और कलेजे से लगा लिया. और कोई दिन ऐसा भी होता कि रूपचन्द जी के बच्चों से छब्बा लड़कर आता तो दुल्हन भाभी उसकी वह जूतियों से मरहम-पट्टी करतीं कि तौबा भली और उठाकर इन्हें रूपचन्द के पास भेज दिया जाता कि पिलाएं उसे अरंडी का तेल और कोनेन का मिश्रण, क्योंकि रूपचन्द जी हमारे ख़ानदानी डॉक्टर ही नहीं, अब्बा के पुराने दोस्त भी थे. डॉक्टर साहब की दोस्ती अब्बा से, इनके बेटों की भाइयों से, बहुओं की हमारी भावजों से, और नई पौध की नई पौध से आपस में दांतकाटी दोस्ती थी. दोनों परिवार की वर्तमान तीन पीढ़ियां एक-दूसरे से ऐसी घुली-मिली थीं कि कोई सोच भी नहीं सकता था कि भारत के बंटवारे के बाद इस प्रेम में दरार पड़ जाएगी. जबकि दोनों परिवारों में मुस्लिम लीगी, कांग्रेसी और महासभाई मौजूद थे. धार्मिक और राजनीतिक वाद-विवाद भी जमकर होता था मगर ऐसे ही जैसे फ़ुटबॉल या क्रिकेट मैच होता है. इधर अब्बा कांग्रेसी थे तो उधर डॉक्टर साहब और बड़े भाई लीगी थे तो उधर ज्ञानचन्द महासभाई, इधर मंझले भाई कम्युनिस्ट थे तो उधर गुलाबचन्द सोशलिस्ट और फिर इसी हिसाब से मर्दों की पत्नियां और बच्चे भी इसी पार्टी के थे. आमतौर पर जब बहस-मुबाहिसा होता तो कांग्रेस का पलड़ा हमेशा भारी रहता, कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट गालियां खाते मगर कांग्रेस ही में घुस पड़ते. बच जाते महासभाई और लीगी. ये दोनों हमेशा साथ देते वैसे वह एक-दूसरे के दुश्मन होते, फिर भी दोनों मिलकर कांग्रेस पर हमला करते.
लेकिन इधर कुछ साल से मुस्लिम लीग का ज़ोर बढ़ता जा रहा था और दूसरी ओर महासभा का. कांग्रेस का तो बिलकुल पटरा हो गया. बड़े भाई की देख-रेख में घर की सारी पौध केवल दो-एक पक्षपात रहित कांग्रेसियों को छोड़कर नैशनल गार्ड की तरह डट गई. इधर ज्ञानचन्द की सरदारी में सेवक संघ का छोटा-सा दल डट गया. मगर प्रेम वही रहा पहले जैसा.
‘‘अपने लल्लू की शादी तो मुन्नी ही से करूंगा.’’ महासभाई ज्ञानचन्द के लीगी पिता से कहते,‘‘सोने के पाजेब लाऊंगा.’’
‘‘यार मुलम्मे की न ठोक देना.’’ अर्थात् बड़े भाई ज्ञानचन्द की साहूकारी पर हमला करते हैं.
और इधर नैशनल गार्ड दीवारों पर,‘‘पाकिस्तान ज़िंदाबाद’’ लिख देते और सेवक संघ का दल इसे बिगाड़ कर ‘अखंड भारत’ लिख देता. यह उस समय की घटना है जब पाकिस्तान का लेन-देन एक हंसने-हंसाने की बात थी.
अब्बा और रूपचन्द यह सब कुछ सुनते और मुस्कुराते और फिर सबको एक बनाने के इरादे बांधने लगते.
अम्मा और चाची राजनीति से दूर धनिए, हल्दी और बेटियों के दहेजों की बातें किया करतीं और बहुएं एक-दूसरे के फ़ैशन चुराने की ताक में लगी रहतीं, नमक-मिर्च के साथ-साथ डॉक्टर साहब के यहां से दवाएं भी मंगवाई जातीं. हर दिन किसी को छींक आई और वह दौड़ा डॉक्टर साहब के पास या जहां कोई बीमार हुआ और अम्मा ने दाल भरी रोटी बनवानी शुरू की और डॉक्टर साहब को कहला भेजा कि खाना हो तो आ जाएं. अब डॉक्टर साहब अपने पोतों का हाथ पकड़े आ पहुंचे.
चलते वक्त पत्नी कहतीं,‘‘खाना मत खाना, सुना.’’
‘‘हां, तो फिर फ़ीस कैसे वसूल करूं देखो जी लाला और चुन्नी को भेज देना.’’
‘‘हाय राम तुम्हें तो लाज भी नहीं आती’’ चाची बड़बड़ातीं. मज़ा तो तब आता जब कभी अम्मा की तबीयत ख़राब होती और अम्मा कांप जातीं.
‘‘ना भई ना मैं इस जोकर से इलाज नहीं करवाऊंगी.’’ मगर घर के डॉक्टर को छोड़कर शहर से कौन बुलाने जाता. डॉक्टर साहब बुलाते ही दौड़े चले आते,‘‘अकेले-अकेले पुलाव उड़ाओगी तो बीमार पड़ोगी,’’ वह चिल्लाते.
‘‘जैसे तुम खाओ हो वैसा औरों को समझते हो,’’अम्मा पर्दे के पीछे से भिनभिनातीं.
‘‘अरे ये बीमारी का तो बहाना है भई, तुम वैसे ही कहला भेजा करो, मैं आ जाया करूंगा. ये ढोंग काहे को रचती हो.’’ आंखों में शरारत जमाकर मुस्कुराते और अम्मा जल कर हाथ खींच लेती और बातें सुनातीं. अब्बा मुस्कुरा कर रह जाते.
एक मरीज़ को देखने आते तो घर के सारे रोगी खड़े हो जाते. कोई अपना पेट लिए चला आ रहा है तो किसी का फोड़ा छिल गया. किसी का कान पक गया है तो किसी की नाक फूली पड़ी है.
‘‘क्या मुसीबत है डिप्टी साहब! एकाध को ज़हर दे दूंगा. क्या मुझे ‘सलोतरी’ समझ रखा है कि दुनिया भर के जानवर टूट पड़े.’’ वह रोगियों को देखते जाते और मुस्कुराते.
और जहां कोई नया बच्चा जनमने वाला होता तो वह कहते
‘‘मुफ़्त का डॉक्टर है पैदा किए जाओ कमबख़्त के सीने पर कोदो दलने के लिए.’’
मगर ज्योंही दर्द शुरू होता, वह अपने बरामदे से हमारे बरामदे का चक्कर काटने लगते. चीख चिंघाड़ से सबको बौखला देते. मोहल्ले-टोले वालों का आना तक मुश्क़िल.
पर ज्योंही बच्चे की पहली आवाज़ इनके कानों में पहुंचती वह बरामदे से दरवाज़ा, दरवाज़े से कमरे के अन्दर आ जाते और इनके साथ अब्बा भी बावले होकर आ जाते. औरतें कोसती-पीटती पर्दे में हो जातीं. बच्चे की नाड़ी देखकर वह उसकी मां की पीठ ठोकते ‘वाह मेरी शेरनी,’ और बच्चे का नाल काटकर उसे नहलाना शुरू कर देते. अब्बा घबरा-घबराकर फूहड़ नर्स का काम करते. फिर अम्मा चिल्लाना शुरू कर देतीं.
‘‘लो ग़ज़ब ख़ुदा का ये मर्द हैं कि जच्चा घर में पिले पड़ते हैं.’’
परिस्थिति को भांप कर दोनों डांट खाए हुए बच्चे की तरह बाहर भागते.
अब फिर अब्बा के ऊपर जब फ़ालिज़ का हमला हुआ तो रूपचन्द जी अस्पताल से रिटायर हो चुके थे और इनकी सारी प्रैक्टिस इनके और हमारे घर तक ही सीमित रह गई थी. इलाज तो और भी कई डॉक्टर कर रहे थे मगर नर्स के और अम्मा के साथ डॉक्टर साहब ही जागते, और जिस समय से वह अब्बा को दफ़ना कर आए, ख़ानदानी प्रेम के इलावा इन्हें ज़िम्मेदारी का भी एहसास हो गया. बच्चों की फ़ीस माफ़ कराने स्कूल दौड़े जाते. लड़कियों-बालियों के दहेज के लिए ज्ञानचन्द की वाणी बन्द रखते. घर का कोई भी विशेष कार्य बिना डॉक्टर साहब की राय के न होता. पश्चिमी कोने को तुड़वाकर जब दो कमरे बढ़ाने का प्रश्न उठा तो डॉक्टर साहब की ही राय से तुड़वाया गया.
‘‘उससे ऊपर दो कमरे बढ़वा लो,’’ उन्होंने राय दी और वह मानी गई. फ़जन एफ़. ए. में साइंस लेने को तैयार न था, डॉक्टर साहब जूता लेकर पिल पड़े मामला ठंडा हो गया. फ़रीदा, मियां से लड़कर घर आन बैठी, डॉक्टर साहब के पास उसका पति पहुंचा और दूसरे दिन उनकी मंझली बहू शीला जब ब्याह कर आई तो आया का झगड़ा भी समाप्त हो गया. बेचारी अस्पताल से भागी आई. फ़ीस तो दूर की चीज़ है ऊपर से छठे दिन कुर्ता-टोपी लेकर आई.
पर आज जब छब्बा लड़कर आए तो इनकी ऐसी आवभगत हुई जैसे मैदान मार कर आया हो कोई बहादुर मर्द. सभी ने इसकी बहादुरी का वर्णन जानना चाहा और बहुत-सी जवानों के सामने अम्मा गूंगी बनी रहीं. आज से नहीं, वह 15 अगस्त से जब डॉक्टर साहब के घर पर तिरंगा झंडा लहराया और अपने घर पर लीग का झंडा टंगा था उसी दिन से उनकी ज़ुबान को चुप लग गई थी. इन झंडों के बीच एक लम्बी खाई का निर्माण हो चुका था. जिसकी भयानक गहराई अपनी दुखी आंखों से देख-देखकर सिहर जातीं अम्मा. फिर शरणार्थियों की संख्या बढ़ने लगी. बड़ी बहू के मौके वाले बहावलपुर से माल लुटाकर और किसी तरह जान बचाकर जब आए तो खाई की चौड़ाई और बढ़ गई. फिर रावलपिंडी से जब निर्मला के ससुराल वाले मूर्च्छित अवस्था में आए तो इस खाई में अजगर फुंफकारें मारने लगे. जब छोटी भाभी ने अपने बच्चे का पेट दिखाने को भेजा तो शीला भाभी ने नौकर को भगा दिया.
और किसी ने भी इस मामले पर वाद-विवाद नहीं छेड़ा, सारे घर के लोग एकदम रुक गए. बड़ी भाभी तो अपने हिस्टीरिया के दौरे भूलकर लपाझप कपड़े बांधने लगीं. ‘‘मेरे ट्रंक को हाथ न लगाना’’ अम्मा की ज़ुबान अन्त में खुली और सबके सब हक्का-बक्का रह गए.
‘‘क्या आप नहीं जाएंगी.’’ बड़े भइया तैश से बोले.
‘‘नौजमोई मैं सिन्धों में मरने जाऊं. अल्लाह मारियां बुर्के-पाजामे फड़काती फिरे हैं.’’
‘‘तो संझले के पास ढाके चली जाएं.’’
‘‘ऐ वो ढाके काहे को जाएंगी. वहां बंगाली की तरह चावल हाथों से लसेड़-लसेड़ कर खाएंगी.’’ संझली की सास ममानी बी ने ताना दिया.
‘‘तो रावलपिण्डी चलो फ़रीदा के यहां,’’ खाला बोलीं.
‘‘तौबा मेरी, अल्लाह पाक पंजाबियों के हाथों मिट्टी गन्दी न कराए. मिट गए दोंजखियों (नरक वासी) की तो जुबान बोले हैं.’’ आज तो मेरी कम बोलने वाली अम्मा पटापट बोलीं.
‘‘ऐ बुआ तुम्हारी तो वही मसल हो गई कि ऊंचे के नीचे, भेर लिये कि पेड़ तले बैठी तेरा घर न जानूं. ऐ बी यह कट्टू गिलहरी की तरह गमजह मस्तियां कि राजा ने बुलाया है. लो भई झमझम करता हाथी भेजा. चक-चक ये तो काला-काला कि घोड़ा भेजा, चक-चक ये तो लातें झाड़े कि…’’
वातावरण विषैला-सा था इसके बावजूद कहकहा पड़ गया. मेरी अम्मा का मुंह ज़रा-सा फूल गया.
‘‘क्या बच्चों की-सी बातें हो रही हैं.’’नैशनल गार्ड के सरदार अली बोले.
‘‘जिनका सर न पैर, क्या इरादा है यहां रहकर कट मरने का.’’
‘‘तुम लोग जाओ अब मैं कहां जाऊंगी अपनी अन्तिम घड़ी में.’’
‘‘तो अन्तिम घड़ियों में काफ़िरों से गत बनवाओगी?’’खाला बी पोटलियों को गिनती जाती थीं. और पोटलियों में सोने-चांदी के गहनों से लकर करहड़ियों का मंजन, सूखी मेथी, और मुल्तानी मिट्टी तक थी. इन चीजों को वो ऐसे कलेजे से लगा कर ले जा रही थीं मानो पाकिस्तान का एस्ट्रलिंग बैलेंस कम हो जाएगा. तीन बार बड़े भाई ने जलकर इनकी पुराने रोहड़ की पोटलियां फेकीं. पर वह ऐसी चिंघाड़ीं मानो अगर उनकी यह दौलत न गई तो पाकिस्तान ग़रीब रह जाएगा. फिर मजबूर होकर बच्चों की मौत में डूबी हुई गदेलों की रुई की पोटलियां बांधनी पड़ीं. बर्तन बोरों में भरे गए. पलंगों के पाचे-पट्टियां खोलकर झलंगों में बांधी गईं, और देखते ही देखते जमा जमाया घर टेढ़ी-मेढ़ी गठरियों और बोगचों में परिवर्तित हो गया. अब तो सामानों के पैर लग गए हैं. थोड़ा सुस्ताने को बैठा है अभी फिर उठकर नाचने लगेगा. पर अम्मा का ट्रंक ज्यों का ज्यों रखा रहा.
‘‘आपा का इरादा यहीं मरने का है तो इन्हें कौन रोक सकता है,’’ भाई साहब ने अन्त में कहा.
और मेरी मासूम सूरत वाली अम्मा भटकती आंखों से आसमान को तकती रहीं, जैसे वो स्वयं अपने आपसे पूछती हों, कौन मार डालेगा? और कब?
‘‘अम्मा तो सठिया गई हैं. इस उम्र में इनकी बुद्धि ठिकाने पर नहीं है,’’ मंझला भाई कान में खुसपुसाया.
‘‘क्या मालूम इन्हें कि काफ़िरों ने मासूमों पर तो और भी अत्याचार किया है. अपना देश होगा तो जान-माल की तो सुरक्षा होगी.’’
अगर मेरी कम बोलने वाली अम्मा की ज़ुबान तेज़ होती तो वह ज़रूर कहतीं,‘‘अपना देश है किस चिड़िया का नाम? लोगों! वह है कहां अपना देश? जिस मिट्टी में जन्म लिया, जिसमें लोट-पोट कर पले-बढ़े वही अपना देश न हुआ तो फिर जहां चार दिन को जाकर बस जाओ वह कैसे अपना देश हो जाएगा? और फिर कौन जाने वहां से भी कोई निकाल दे. कहे जाओ नया देश बसाओ. अब यहां सुबह का चिराग बनी बैठी हूं. एक नन्हा-सा झोंका आया और देश का झगड़ा समाप्त और ये देश उजड़ जाने और बसाने का खेल मधुर भी तो नहीं. एक दिन था मुग़ल अपना देश छोड़कर नया देश बसाने आए थे. आज फिर चलो देश बसाने, देश न हुआ पैर की जूती हो गई, थोड़ा कसी नहीं कि उतार फेंकी और फिर दूसरी पहन ली.’’मगर अम्मा चुप रहीं. अब इनका चेहरा पहले से अधिक थका हुआ मालूम होने लगा. जैसे वह सैकड़ों वर्षों से देश की खोज में खाक छानने के बाद थककर बैठी हों और इस खोज में स्वयं को भी खो चुकी हों.
अम्मा अपनी जगह ऐसी जमी रहीं जैसे बड़ के पेड़ की जड़ आंधी-तूफ़ान में खड़ी रहती है. पर जब बेटी, बहुएं, दामाद, पोते-पोतियां, नवासे-नवासियां, पूरे का पूरा जनसमूह फाटक से निकल कर पुलिस की सुरक्षा में लारियों में सवार हुआ तो इनके दिल के टुकड़े उड़ने लगे. बेचैन नज़रों से इन्होंने खाई के उस पार बेबसी से देखा. सड़क बीच का घर इतना दूर लगा जैसे दूर पौ फटने से पहले गर्दिश में बादल का टुकड़ा. रूपचन्द जी का बरामदा सुनसान पड़ा था. दो-एक बच्चे बाहर निकले मगर हाथ पकड़ कर वापस घसीट लिए गए पर अम्मा की आंसू भरी आंखों ने इनकी आंखों को देख लिया. जो दरवाज़े की झिरियों के पीछे गीली हो रही थीं. जब लारियां धूल उड़ातीं पूरे घर को ले उड़ीं तो एक बाईं ओर की मुर्दा लज्जा ने सांस ली. दरवाज़ा खुला और बोझिल चालों से रूपचन्द जी चोरों की तरह सामने के ख़ाली ढनढन घर को ताकने निकले और थोड़ी देर तक धूल के गुबार में बिछड़ी सूरतों को ढूंढ़ते रहे और फिर इनकी असफल निगाहें अपराधी शैली में, इस उजड़े दरवाज़े से भटकती हुई वापस धरती में धंस गईं.
जब सारी उम्र की पूंजी को ख़ुदा के हवाले करके अम्मा ढनढार आंगन में आकर खड़ी हुईं तो इनका बूढ़ा दिल नन्हें बच्चे की तरह सहम कर मुर्झा गया जैसे चारों ओर से भूत आकर इन्हें दबोच लेंगे. चकराकर इन्होंने खम्बों का सहारा लिया. सामने नज़र उठी तो कलेजा मुंह को आ गया. यही तो वह कमरा था जिसे दूल्हे की प्यार भरी गोद में लांघकर आई थीं. यहीं तो कमसिन डरभरी आंखों वाली भोली-सी दुल्हन के चांद से चेहरे पर से घूंघट उठा था और जिसने जीवनभर की ग़ुलामी लिख दी थी. वह सामने कोने वाले कमरे में पहली बेटी पैदा हुई थी और बड़ी बेटी की याद एकदम से कौंध बनकर कलेजे में समा गई. वहां कोने में उसका नाल गड़ा था. एक नहीं दस नाल गड़े थे. और दस आत्माओं ने यहीं पहली सांस ली थी. दस मांस व हड्डी की मूर्तियों ने, दस इनसानों ने इसी पवित्र कमरे में जन्म लिया था. इस पवित्र कोख से जिसे आज वो छोड़कर चले गए थे. जैसे वह पुरानी कजली थी जिसे कांटों में उलझा कर वो सब चले गए. अमन व शान्ति की खोज में, रुपए के चार सेर गेहूं के पीछे और वह नन्हीं-नन्हीं हस्तियों की प्यारी-प्यारी आ-गु-आ-गु से कमरा अब तक गूंज रहा था. लपक कर वह कमरे में गोद फैलाकर दौड़ गईं पर इनकी गोद ख़ाली रही. वह गोद जिसे सुहागिनें पवित्रता से छूकर हाथ कोख को लगाती थीं आज ख़ाली थी. कमरा ख़ाली पड़ा भायं-भायं कर रहा था. वहशत से वह लौट गईं. मगर छूटे हुए कल्पना के कदम न लौटा सकीं. वह दूसरे कमरे में लड़खड़ा गईं. यहीं तो जीवनसाथी ने पचास वर्ष गुज़ार चुकने के बाद मुंह मोड़ लिया था. यहीं दरवाज़े के सामने कफ़न में लिपटी लाश रखी गई थी, सारा परिवार घेरे खड़ा था. क़िस्मत वाले थे वो जो अपने प्यारों की गोद में सिधारे पर जीवनसाथी को छोड़ गए. जो आज बेकफ़न की लाश की तरह लावारिस पड़ गई. पांवों ने उत्तर दिया और वहीं बैठ गईं जहां मीत के सिरहाने कई वर्ष इन कंपकंपाते हाथों ने चिराग जलाया था. पर आज चिराग में तेल न था और बत्ती भी समाप्त हो चुकी थी.
सामने रूपचन्द अपने बरामदे में तेज़ी से टहल रहे थे. गालियां दे रहे थे अपने बीवी-बच्चों को, नौकरों को, सरकार को और अपने सामने फैली वीरान सड़क को, ईंट-पत्थर को, चाकू-छूरी को, यहां तक कि पूरा विश्व इनकी गालियों की बमबारी के आगे सहम गया था. और विशेष इस ख़ाली घर को जो सड़क के उस पार खड़ा इनको मुंह चिढ़ा रहा था. जैसे स्वयं इन्होंने अपने हाथों से इसकी ईंट से ईंट बजा दी हो. वह कोई चीज़ अपने मस्तिष्क में से झटक देना चाहते थे. पूरी शक्ति की मदद से नोंचकर फेंक देना चाहते थे. मगर असफल होकर झुंझला बैठे. कपट की जड़ों की तरह जो चीज़ इनके अस्तित्व में जम चुकी थी वह उसे पूरी शक्ति से खींच रहे थे मगर साथ-साथ जैसे इनका मांस खिंचा चला आता हो, वह कराह कर छोड़ देते थे. फिर एकाएक इनकी गालियां बन्द हो गई. टहल थम गई और वो मोटर में बैठकर चल दिए.
रात हुई. जब गली के नुक्कड़ पर सन्नाटा छा गया तो पिछले दरवाज़े से रूपचन्द जी की पत्नी दो परोसी हुई थालियां ऊपर नीचे रखे चोरों की तरह अन्दर आईं. दोनों बूढ़ी औरतें चुप एक-दूसरे के आमने-सामने बैठ गई. ज़ुबानें बन्द रहीं पर आंखें सब कुछ कह रही थीं. दोनों थालियों का खाना ज्यूं का त्यूं रखा था. औरतें जब किसी की चुगली करती हैं तो इनकी जुबानें कैंचियों की तरह निकल पड़ती हैं. पर जहां भावनाओं ने हमला किया और मुंह में ताले पड़ गए.
रातभर न जाने कितनी देर तक यादें अकेला पाकर अचानक हमला करती रहीं. न जाने रास्ते ही में कहीं सब न ख़त्म हो जाएं. आजकल तो पूरी-पूरी रेलें कट रही हैं. पचास वर्ष ख़ून से सींचकर खेती तैयार की थी और आज वह देश निकाले नई धरती की तलाश में जैसी-तैसी हालत में चल पड़े थे, कौन जाने नई धरती इन पौधों को रास आए न आए, कुम्हला तो न जाएंगे ये गरीबुल वतन पौधे. छोटी बहू का तो पूरा महीना है न जाने किस जंगल में जच्चा घर बने. घर-परिवार, नौकरी, व्यापार सब कुछ छोड़ के चल पड़े. नए देश में. चील-कौओं ने कुछ छोड़ा भी होगा. या मुंह तकते ही लौट आएंगे और जो लौटकर आएं तो फिर से जड़ें पकड़ने का मौक़ा मिलेगा भी या नहीं कौन जाने यह बुढ़िया उनके लौट आने तक जीवित रहेगी भी कि नहीं.
अम्मा पत्थर की मूरत बन गई थीं. नींद कहां, सारी रात बूढ़ा शरीर बेटियों की कटी-फटी लाशें, नौजवान बहुओं का नंगा जुलूस और पोतों-नवासों के चिथड़े उड़ते देख कर थर्राता रहा. न जाने कब झपकी ने हमला कर दिया. ऐसा प्रतीत हुआ दरवाज़े पर दुनिया भर का हंगामा हो रहा है. जान प्यारी न सही, पर बिना तेल का दीया भी बुझते समय कांप उठता है और सीधी-सादी मौत ही क्या कम निर्दयी होती है जो ऊपर से वह इनसान का भूत बनकर सामने आए. सुना है बूढ़ियों तक को बाल पकड़ कर सड़कों पर घसीटते हैं. यहां तक कि खाल छिलकर हड्डियां तक झलक आती हैं और फिर वही दुनिया के अज़ाब प्रकट होते हैं, जिनको सोचकर ही नर्क के फ़रिश्ते पीले पड़ जाएं.
दस्तक की घनगरज बढ़ती जा रही थी. यमराज को जल्दी पड़ी थी और फिर अपने आप सारी चिटखनी खुलने लगीं, बत्तियां जल उठीं जैसे दूर कुएं की तलहटी से किसी की आवाज़ आई. शायद बड़ा लड़का पुकार रहा था, नहीं ये तो छोटे और मंझले की आवाज़ थी दूसरी दुनिया के ध्वस्त कोने से. तो मिल गया सबको अपना देश? इतनी जल्दी? संझला, उसके पीछे छोटा, साफ़ तो खड़े थे, गोदों में बच्चों को उठाए हुए बहुएं. फिर एकदम से सारा घर जीवित हो उठा, सारी आत्माएं जाग उठीं और दुखियारी मां के आस-पास जमा होने लगीं. छोटे-बड़े हाथ प्यार से छूने लगे. सूखे होंठों में एकाएक कोंपलें फूट निकलीं. ख़ुशी से सारे होश तितर-बितर होकर अंधेरे में भंवर डालते डूब गए.
जब आंख खुली तो रगों पर जानी-पहचानी उंगलियां रेंग रही थीं.
‘‘अरे भाभी मुझे वैसे ही बुला लिया करो, चला आऊंगा. ये ढोंग काहे को रचाती हो,’’ रूपचन्द जी पर्दे के पीछे से कह रहे थे.
‘‘और भाभी आज तो फ़ीस दिलवा दो. देखो तुम्हारे नालायक लड़कों को लोनी जंक्शन से पकड़ लाया हूं. भागते जाते थे बदमाश कहीं के. पुलिस सुपरिटेंडेंट का भी विश्वास नहीं करते थे.’’
फिर बूढ़े होंठों में कोंपलें फूट निकलीं. वह उठकर बैठ गईं. थोड़ी देर चुप रहीं. फिर दो गर्म-गर्म मोती लुढ़क कर रूपचन्द जी के झुर्रियों भरे हाथ पर गिर पड़े.

Illustrations: Pinterest 

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