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जहां लक्ष्मी क़ैद है: कहानी विश्वास, अंधविश्वास और उलझन की (लेखक: राजेन्द्र यादव)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
May 1, 2022
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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यह कहानी है गोविंद और लक्ष्मी की. लाला के यहां हिसाब-किताब के बदले मुफ़्त में रहने की जगह पानेवाला गोविंद अजीब-सी उलझन में है, क्योंकि लक्ष्मी नाम की एक लड़की उससे मदद मांग रही है. ख़ुद को बचाने के लिए कह रही है. पढ़ें, कौन है लक्ष्मी? कैसी दिखती है वह? क्या है उसकी समस्या?

ज़रा ठहरिए, यह कहानी विष्‍णु की पत्‍नी लक्ष्‍मी के बारे में नहीं, लक्ष्‍मी नाम की एक ऐसी लड़की के बारे में है जो अपनी क़ैद से छूटना चाहती है. इन दो नामों में ऐसा भ्रम होना स्‍वाभाविक है जैसा कि कुछ क्षण के लिए गोविंद को हो गया था.
एकदम घबराकर जब गोविंद की आंखें खुलीं तो वह पसीने से तर था और उसका दिल इतने ज़ोर से धड़क रहा था कि उसे लगा, कहीं अचानक उसका धड़कन बंद न हो जाए. अंधेरे में उसने पांच-छ: बार पलकें झपकाईं, पहली बार तो उसकी समझ में न आया कि कहां है, कैसा है-एकदम दिशा और स्‍थान का ज्ञान उसे भूल गया. पास के हॉल की घड़ी ने एक का घंटा बजाया तो उसकी समझ में न आया कि वह घड़ी कहां है, वह स्‍वयं कहां है और घंटा कहां बज रहा है. फिर धीरे-धीरे उसे ध्‍यान आया, उसने ज़ोर से अपने गले का पसीना पोंछा और उसे लगा, उसे दिमाग़ में फिर वहीं खट्खट गूंज उठी है, जो अभी गूंज रही थी….
पता नहीं, सपने में या सचमुच ही, अचानक गोविंद को ऐसा लगा था, जैसे किसी ने किवाड़ पर तीन-चार बार खट्-खट् की हो और गिड़गिड़ाकर कहा हो ‘मुझे निकालो, मुझे निकालो!’ और वह आवाज़ कुछ ऐसे रहस्‍यमय ढंग से आकर उसकी चेतना को कोंचने लगी कि वह बौखलाकर जाग उठा-सचमुच ही यह किसी की आवाज़ थी, या महज उसका भ्रम?
फिर उसे धीरे-धीरे याद आया कि यह भ्रम ही था और वह लक्ष्‍मी के बारे में सोचता हुआ ऐसा अभिभूत सोया था कि वह स्‍वप्‍न में भी छायी रही. लेकिन वास्‍तव में यह आवाज़ कैसी विचित्र थी, कैसी साफ़ थी! उसने कई बार सुना था कि अमुक स्‍त्री या पुरुष से स्‍वप्‍न में आकर कोई कहता,’मुझे निकालो, मुझे निकालो.’ फिर वह धीरे-धीरे स्‍थान की बात भी बताने लगता और वहां खुदवाने पर कड़ाहे या हांडी में भरे सोने-चांदी के सिक्‍के या माया उसे मिलती और वह देखते-देखते मालामाल हो जाता. कभी-कभी ऐसा भी हुआ कि किसी अनधिकारी आदमी ने उस द्रव्‍य को निकलवाना चाहा तो उसमें कौड़ियां और कोयले निकले या फिर उसके कोढ़ फूट आया या घर में कोई मृत्‍यु हो गई. कहीं इसी तरह, धरती के नीचे से उसे कोई लक्ष्‍मी तो नहीं पुकार रही है? और वह बड़ी देर तक सोचता रहा, उसके दिमाग़ में फिर लक्ष्‍मी का क़िस्‍सा साकार होने लगा. वह मोहाछन्‍न-सा पड़ा रहा…
दूर कहीं दूसरे घड़ियाल ने फिर वही एक घंटा बजाया.
गोविंद से अब नहीं रहा गया. रजाई को चारों तरफ़ से बंद रखे हुए ही बड़े संभालकर उसने कुहनी तक हाथ निकाला, लेटे-ही-लेटे अलमारी के खाने से किताब-कापियों की बगल से उसने अधजली मोमबत्‍ती निकाली, वहीं कहीं से खोजकर दियासलाई निकाली और आधा उठकर, ताकि जाड़े में दूसरा हा‍थ पूरा न निकालना पड़े, उसने दो-तीन बार घिसकर दियासलाई जलाई, मोमबत्‍ती रौशन की ओर पिघले मोम की बूंद टपकाकर उसे दवात के ढक्‍कन के ऊपर जमा दिया. धीरे-धीरे हिलती रोशनी में उसने देख लिया कि किवाड़ पूरे बंद हैं, और दरवाज़े के सामने वाली दीवार में बने, जाली लगे रौशनदान के ऊपर, दूसरी मंजिल से हल्‍की-हल्‍की जो रोशनी आती है, वह भी बुझ चुकी है. सब कुछ कितना शांत हो चुका है. बिजली का स्विच यद्यपि उसके तख़्त के ऊपर ही लगा था, लेकिन एक तो जाड़े में रजाई समेत या रजाई छोड़कर खड़े होने का आलस्‍य, दूसरे लाला रूपाराम का डर, सुबह ही कहेगा,’गोविंद बाबू, बड़ी देर तक पढ़ाई हो रही है आजकल.’ जिसका सीधा अर्थ होगा कि बड़ी बिजली ख़र्च करते हो.
फिर उसने चुपके से, जैसे कोई उसे देख रहा हो, तकिए के नीचे से रजाई के भीतर-ही-भीतर हाथ बढ़ाकर वह पत्रिका निकाल ली और गर्दन के पास से हाथ निकालकर उसके सैंतालसवें पन्‍ने को बीसवीं बार खोलकर बड़ी देर घूरता रहा. एक बजे की पठानकोट-एक्‍सप्रेस जब दहाड़ती हुई गुज़र गई तो सहसा उसे होश आया. 47 और 48-जो पन्‍ने उसके सामने खुले थे उनमें जगह-जगह नीली स्‍याही से कुछ पंक्तियों के नीचे लाइनें खींची गई थीं-यही नहीं, उस पन्‍ने का कोना मोड़कर उन्‍हीं लाइनों की तरफ़ विशेष रूप से ध्‍यान खींचा गया था. अब तक गोविंद उन या उनके आस-पास की लाइनों को बीस बार से अधिक घूर चुका था. उसने शंकित निगाहों से इधर-इधर देखा और फिर एक बार उन पंक्तियों को पढ़ा.
जितनी बार वह उन्‍हें पढ़ता, उसका दिल एक अनजान आनंद के बोझ से धड़ककर डूबने लगता और दिमाग़ उसी तरह भन्‍ना उठता जैसे उस समय भन्‍नाया था, जब यह पत्रिका उसे मिली थी. यद्यपि इस बीच उसकी मानसिक दशा कई विकट स्थितियों से गुज़र चुकी थी, फिर भी वह बड़ी देर तक काली स्‍याही से छपे कहानी के अक्षरों को स्थिर निगाहों से घूरता रहा. धीरे-धीरे उसे ऐसा लगा, यह अक्षरों की पंक्ति एक ऐसी खिड़की की जाली है, जिसके पीछे बिखरे बालों वाली एक निरीह लड़की का चेहरा झांक रहा है. और फिर उसके दिमाग़ में बचपन की सुनी कहानी साकार होने लगी. शिकार खेलने में साथियों का साथ छूट जाने पर भटकता हुआ एक राजकुमार अपने थके-मांदे घोड़े पर बिल्‍कुल वीराने में, समुद्र के किनारे बने एक विशाल सुनसान क़िले के नीचे जा पहुंचा. वहां ऊपर खिड़की में उसे एक अत्‍यंत सुंदर राजकुमारी बैठी दिखाई दी, जिसे एक राक्षस ने लाकर वहां क़ैद कर दिया था… छोटे-से-छोटे विवरण के साथ खिड़की में बैठी राजकुमारी की तस्‍वीर गोविंद की आंखों के आगे स्‍पष्‍ट और मूर्त होती गई. और उसे लगा, जैसे वही राजकुमारी उन रेखांकित, छपी लाइनों के पीछे से झांक रही है-उसके गालों पर आंसुओं की लकींरें सूख गई हैं, उसके होंठ पपड़ा गए हैं… चेहरा मुरझा गया है और रेशमी बाल मकड़ी के जाल-जैसे लगते हैं-जैसे उसके पूरे शरीर से एक आवाज़ निकलती है,’छुड़ाओ, मुझे छुड़ाओ!’
गोविंद के मन में उस अनजान राजकुमारी को छुड़ाने के लिए जैसे रह-रहकर कोई कुरेदने लगा. एक-आध बार तो उसकी बड़ी प्रबल इच्‍छा हुई कि अपने भीतर रह-रहकर कुछ करने की उत्‍तेजना को वह अपने तख़्त और कोठरी की दीवार के बीच में बची दो फीट चौड़ी गली में घुस-घुसकर दूर कर दे.
तो क्‍या सचमुच लक्ष्‍मी ने यह सब उसी के लिए लिखा है? लेकिन उसने तो लक्ष्‍मी को देखा तक नहीं! अगर अपनी कल्‍पना में किसी जवान लड़की का चेहरा लाए भी तो वह आख़िर कैसी हो? …कुछ और भी बातें थीं कि वह लक्ष्‍मी के रूप में एक सुंदर लड़की के चेहरे की कल्‍पना करते डरता था-उसकी ठीक शक्‍ल सूरत और उम्र भी नहीं मालूम उसे…
गोविंद यह अच्‍छी तरह जानता था कि यह सब उसी के लिए लिखा गया है, ये लाइनें खींचकर उसी का ध्‍यान आकृष्‍ट किया गया है. फिर भी वह इस अप्रत्‍याशित बात पर विश्‍वास नहीं कर पाता था. वह अपने को इस लायक भी नहीं समझता था कि कोई लड़की इस तरह उसे संकेत करेगी. यों शहरों के बारे में उसने बहुत काफ़ी सुन रखा था, लेकिन यह सोचा भी नहीं था कि गांव में इंटरव्यू पास करके शहर आने के एक हफ़्ते में ही उसके सामने एक ‘सौभाग्‍यपूर्ण’ बात आ जाएगी…
वह जब-जब इन पंक्तियों को पढ़ता तब-तब उसका सिर इस तरह चकराने लगता, जैसे किसी दसमंज़िले मकान से नीचे झांक रहा हो. जब उसने पहले-पहल ये पंक्तियां देखी थीं तो इस तरह उछल पड़ा था, जैसे हाथ में अंगारा आ गया हो!
बात यह हुई कि वह चक्‍की वाले हॉल में ईटों के तख़्त जैसे बने चबूतरे पर बड़ी पुरानी काठ की संदूकची के ऊपर लंबा-पतला रजिस्‍टर खोले दिन-भर का हिसाब मिला रहा था, तभी लाला रूपाराम का सबसे छोटा, नौ-दस साल का लड़का रामस्‍वरूप उसके पास आ खड़ा हुआ. यह लड़का एक फटे-पुराने से चैस्‍टर की, जो साफ़ ही किसी बड़े भाई के चैस्‍टर को कटवाकर बनवाया गया होगा, जेबों में दोनों हाथों को ठूंसे पास खड़ा होकर उसे देखने लगा.
गोविंद जब पहले ही दिन आया था और हिसाब कर रहा था, तभी यह लड़का भी आ खड़ा हुआ था. उस दिन लाला रूपाराम थी थे, इसलिए सिर्फ़ यह दिखाने को कि वह उनके सुपुत्र में भी काफ़ी रुचि रखता है, उससे नियमानुसार नाम, उम्र और स्‍कूल-क्‍लास इत्‍यादि पूछे थे, नाम रामस्‍वरूप, उम्र नौ साल, चुंगी-प्राइमरी स्‍कूल में चौथे क्‍लास में पढ़ता था. फिर तो सुबह-शाम गोविंद उसे चैस्‍टर की छाया से ही जानने लगा, शक्‍ल देखने की ज़रूरत ही नहीं होती थी. चेस्‍टर के नीचे नेकर पहने होने के कारण उसकी पतली टांगें खुली रहतीं और वह पांवों में बड़े-पुराने किरमिच के जूते पहने रहता, जिनकी फटी-निकली जीभों को देखकर उसे हमेशा दुम-कटे कुत्‍ते की पूंछ का ध्‍यान हो आता था.
थोड़ी देर उसका लिखना ताकते रहकर लड़के ने चैस्‍टर के बटनों के कसाव और छाती के बीच में रखी पत्रिका निकालकर उसके सामने रख दी और बोला,‘मुंशी जी, लक्ष्‍मी जीजी ने कहा है, हमें कुछ और पढ़ने को दीजिए.’
‘अच्‍छा, कल देंगे…’ मन-ही-मन भन्‍नाकर उसने कहा.
यहां आकर उसे जो ‘मुंशी जी’ का नया खिताब मिला है, उसे सुनकर उसकी आत्‍मा खाक हो जाती. ‘मुंशी’ नाम के साथ जो एक कान पर कलम लगाए, गोल-मैली टोपी, पुराना कोट पहने, मुड़े-तुड़े आदमी की तस्‍वीर सामने आती है-उसे बीस-बाईस साल का युवक गोविंद संभाल नहीं पाता.
लाला रूपाराम उसी गांव के हैं-शायद उसके पिता के साथ दो-तीन जमात पढ़े भी थे. शहर आते ही आत्‍मनिर्भर होकर पढ़ाई चला सकने के लिए किसी ट्यूशन इत्‍यादि या छोटे पार्ट-पाइम काम के लिए लाला रूपाराम से भी वह मिला तो उन्‍होंने अत्‍यंत उत्‍साह से उसके मृत बाप को याद करके कहा,‘भैया, तुम तो अपने ही बच्‍चे हो, जरा हमारी चक्‍की का हिसाब-किताब घंटे-आध घंटे देख लिया करो और मजे में चक्‍की के पास जो कोठरी है, उसमें पड़े रहो, अपने पढ़ो. आटे की यहां तो कमी है ही नहीं. और अत्‍यंत कृतज्ञता से गदगद वह उनकी कोठरी में आ गया, पहली रात हिसाब लिखने का ढंग समझते हुए लाला रूपाराम, मोतियाबिंद वाले चश्‍मे के मोटे-मोटे कांचों के पीछे से मोरपंछी के चंदोवे-सी दीखती आंखों और मोटे होंठों से मुसकराते, उसका सम्‍मान बढ़ाने को ‘मुंशी जी’ कह बैठे तो वह चौंक पड़ा. लेकिन उसने निश्‍चय कर लिया कि यहां जम जाने के बाद वह विनम्रता से इस शब्‍द का विरोध करेगा. रामस्‍वरूप से ‘मुंशी जी’ नाम सुनकर उसकी भौंहे तन गईं, इसीलिए उसने उपेक्षा से वह उत्‍तर दिया था.
‘कल ज़रूर दीजिएगा.’ रामस्‍वरूप ने फिर अनुरोध किया.
‘हां भाई, ज़रूर देंगे.’ उसने दांत पीसकर कहा, लेकिन चुप ही रहा. वह अक्‍सर लक्ष्‍मी का नाम सुनता था. हालांकि उसकी कोठरी बिल्‍कुल सड़क की तरफ़ अलग ही पड़ती थी, लेकिन उसमें पीछे की तरफ़ जो एक जालीदार छोटा-सा रौशनदान था, वह घर के भीतर नीचे की मंज़िल के चौक में खुलता था. लाला रूपाराम का परिवार ऊपर की मंजिल पर रहता था और नीचे सामने की तरफ़ पनचक्‍की थी, पीछे कई तरह की चीज़ों, का स्‍टोर-रूम था. इस ‘लक्ष्‍मी’ नाम के प्रति उसे उत्‍सुकता और रुचि इसलिए भी बहुत थी कि चाहे कोठरी में हो या बाहर, पनचक्‍की के हॉल में, हर पांचवें मिनट पर उसका नाम विभिन्‍न रूपों में सुनाई देता था,‘लक्ष्‍मी बीबी ने यह कहा है’, ‘रुपए लक्ष्‍मी बीबी के पास हैं’, ‘चाबी लक्ष्‍मी बीबी को दे देना.’ और उसके जवाब में जो एक पतली तीखी-सी अधिकारपूर्ण आवाज़ सुनाई देती थी, लेकिन स्‍वयं वह कैसी है? उसकी एक झलक-भर देख पाने को उसका दिल कभी-कभी बुरी तरह तड़प-सा उठता. लेकिन पहले कुछ दिनों उसे अपना प्रभाव जमाना था, इसलिए वह आंख उठाकर भी भीतर देखने की कोशिश न करता. मन-ही-मन उसने समझ लिया कि यही लक्ष्‍मी है काफ़ी महत्‍वपूर्ण है… दिक़्क़त यह थी कि भीतर कुछ दिखाई भी तो नहीं देता था. सड़क के किनारे तीन-चार दरवाज़े वाले इस चक्‍की के हॉल के बाद एक आठ-दस फ़ीट लंबी गली थी और चौक के ऊपर लोहे का जाल पड़ा था, उस पर से ऊपर वाले लोग जब गुज़रते थे तो लोहे की झनझनाहट से पहले तो उसका ध्‍यान हर बार इधर चला जाता था. बच्‍चे तो कभी-कभी और भी उछल-उछलकर उस पर कूदने लगते थे. यहां से जब तक किसी बहाने पूरी गली पार न की जाए, कुछ भी दीखना असंभव था. चूंकि गुसलखाना और नल इत्‍यादि उसी चौक में थे, जिनकी वजह से नीचे प्रायः सीलन और गीलापन रहता था, इसलिए सुबह चौक में जाते हुए अत्‍यंत सीधे लड़के की तरह निगाहें नीची किए हुए भी वह ऊपर की स्थिति को भांपने का प्रयत्‍न करता था. ऊपर सिर उठाकर आंख-भर देख पाने की उसमें हिम्‍मत न थी. अपनी कोठरी का एक मात्र दरवाज़ा बंद करके, तख़्त पर चढ़कर मकड़ी के जाले और धूल से भरे जालीदार रोशनदान से झांककर उसने वहां की स्थिति को भी जानने की कोशिश की थी, लेकिन वह कंबख्‍त जाली कुछ इस ढंग से बनी थी कि उसके ‘फ़ोकस’ में पूरा सामने वाला छज्‍जा और एकाध फ़ुट लोहे का जाल भर आता था. वहां कई बार उसे लगा, जैसे दो छोटे-छोटे तलुए गुज़रे… बहुत कोशिश करने पर टखने दीखे-हां, हैं तो किसी लड़की के पैर, क्‍योंकि हाथ में धोती का किनारा भी झलका था… उसने एक गहरी सांस ली और तख़्त से उतरते हुए बड़े ऐक्‍टराना अंदाज़ में छाती पर हाथ मारा और बुदबुदाया,‘अरे लक्ष्‍मी जालिम, एक झलक तो दिखा देती…’
‘मुंशी जी, तुम तो देख रहे हो, लिखते क्‍यों नहीं?’ रामस्‍वरूप ने जब देखा कि गोविंद धीरे-धीरे होल्‍डर का पिछला हिस्‍सा दांतों में ठोंकता हुआ हिसाब की कॉपी में अपलक कुछ घूर रहा है तो पता नहीं कैसे यह बात उसकी समझ में आ गई कि वह जो कुछ सोच रहा है, उसका संबंध सामने रखे हिसाब से नहीं है…
उसने चौंककर लड़के की तरफ़ देखा… और चोरी पकड़ी जाने पर झेंपकर मुस्‍काराया, तभी अचानक एक बात उसके दिमाग़ में कौंधी-यह लक्ष्‍मी रामस्‍वरूप की बहन ही तो है. ज़रूर उसका चेहरा इससे काफ़ी मिलता-जुलता होगा. इस बार उसने ध्‍यान से रामस्‍वरूप का चेहरा देखा कि वह सुंदर है या नहीं. फिर अपनी बेवकूफ़ी पर मुसकराकर एक अंगड़ाई ली. चारों तरफ़ ढीले हुए कंबल को फिर से चारों ओर कस लिया और अप्रत्‍याशित प्‍यार से बोला,‘अच्‍छा मुन्‍ना, कल सुबह दे देंगे.’ …उसकी इच्‍छा हुई कि वह उससे लक्ष्‍मी के बारे में कुछ बात करें, लेकिन सामने ही चौकीदार और मिस्‍तरी सलीम काम कर रहे थे…
असल में आज वह थक भी गया था. अचानक व्‍यस्‍त होकर बोला और जल्‍दी-जल्‍दी हिसाब करने लगा. दुनिया-भर की सिफ़ारिशों के बाद उसका नाम कॉलेज के नोटिस बोर्ड पर आ गया कि वह ले लिए गए लड़कों में से है. आते समय कुछ किताब और कॉपियां भी ख़रीद लाया था, सो आज वह चाहता था कि जल्‍दी-से-जल्‍दी अपनी कोठरी में लेटे और कुछ आगे-पीछे की बातें… दुनियाभर की बातें सोचता हुआ सो जाए… सोचे, लक्ष्‍मी कौन है… कैसी है… वह उसके बारे में किससे पूछे? …कोई उसका हमउम्र और विश्‍वास का आदमी भी तो नहीं है. किसी से पूछे और रूपाराम को पता चल जाए, तो? लेकिन अभी तीसरा ही तो दिन है… मन-ही-मन अपने पास रखी पत्रिकाओं और कहानी की पुस्‍तकों की गिनती करते हुए वह सोचने लगा कि इस बार उसे कौन-सी देनी है… आगे जाकर जब काफ़ी दिन हो जाएंगे तो वह चुपचाप उसमें एक ऐसा छोटा-सा पत्र रख देगा जो किसी दोस्‍त के नाम लिखा गया होगा या उसकी भाषा ऐसी होगी कि पकड़ में न आ सके… भूल से चला गया, पकड़े जाने पर वह आसानी से कह सकेगा-उसे तो ध्‍यान भी नहीं था कि वह पर्चा इसमें रखा है. बीस जवाब हैं. अपनी चालाक बेवकूफ़ी की कल्‍पना पर वह मुसकराने लगा.
जिसके विषय में वह इतना सब सोचता है, वह उसी लक्ष्‍मी के पास से आई हुई पत्रिका है-उसने इसे अपने कोमल हाथों से छुआ होगा, तकिए के नीचे, सिरहाने भी यह रही होगी… लेटकर पढ़ते हुए तो हो सकता है, सोचते-सोचते छाती पर भी रखकर सो गई हो… लेटकर उसका तन-मन गुदगुदा उठा. क्‍या लक्ष्‍मी उसके विषय में बिलकुल ही न सोचती होगी? हिसाब लिखने की व्‍यस्‍तता में भी उसने गर्दन मोड़कर एक हाथ से पत्रिका के पन्‍ने पलटने शुरू कर दिए और एक कोना-मुड़े पन्‍ने पर अचानक उसका हाथ ठिठक गया-यह किसने मोड़ा है? एक मिनट में हज़ारों बातें उसके दिमाग़ में चक्‍कर लगा गईं. उसने पत्रिका उठाकर हिसाब की कॉपी पर रख ली. मुड़ा पन्‍ना पूरा खुला था. छपे पन्‍ने पर जगह-जगह नीली स्‍याही से निशान देखकर वह चौंक पड़ा. ये किसने लगाए हैं? उसे ख़ूब अच्‍छी तरह ध्‍यान है, ये पहले नहीं थे…
‘मैं तुम्‍हें प्राणों से अधिक प्‍यार करती हूं… उसने एक नीली लाइन के ऊपर पढ़ा…
‘अयं! यह क्‍या चक्‍कर है…?’ वह एकदम जैसे बौखला उठा. उसने फौरन ही सामने बैठे मिस्‍तरी सलीम और दिलावरसिंह को देखा, वे अपने में ही काम में व्‍यस्‍त थे. उसकी निगाह अपने-आप दूसरी लाइन पर फिसल गई.
‘मुझे यहां से भगा ले चलो…’
‘अरे…!’
तीसरी लाइन,‘मैं फांसी लगाकर मर जाऊंगी….’
और गोविंद इतना घबरा गया कि उसने फट से पत्रिका बंद कर दी. शंका से इधर-उधर देखा, किसी ने ताड़ तो नहीं लिया? उसके माथे पर पसीना उभर आया और दिल चक्‍की के मोटर की तरह चलने लगा. पत्रिका ने उन पन्‍नों के बीच में ही उंगली रखे हुए उसने उसे घुटने के नीचे छिपा लिया. कहीं दूर से रंग-बिरंगी कवर की तस्‍वीर को देखकर यह कंबख्‍त चौकीदार ही न मांग बैठे. उन पंक्तियों को एक बार फिर देखने की दुर्निवचार इच्‍छा उसके मन में हो रही थी, लेकिन जैसे हिम्‍मत न पड़ती थी. क्‍या सचमुच ये निशान लक्ष्‍मी ने ही लगाए हैं? कहीं किसी ने मज़ाक तो नहीं किया? लेकिन मज़ाक उससे कौन करेगा, क्‍यों करेगा? ऐसा उसका कोई परिचित भी तो नहीं है यहां कि तीन दिन में ही ऐसी हिम्‍मत कर डाले.
उसने फिर पत्रिका निकालकर पूरी उलट-पुलट डाली. नहीं, निशान वही हैं, बस. वह उन तीनों लाइनों को फिर एक साथ पढ़ गया और उसे ऐसा लगा, जैसे उसके दिमाग़ में हवाई जहाज भन्‍ना उठा हो. गोविंद का दिमाग़ चकरा रहा था, दिल धड़क रहा था और जो हिसाब वह लिख रहा था, वह तो जैसे एकदम भूल गया. उसने कलम के पिछले हिस्‍से से कान के ऊपर खुजलाया, ख़ूब आंखें गड़ाकर जमा और ख़र्च के खानों को देखने की कोशिश की, लेकिन बस नस-नस में सन-सन करती कोई चीज़ दौड़े जा रही थी. उसे लगा, उसका दिल फट जाएगा और आतिशबाजी के अनार की तरह दिमाग़ फट पड़ेगा… अब वह किससे पूछे? ये सब निशान किसने लगाए हैं? क्‍या सचमुच लक्ष्‍मी ने?
इस मधुर सत्‍य पर विश्‍वास नहीं होता. मैं चाहे तो उसे न देख पाया होऊं, उसने तो ज़रूर ही मुझे देख लिया होगा. अरे, ये लड़कियां बड़ी तेज़ होती हैं. गोविंद की इच्‍छा हुई, अगर उसे इसी क्षण शीशा मिल जाए तो वह लक्ष्‍मी की आंखों से एक बार अपने को देखे-कैसा लगता है?
लेकिन यह लक्ष्‍मी कौन है? विधवा, कुमारी, विवाहिता, परित्‍यक्‍ता, क्‍या? कितनी बड़ी है? कैसी है? उसकी नस-नस में एक प्रबल मरोड़-सी उठने लगी कि वह अभी उठे और दौड़कर भीतर के आंगन की सीढ़ियों से धड़ाधड़ चढ़ता हुआ ऊपर जा पहुंचे-लक्ष्‍मी जहां भी, जिस कमरे में बैठी हो, उसके दोनों कंधे झकझोरकर पूछे,‘लक्ष्‍मी, लक्ष्‍मी, यह तुमने लिखा है? तुम नहीं जानती लक्ष्‍मी, मैं कितना अभागा हूं. मैं कतई इस सौभाग्‍य के लायक नहीं हूं.’ और सचमुच इस अप्रत्‍याशित सौभाग्‍य से गोविंद का हृदय इस तरह पसीज उठा कि उसकी आंखों में आंसू आ गए. डोरी से लटकते हुए बल्‍ब को अपलक देखता हुआ वह अपने अतीत और भविष्‍य की गहराइयों से उतरता चला गया, फिर उसने धीरे से अपनी कोरों में भरे आंसुओं को उंगली पर लेकर इस तरह झटक दिया, जैसे देवता पर चंदन चढ़ा रहा हो. उसका ढीला पड़ा हाथ अब भी पत्रिका के पन्‍ने को पकड़े था.
एक बार उसने फिर उन पंक्तियों को देखा-मान लो लक्ष्‍मी उसके साथ भाग जाए? कहां जाएंगे वे लोग? कैसे रहेंगे? उसकी पढ़ाई का क्‍या होगा? बाद में पकड़ लिए गए तो?
लेकिन आख़िर यह लक्ष्‍मी है कौन?
लक्ष्‍मी के बारे में प्रश्‍नों का एक झुंड उसके दिमाग़ पर टूट पड़ा, जैसे शिकारी कुत्‍तों का बाड़ा खोल दिया गया हो या एक के बाद एक सिर पर कोई हथौड़े की चोटें कर रहा हो, बड़ी निर्ममता और क्रूरता से. जैसे छत पर से अचानक गिर पड़ने वाले आदमी के सामने सारी दुनिया एक झटके के साथ, एक क्षण में चक्‍कर लगा जाती है, उसी तरह उसके सामने सैकड़ों-हज़ारों चीज़ें एक साथ चमककर ग़ायब हो गईं.
ईंटों के ऊंचे चौकोर तख़्तनुमा चबूतरे पर पुरानी छोटी-सी संदूकची के आगे बैठा गोविंद हिसाब लिख रहा था और अभी हिसाब न मिलने के कारण जो कच्‍चे पुर्जे इधर-उधर बिखरे थे, वे सब यों ही बिखरे रहे. उसने खुले लेजर-रजिस्‍टर पर दोनों कुहनियां टिका दीं और हथेलियों से आंखें बंद कर लीं… कनपटी के पास की नसें चटख रही थीं. ऐसा तो कभी देखा-सुना नहीं… सिनेमा, उपन्‍यासों में भी नहीं देखा-पढ़ा. सचमुच इन निशानों का क्‍या मतलब है? क्‍या लक्ष्‍मी ने ही ये लाइनें खींची हैं? हो सकता है, किसी बच्‍चे ने ही खींच दी हों… इसे संभावना से थोड़ा चौंककर गोविंद ने फिर पन्‍ना खोला-नहीं, बच्‍चा क्‍या सिर्फ़ इन्‍हीं लाइनों के नीचे निशान लगाता? और लकीरें इतनी सधी और सीधी हैं कि किसी बच्‍चे को हो ही नहीं सकतीं. किसी ने उसे व्‍यर्थ परेशान करने को तो निशान नहीं लगा दिए? हो सकता है, वह लक्ष्‍मी बहुत चुहलबाज़ हो और ज़रा छकाने को उसी ने सब किया हो…
यद्यपि गोविंद इस तरह आंखें बंद किए सोच रहा था, लेकिन उसे मन-ही-मन डर था कि मिस्‍तरी और दरबान उसे देखकर कुछ समझ न जाएं. सबसे बड़ा डर उसे लाला रूपाराम का था. अभी रुई-भरी, सकलपारों वाली सिलाई की, मैली-सी पूरी बांहों की मिरजई पहने और उस पर मैली चीकट, युगों पुरानी अंडी लपेटे धीरे-धीरे हांफते हुए बेंत टेकते बड़े कष्‍ट से सीढ़ियां उतरकर वे आएंगे…
अचानक बेंत की खट्-खट् से चौंककर उसने जो आंखों के आगे से हाथ हटाए तो देखा, सच ही लाला रूपाराम चले आ रहे हैं. अरे, कंबख़्त याद करते ही आ पहुंचा-बैठे हुए देख तो नहीं लिया? उसने झट पत्रिका को घुटने के नीचे और भी सरका लिया और सामने फैले पुर्जों पर आंखें टिकाकर व्‍यस्‍त हो उठा. मिस्‍तरी और चौकीदार की खुसुर-पुसुर बंद हो गई. गली-सी पार करके लाला रूपाराम ने प्रवेश किया.
मोटे-मोटे शीशों के पीछे से उनकी आंखें बड़ी होकर भयंकर दिखती थीं. आंखों और पलकों का रंग मिलकर ऐसा दिखाई देता था, जैसे पीछे मोरपंख के चंदावे लगे हों. सिर पर रुई-भरा कंटोपा था, उसके कानों को ढकने वो मोटर के ‘मडगार्ड’ जैसे कोने अब ऊपर मुड़े थे और पौराणिक राक्षसों के सींगों का दृश्‍य उपस्थित कर रहे थे. चेहरा उनका झुर्रियों से भरा था और चश्‍मे का फ्रेम नाक के ऊपर से टूट गया था, उसे उन्‍होंने डोरा लपेटकर मज़बूत कर लिया था. दांत उनके नकली थे और शायद ढीले भी थे, क्‍योंकि उन्‍हें वे हमेशा इस तरह मुंह चला-चलाकर पीछे सरकाए रखते थे जैसे ‘चुइंगम’ चबा रहे हों. गोविंद को उनके इस मुंह चलाने और मुंह से निकलती तरह-तरह की आवाज़ों से बड़ी उबकाई-सी आती थी और जब वे उससे बात करते तो वह प्रयत्‍न करके अपना ध्‍यान उस ओर से हटाए रखता. लाला रूपाराम की गर्दन हमेशा इस तरह हिलती रहती, जैसे खिलौने वाले बुड्ढे की गर्दन का स्प्रिंग ढीला हो गया हो! घुटनों तक की मैची-कुचैली धौती और मिलिटरी के कबाड़ियां बाजार से ख़रीदकर लाए गए मोजों पर बांधने की पट्टियां, जो शायद उन्‍हें गठिया के दर्द से बचाती थीं, बिना फीते के खींसें निपोरते फटे-पुराने बूट-उन्‍हें देखकर हमेशा गोविंद को लगता कि इस आदमी का अंत समय निकट आ गया है.
जब लाला रूपाराम पास आ गए तो उनसे सम्‍मान में चेहरे पर चिकनाई वाली मुसकान लाकर उनकी ओर देखते हुए स्‍वागत किया. ईंटों के चबूतरे पर लगभग दो सौ स्‍याही के दाग और छेद वाली दरी पर, रामस्‍वरूप के उससे सटकर खड़े होने से, एक मोटी-सी सिकुड़न पड़ गई थी, उसके हाथ से ठीक करके उसने कहा,‘लाला जी, यहां बैठिए…’
लाला जी ने हांफते हुए बिना बोले ही इशारा कर दिया कि नहीं, वे ठीक हैं और वे टीन की कुर्सी पर ही उसकी ओर मुंह करके बैठ गए और हांफते रहे. असल में उन्‍हें सांस की बीमारी थी और वे हमेशा प्‍यासे कुत्‍ते की तरह हांफते रहते थे.
उनके वहां आ बैठने से एक बार तो गोविंद कांप उठा, कहीं कंबख़्त को पता तो नहीं चल गया? कुछ पूछने-ताछने न आया हो. हालांकि लाला रूपाराम इस समय खा-पीकर एक बार चक्‍कर ज़रूर लगाते थे, लेकिन उसे विश्‍वास हो गया कि हो-न-हो, बुड्ढा ताड़ गया है. उसका दिल धसक चला. रूपाराम अभी हांफ रहे थे. गोविंद सिर झुकाए ही हिसाब-किताब जोड़ता रहा. आखिर स्थिति संभालने की दृष्टि से उसने कहा,‘लाला जी, आज मेरा नाम आ गया कॉलेज में.’
‘अच्‍छा!’ लाला जी ने खांसी के बीच में ही कहा. वह एक हाथ से डंडे को धरती पर टेके थे, दूसरे हाथ में कलई तक गोमुखी बंधी थी, जिसके भीतर उंगलियां चला-चलाकर वह माला घुमा रहे थे और उनका वह हाथ टोंटा-सा लग रहा था.
वातावरण का बोझ बढ़ता ही चला गया था कि एक घटना हो गई.
उन्‍होंने सांस इकट्ठी करके कुछ बोलने को मुंह खोला ही था कि भीतर आंगन का टट्टर (लोहे का जाल) भयंकर रूप से झनझना उठा, जैसे कोई बहुत ही भारी चीज़ ऊपर से फेंक दी गई हो. और फिर ज़ोर से बजती हुई खनखनाती कल्‍छी जैसे चीज़ नीचे आ गिरी, उसके पीछे चिमटा, संडासी… और फिर तो उसे ऐसा लगा जैसे कोई बाल्‍टी, कड़ाही, तवा इत्‍यादि निकालकर टट्टर पर फेंक रहा है और पानी और छोटी-मोटी चीज़ें नीचे गिर रही है. उसके साथ कुछ ऐसा कोलाहल और कुहराम भीतर सुनाई दिया, जैसे आग लग गई हो!
गोविंद झटककर सीधा हो गया-कहीं सचमुच आग-वाग तो नहीं लग गई? उसने प्रश्‍नसूचक दृष्टि से चौंककर लाला की तरफ़ देखा और वह आश्‍चर्य से अवाक रह गया. लाला परेशान ज़रूर दिखाई देता था लेकिन कोई भयंकर घटना हो गई है और उसे दौड़कर जाना चाहिए, ऐसी कोई बात उसके चेहरे पर नहीं थी. मिस्‍तरी और चौकीदार, दोनों बड़े दबे व्‍यंग्‍य से एक-दूसरे की ओर देखते, मुसकराते, लाला की ओर निगाहें फेंक रहे थे. किसी को भी कोई ख़ास चिंता नहीं थी. भीतर कोलाहल बढ़ रहा था, चीज़ें फिंक रही थीं और टट्टर की खड़खड़ाहट-घनघनाहट गूंजती जा रही थी. आख़िर यह क्‍या हो रहा है? उत्‍तेजना से उसकी पसलियां तड़कने को हो आईं. वह लाला से यह पूछने ही वाला था कि क्‍या है, तभी बड़े कष्‍ट से हाथ की लकड़ी पर सारा ज़ोर देकर वह उठ खड़ा हुआ… और घिसटता-सा जहां से आया, उसी गली में चला गया. जाते हुए पलटकर धीरे से उसने किवाड़ बंद कर दिए. मिस्‍तरी और चौकीदार ने मुक्‍त होकर बदन ढीला किया, एक-दूसरे की ओर मुसकराकर देखा, खखारा और फिर एक बार खुलकर मुसकराए. लाला का पीछा करती गोविंद की निगाह अब उन लोगों की ओर मुड़ गई और जब उससे नहीं रहा गया तो वह खड़ा हो गया. मुर्गे के पंखों की तरह कंबल को बांहों पर फड़फड़ाकर उसने लपेटा और उस पत्रिका को देखता हुआ चबूतरे से नीचे उतर आया. थोड़ी देर यों ही असमंजस में खड़ा रहा, फिर उस गलियारे के दरवाज़े तक गया कि कुछ दिखाई-सुनाई दे. कोलाहल में चार-पांच आवाज़ें एक साथ किवाड़ की दरार से घुटी-घुटी सुनाई दीं और उसमें सबसे तेज़ आवाज़ वही थी जिसे उसने लक्ष्‍मी की आवाज़ समझ रखा था. हे भगवान, क्‍या हो गया? कोई कहीं से गिर पड़ा, आग लग गई, सांप-बिच्‍छू ने काट लिया? लेकिन जिस तरह से लोग बैठे देख रहे थे, उससे तो ऐसा लगता था जैसे यह कोई ख़ास बात नहीं है. यह कंबख्‍त किवाड़ क्‍यों बंद कर गया? इस वक़्त टट्टर इस तरह धमाधम बज रहा था, जैसे उस पर कोई तांडव कर रहा हो. उस ऊंची, चीखती महीन आवाज़ में वह नारी-कंठ, जिसे वह लक्ष्‍मी की आवाज़ समझता था, इतनी तेज़ और ज़ोर से बोल रहा था कि लाख कोशिश करने पर भी वह कुछ नहीं समझ सका.
‘परेशान क्‍यों हो रहे हो बाबू जी?’ चौकीदार की आवाज़ सुनकर वह एकदम सीधा खड़ा हो गया. मुसकराता हुआ वह कह रहा था,‘आज चंडी चेत रही है.’ उसकी इस बात पर मिस्‍तरी हंसा.
गोविंद बुरी तरह झुंझला उठा. कोई इतनी बड़ी बात, घटना हो रही है और ये बादमाश इस तरह मज़ा लूट रहे हैं. फिर भी यह अत्‍यंत चिंतित और उत्‍सुक-सा उधर मुड़ा.
इस बड़े कमरे या छोटे हॉल में हर चीज़ में हर चीज़ पर आटे का महीन पाउडर छाया हुआ था. एक ओर आटे में नहाई चक्‍की, काले पत्‍थर के बने हाथी की तरह चुपचाप खड़ी थी और उसका पिसे आटे को संभालने वाला गिलाफ हाथी की सूंड़ की तरह लटका था. उसी की सीध में दूसरी दीवार के नीचे मोटर लगी थी, जहां से एक चौड़ा पट्टा चक्‍की को चलाता था इतने हिस्‍से में सुरक्षा के लिए एक रेलिंग लगा दिया गया था. सामने की दीवार में चिपके लंबे-चौड़े लाल चौकोर तख्‍ते पर एक खोपड़ी और दो हड्डियों को क्रॉस के नीचे ‘खतरा’ और ‘डेंजर’ लिखे थे. उसके चबूतरे की बगल में ही छत से जाती जंज़ीर में एक बड़ी लोहे की तराजू, कथाकली की मुद्रा में एक बांह ऊंची किए लटकी थी, क्‍योंकि दूसरे पलड़े में मन से लेकर छटांक तक के बाटों का ढेर लगा था. यद्यपि लाला रूपाराम अक्‍सर चौकीदार को डांटते थे कि रात में इसे उतारकर रख दिया कर, लेकिन किसी-किसी दिन आधी रात तक चक्‍की चलती और दुकान-दफ़्तर वाले तो सुबह पांच बजे से ही आने लगते-उस समय बर्फ जैसी ठंडी तराजू को छूना और टांगना दिलावरसिंह को अधिक पसंद नहीं था. वह उसे यह कहकर टाल देता कि लड़ाई में सुबह-ही-सुबह काफ़ी ठंडी बंदूकें लेकर मार्च और परेड कर लिया, अब क्‍या जिंदगी-भर ठंडा लोहा ही छूना उसकी क़िस्‍मत में बदा है? इसीलिए वह उसे टंगी ही रहने देता. हालांकि ठीक बीच में होने के कारण वह जब भी दरवाज़ा खोलने उठता तो खुद ही उससे टकराता-उलझता और रात के एकांत में फौजी गालियों का स्‍वागत भाषण करता. पुराना कैलेंडर, एक और पिसाई के लिए भरे अन्‍न या पिसे आटे के बोरे, कनस्‍तर, पोटलियां और ऊपर चढ़कर अन्‍न डालने का मज़बूत-सा स्‍टूल. इस समय दोनों टांगें, जिनमें कीलदार फ़ुटबूट डटे हुए थे, धरती पर फैलाए चौकीदार मज़े में खट की पाटी पर झुका बैठा अपना पुराना-पहली लड़ाई के सिपाहीपने की याद-ग्रेटकोट चारों ओर पलेटे शान से बीड़ी धौंक रहा था और धीरे-धीरे सामने बैठे मिस्‍तरी सलीम से बातें करता जा रहा था.
उसके और मिस्‍तरी के बीच में एक बरोसी जल रही थी, जब कभी ध्‍यान आ जाता तो पास रखे कोयले-लकड़ी कुछ डाल देता और कभी-कभी अत्‍यंत निस्‍पृहता से हाथ या पांव उस दिशा में बढ़ाकर गर्मी सोखता. सलीम सिर झुकाए गर्म पानी की बाल्‍टी में ट्यूब डुबा-डुबाकर उनके पंक्‍चर देखने में व्‍यस्‍त था. उसके आस-पास दस-बारह काले-लाल ट्यूब, रबर की कतरनें, कैंची, पेंच, प्‍लास, सोल्‍यूशन, चमड़े की पेटी और एक ओर टायर लटके दस-बारह साइकिल के पहियों का ढेर था. अपने इस सामान से उसने आधे से ज़्यादा कमरा घेर लिया था.
जब गोविंद उसके पास आया तो वह सिर झुकाए ही हंसता हुआ ट्यूब के पंक्‍चर को पकड़कर कान में लगी कॉपीइंग पेंसिल को थूक से गीला करते हुए (हालांकि ट्यूब पानी से भीगा था और सामने पानी-भरी बाल्‍टी भी रखी थी) निशान लगाता हुआ जवाब दे रहा था,‘यह कहा जमादार साहब ने?’ फिर एक भांह को ज़रा तिरछी करके बोला,‘लाला कुछ नामा ढीला करे तो… उसकी लड़की पर जिन का साया है, उसका इलाज तो हम अपने मौलवी बदरुद्दीन साहब से मिनटों में करा दें.’
गोविंद का माथा ठनका, लाला की किसी लड़की पर क्‍या कोई देवी आती है? उसे अपने गांव की एक ब्राह्मणी विधवा, तारा का एकदम ध्‍यान हो आया. उसे भी जब देवी आती थी तो घर के बर्तन उठा-उठाकर फेंकती थी, उसका सारा बदन ऐंठने लगता था, मुंह से झाग जाने लगते थे, गर्दन मरोड़ खाने लगती थी, आंखें और चीज़ बाहर निकलने लगती थीं. कौन लड़की है लाला की? लक्ष्‍मी तो नहीं? भगवान करें, लक्ष्‍मी न हो! उसका दिल आशंका से डूबने-सा लगा. उसने सुना, कोलाहल अब लगभग शांत हो गया था और कहीं दूर से रह-रहकर एक हल्‍की रोने की आवाज़-भर सुनाई देती थी. शायद किसी को दौरा-वौरा ही आ गया है, तभी तो ये लोग निश्चित हैं.
गोविंद को सुनाकर चौकीदार बोला,‘नामा? तुम भी यार मिस्‍तरी, किसी दिन बेचारे बुड्ढे का हार्टफ़ेल कराओगे. और बेटा, इस ‘जिन’ का इलाज तुम्‍हारे मौलवी के पास नहीं है, समझे? वह तो हवा ही दूसरी है. आओ बाबू जी, बैठो.’
चौकीदार ने बैठे-बैठे स्‍टूल की तरफ़ इशारा किया. असल में वह गोविंद को ‘बाबू जी’ ज़रूर कहता था, लेकिन उसका विशेष आदर नहीं करता था. एक तो गोविंद क़स्‍बे से आया था और उसे शहर में चौकीदारी करते हो चुके थे नकद बीस साल, दूसरे वह फौज में रहा था और कैरो तक घूम आया था-उम्र, अनुभव, तहजीब सभी में वह अपने को गोविंद से ज़्यादा ही समझता था. लेकिन गोविंद को इस सबका ध्‍यान नहीं था. उसने स्‍टूल से टिककर ज़रा सहारा लेते हुए चिंतित स्‍वर में पूछा,‘क्‍यों भाई, यह शोरगुल क्‍या था? क्‍या हो रहा था?’
मिस्‍तरी ने सिर उठाकर उसे देखा और चौकीदार की मुसकराती नज़रों से उसकी आंखें मिलीं. उसने अपनी खिचड़ी मूंछों पर हथेली फेरते हुए कहा,‘कुछ नहीं बाबू जो, ऊपर कोई चीज़ किसी बच्‍चे ने गिरा दी होगी….’
मिस्‍तरी ने कहा,‘जमादार साहब, झूठ क्‍यों बोलते हो? साफ़-साफ़ क्‍यों नहीं बता देते? अब इनसे क्‍या छिपा रहेगा?’
‘तू ख़ुद क्‍यों नहीं बता देता?’ चौकीदार ने कहा और जेब से बीड़ी का बंडल निकाल लिया, काग़ज़ नोचकर आटे की लोई बनाने की तरह उसे ढीला किया, फिर एक बीड़ी निकालकर मिस्‍तरी की ओर फेंकी. दूसरी को दोनों तरफ़ से फूंका और जलाने के लिए किसी दहकते कोयले की तलाश में बरोसी में निगाहें घुमाते ज़रा व्‍यस्‍तता से बात जारी रखी,‘तुझे क्‍या मालूम नहीं हैं?’
इन दोनों की चहुल से गोविंद की झुंझलाहट बढ़ रही थी. उसे लगा, ज़रूर ही दाल में काला है, जिसे ये लोग टाल रहे हैं. मिस्‍तरी जीभ निकाले पंक्‍चर के स्‍थान को रेगमाल से घिस रहा था. वह जब भी कोई काम एकाग्रचित से करता तो अपनी जीभ को निकालकर ऊपर के होंठ की तरफ़ मोड़ लेता था. उसकी चांद के बीच में उभरते गंज को देखकर गोविंद ने सोचा कि गंजापन तो रईसी की निशानी है, लेकिन यह कंबख़्त तो आधी रात में यहां पंक्‍चर जोड़ रहा है. उसने उसी तरह सिर झुकाए ही कहा,‘अब मैं बाबू जी को क़िस्‍सा बताऊं या इन ट्यूबों से सिर फोड़ूं? साले सड़कर हलुआ तो हो गए हैं, पर बदलेगा नहीं. मन तो होता है, सबको उठाकर इस अंगीठी में रख दूह, होगा सुबह सो देखा जाएगा…’
‘ये इतने ट्यूब हैं काहे के?’ ज़रा आत्‍मीयता जताने को गोविंद ने पूछा,‘हालत तो सचमुच इनकी बड़ी खराब हो रही है.’
‘आपको नहीं मालूम?’ इस बार काम छोड़कर मिस्‍तरी ने ग़ौर से गोविंद को देखा,‘यह आपके लाला के जो दो दर्जन रिक्‍शा चलते हैं, उनका कूड़ा है. यह तो होता नहीं कि इतने रिक्‍शे हैं, रोज टूट-फूट, मरम्‍मत होती ही रहती है, हमेशा के लिए लगा ले एक मिस्‍तरी, दिनभर की छुट्टी हुई. सो तो नहीं, ट्यूब-टायर मेरे सिर हैं और बाक़ी टूट-फूट मिस्‍तरी अली अहमद ठीक करते हैं.’ फिर उनसे यूं ही पूछा,‘आप बाबू जी, नए आए हैं?’
‘हां, दो-तीन दिन ही तो हुए हैं. मैं यहां पढ़ने आया हूं.’ गोविंद ने कहा. उसके पेट में खलबलाहट मच रही थी, लेकिन वह नए सिरे से पूछने का सूत्र खोज रहा था.
‘तभी तो, मिस्‍तरी बोला, तभी तो आप यह सब पूछ रहे हैं. रात को इसका हिसाब रखते हैं न? हां, थोड़े दिनों में अपने फरजंद को भी आपसे पढ़वाएगा.’ अपने ‘फरजंद’ शब्‍द में जो व्‍यंग्‍य उसने दिया था, उससे खुद ही प्रसन्‍न होकर मुसकराते हुए उसने चौकीदार की दी हुई बीड़ी सुलगाई.
‘अबे, उन्‍हें यह सब क्‍या बताता है? वे तो उसके गांव से ही आए हैं. उन्‍हें सब मालूम है.’ चौकीदार बोला.
‘नहीं, सच, मुझे कुछ नहीं मालूम.’ गोविंद ने ज़रा आश्‍वासन के स्‍वर में कहा,‘इन लाला के तो पिता ही यहां चले आए थे न, सो हम लोगों को कुछ भी नहीं मालूम. बताइए न, क्‍या बात है?’ गोविंद ने आदरपूर्वक ज़रा ख़ुशामद के लहज़े में पूछा.
शायद उसकी जिज्ञासु व्‍याकुलता से प्रभावित होकर ही मिस्‍तरी बोला,‘अजी कुछ नहीं, लाला की बड़ी लड़की जो है न, उसे मिरगी का दौरा आता है. कोई कहता है उसे हिस्‍टीरिया है, पर हमारा तो कयास है कि बाबू जी, दौरा-वौरा नहीं, उस पर किसी आसेब का साया है… उस बेचारी को तो कुछ होश नहीं रहता.’
‘विधवा है?’ जल्‍दी से बात काटकर गोविंद धक्-धक् करते दिल से पूछ बैठा-हाय, लक्ष्‍मी ही न हो!
इस बार पुनः दोनों की निगाहों का आपस में टकराकर मुसकराना उससे छिपा न रहा. बीड़ी के लंबे कश के धुएं को लीलकर इस बार चौकीदार ज़बदरस्‍ती गंभीर बनकर बोला,‘अजी, इसने उसकी शादी ही कहां की है?’
‘नाम क्‍या है?’ गोविंद से नहीं रहा गया.
‘लक्ष्मी.’
‘लक्ष्‍मी…’ उसके मुंह से निकल गया और जैसे एकदम उसकी सारी शक्ति किसी ने सोख ली हो, जिज्ञासा और उत्‍तेजना से तना शरीर ढीला पड़ गया.
चौकीदार इस बार अत्‍यंत ही रहस्‍यमय ढंग से हंसा, जैसे कह रहा हो-अच्‍छा, तुम भी जानते हो?’
गोविंद के मन में स्‍वाभाविक प्रश्‍न उठा, उसकी उम्र क्‍या है?
लेकिन चौकीदार ने पूछा,‘तो सचमुच बाबू जी, आप इनके घर के बारे में कुछ भी नहीं जानते?’
‘नहीं भाई, मैंने बताया तो, मैं इनके बारे में कुछ भी क़तई नहीं जानता.’ एक तरफ़ आत्‍म-समर्पण के भाव से गोविंद बोला.
‘लेकिन लक्ष्‍मी का क़िस्‍सा तो सारे शहर में मशहूर है,’ चौकीदार बोला.
‘आप शायद नए आए हैं, यही वजह है.’ फिर मिस्‍तरी की ओर देखकर बोला,‘क्‍यों मिस्‍तरी साहब, तो बाबू जी को क़िस्‍सा बता ही दूं…’
‘अरे लो, यह भी कोई पूछने की बात है? इसमें छिपाना क्‍या? यहां रहेंगे तो कभी-न-कभी जान ही जाएंगे.’
‘अच्‍छा तो फिर सुन ही लो यार, तुम भी क्‍या कहोगे…’ चौकीदार ने आनंद में आकर कहना शुरू किया,‘आप शायद जानते हैं, यह हमारा लाला शहर का मशहूर कंजूस और मशहूर रईस है….’
‘लामुहाला जो कंजूस होगा वो रईस तो होगा ही.’ मिस्‍तरी बोला.
‘नहीं मिस्‍तरी साहब, पूरा क़िस्‍सा सुनना हो तो बीच में मत टोको.’ चौकीदार इस हस्‍तक्षेप पर नाराज़ हो गया.
‘अच्‍छा-अच्‍छा, सुनाओ.’ मिस्‍तरी बुड्ढों की तरह मुसकराया.
‘इसकी यह चक्‍की है न, सहालगों में इस पर हज़ारों मन पिसता है, वैसे भी दो-ढाई सौ मन तो कम-से-कम पिसता ही है रोज. अफ़सरों और क्‍लर्कों को कुछ खिला-पिलाकर लड़ाई के ज़माने में इसे मिलिटरी से कुछ ठेके मिल ही जाते थे. आप जानो, मिलिटरी का ठेका तो जिसके पास आया सो बना. आप उन दिनों देखते ‘लक्ष्‍मी फ़्लोर मिल’ के हल्‍ले. बोरे यों चुने रखे रहते थे, जैसे मोर्चे के लिए बालू भर-भर रख दिए हों! इसमें इतने ख़ूब रुपया पीटा, मिलिटरी के गेहूं बेच दिए औने-पौने भाव और रद्दी सस्‍ते वाले ख़रीदकर कोटा पूरा किया, उसमें खड़िया मिला दी. पिसाई के उल्‍टे-सीधे पैसे तो इसने मारे ही, ब्‍लैक, चार-सौ बीसी, चोरी-क्‍या-क्‍या इसने नहीं किया! इसके अलावा एक बड़ी साबुन की फ़ैक्‍टरी और एक काफ़ी बड़ा जूतों का कारखाना भी इसका है. उसे इसके बेटे संभालते हैं. पच्‍चीस-तीस रिक्‍शे और पांच मोटर-ट्रक चलाते हैं. शायद गांव में भी काफ़ी जमीन इसने ले रखी है. एक काम है साले का! इतना तो हमें पता है, बाक़ी इसकी असली आमदनी तो कोई भी नहीं जानता, कुछ-न-कुछ करता ही रहता है. भगवान ही जाने! रात-दिन किसी-न-किसी तिकड़म में लगा ही रहता है. करोड़ों का आसामी है. और सबसे ताज्‍जुब की बात तो यह है कि सब सिर्फ़ इसी पच्‍चीस-छब्‍बीस साल में जमा की हुई रकम है.’ चौकीदार दिलावरसिंह मिलिटरी में रह आने के कारण ख़ूब बातूनी था और मोर्चे के अपने अफ़सरों के क़िस्‍सों को, अपनी बहादुरी के कारनामों को ख़ूब नमक-मिर्च लगाकर इतनी बार सुना चुका था कि उसे कहानी सुनाने का मुहावरा हो गया था. हर बात के उतार-चढ़ाव के साथ उसकी आंखें और चेहरे की भंगिमाएं बदलती रहती थीं.
उसकी बातें ग़ौर और रुचि से सुनते हुए भी गोविंद के मन में एक बात टकराई, लक्ष्‍मी को दौरे आते हैं, कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने जो यह निशान लगा भेजे हैं, यह भी दौरों की दशा में ही लगाए हों और उनका कोई विशेष गहरा अर्थ न हो. इस बात से सचमुच उसे बड़ी निराशा हुई, फिर भी उसने ऊपर से आश्‍चर्य प्रकट करके पूछा,‘सिर्फ़, पच्‍चीस-छब्‍बीस साल?’
नई बीड़ी जलाते चौकीदार ने ज़ोर से सिर हिलाया. गोविंद ने सोचा,‘और लक्ष्‍मी की उम्र क्‍या होगी?’
‘और कंजूसी की तो हद आपने देख ही ली होगी. बुड्ढा हो गया है, सांस का रोग हो रहा है, सारा बदन कांपता है, लेकिन एक पैसे का भी फ़ायदा देखेगा तो दस मील धूप में हांफता हुआ पैदल जाएगा, क्‍या मज़ाल जो सवारी कर ले. गर्मी आई तो पूरा शरीर नंगा, कमर में धोती – आधी पहने, आधी बदन में लपेटे. जाड़ा हुआ तो यही ड्रेस, बस, इसी में पिछले दस साल से तो मैं देख रहा हूं. कभी किसी मकान की मरम्‍मत न कराना, सफ़ेदी-सफ़ाई न कराना और हमेशा यही ध्‍यान रखना कि कौन कितनी बिजली ख़र्च कर रहा है, कहां बेकार नल या पंखा चल रहा है. लड़का है सो उसे मुफ़्त के चुंगी के स्‍कूल में डाल दिया है, लड़की घर पर बैठा रखी है. एक-एक पैसे के लिए घंटों रिक्‍शा वालों, ट्रक वालों से लड़ना, बहसें करना और चक्‍की वालों की नाक में दम रखना, उन्‍हें दिन-रात यह सिखाना कि किस चालाकी से आटा बचाया जा सकता है. बीसियों रुपए का आटा रोज़ होटल वालों को बिकता है, सो अलग. जिस दिन से चक्‍की खुली है, घर के लिए तो आटा बाज़ार से आया ही नहीं. आप विश्‍वास मानिए, कम-से-कम बारह-पंद्रह हज़ार की आमदनी होगी, लेकिन सूरत देखिए, मक्खियां भिनभिनाती रहती हैं. किसी आने-जाने वाले के लिए एक कुर्सी तक नहीं पान-सुपाड़ी की तो बात ही दूर है. कौन कह देगा कि यह पैसे वाला है? यह उम्र होने आई, सुबह से शाम तक बस, पैसे के पीछे हाय-हाय! दुनिया के किसी और काम से इसे मतलब ही नहीं है. सभा हो, सोसाइटी हो, हड़ताल हो, छुट्टी हो, कुछ भी हो-लेकिन लाला रूपाराम अपनी ही धुन में मस्‍त! नौकरों को कम-से-कम देना पड़े, इसलिए ख़ुद ही उनके काम को देखता है. मुझसे तो कुछ इसलिए नहीं कहता कि मुझ पर थोड़ा विश्‍वास है, दूसरे मेरी ज़रूरत सबसे बड़ी है. लेकिन बाक़ी हर नौकर रोता है इसके नाम को. और मज़ा यह कि सब जानते हैं कि झक्‍की है. कोई इसकी बात को ध्‍यान से सुनता नहीं. बाद में सब इसका नुक़सान करते हैं, आसपास के सभी हंसते और गालियां देते हैं…’
‘बच्‍चे कितने हैं…?’ चौकीदार को इन बेकार की बातों में बहकते देखकर गोविंद ने सवाल किया.
‘उसी बात पर आता हूं,’ चौकीदार इत्‍मीनान से बोला,‘सच बाबू जी, मैं यह देख-देखकर हैरान हूं कि इस उम्र तक तो इसने यह दौलत जुटाई है, अब इसका यह कंबख़्त करेगा क्‍या? लोग जमा करते हैं बैठकर भोगें, लेकिन यह राक्षस तो जमा करने में ही लगा रहता है. इसे जमा करने की ही ऐसी हाय-हाय रही है कि दौलत किसलिए जमा की जाती है, इस बात को यह बेचारा बिलकुल भूल गया है.’ फिर बड़े चिंतित और दार्शनिक मूड में दिलावरसिंह ने आग वाली राख को देखते हुए कहा,‘इस उम्र तक तो इसे जोड़ने की ऐसी हवस है, अब इसका यह भोग कब करेगा? सचमुच बाबू जी, जब कभी मैं सोचता हूं तो बेचारे पर बड़ी दया आती है. देखो, आज की तारीख़ तक यह बेचारा भाग-दौड़कर, लू-धूप की चिंता छोड़कर जमा कर रहा है. एक पाई उसमें से खा नहीं सकता, जैसे किसी दूसरे का हो-अब मान लीजिए, कल यह मर जाता है, तो यह सब किसके लिए जमा किया गया? बेचारे के साथ कैसी लाचारी है, मरकर-जीकर, नौकर की तरह जमा किए जा रहा है, न ख़ुद खा सकता है, न देख सकता है कि कोई दूसरा छू भी ले-जैसे धन के ऊपर बैठा सांप, ख़ुद उसे खा नहीं सकता, खाने तो ख़ैर देगा ही क्‍या? उसकी रखवाली करना और जोड़ना…’ और लाला रूपाराम के प्रति दया से अभिभूत होकर चौकीदार ने एक गहरी सांस ली. फिर दूसरे ही क्षण दांत किटकिटाता हुआ बोला,‘और कभी-कभी मन होता है, छुरा लेकर साले की छाती पर जा चढ़ूं, और मुरब्‍बे के आम की तरह गोदूं. अपने पेट में जो इसने इतना धन भर रखा है, उसकी एक-एक पाई उगलवा लूं. चाहे ख़ुद न खाए लेकिन, जिसे अपने बच्‍चों को भी खिला-पिला नहीं सकता, उस धन का क्‍या होगा?’
‘इसके बच्‍चे कितने हैं?’ इस बार फिर गोविंद अधीर हो गया. असल में वह चाहता था कि दार्शनिक उद्गारों को छोड़कर वह जल्‍दी-से-जल्‍दी मूल विषय पर आ जाए-लक्ष्‍मी के विषय में बताए.
वर्णन में बह जाने की अपनी कमज़ोरी पर चौकीदार मुसकराया और बोला,‘इसके बच्‍चे हैं चार, बीवी मर गई, बाक़ी किसी नातेदार, किसी रिश्‍तेदार को झांकने नहीं देता, ऊपर तो कोई नौकर भी नहीं है. बस, एक मरी-मराई सी बुढ़िया पाल ली है, लोग बड़े भाई की बीवी बताते हैं. बस, वही सारी देखभाल करती है. और तो किसी को मैंने साथ देखा नहीं. ख़ुद के तीन लड़के और एक लड़की….’
‘बड़े दो लड़के तो साथ नहीं रहते…’ इस बार मिस्‍तरी बोला.
‘हां, वो लोग अलग ही रहते हैं. दिन में एकाध चक्‍कर लगा जाते हैं. एक जूतों का कारखाना देखता है, दूसरा साबुन की फ़ैक्‍टरी संभालता है. इस साले को उन पर भी विश्‍वास नहीं है. पूरे काग़ज़-पत्‍तर, हिसाब-किताब अपने पास ही रखता है. नियम से शाम को वहां जाता है वसूली करने. लेकिन लड़के भी बड़े तेज़ है, ज़रा शौकीन तबीयत पाई है. इसके मरते ही देख लेना मिस्‍तरी, वो इसकी सारी कंजूसी निकाल डालेंगे.’ फिर याद करके बोला,‘और क्‍या कहा तुमने?’ साथ रहने की बात, सो भैया, जब तक अकेले थे, तब तक तो कोई बात नहीं थी, लेकिन अब तो उनकी बीवियां आ गई हैं न, एकाध बच्‍चा भी आ गया है घर में, सो उसे दिनभर गोद में लटकाए फिरता है. इसके घर में एक चंडी जो है न, उसके साथ सबका निभाव नहीं हो सकता.’
एकदम गोविंद के मन में आया-लक्ष्‍मी. और वह ऊपर से नीचे तक सिहर उठा. कौन? लक्ष्‍मी!’ उसके मुंह से निकल गया.
‘जी, हां, उसी की बदौलत तो यह सारा खेल है, वही तो इस भंडारे की चाबी है. वह न होती तो यह ताम-झाम आता कहां से? उसने तो इसके दिन ही पलट दिए, नहीं तो था क्‍या इसके पास?’ इस बार यह बात चौकीदार ने ऐसे लटके से कही, जैसे किसी रहस्‍य की चाबी दे दी हो.
‘कैसे भाई, कैसे?’ गोविंद पूछ बैठा. उसका दिमाग़ चकरा गया. यह क्‍या विरोधाभास है? एक पल को उसके दिमाग़ में आया-कहीं यह रुपया कमाने के लिए तो लक्ष्‍मी का उपयोग नहीं करता? राक्षस! चांडाल!
उसकी व्‍याकुलता पर चौकीदार फिर मुसकराया, और बोला,‘बाप तो इसका ऐसा रईस था भी नहीं, फिर वह कच्‍ची गृहस्‍थी छोड़कर मर गया था. ज़्यादा-से-ज़्यादा हजार-हजार रुपया दोनों भाइयों के पल्‍ले पड़ा होगा. शादियां दोनों की हो ही चुकी थीं. कुछ कारोबार खोलने के विचार से यह सट्टे में अपने रुपए दूने-चौगुने करने जो पहुंचा तो सोर गंवा आया. बड़े भइया रोचराम ने एक पनचक्‍की खोल डाली. पहले तो उसकी भी हालत डांवाडोल रही थी, लेकिन सुनते हैं कि जब से उसकी लड़की गौरी पैदा हुई, उसकी हालत संभलती ही चली गई. यह उसी के यहां काम करता था, मियां-बीवी वहीं पड़े रहते. ऐसा कुछ उस लड़की का पांव आया कि लाला रोचूराम सचमुच के लाला हो गए. इन दोनों के बड़े-बूढ़ों का कहना था कि लड़की उनके खानदान में भगवान होती है. अब तो अपना लाला कभी इस ओझा के पास जा, कभी उस पीर के पास जा, कभी इसकी ‘मानता’, कभी उसका ‘संकल्‍प’ दिन-रात बस यही कि हे भगवान, मेरे लड़की हो. और पता नहीं कैसे, भगवान ने सुन ली और लड़की ही आई. आप विश्‍वास नहीं करेंगे, फिर तो सचमुच ही रूपाराम के नक्‍शे बदलने लगे. पता नहीं गड़ा हुआ मिला या छप्‍पर फाड़कर मिला-लाला रूपाराम के सितारे फिर गए…. इसे विश्‍वास होने लगा कि यह सब बेटी की कृपा है और वास्‍तव में यह कोई देवी है. इसने उसका नाम लक्ष्‍मी रखा और साहब, कहना पड़ेगा कि लक्ष्‍मी सचमुच लक्ष्‍मी ही बनकर आई. थोड़े दिनों में ही ‘लक्ष्‍मी फ़लोर मिल’ अलग बन गई. अब तो इसका यह हाल है कि यह मिट्टी भी छू दे तो सोना बन जाएगा और कंकड़ को उठा ले तो हीरा दिखे. फिर आ गई लड़ाई और इसके पंजे-छक्‍के हो गए. इसे ठेके मिलने लगे. समझिए, एक के बाद एक मकान ख़रीदे जाने लगे-सामान लाने-ले-जाने वाले ट्रक आए. इधर रोचूराम भी फल रहा था, और दोनों भाई गर्व से कहते थे,‘हमारे यहां लड़कियां लक्ष्‍मी बनकर ही आती हैं.’ लेकिन फिर एक ऐसा वाक्‍या हो गया कि तस्‍वीर की शक्‍ल बदल गई…’ चौकीदार दिलावरसिंह जानता था कि यह उसकी कहानी का क्‍लाइमैक्‍स है. इसलिए श्रोताओं की उत्‍सुकता को झटका देने के लिए उसने उंगलियों में दबी, व्‍यर्थ जलती बीड़ी को दो-तीन कश लगाकर खत्‍म किया और बोला:
‘गौरी शादी लायक हो गई थी. शायद किसी पड़ोसी लड़के को लेकर कुछ ऐसी-वैसी बातें भी लाला रोचूराम ने सुनीं. लोगों ने उंगलियां उठाना शुरू कर दिया तो उन्‍होंने गौरी की शादी कर दी. बस, उसकी शादी होना था कि जैसे एकदम सारा खेल उजड़ गया. उसके जाते ही लाला एक बहुत बड़ा मुक़दमा हार गया और भगवान की लीला देखिए, उन्‍हीं दिनों उसकी पनचक्‍की में आग लग गई. कुछ लोगों का कहना तो यह है कि घरेलू दुश्‍मन का काम था. जो भी हो, बड़े हाथी की तरह जो एक बारगी गिरे तो उठना दुश्‍वार हो गया. लोग रुपए दाब गए और उनका दिवाला निकल गया. दिवाला क्‍या जी, एक तरह से बिल्कुल मटियामेट हो गया. सब कुछ चौपट हो गया और छल्‍ला-छल्‍ला तक बिक गया. एक दिन लाला जी की लाश तालाब में फूली हुई मिली. अब तो हमारे लाला रूपाराम को सांप सूंघ गया, उनके कान खड़े हो गए और लक्ष्‍मी पर पहरा बैठा दिया गया. उसे स्‍कूल से उठा लिया गया और वह दिन सो आज का दिन, बेचारी नीचे नहीं उतरी. घर के भीतर न किसी को आने देता है, न जाने देता है. मास्‍टर रखकर पढ़ाने की बात पहले उठी थी, लेकिन जब सुना कि मास्‍टर लोग लड़कियां को बहकाकर भगा ले जाते हैं तो वह विचार एकदम छोड़ दिया गया. लक्ष्‍मी ख़ूब रोई-पीटी, लेकिन इस राक्षस ने उसे भेजा ही नहीं लड़की देखने-दिखाने लायक….’
बात काटकर मिस्‍तरी बोला,‘अरे देखने-दिखाने लायक क्‍या, हमने ख़ुद देखा है. जिधर से निकल जाती है उधर बिजली-सी कौंध जाती है. सौ में एक….’
उसकी बात का विरोध न करके, अर्थात् स्‍वीकार करके चौकीदार बोला,‘स्‍कूल में भी सुनते हैं बड़ी तारीफ़ थी, लेकिन सबकी साले ने रेड़ कर दी. उसे यह विश्‍वास हो गया कि लड़की सचमुच लक्ष्‍मी है और जब दूसरे की हो जाएगी तो इसका भी एकदम सत्‍यानाश हो जाएगा. इसी डर से न तो किसी को आने-जाने देता है और न उसकी शादी करता है. उसकी हर बात मानता है. बुरी तरह उसकी इज़्ज़त करता है, उसकी हर ज़िद पूरी करता है, लेकिन निकलने नहीं देता. लक्ष्‍मी सोलह की हुई, सत्रह की हुई, अठारह, उन्‍नीस… साल पर साल बीत गए. पहले तो वह सबसे लड़ती थी. बड़ी चिड़चिड़ी और ज़िद्दी हो गई थी. कभी-कभी गाली देती और मार भी बैठती थी, फिर भी मालूम नहीं क्‍या हुआ कि घंटों रात-रात भर पड़ी ज़ोर-ज़ोर से रोती रहती, फिर धीरे-धीरे उसे दौरा पड़ने लगा…’
‘अब क्‍या उम्र है?’ गोविंद ने बीच में पूछा.
‘उसकी ठीक उम्र तो किसी को भी पता नहीं, लेकिन अंदाज से पच्‍चीस-छब्‍बीस से कम क्‍या होगी?’ घृणा से होंठ टेढ़े करके चौकीदार ने अपनी बात जारी रखी,‘दौरा न पड़े तो बेचारी जवान लड़की क्‍या करे? उधर पिछले पांच-छ: साल से तो यह हाल है कि दौरे में घंटे-दो-घंटे वह बिलकुल पागल हो जाती है. उछलती-कूदती है, बुरी-बुरी गालियां देती हे, बेमतलब रोती-हंसती है, चीज़ें उठा-उठाकर इधर-उधर फेंकती है. जो चीज़ सामने होती है उसे तोड़-फोड़ देती है. जो हाथ में आता है, उससे मारपीट शुरू कर देती है और सारे कपड़े उतारकर फेंक देती है. बिलकुल नंगी हो जाती है और जांघें पीट-पीटकर बाप से कहती है,‘ले, तूने मुझे अपने लिए रखा है, मुझे खा, मुझे चबा, मुझे भोग…!’ यह पिटता है, गालियां खाता है और सबकुछ करता है, लेकिन पहरे में ज़रा ढील नहीं होने देता. चुपचाप सिर पर हाथ रखकर बैठा-बैठा सुनता रहता है. क्‍या ज़िंदगी है बेचारे की! बाप है सो उसे भोग नहीं सकता और छोड़ तो सकता ही नहीं. मेरी तो उम्र नहीं रही, वर्ना कभी मन होता है ले जाऊं, जो होगा सो देखा जाएगा…’ और एक तीखी व्‍यथा से मुसकराता चौकीदार देर तक आग को देखता रहा, फिर धीरे से होंठ चबाकर बोला,‘इसकी बोटी-बोटी गर्म लोहे से दागी जाए और फिर टिकटी बांधकर गोली से उड़ा दिया जाए.’
गोविंद का भी दिल भारी हो आया था. उसने देखा, बुड्ढे चौकीदार की गीली आंखों में सामने की बरोसी की धुंधली आग की परछाई झलमला रही है.
आधी रात को अपनी कोठरी में लेटे लक्ष्‍मी के बारे में सोचते हुए मोमबत्‍ती की रौशनी में उसकी सारी बातों का एक-एक चित्र गोविंद की आंखों के आगे साकार हो आया और फिर उसने अंधकार की प्राचीरों से घिरी, गर्म-गर्म आंसू बहाती मोमबत्‍ती की धुंधली रौशनी में रेखांकित पंक्तियां पढ़ीं:
‘मैं तुम्‍हें प्राणों से अधिक प्‍यार करती हूं.’
‘मुझे यहां से भला ले चलो…’
‘मैं फांसी लगाकर मर जाऊंगी…’
गोविंद के मन में अपने-आप एक सवाल उठा: ‘क्‍या मैं ही पहला आदमी हूं जो इस पुकार को सुनकर ऐसा व्‍याकुल हो उठा हूं या औरों ने भी इस आवाज़ को सुना है और सुनकर अनसुना कर दिया है? और क्‍या सचमुच जवान लड़की की आवाज़ को सुनकर अनसुना किया जा सकता है?’

Illustration: Pinterest

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