काला जल जैसे हिंदी के कालजयी उपन्यास के लेखक गुलशेर ख़ां शानी की कहानियां भी समाज के विरोधाभासों और विडंबनाओं पर प्रकाश डालती रही हैं. नौकरी से बर्ख़ास्त सरकारी मुलाजिम वाहिद की यह कहानी पढ़ें.
अपने बर्फ़ जैसे हाथों से वाहिद ने गर्दन से उलझा हुआ मफलर निकाला और साफ़िया की ओर फेंक दिया. पलक-भर वाहिद की ओर देखकर साफ़िया ने मफलर उठाया और उसे तह करती हुई धीमे स्वर में बोली,‘क्या मीलाद में गए थे?’
वाहिद ने बड़े ठंडे ढंग से स्वीकृतिसूचक सिर हिलाया और पास की खूंटी में कोट टांग खिड़की के पास आया. खिड़की के बाहर अंधेरा था, केवल सन्नाटे की ठंडी सांय-सांय थी, जिसे लपेटे बर्फ़ीली हवा बह रही थी. किंचित सिहरकर वाहिद ने खिड़की पल्ले लगा दिए और अपने बज उठते दांतों को एक-दूसरे पर जमाते हुए बोला,‘कितनी सर्दी है! जिस्म बर्फ़ हुआ जा रहा है, चूल्हे में आग है क्या?’
प्रश्न पर साफ़िया ने आश्चर्य से वाहिद की ओर देखा. बोली नहीं. चुपचाप खाट पर लेटे वाहिद के पास आई, बैठी और उसके कंधे पर हाथ रखकर स्नेह-सिक्त स्वर में बोली,‘मेरा बिस्तर गर्म है, वहां सो जाओ.’
वाहिद अपनी जगह लेटा रहा, कुछ बोला नहीं. थोड़ी देर के बाद उठकर पास ही पड़ी पोटली खींची, उसकी गांठें खोली और काग़ज़ की पुड़िया रुमाल से अलग कर बोला,‘शीरनी है, लो खाओ.’
‘रहने दो,’ साफ़िया बोली,‘सुबह खा लूंगी. क्या मीलाद में बहुत लोग थे? किसके यहां थी?’
‘वक़ील साहब के यहां. एक तो ग्यारहवें शरीफ़ की मीलादें और दूसरे इतनी सर्दी.’
वाहिद ने रजाई गर्दन तक खींच ली. अनायास भर उठने वाली झुरझुरी से एक बार सिहर कर अपना जिस्म समेटा और एक कोने में हो रहा. बंद किवाड़ों को धक्का मारकर अंधेरे और और शीत में ठिठुरती हवा लौट गई और किवाड़ों की दराज में सिमटकर हवा दोशीजा की नटखट छुअन की तरह गर्म रजाई में भी वाहिद को छूकर कंपा गई.
पास वाले मकान से एक शोर उठ रहा था, एक बड़ी मीठी चहल-पहल, जिसमें पुरुष-स्त्रियों के स्वर और हंसी-मज़ाक के फव्वारे, देगों की उठा-पटक बल्लियों और कफ़गीरों और कफ़गीरों के टकराने और झनझनाने की आवाज़ों के साथ घुले-मिले थे.
साफ़िया ने कहा,‘मुनीर साहब के यहां कल सुबह दावत है.’
वाहिद ने सुन-भर लिया और आंखें बंद कर लीं.
मुनीर साहब वाहिद के घर के पास ही रहते थे. आज से कोई छह साल पहले मुनीर साहब यहां मुनीम थे, पर बाद में उन्होंने नौकरी छोड़ दी और गल्ले का व्यापार शुरू कर दिया. कि़स्मत अच्छी थी, अतः दो साल के अंदर ही उन्होंने हज़ारों रुपए कमाए और अपना पुराना माटी का कच्चा मकान तुड़वाकर पक्का और बड़ा मकान बनवाया.
उस दावत की चर्चा वाहिद पिछले कई दिनों से साफ़िया से सुन रहा था. मुनीर साहब की पत्नी ने जो, अक्सर वाहिद के यहां दोपहर में आ जाया करती थी, दो हफ़्ते पहले ही अपने यहां होने वाली दावत की घोषणा कर दी थी. जब कभी साफ़िया से भेंट हुई, थोड़ी इधर-उधर की चर्चा के पश्चात बात ग्यारहवीं शरीफ़ के महीने, मीलादों और दावतों पर पलट आई और उसने बातों ही बातों में कई बार सुनाया कि उनके यहां की दावत में कितने मन का पुलाव, कितना जर्दा और कितने मन के बकरे कटने को है और इतने दिन पहले ही उनके रिश्तेदार चावल-दाल चुनने-बीनने और दूसरे कामों के लिए आ गए हैं. इस ज़रूरत से ज़्यादा इंतज़ाम करने के लिए उन्होंने सफ़ाई दी कि मीलाद, तीजा और किसी धार्मिक काम में चाहे लोग न आएं, पर खाने की दावत हो, तो एक बुलाओ, चार आएंगे. जब मामूली दावतों का यह हाल होता है तो यह तो आम दावत है.
साफ़िया को बुरा लगा हो, ऐसी बात नहीं, पर उसने कभी कुछ नहीं कहा.
वही दावत कल होने जा रही थी.
बड़ी देर से छा गई चुप्पी को सहसा तोड़कर बड़े निराश स्वर में साफ़िया बोली,‘मुनीर साहब की बीवी के पांव तो ज़मीन पर ही नहीं पड़ते. इतनी उम्र हो गई फिर भी जेवरों से लदी पीली-उजली दुल्हन बनी फिरती हैं. भला बहू-बेटियों के सामने बुढ़ियों का सिंगार क्या अच्छा लगता है.’
वाहिद ने करवट बदली और एक लंबी सांस ले कर कहा,‘जिसे ख़ुदा ने इतना दिया है, वह क्यों न पहने? अपने-अपने नसीब हैं साफ़िया.’
साफ़िया को संतोष नहीं हुआ. थोड़ी देर चुप रहकर बड़े भरे हुए स्वर में बोली,‘एक अपने नसीब हैं, ख़ुदा जाने तुम्हारे मुक़दमे का फ़ैसला माटी मिला कब होगा!’ और साफ़िया के भीतर से बड़ी लंबी और गहरी सांस निकली जो सीधे वाहिद के कलेजे में उतर गई.
***
वाहिद एक ढीला-ढाला, मंझोले कद का आदमी था. ग़रीबी और अभाव से उसका परिचय बचपन से ही था. बड़ी आर्थिक कठिनाइयों के बीच आठवीं की शिक्षा प्राप्त कर सका था. आठवीं के बाद किसी तरह कोशिश कर-कराके उसे फ़ॉरेस्ट डिपार्टमेंट में फ़ॉरेस्ट गार्ड की नौकरी मिल गई और आठ साल के भीतर ही वह डिप्टी रेंजर तक पहुंच गया. जंगल महकमे वालों को भला किस चीज़ की कमी. चार साल के अंदर ही वाहिद के नाम पोस्ट ऑफ़िस में डेढ़ हज़ार की रकम जमा हो गई जिसमें से सात सौ उसके ब्याह में ख़र्च हुए. पर साफ़िया का भाग्य शायद अच्छा नहीं था. पूरे दो साल भी सुख से नहीं रह पाई थी कि वाहिद पर रिश्वत के आरोप में मुअत्तल कर दिया गया. वाहिद ने बहुत हाथ-पांव मारे. पोस्ट ऑफ़िस से तीन सौ और निकल गए. हेड क्लर्क की कई दावतें हुईं. रेंज ऑफ़िसर साहब (जिनके सर्किल में वाहिद आता था और जिन्होंने रिपोर्ट आगे बढ़ाई थी) के यहां उसने कई बार, मिठाई, फलों की टोकरियां और शहर के भारी भरकम आदमियों से ढेर सारी सिफ़ारिशें भिजवाईं और डीएफओ साहब की बीवी के पास (हालांकि उसके पहले एक बार भी वहां जाने का अवसर नहीं आया था) साफ़िया को दो-तीन बार भेजा, पर कुछ नहीं हुआ. केस पुलिस को दे दिया गया और वाहिद पर मुक़दमा चलने लगा.
पहले कुछ महीने तो वाहिद को काफ़ी सांत्वनाएं मिलीं, कि केस में कोई दम नहीं, खारिज हो जाएगा. यहां वाले ज़्यादती और अन्याय करें पर ऊपर तो सबकी चिंता रखने वाला है और वाहिद के केस के साथ अकेले वाहिद का नहीं दो और जनों का भाग्य जुड़ा है. अगर वाहिद दोषी भी है, तो वे लोग तो निर्दोष हैं इत्यादि.
जब एक साल का अर्सा बीत जाने पर मुक़दमा तय नहीं हुआ, पोस्ट ऑफ़िस से पूरे पैसे निकल गए और साफ़िया के जिस्म पर एक भी जेवर न रहा तो वाहिद की हिम्मच टूट गई और पहले जुम्मे के अलावा कभी भी मस्जिद की ओर रुख़ न करने वाला वाहिद अब पांचों वक़्त नवाज पढ़ने लगा.
लगभग दो साल के बाद फ़ैसला हुआ और आशा के विपरीत, अच्छे से अच्छा वक़ील लगाने के बावजूद, वाहिद को साल भर की सज़ा हो गई.
वैसे तो अकस्मात टूट पड़ने वाली मुसीबत पहाड़ से कम न थी पर रिश्तेदारों और दोस्तों ने हाईकोर्ट में अपील करने का किसी-न-किसी तरह प्रबंध कर दिया और पूरे डेढ़ बरस से वाहिद हाईकोर्ट के फ़ैसले का इंतज़ार कर रहा है, भले उस प्रतीक्षा में एक जून के खाने के बाद दूसरे जून की चिंता की हड़बड़ाहट, साफ़िया की शिकायतें, दिन-प्रतिदिन टूटता उसका स्वास्थ्य और उस दुर्दिन में मां बनने की एहतियात, आवश्यक दवाई व देखभाल की सारी समस्याएं शामिल थीं.
मुनीर साहब के यहां से देगों में भारी कफ़गीरों के फेरने-टकारने का स्वर गूंजा, बड़े ज़ोर से छनन-छन्न की आवाज़ हुई और फिर घी में पड़े ढेर सारे मसालों की मीठी-सोंधी ख़ुशबू फैल गई.
घी अब वाहिद के लिए ख़्वाब है. जब तक लोअर कोर्ट से फ़ैसला नहीं हुआ था, ऑफ़िस से मुअत्तली का एलाउंस मिल जाया करता था, उसका ही सहारा कम न था. पर अब कहीं का कोई आसरा नहीं. उन कड़वे दिनों को वाहिद और साफ़िया मिलकर झेल भी लें, लेकिन उस मासूम जान का क्या होगा, जो वाहिद के दुर्दिन में ही साफ़िया के भाग्य में आने को थी? प्राइवेट फ़ंड की जो भी थोड़ी बहुत रकम जमा थी और वापस मिलने को थी, उसके जाने से बहुत पहले से रास्ते तैयार थे, अतः उसका क्या भरोसा?
एक दिन झिझकती हुई साफ़िया बोली,‘एक बात कहूं?’
पल भर के लिए वाहिद डर सा गया, पता नहीं साफ़िया कौन-सी बात कहेगी? तुरंत जवाब देते नहीं बना. क्षणभर उसकी तरफ़ देखता रहा फिर पास जाकर अपनी हथेलियों में उसका चेहरा ले बड़ी उदास आंखों से देखने लगा,‘क्या कहती हो?’
साफ़िया बोली ‘प्राइवेट फ़ंड के पैसे मिलेंगे, तो घी ला दोगे? बहुत दिनों से अपने यहां पुलाव नहीं बना.’
वाहिद के भीतर जैसे किसी ने हाथ डालकर खंगाल दिया हो. अपने को किसी तरह पहले वह संयत कर धीरे से मुस्कराया, फिर ज़रा ज़ोर से बनाई हुई हंसी हंसता हुआ बोला ‘बस?’
साफ़िया संकोच से लाल होकर मुस्कराती हुई वाहिद के सीने में छिप गई.
वहां से हटकर जब वाहिद दूसरे कमरे में आ गया तो निढाल-सा खाट में पड़ गया. भीतर से उफनती रुलाई का आवेग पलकों पर, ओंठों पर बिछल रहा था. मुंह पोंछने के बहाने रुमाल से उसने आंखें पोंछीं और अपने लरज रहे ओंठ बांहों में भींच लिए.
उस बात को भी तीन माह हो गए थे. साफ़िया ने एक-दो बार अप्रत्यक्ष रूप से पूछने की कोशिश की और चुप रह गई. उस रकम की वाहिद को आज भी प्रतीक्षा है.
वाहिद ने करवट बदली. मुनीर साहब के यहां का शोर थम गया था और इक्की-दुक्की आवाज़ें आ रही थीं. साफ़िया थककर सो गई थी.
सर्दी की सुबह वाहिद के लिए आठ से पहले नहीं होती. पर उस दिन देर से सोने पर भी आंख सुबह जल्दी खुल गई. वैसे काम होने या न होने पर भी वह चाय आदि से निपटकर नौ से पहले ही बाहर निकल जाता है लेकिन उस दिन उसकी चाय दस बजे हुई.
बाहर मुनीर साहब के यहां भीड़ इकट्ठी हो रही थी साइकिल और पांवों की रौंद से उभड़-उभड़कर धूल का बादल फैल-बिखर रहा था. और दिनों की तरह चाय देते हुए आज साफ़िया ने न तो राशन के समाप्त होने की बात कही और न पूछा कि आज वाहिद कहां से क्या प्रबंध करेगा. पिछली रात भी कुछ नहीं था. सुबह का बच रहा थोड़ा खाना वाहिद और साफ़िया ने मिलकर खा लिया था. रात की मीलाद की शीरनी नाश्ते का काम दे गई थी.
वाहिद ने पूछा,‘क्यों, क्या मुनीर साहब के यहां से कोई आया था?’
साफ़िया ने थोड़ा झिझकते हुए जवाब दिया,‘नहीं, हज्जाम आया था, आम दावत की ख़बर दे गया है.’
वाहिद ने और कुछ नहीं पूछा और बाहर निकल आया. मुनीर साहब के घर के सामने से लेकर दूसरे मोड़ तक लोगों का आना-जाना लगा था. रंगीन धारीदार तहमत लपेटे, सफ़ेद और काली टोपियां लगाए, सिर में रुमाल बांधे लोग, मुनीर साहब के घर की ओर बढ़ रहे थे. एकाएक सामने से रिज़वी साहब दिखाई दिए. वाहिद उनसे कतराना चाहता था पर जब सामने पड़ ही गए, तो बरबस मुस्कराकर आदाब करना ही पड़ा. रिज़वी साहब के साथ नौ से लेकर तीन साल तक के चार बच्चे चल रहे थे, जिनके सिर पर आढ़ी-टेढ़ी, गंदी और तेल में चीकट मुड़ी-मुड़ाई टोपियां थी.
रिज़वी साहब ने मुस्कराकर पूछा.‘क्यों भाई, मुनीर साहब के यहां से आए हो क्या?’
वाहिद ने झिझककर कहा,‘जी नहीं.’
वाहिद से रिज़वी साहब बोले,‘तो फिर चलो न?’
वाहिद क्षण भर चुप रहा. फिर संभलकर बोला,‘आप चलिए, मैं अभी आया.’
रिज़वी साहब आगे बढ़ गए.
कोई दो घंटों के बाद जब वहिद लौटा, तो मुनीद साहब के घर के सामने से भीड़ छंट गई थी, पर महफ़िल अभी भी चल रही थी. कोई पूछे या न पूछे, स्वागत करे या न करे, लोग आते, सामने के नल पर हाथ धोते और बैठ जाते थे.
एक ओर से कंधे पर कपड़े से ढका तश्त लिए, चिंचोड़ी गई हड्डियों के गिर्द फैले ढेर सारे कुत्तों को हंकालती हमीदा की मां निकली. हमीदा की मां पिछले पांच वर्षों से मुनीर साहब के यहां नौकर थी. अक्सर तीज-त्यौहारों के अवसर पर मुनीर साहब के यहां से शीरनी लेकर हमीदा की मां वाहिद के यहां आया करती थी. उससे बात करने की न तो वाहिद को ही कभी आवश्यकता पड़ी और न अवसर ही आया. फिर भी वाहिद ने आज रोककर पूछा,‘हमीदा की मां, क्या लिए जा रही हो?’
हमीदा की मां ने पल्लू संभालकर कहा,‘खाना है भैया, सिटी साहब के यहां पहुंचाने जा रही हूं.’
‘भला वह क्यों?’
‘अब पता नहीं, सिटी साहब आम दावत में आना पसंद करें, न करें, सो बेगम साहबा भिजवा रही हैं.’
और हमीदा की मां आगे बढ़ने लगी, तभी एकाएक चौंककर, (जैसे कोई महत्वपूर्ण और विशेष बात छूटी जा रही हो) ज़रा आवाज़ ऊंची करके, रोकने के अंदाज़ में वाहिद ने पूछा, और कहां-कहां ले जाना है हामिद की मां?’
हामिद की मां ने थोड़ा रुककर कहा,‘पता नहीं भैया! फिर भी इतना जानती हूं, अभी मेरी जान को छुटकारा नहीं.’
वाहिद ओंठों में ही मुस्कराया और मुनीर साहब के घर की ओर बढ़ा. सामने आंगन में दो-तीन बड़ी-बड़ी दरियां (जो संभवतः हर दावत में पहुंच-पहुंच कर गंदी हो चली थीं) बिछी हुई थीं, जिन पर साफ़, नए कपड़े पहने कुछ बच्चे खेल रहे थे. पास के नल से क्षण-प्रतिक्षण बह रहे पानी से आंगन के आधे हिस्से में कीचड़ फैल चुका था. पास ही दो-तीन चारपाइयां डाल दी गई थीं. चारपाइयां शायद उन उम्मीदवारों के बैठने के लिए जो देर से आने के कारण चल रही पांत समाप्त होने और दूसरी पांत के प्रारंभ होने की प्रतीक्षा करते हैं. उन्ही लोगों में से क्या वाहिद भी है? वह बड़े फीके ढंग से मन-ही-मन हंसा. रस्सी भले ही जल गई हो, पर क्या उसका बल इतनी जल्दी निकल जाएगा.
थोड़ी देर वाहिद वहीं खड़ा रहा. वहां बैठने-बिठाने अथवा पूछने के लिए किसी की आवश्यकता नहीं थी. लोग आते थे, जाते थे.
भीतर के कमरे से जहां खाना चल रहा था, बर्तनों की टकराहट के साथ पुलाव की महक असांसों के साथ वाहिद के फेंफड़ों में भर गई. मुंह भर आया, घूंट हलक के नीचे उतारकर वाहिद एक ओर खड़े दांत खोदते औक थूकते दो-तीन दाढ़ी वाले बुज़ुर्गों के पास जा खड़ा हुआ. दांत के अंतरों में फंस गए गोश्त के टुकड़ों को तीली से निकाल फेंकने की जी तोड़ कोशिश करते हुए उन लोगों ने केवल वही सवाल किया, जिसका जवाब वाहिद पिछले डेढ़ बरस से प्रायः हर मिलने वाले को दिया करता था कि उसके केस का क्या हुआ, किस वक़ील को लगाया है, कितनी परेशानियां हो गई और अपील के फ़ैसले को कितनी देर है? आदि.
वाहिद ने सैकड़ों बार कही बात एक बार फिर अपने अनमने ढंग से दोहरा दी. तबी दरवाज़े के पास मुनीर साहब दिखाई दिए. इधर से ध्यान हटाकर वाहिद ने मुनीर साहब के चेहरे की तरफ़ अपनी आंखें जमा दी. पर लगातार कई मिनटों तक मुनीर साहब के चेहरे की तरफ़ देखते रहने पर भी उनका ध्यान वाहिद की तरफ़ नहीं लौटा और वह अपने किसी नौकर को हिदायतें देकर लौटने लगे, तो अपनी जगह से एकदम आगे आ, पुकारकर वाहिद ने कहा,‘मुनीर साहब, आदाब अर्ज है.’
मुनीर साहब जाते-जाते पल भर को रुके, आदाब लिया, वाहिद की ओर देखकर मुस्कराए और तेज़ी से भीतर चले गए.
एकदम पीछे अपनी जगह से लौटने से पूर्व वाहिद ने सुना, पास के दाढ़ी वाले सज्जन उसका नाम लेकर पुकार रहे थे. लौटकर देखा तो उन्होंने कहा,‘वाहिद मियां, पान लीजिए.’
एक कम उम्र का लड़का वाहिद के आगे पान की तश्तरी बढ़ाए खड़ा था. क्षणभर रुककर वाहिद ने अपने इर्द-गिर्द देखा, सामने खड़े लड़के पर एक निगाह डाली, तश्तरी से एक पान उठाकर मुंह में रखा और लौट रहे लोगों के पीछे हो लिया.
घर पहुंचकर देखा, साफ़िया तकिए में मुंह डाले चुपचाप पड़ी थी. बावर्चीखाने की ओर निगाह गई, चूल्हा लिपा-पुता साफ था और धुले-मंजे बर्तन चमक रहे थे. वाहिद को देखकर साफ़िया उठ बैठी और अपनी ओर घूरकर देख रहे वाहिद की आंखों में केवल निमिष-भरे के लिए देखकर ठंडे स्वर में पूछा,‘कितने लोग थे दावत में? हामिद की मां तो आई नहीं?’
वाहिद के जले पर जैसे किसी ने नमक छिड़क दिया हो. तिलमिलाकर तीखे स्वर में उसने कहा,‘हमीदा की मां की ऐसी की तैसी! मैं ऐसी दावतों में नहीं जाता, यह जानकर भी तुम ऐसे सवाल करती हो? हमने क्या पुलाव नहीं खाया? जिसने न देखा हो वह सालों के यहां जाए!’
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