छोटी-छोटी घटनाओं को कहानियों की तरह पिरो देने का हुनर अमृता प्रीतम को महान लेखिका बनाता था. कहानी करमांवाली में एक ढाबे पर काम करनेवाली ख़़ुद्दार औरत की दुखभरी कहानी को उन्होंने क्या ख़ूब बयां किया है.
बड़ी ही सुन्दर तन्दूर की रोटी थी, पर सब्ज़ी की तरी से छुआ कौर मुंह को नहीं लगता था.
‘इतनी मिर्चे…’ मैं और मेरे दोनों बच्चे सी-सी कर उठे थे.
‘यहां बीबी, जाटों की आवाजाही बहुत है. शराब की दुकान भी यहां कोसों में एक ही है. जाट जब घूंट पी लेते हैं, फिर अच्छी मसालेदार सब्ज़ी मांगते हैं.’ तन्दूर वाला कह रहा था.
‘यहां…जाट…शराब…’
‘हां, बीबी, घूंट शराब का तो सब ही पीते हैं, पर जब किसी आदमी का ख़ून करके आएं, तब ज़रा ज़्यादा ही पी जाते हैं.’
‘अभी तो परसों-तरसों कोई पांच-छ: आ गए. एक आदमी मार आए थे. ख़ूब चढ़ा रखी थी. लगे शरारतें करने. वह देखो, मेरी तीन कुर्सियां टूटी पड़ी हैं. परमात्मा भला करे पुलिस वालों का, वह जल्दी पकड़कर ले गए उन्हें, नहीं तो मेरे चूल्हे की ईटें भी न मिलतीं…पर कमाई भी तो हम उन्हीं की खाते हैं….’
कोशलिया नदी देखने की सनक मुझे उस दिन चण्डीगढ़ से फिर एक गांव में ले गई थी. पर मित्रों से चली बात शराब तक पहुंच गई थी. और शराब से ख़ून-खराबे तक. मैं उस गांव से जल्दी-जल्दी बच्चों को लेकर लौटने को हो गई थी.
तन्दूर अच्छा लिपा-पुता और अन्दर से खुला था. और भीतर की ओर एक तरफ कोई छ:-सात खाली बोरियां तानकर जो पर्दा कर रखा था, उसके पीछे पड़ी तीन खाटों के पाए बताते थे कि तन्दूर वाले के बाल-बच्चे और औरत भी वहीं रहते थे…. मुझे लगा, इतना बड़ा ख़तरा नहीं था. वहां पर औरत की रिहायश थी, इज़्ज़त की रिहायश थी.
किसी औरत ने टाट का कांटा मोड़ा. बाहर की ओर झांककर देखा, और फिर बाहर आकर मेरे पास आ खड़ी हो गई.
‘बीबी, तूने मुझे पेहचाना नहीं?’
‘नहीं तो…’
वह एक सादी-सी जवान औरत थी. मैं उसके मुंह की ओर देखती रही-पर मुझे कोई भूली-बिसरी बात भी याद नहीं आई.
‘मैंने तो तुझे पहचान लिया है बीबी! पिछले साल, न सच, उससे भी पिछले साल तू यहां आई थी न!’
‘आई तो थी.’
‘सामने मैदान में एक बरात उतरी थी.’
‘हां, मुझे यह याद है.’
‘वहां तूने मुझे डोली में बैठी हुई को रुपया दिया था.’
बात याद आई. दो साल पहले में चण्डीगढ़ गई थी. वहां पर नया रेडियो स्टेशन खुलना था. और पहले दिन के समागम के लिए, मेरे दिल्ली के दफ़्तर ने मुझे वहां एक कविता पढ़ने के लिए भेजा था. मोहनसिंह तथा एक हिन्दी कवि जालन्धर स्टेशन की तरफ़ से आए थे. समागम जल्दी ही ख़त्म हो गया था. और हम तीन-चार लेखक कोशलिया नदी देखने के लिए चण्डीगढ़ से इस गांव में आए थे.
नदी कोई मील-डेढ़ मील ढलान पर थी, और वापसी चढ़ाई चढ़ते हुए हम सब चाय के एक-एक गर्म प्याले को तरस गए थे. सबसे साफ़ और खुली दुकान यही लगी थी. यहीं से चाय का एक-एक गर्म प्याला पिया था. उस दिन इस दुकान पर पक रहे मांस और तन्दूरी रोटियों के साथ-साथ मिठाई भी काफ़ी थी. तन्दूर वाला कह रहा था. ‘आज यहां से मेरी भानजी की डोली गुज़रेगी. मेरा भी तो कुछ करना बनता है न…’
और फिर सामने मैदान में डोली उतरी. डोली किसी पिछले गांव से आई थी. उसे आगे जाना था. रास्ते में मामा ने स्वागत किया था.
‘रुको, मैं नई दुल्हन का मुंह देख आऊं. भला उसके मुंह पर आज कैसा रंग है…’ मुझे याद है मैंने कहा था और आगे से मेरे साथियों ने जवाब दिया था, ‘हमें तो कोई डोली के पास नहीं जाने देगा, तुम ही देख आओ-पर ख़ाली हाथों न देखना…’
मैं एक मुस्कराहट लिए डोली के पास चली गई थी. डोली का पर्दा एक तरफ़ से उठा हुआ था. मैंने पास में बैठी नाइन से पूछा था,‘मैं दुल्हन का मुंह देख लूं?’
‘बीबी, जी सदके देख-हमारी लड़की तो हाथ लगाए मैली होती है.’
और सचमुच लड़की की श्रृंगारपुरी नत्थ में जो मुस्कराहट का मोती चमक रहा था, उसका रंग झलना कोई आसान नहीं था.
मैंने एक रुपया उसकी हथेली पर रखा. और जब लौटी, तो मेरे साथी कह रहे थे,‘क्षणभर पहले जब तुमने कविता पढ़ी थी, कॉलेज की कितनी लड़कियों ने रुपए-रुपए के नोट पर तुम्हारे हस्ताक्षर करवाए थे.’
उस बेचारी को क्या मालूम होगा कि वह रुपया उसे किसने दिया था-कहीं जानती होती, हस्ताक्षर ही करवा लेती….
दो साल पहले की बात थी. मुझे पूरी की पूरी याद आ गई.
‘तू-वह डोली वाली लड़की?’
‘हां बीबी!’
जाने किस घटना ने उसे दो बरसों में लड़की से औरत बना दिया था. घटना के चिह्न उसके मुंह पर दृष्टिगोचर होते थे, पर फिर भी मुझे सूझता नहीं था कि मैं उसे कैसे पूछ?
‘बीबी, मैंने तेरी तस्वीर अख़बार में देखी थी, एक बार नहीं, दो बार. यहां भी कितने ही लोग आते हैं, जिनके पास अख़बार होता है, कई तो रोटी खाते-खाते यहीं पर छोड़ जाते.
‘सच, और फिर तूने पहचान ली थी?’
‘मैंने उसी वक़्त पहचान ली थी-पर बीबी, वे तेरी तस्वीर क्यों छापते हैं?’ मुझसे जल्दी कोई जवाब न बन पड़ा. ऐसा सवाल पहले कभी किसी ने नहीं किया था. कुछ लजाते हुए मैंने कहा,‘मैं कविताएं-कहानियां लिखती हूं न.’
‘कहानियां? बीबी, क्या वे कहानियां सच्ची होती हैं, या झूठी?’
‘कहानियां तो सच्ची होती हैं, वैसे नाम झूठे होते हैं, ताकि पहचानी न जाए.’
‘तू मेरी कहानी भी लिख सकती है बीबी?’
‘अगर तू कहे, तो मैं ज़रूर लिखेंगी.’
‘मेरा नाम करमांवाली (सौभाग्यशालिनी) है. मेरा तो चाहे नाम भी झूठा न लिखना. मैं कोई झूठ थोड़े ही बोलूंगी, मैं तो सच कहती हूं-पर मेरी कोई सुने भी तो. कोई नहीं सुनता…’
वह मेरा हाथ पकड़कर मुझे टाट के पीछे पड़ी खाट पर ले गई.
‘जब मेरी शादी होनी थी न, मेरे ससुराल से दो जनी मेरा नाप लेने आईं. उनमें से एक लड़की मेरी उम्र की थी. बिलकुल मेरे जितनी. वह किसी दूर के रिश्ते से मेरी ननद लगती थी. मेरी सलवार-कमीज नापकर कहने लगी, ‘बिलकुल मेरी ही नाप हैं. भाभी, तू चिन्ता न कर, जो कपड़े सीऊंगी, तुझे बिलकुल पूरे आएंगे.’
‘और सचमुच वरी के जितने भी कपड़े थे मुझे ख़ूब अच्छी तरह से आते थे. वही ननद मेरे पास कितने महीने रही, और बाद में भी मेरे कपड़े वही सीती रही. मेरा चाव भी बहुत करती थी. मुझे कहा करती थी,‘भाभी, चाहे मैं दो महीने के बाद आऊं, चाहे छः महीने के बाद, पर तू किसी और से कपड़ा मत सिलाना…’
‘मुझे भी वह अच्छी लगती थी. सिर्फ़ उसकी एक बात मुझे बुरी लगती थी, मेरा जो भी कपड़ा सीती थी, पहले स्वयं पहनकर देखती थी. कहती थी,‘तेरा-मेरा नाप एक है. देख, मुझे कैसे पूरा है. तुझे भी पूरा आएगा.’
‘और सारे कपड़े पहनते समय मेरे मन में आता था, कपड़े भले ही नए हों, पर हैं तो उसके उतारे हुए ही न?’
रस्सी के साथ टंगे हुए टाट का पर्दा था, बान की ढीली-सी खाट थी. खेस भी खस्ता था, लड़की भी अल्हड़ और अपढ़ थी-पर यह ख़्याल, इतना नाज़ुक, इतना मुलायम…मैं चौंक उठी.
‘पर बीबी, मैंने अपने मन की बात कभी नहीं कही. जाने बेचारी का मन छोटा हो जाए.’
‘फिर?’
‘फिर मुझे कोई बरस डेढ़-बरस-बाद पता चला, किसी ने बता दिया. उसकी और मेरे घरवाले की लगी हुई थी. यह उसका दादा-पिता के रिश्ते से भाई लगता था. पर एक उसके सगे भाई को यह बात बहुत बुरी लगती थी. वह तो एक बार अपनी बहिन की गर्दन उतार देने लगा था.
‘किसी ने मुझे यह भी बताया कि थोड़े समय जब वह बाग गोदने लगी थी, तो उसे फिट आ गया था.’ आंसुओं से भीगी करमांवाली ने मेरा हाथ पकड़ लिया. ‘बीबी, तू मेरी मन की बात समझ ले. मुझसे उतार नहीं पहना जाता-मेरी गोटाकिनारीवाली शलवारें, मेरी तारों जड़ी चुनरियां और मेरी सिलमोंवाली कमीज़े-सब उसका ‘उतार’ (पहले पहने हुए कपड़े) थे. और मेरे कपड़ों की भांति मेरा घरवाला भी…’
करमांवाली की आवाज़ के आगे मेरी कलम झुक गई. कौन लेखक ऐसा फिकरा लिख देता.
‘अब बीबी, मैं वे सारे कपड़े उतार आई हूं. अपना घरवाला भी. यहां मामा-मामी के पास आ गई हैं. इनका घर लीपती हूं, मेज़ धोती हूं. और मैंने एक मशीन भी रख छोड़ी है. चार कपड़े सी लेती हूं, और रोटी खा लेती हूं. भले ही खद्दर जुड़े, चाहे लट्ठा. मैं किसी का उतार नहीं पहनती.’
‘मेरा मामा सुलह कराने को फिर रहा है. मेरे मन की बात नहीं समझता. मैं जैसे जी रही हूं, वैसे ही जी लूंगी. और कुछ नहीं चाहती, तू सिर्फ़ एक बार मेरे मन की बात लिख दें!’
करमांवाली के जिस जिस्म के साथ कहानी घटी थी उसे मैंने एक बार अपनी बांहों में भींचा, कितनी मज़बूत देह थी-कितना मज़बूत मन. यह चौगिदा, यहां मैं पल-भर पहले मिर्चों से शराब और शराब से ख़ून खराबे पर पहुंचती बात से घबरा गई थी-वहां पर करमांवाली कितनी दिलेरी से जी रही थी.
बाहर सड़क पर शिमले से आती मोटरें गुज़रती थीं, और जिनकी सवारियां रेशमी कपड़ों में लिपटी हुई, कई बार पल-भर के लिए इस दुकान पर चाय के प्याले के लिए रुक जाती थीं, या सिगरेट की डिब्बी के लिए, या गर्म तन्दूरी रोटी के लिए. वे, जिनके पहन रखे रेशमी कपड़े, जाने किस-किसकी उतार थे. और करमांवाली उनकी मेज़ पोंछती थी, कुर्सियां झाड़ती थी-वह करमांवाली जिसने एक खद्दर की कमीज़ पहन रखी थी, जो अपने जिस्म पर किसी का उतार नहीं पहन सकती थी.
‘बीबी, मैंने तेरा वह रुपया सम्भालकर हुआ रखा हुआ है.
‘सचमुच? अब तक?’
‘हां बीबी! वह रुपया मैंने उस समय अपनी नाइन को पकड़ा दिया था और फिर उसके दूसरे दिन की ही बात थी, जब मैंने तेरी तस्वीर देखी थी. मैंने नाइन से वह रुपया लेकर सम्भाल लिया था. तू बीबी, मुझे उस रुपए पर अपना नाम लिख दे. फिर तू जब मेरी कहानी लिखेगी, मुझे ज़रूर भेजना.’
और करमांवाली ने उठकर खाट के नीचे रखा ट्रंक खोला. ट्रंक में एक लकड़ी की सन्दूकची थी. उसने रुपए का तह किया हुआ नोट निकाला.
‘मैं अपना नाम लिख देती हूं करमावालिए, मैंने जाने कितनी लड़कियों के नोटों पर अपना नाम लिखा होगा, पर आज मेरा दिल चाहता है, तू मेरे नोट पर अपना नाम लिख दे.’
‘कहानी लिखनेवाला बड़ा नहीं होता, बड़ा वह है जिसने कहानी अपने जिसम पर झेली है.’
‘मुझे अच्छी तरह से लिखना नहीं आता.’ करमांवाली लजा-सी गई और फिर बोली,‘मेरा नाम कहानी में ज़रूर लिखना.’
मैंने पर्स से नोट भी निकाल लिया और कलम भी.
करमांवालिए! आज तेरी कहानी लिख रही हूं. वही रुपए के नोट पर लिखा हुआ तेरा नाम, आज इस कहानी के माथे पर पवित्र टीके की भांति लगा हुआ है.
यह कहानी तेरा कुछ नहीं संवारेगी. पर यह भरोसा रखना, वे दिल भी इस तेरे टीके को प्रणाम करते हैं, जिनके ख़ून का रंग इस तेरे टीके के रंग से मिलता है. और वे माथे भी एक लज्जा से इसके आगे झुकते हैं, जिन्होंने अपने गलों में जाने किस-किसके ‘उतार’ पहन रखे हैं.
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