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मेरा राम: डॉ संगीता झा की कहानी

डॉ संगीता झा by डॉ संगीता झा
March 18, 2024
in ज़रूर पढ़ें, नई कहानियां, बुक क्लब
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मेरा राम: डॉ संगीता झा की कहानी
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मर्यादा पुरुषोत्तम राम हमारे आदर्श हैं. हम जिस व्यक्ति को आदर्श समझना चाहते हैं, उसकी तुलना राम से करने लगते हैं. डॉ संगीता झा की इस कहानी में एक महिला अपनी ज़िंदगी में राम के रूप में आए दो पुरुषों की कहानी बयां करती है. एक राम, जो उसके लिए खोजा गया था और दूसरा राम, जो उसने अपने संकल्प और तपस्या से गढ़ा था.

“हू ऑल आर रेडी फ़ॉर पिकनिक?’’
सबने अपने-अपने हाथ उठाए मेरे पूछने पर. पीछे से एक हल्की-सी मीठी आवाज़ आई,“मी टू!’’
सबने एक साथ पीछे मुड़कर देखा कि ये सुरीली आवाज़ की मल्लिका कौन है?
बाप रे! उसे देख मैं तो मानो जैसे तीस साल पहले चली गई. हूबहू जैसे मेरी प्रतिछवि हो. अब तो साल पर साल बीतते जा रहे हैं, बालों में भी सफ़ेदी ने सेंध मारी थी. लेकिन मन में कोई भी बदलाहट ना थी. अभी भी बच्चा था और धड़कता भी ठीक उसी तरह था. घुटने ज़रूर दुखते थे पर अरमान सारे हवा में उड़ने के थे. मन में मानो एक मेंढक बैठा था, जो फुदकता था कभी जैसे पानी के बाहर फिर पानी के अंदर. दिल भी कभी-कभी उसी मेंढक की तरह हाइबरनेशन में चला जाता था, मतलब फुदकना, उड़ना सब बंद. इन सबके बावजूद अभी भी पहले की तरह पिकनिक और नया साल मनाने की ललक बहुत रहती थी. जब छोटे थे तो घर पर लड्डू या बर्फ़ी जैसी कोई मिठाई बनती और दूसरे दिन सब बड़ों को नए साल की मुबारकबाद दे पैर छू उनका आशीर्वाद लेते. कई बार नए साल में सभी एक साथ टेम्पो में बैठ पास के पब्लिक गार्डन जा पिकनिक भी मना आते थे. उन दिनों साल की शुरुआत बहुत सारे रेज़ोल्यूशन के साथ होती मसलन भाई से नहीं लड़ूंगी, अम्मा की सभी बातें मानूंगी और ना ही किसी की चुग़ली करूंगी फिर एक सप्ताह पश्चात वहीं जहां थे. ज़माना लड़कियों को राम जैसे पति के सपने दिखाता था. लेकिन मैं सोचती सिवाय सीता राम नाम के, राम की पत्नी के पास था ही क्या? राम विश्वामित्र के आदर्श शिष्य, दशरथ के प्यारे फ़रमाबदार बेटे अपनी सगी कौशल्या मां तो छोड़ो, सौतेली मांओं के भी लाड़ले, छोटे भाईयों के लख्तेजिगर. अब पत्नी के लिए बचा ही क्या? स्वयंवर में भी गुरु जी ही ले कर गए थे. तो ऐसे पति को सपना देखने की इच्छा भी कहां होती थी. माना भगवान अंतर्ज्ञानी थे, तो पता भी नहीं चला कि पत्नी का अपहरण होने वाला है. मैं तो बच्ची थी, इसलिए सोचती दोस्त भी उनके बानर और भालू थे.
बेचारी सीता… ससुराल पहुंची नहीं कि राम को वनवास, वो भी चौदह वर्षों का. क्या विडंबना थी उस सीता की. राम सबसे बड़े लाड़ले बेटे और सामने थी सौतेली मां की इच्छा, ससुर की मजबूरी और कौशल्या मां की बेचारगी. दाम्पत्य जीवन के पहले चौदह वर्ष जो किसी भी लड़की के जीवन के सुनहरे पल होते हैं, वो राजाप्रसाद के बदले राक्षसों से भरे जंगल में. ये तो किसी भी कुंवारी कन्या का सपना नहीं हो सकता. जब भी कोई बड़ा आशीर्वाद देता,“ख़ुश रहो, राम जैसा पति मिले!’’ तो तन बदन में आग लग जाती. कभी डर भी लगता कि राम जी के चक्कर में मेरे हिस्से रामलाल या रामनारायण ना आ जाए. कभी भी बाबूजी लड़का देख के आते तो कहते मानो सीधे अयोध्या नगरी से आ रहा हूं. राम लक्ष्मण जैसे दो भाई और माता-पिता का क्या कहना. मैं पूछती “राजा हैं क्या?”
बाबूजी कहते,“राजा ही समझो.’’
फिर मैं कहती,“कितनी मांएं हैं?”
बाबूजी गुर्राते,“क्या मतलब है तुम्हारा?”
मैं धीरे से कहती,“राम की तीन माताएं थीं ना!”
बाबूजी और ज़ोर से गुर्राते और मां से कहते,“पागल तो नहीं ना तुम्हारी बेटी, ऐसे प्रश्न पूछती है कि लगता है कि बस…”
मां हंसती,“तुम्हारी बेटी! ए कब से मेरी हो गई? अभी तक तो आपकी लाड़ली थी. वाद विवाद करना आपने ही सिखाया है. आप जानें.”
मैं सोचती थी कि जब मैं गुड़िया भी लेती थी तो बहुत कांट छांट के और अब जब जीवन का प्रश्न है तो राम जैसा, दोनों की जोड़ी राम सीता जैसी.
ना बाबा ना मैं तो सीता बनने से रही.
मां तो चाची और बुआ को यदा कदा घर बुला सीता स्वयंवर के दोहे भी गाती,“ भये बिसोक कोक मुनि देवा, बरसहीं सुमन जनावहीं सेवा.’’ तो कभी उनके विवाह गीत. उन दिनों घर पर सुंदरकांड कराने का बड़ा रिवाज़ था. तब लोग रेडियो बड़े ध्यान से सुनते थे. मां ने उसमें अमिताभ बच्चन का इंटरव्यू सुना, जिसमें वो बता रहे थे कि उनकी और जया की शादी उनके पिता ने रामचरितमानस सामने रख राम और सीता के विवाह का प्रसंग पढ़ की थी. मां फिर चिल्लाई देखो, बड़े घरों में भी मां-बाप को राम जैसा बेटा ही चाहिए रहता है. मैं फिर परेशान, ठीक है अमिताभ करोड़ों दिलों की धड़कन हैं पर ऐसे राम कि बाद में जया जी को रेखा जी को घर डिनर पर बुला धमकी देनी पड़ी कि वे उनके पति से दूर रहें. बाप रे कलियुग के राम की ऐसी परिभाषा.
घर वाले जितना राममय होते, मैं उतनी ही परेशान हो जाती. इसी बीच छः दिसंबर उन्नीस सौ बयानबे को बाबरी मस्जिद गिरा दी गई. मुझे बड़ा बुरा लगा, क्योंकि सारा इतिहास अकबर, बाबर और जहांगीर से ही भरा पड़ा था. सीता के वनवास से ज़्यादा मुझे मुमताज़ महल की मोहब्बत के प्रतीक ताजमहल ने आकर्षित किया था. रामायण और महाभारत तो अम्मा से ज़्यादा दादी पढ़ा करती थीं. वो तो घर वालों की ज़बरदस्ती की वजह से मैंने साइंस ली, नहीं तो इतिहास वो भी मुग़लकाल मेरा पसंदीदा सब्जेक्ट हुआ करता था. कभी अम्मा कटाक्ष करती,“अरे इन बादशाहों की कई बेगम और ढेर सारी हूर हुआ करती थीं.’’
मैं तुरंत जवाब देती,“और कृष्ण की सोलह हज़ार एक सौ आठ रानियां.”
फिर घर पर सब एक साथ कोरस में चिल्लाते,“इस लड़की से भगवान बचाए.’’
इसी तरह फैंटसी में मिल्स एंड बून और हीर रांझा पढ़ते-पढ़ते मैं ग्रेजुएट हो गई. दिल्ली विश्वविद्यालय से पढ़ने के कारण मेरी सोच घर में सबसे अलग थी. जहां छुट्टियों में सब मथुरा जाने की बातें करते मैं वहीं आगरा फ़तेहपुर सीकरी सपने में देखती. मां मुझसे बार बार कहती,“देख बिट्टू तेरे विचार कितने भी क्रांतिकारी हों. तू कभी पापा का दिल ना दुखईयो. वो टूट जाएंगे, तू उनका मान है.’’
मैं भी चट से जवाब देती,“और हां बिटिया शहीद हो जईयो.”
मां फिर कहती,“तू तो पापा की पलकों का बाल है, तुझे भला कोई क्यों शहीद करेगा?”
इसी तरह की नोक झोंक में ज़िंदगी कट रही थी.
पापा जनक बने मेरे लिए राम की खोज में व्यस्त थे. क़िस्मत का खेल भी देखिए उनकी मेहनत रंग भी बड़ी जल्दी ले आई. केवल नाम आलोक था यानी प्रकाश.
मैंने अपनी पढ़ाई दिल्ली विश्वविद्यालय से की थी इसलिए मुझे राम जैसी पर्सनालिटी से ज़्यादा रावण जैसा पति नहीं लाइफ़ पार्टनर चाहिए था.
हमारी मुलाक़ात एक शादी में कराई गई, जहां उस ज़माने में भी मैं बिंदास थी, मेरे होने वाले पति तेल लगा और सामने बालों का भंवरा बना पड़ोसन वाले सुनील दत्त की तरह थे. बार-बार अपनी मां की बातें कर रहे थे. मुझे बड़ा अटपटा सा लग रहा था. मैंने पूछा,“आप अपने बारे में बातें करिए. आपकी हॉबी क्या है? जॉब के अलावा क्या-क्या?”
वो उस समय जो बेचारे लगे थे, बोले,“किसी हॉबी के लिए टाइम कहां मिलता है. घर दफ़्तर और दोस्तों में ही ज़िंदगी ख़त्म हो जाती है.’’
मुझे भी लगा शादी तो घर वाले करवा के ही छोड़ेंगे. इसे नहीं बोलूंगी तो दूसरा राम ले आएंगे. मुझे जैसा चाहिए वो इन लोगों को मिलना नामुमक़िन है. कोई बात नहीं इसे ही चेंज कर लूंगी. लड़के की मां ने मेरी मां से कहा,“मेरा बेटा तो समझिए कलियुग का राम है. कोई भी ऐब नहीं. इसको तो शराब के ड्रम में भी डुबो देंगे तो भी मुंह नहीं खोलेगा, वैसा ही निकल जाएगा.”
ये भी एक अतिशयोक्ति अलंकार था अपने बेटे की तारीफ़ करने का. मैं डर रही थी कि मां अब मेरी तारीफ़ में ये ना कहने लगें कि ये तो नींद में भी रोटियां बनाती है. शादी भी हो गई घर वालों के ढूंढे राम से.
शादी का पहला दिन तो राम को पूरे घर की चापलूसी करते पाया. मसलन जी चाचाजी, मामाजी फिर मां-बाप की तो भगवान की तरह पूजा कर रहा था. मैं थी मिरांडा हाउस की प्रोडक्ट, जिसे ये सब हज़म नहीं हो रहा था. जैसी भी थी मैं लेकिन सामाजिक नियम क़ानून तो मालूम ही थे. शादी की रस्मों में भी आलोक मेरा हाथ डर-डर कर छू रहे थे. लेकिन पहली रात को इस तरह सो कॉल्ड राम ने मुझ पर ऐसा झपट्टा मारा लगा अनगिनत भेड़िए मेरा बदन नोंच रहे हों. मैं संभल भी नहीं पाई और वो सब कुछ हो गया, जिसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी.
पापा का खोजा राम तो रावण से भी बदतर एक दरिंदा था. ऐसा दोगला राम, सुबह उठ कर फिर वही चोला, बार-बार मेरे पैरों पर गिर कर माफ़ी मांगी और कहा,“कल रात दोस्तों ने ज़बरदस्ती पिला दी. पहली बार थी, इससे पता नहीं मुझे क्या हो गया था.”
मुझे अजीब सा लगा ज़रूर और ना ही मैं आलोक के मनगढ़त एक्सक्यूज़ से प्रभावित हुई. मैं समझ ही नहीं पा रही थी कि कोई ऐसा मुखौटा कैसे लगा सकता है? दूसरे दिन भाई पगफेरे के लिए ले कर गया. मेरी क़िस्मत ही कहिए क्योंकि मैं घर में हुई उस दुर्घटना को आज भी क़िस्मत मानती हूं. जिस दिन मेरी विदाई होनी थी, मेरी अस्सी साल की दादी का देहांत हो गया. मुझे पहली रात की दरिंदगी को हल्का करने का थोड़ा समय मिल गया. मेरे अन्दर के तूफ़ान और बैचेनी को सबने दादी का जाना सोचा. मैं तो बिलकुल चुप-सी हो गई थी. ससुराल वालों को भी मैं एक विचित्र प्राणी लगी, जो बूढ़ी दादी के जाने का उनके बेटे बेटियों से ज़्यादा शोक मना रही थी. मेरी शादी की पहली रात मेरे मासिक धर्म का बारहवां दिन थी, यानी डॉक्टरी भाषा में अगर उस समय संभोग किया जाए तो प्रेगनेंसी ठहरने की आशंका रहती है. इतने सारे तूफ़ान शायद मेरी ही ज़िंदगी में आने थे. मेरी हालत देख मां ने दादी के तेरहवीं के बाद भी मुझे पंद्रह दिन उनके साथ रखने की गुज़ारिश की. जो थोड़े ना-नुकुर के बाद ससुराल वालों ने मान ली. आलोक को अपनी हरक़त का पता था, इसलिए उसने भी साथ ले जाने की ज़िद नहीं की. शादी के एक महीने बाद ठीक हिन्दी फ़िल्मों की तरह सुबह सुबह उल्टी फिर यूरिन टेस्ट पॉज़िटिव. मैंने तो अपना माथा ठोंक लिया लेकिन घर पर मिठाइयां बांटी जानी लगी. किसी ने कहा,“दादी आ रही है अपनी पोती के पास.’’
मां ने डर कहा,“शुभ शुभ बोलो मेरे घर राम आ रहे हैं.’’
मैंने बड़े दिनों बाद अपनी चुप्पी तोड़ी,“दू …सरे रा…म?”
भाई ने हंसते हुए कहा,“तो तू क्या रावण चाहती है?”
मैं फिर बुदबुदाई,“पता नहीं.’’
मां तो चुप रही लेकिन पापा का माथा ठनठनाया कि मिरांडा हाउस की लीडर रह चुकी इतनी वाचाल बेटी को क्या पाला मार गया है. इतने दिनों तक तो दादी के जाने का दुःख नहीं हो सकता और पहली बार मां बनने की चहक ही अलग होती है, भले ही अनप्लानंड हो.
जब भी घर पर आलोक के आने या उसके नाम की कोई भी चर्चा होती मैं कांपने लगती. मैंने खाना तो बिलकुल छोड़ दिया था.
अब अम्मा-पापा ने बड़ा फ़ैसला लिया और बिना किसी संकोच के कहा,“हमारी बेटी पता नहीं किस कारण से डरी हुई है और इस हालत में उसे भेजना भी ठीक नहीं है.’’
ससुराल वालों ने भी काफ़ी ज़ोर दिया पर पापा ने उन्हें बैठ कर समझाया,“अरे दिल्ली यूनिवर्सिटी की लीडर रह चुकी है ये. शायद अभी मां बनने के लिए तैयार नहीं थी. ये समय लड़की के जीवन में बड़ा अहम होता है.’’
उनका बलात्कारी बेटा नहीं आया और पहली रात की खरोंचों को मिटने में भी काफ़ी समय लगा. इसी बीच मेरी मिरांडा हाउस की एक फ्रेंड अपनी शादी तोड़ वापस दिल्ली आई और मुझसे मिलने आई. मुझे बुझा-बुझा देख मेरे साथ काफ़ी समय बिताया. उन दिनों भी दिल्ली में दोस्तों के साथ बैठने की काफ़ी जगह थी. मेरे मां-पापा से ज़िद कर वो मुझे ख़ान मार्केट जहां हमारा फ़ेवरेट कैफ़े हुआ करता था, ले गई. मैं दो महीने की प्रेग्नेंट थी, पर ढीली ड्रेस से छुपा रखा था. ज्यों ही हम अपनी लास्ट वाली टेबल पर बैठे, एक हाथ में हाथ पकड़े कपल अंदर आया. हम अपनी पुरानी बातों में मस्त थे. मैंने उनके सिर्फ़ पैर ही देखे थे. अचानक वो लड़का साथ आई लड़की का हाथ छोड़ मेरे पास पहुंच चिल्लाने लगा,“वोह डिप्रेशन का बहाना कर यहां ऐश कर रही हो. मैं पहले ही जानता था कि तुम बहुत चालू क़िस्म की लड़की हो.’’ मैं कुछ समझ पाती इससे पहले कुमुद ने उसका हाथ पकड़ा और दूर करते हुए कहा,“तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई यहां चिल्लाने की? हो कौन तुम?”
यहां झगड़ा होते देख उसके साथ आई लड़की बाहर निकल गई. मैंने ध्यान से देखा तो पता चला वो आलोक यानी मेरे माता-पिता द्वारा ढूंढा गया राम था. वो फिर उतनी ही ज़ोर से चिल्लाया,“ये इस चुड़ैल से पूछो, जो बीमारी का बहाना कर यहां बैठी है.’’
कुमुद के पिता उस मॉडर्न कैफ़े में पार्टनर भी थे. इसलिए मैनेजर ने दो बाउंसर भेज आलोक को बाहर निकलवाया. वो चिल्लाता रहा,“तुम लोग नहीं जानते मैं कौन हूं? एक-एक को देख लूंगा.’’
मैंने उसका परिचय किसी को नहीं दिया. मैनेजर बता रहा था कि ये एक बड़े घर का बिगड़ा बेटा है, जो रोज़ नई-नई लड़की ले यहां आता है. हमें डरने की ज़रूरत नहीं है.
कुमुद समझ तो गई थी कि इस व्यक्ति से मेरा रिश्ता ज़रूर है. मैं तो कांपने लगी थी, कुमुद ने मैनेजर से बात कर हमारे लिए एक प्राइवेट कोना मांगा. मैनेजर ने हमें कुमुद के पापा के रूम में ही शिफ़्ट कर दिया. मैंने रोते-रोते उसे शादी से पहले और शादी की रात की घटना बताई. कुमुद चिल्लाने लगी,“इतनी क्या जल्दी पड़ी थी तुझे शादी की? अरे कम से कम मेरा वेट तो करती पहले अच्छा ठोक बजाते, पता करते. देख मैं भी तो सारे रिश्ते तोड़ आई हूं.’’
मैंने उसे बताया कि पापा ने पता किया तो था और दादी भी बीमार थीं और अपने रहते मेरी शादी करवाना चाहती थीं. कुमुद ने फिर एक गंदी सी गाली निकाली और कहा,“तेरा बाप ना, अब मिली कलेजे को ठंडक! ऐसे होते हैं बाप, न्योछावर करते हैं बेटियों को अपनी अना के लिए कि लोग क्या कहेंगे. अब बताओ बाप को उनका ढूंढा राम एक नंबर का रंडीबाज़ है और बलात्कारी भी है. सा….ला चुतिया तू भी ना कहां फंस गई है.’’
उसके बाद कुमुद तो ऑपरेशन ब्लू स्टार में लग गई. उसे मालूम था कि आलोक ने हमें इस होटल में देख लिया है तो यहां तो वो दोबारा आएगा नहीं. इसलिए जहां-जहां जा सकता था वहां-वहां एक रूम में सीसीटीवी लगवा दिया. दो दिनों में ही कुमुद के पास सबूतों का भंडार था.
सभी सबूतों को साथ ले वो घर आई और मां-पापा को दिखाया. भाई तो लगभग आग बबूला हो उठा. कलियुग की रामायण पूरी उल्टी थी, वहां तो राम ने सीता का त्याग बिना किसी सबूत के केवल एक धोबी के कहने पर, लेकिन मैं कलियुग की सीता तो सबूतों के ढेर पर बैठी थी. यहां मेरी वालल्मिकी कुमुद बन गई. अम्मा-पापा तो चुप रहे, वो आलोक के घर पूरे सबूतों के साथ पहुंच गई. डरा धमका कर ना केवल डाइवोर्स लिया, बल्कि अच्छी ख़ासी रक़म भी होने वाले बच्चे के लिए दिलवाई. कुमुद को लड़कों की जात से ही नफ़रत थी. उसने अम्मा-पापा को आश्वासन दिया और मुझे भी अपनी कंपनी का डायरेक्टर बना दिया. ठीक त्रेता युग के वाल्मीकि की तरह उसकी ही छत्रछाया में मेरी डिलीवरी हुई. हम दोनों ही बेटी चाहते थे, लेकिन फिर प्रभु की इच्छा फिर बेटा ही पैदा हुआ. सबने पूछा नाम क्या रख. जाए? मैंने कहा,“रा….म”
सब एक साथ चिल्लाए,“फिर राम!’’
मैंने जवाब दिया,“ये मेरा राम है. ये मेरी भी किसी ग़लत आज्ञा का पालन नहीं करेगा. ना ही मेरे कहने पर अपनी बीबी को वनवास ले जाएगा. ना पत्नी की इच्छा पूरी करने के लिए स्वर्ण मृग के पीछे भागेगा और ना ही किसी के कहने पर बीबी की अग्नि परीक्षा लेगा.’’
सब ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगे और आज अपनी कंपनी में आई इस नई लड़की को देखकर लगा मानो अपने राम की सीता की खोज पूरी हो गई है.

Illustration: Pinterest

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डॉ संगीता झा हिंदी साहित्य में एक नया नाम हैं. पेशे से एंडोक्राइन सर्जन की तीन पुस्तकें रिले रेस, मिट्टी की गुल्लक और लम्हे प्रकाशित हो चुकी हैं. रायपुर में जन्मी, पली-पढ़ी डॉ संगीता लगभग तीन दशक से हैदराबाद की जानीमानी कंसल्टेंट एंडोक्राइन सर्जन हैं. संपर्क: 98480 27414/ [email protected]

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