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नेता जी का चश्मा: देशभक्ति की एक खामोश कहानी (लेखक: स्वयं प्रकाश)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
November 27, 2021
in क्लासिक कहानियां, ज़रूर पढ़ें, बुक क्लब
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नेता जी का चश्मा: देशभक्ति की एक खामोश कहानी (लेखक: स्वयं प्रकाश)
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देशभक्ति बड़ी-बड़ी बातें और वादे करने में नहीं होती. देशभक्ति अपने देश के लिए, देश के नायकों के लिए छोटे-छोटे काम करने में होती है. एक क़स्बे में लगी नेताजी सुभाषचंद्र बोस की मूर्ति में मूर्तिकार चश्मा बनाना भूल गया था. उस क़स्बे में फेरी लगाकर चश्मा बेचनेवाला कैप्टन नाम का एक बूढ़ा-लंगड़ा आदमी मूर्ति को बिना चश्मे के नहीं रहने देता. वह मूर्ति को तरह-तरह के फ्रेम वाले चश्मे पहनाता है. क्या है अलग-अलग फ्रेम वाले चश्मों का कारण, बताती है लेखक स्वयं प्रकाश की कहानी नेता जी का चश्मा.

हालदार साहब को हर पंद्रहवें दिन कंपनी के काम के सिलसिले में उस क़स्बे से गुज़रना पड़ता था. क़स्बा बहुत बड़ा नहीं था. जिसे पक्का मकान कहा जा सके वैसे कुछ ही मकान और जिसे बाज़ार कहा जा सके वैसा एक ही बाज़ार था. क़स्बे में एक लड़कों का स्कूल, एक लड़कियों का स्कूल, एक सीमेंट का छोटा-सा कारखाना, दो ओपन एयर सिनेमाघर और एक ठो नगरपालिका भी थी. नगरपालिका थी तो कुछ-न-कुछ करती भी रहती थी. कभी कोई सड़क पक्की करवा दी, कभी कुछ पेशाबघर बनवा दिए, कभी कबूतरों की छतरी बनवा दी तो कभी कवि सम्मेलन करवा दिया. इसी नगरपालिका के किसी उत्साही बोर्ड या प्रशासनिक अधिकारी ने एक बार ‘शहर’ के मुख्य बाज़ार के मुख्य चौराहे पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस की एक संगमरमर की प्रतिमा लगवा दी. यह कहानी उसी प्रतिमा के बारे में है, बल्कि उसके भी एक छोटे-से हिस्से के बारे में.
पूरी बात तो अब पता नहीं, लेकिन लगता है कि देश के अच्छे मूर्तिकारों की जानकारी नहीं होने और अच्छी मूर्ति की लागत अनुमान और उपलब्ध बजट से कहीं बहुत ज़्यादा होने के कारण काफ़ी समय ऊहापोह और चिट्ठी-पत्री में बरबाद हुआ होगा और बोर्ड की शासनावधि समाप्त होने की घड़ियों में किसी स्थानीय कलाकार को ही अवसर देने का निर्णय किया गया होगा और अंत में क़स्बे के इकलौते हाई स्कूल के इकलौते ड्राइंग मास्टर-मान लीजिए मोतीलाल जी-को ही यह काम सौंप दिया गया होगा, जो महीने-भर में मूर्ति बनाकर ‘पटक देने’ का विश्वास दिला रहे थे.
जैसा कि कहा जा चुका है, मूर्ति संगमरमर की थी. टोपी की नोक से कोट के दूसरे बटन तक कोई दो फ़ुट ऊंची. जिसे कहते हैं बस्ट और सुंदर थी. नेताजी सुंदर लग रहे थे. कुछ-कुछ मासूम और कमसिन. फ़ौजी वर्दी में. मूर्ति को देखते ही ‘दिल्ली चलो’ और ‘तुम मुझे ख़ून दो…’ वगैरह याद आने लगते थे. इस दृष्टि से यह सफल और सराहनीय प्रयास था. केवल एक चीज़ की कसर थी जो देखते ही खटकती थी. नेताजी की आंखों पर चश्मा नहीं था. यानी चश्मा तो था, लेकिन संगमरमर का नहीं था. एक सामान्य और सचमुच के चश्मे का चौड़ा काला फ्रेम मूर्ति को पहना दिया गया था. हालदार साहब जब पहली बार इस क़स्बे से गुज़रे और चौराहे पर पान खाने रुके तभी उन्होंने इसे लक्षित किया और उनके चेहरे पर एक कौतुकभरी मुसकान फैल गई. वाह भई! यह आइडिया भी ठीक है. मूर्ति पत्थर की, लेकिन चश्मा रियल!
जीप क़स्बा छोड़कर आगे बढ़ गई तब भी हालदार साहब इस मूर्ति के बारे में ही सोचते रहे और अंत में इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि कुल मिलाकर क़स्बे के नागरिकों का यह प्रयास सराहनीय ही कहा जाना चाहिए. महत्त्व मूर्ति के रंग-रूप या क़द का नहीं, उस भावना का है वरना तो देश-भक्ति भी आजकल मज़ाक की चीज़ होती जा रही है.
दूसरी बार जब हालदार साहब उधर से गुज़रे तो उन्हें मूर्ति में कुछ अंतर दिखाई दिया. ध्यान से देखा तो पाया कि चश्मा दूसरा है. पहले मोटे फ्रेमवाला चौकोर चश्मा था, अब तार के फ्रेमवाला गोल चश्मा है. हालदार साहब का कौतुक और बढ़ा. वाह भई! क्या आइडिया है. मूर्ति कपड़े नहीं बदल सकती, लेकिन चश्मा तो बदल ही सकती है.
तीसरी बार फिर नया चश्मा था.
हालदार साहब को आदत पड़ गई-हर बार क़स्बे से गुज़रते समय चौराहे पर रुकना, पान खाना और मूर्ति को ध्यान से देखना. एक बार जब कौतूहल दुर्दमनीय हो उठा तो पानवाले से ही पूछ लिया,‘‘क्यों भई! क्या बात है? यह तुम्हारे नेताजी का चश्मा हर बार बदल कैसे जाता है?’’
पानवाले के ख़ुद के मुंह में पान ठुंसा हुआ था. वह एक काला मोटा और ख़ुशमिज़ाज़ आदमी था. हालदार साहब का प्रश्न सुनकर वह आंखों-ही-आंखों में हंसा. उसकी तोंद थिरकी. पीछे घूमकर उसने दुकान के नीचे पान थूका और अपनी लाल-काली बत्तीसी दिखाकर बोला,‘‘कैप्टन चश्मेवाला करता है.’’
‘‘क्या करता है?’’ हालदार साहब कुछ समझ नहीं पाए.
‘‘चश्मा चेंज कर देता है.’’ पानवाले ने समझाया.
‘‘क्या मतलब? क्यों चेंज कर देता है?’’ हालदार साहब अब भी नहीं समझ पाए.
‘‘कोई गिराक आ गया समझो. उसको चौड़े चौखट चाहिए. तो कैप्टन किदर से लाएगा? तो उसको मूर्तिवाला दे दिया. उदर दूसरा बिठा दिया.’’
अब हालदार साहब को बात कुछ-कुछ समझ में आई. एक चश्मेवाला है जिसका नाम कैप्टन है. उसे नेताजी की बग़ैर चश्मेवाली मूर्ति बुरी लगती है, बल्कि आहत करती है, मानो चश्मे के बगैर नेताजी को असुविधा हो रही हो. इसलिए वह अपनी छोटी-सी दुकान में उपलब्ध गिने-चुने फ्रेमों में से एक नेताजी की मूर्ति पर फ़िट कर देते है, लेकिन जब कोई ग्राहक आता है और उसे वैसे ही फ्रेम की दरकार होती है जैसा मूर्ति पर लगा है, तो कैप्टन चश्मेवाला मूर्ति पर लगा फ्रेम-संभवतः नेताजी से क्षमा मांगते हुए लाकर ग्राहक को दे देता है और बाद में नेताजी
को दूसरा फ्रेम लौटा देता है. वाह! भई ख़ूब! क्या आइडिया है.
‘‘लेकिन भाई! एक बात अभी भी समझ में नहीं आई.’’ हालदार साहब ने पानवाले से फिर पूछा,‘‘नेताजी का ओरिजिनल चश्मा कहां गया?’’
पानवाला दूसरा पान मुंह में ठूंस चुका था. दोपहर का समय था,‘दुकान’ पर भीड़-भाड़ अधिक नहीं थी. वह फिर आंखों-ही-आंखों में हंसा. उसकी तोंद थिरकी. कत्थे की डंडी फेंक, पीछे मुड़कर उसने नीचे पीक थूकी और मुसकराता हुआ बोला,‘‘मास्टर बनाना भूल गया.’’
पानवाले के लिए यह एक मज़ेदार बात थी, लेकिन हालदार साहब के लिए चकित और द्रवित करने वाली. यानी वह ठीक ही सोच रहे थे. मूर्ति के नीचे लिखा ‘मूर्तिकार मास्टर मोतीलाल’ वाकई क़स्बे का अध्यापक था. बेचारे ने महीनेभर में मूर्ति बनाकर पटक देने का वादा कर दिया होगा. बना भी ली होगी लेकिन पत्थर में पारदर्शी चश्मा कैसे बनाया जाए-कांचवाला-यह तय नहीं कर पाया होगा या कोशिश की होगी और असफल रहा होगा या बनाते-बनाते ‘कुछ और बारीक़ी’ के चक्कर में चश्मा टूट गया होगा या पत्थर का चश्मा अलग से बनाकर फ़िट किया होगा और वह निकल गया होगा. उफ़्….!
हालदार साहब को यह सब कुछ बड़ा विचित्र और कौतुकभरा लग रहा था. इन्हीं ख़्यालों में खोए-खोए पान के पैसे चुकाकर, चश्मेवाले की देश-भक्ति के समक्ष नतमस्तक होते हुए वह जीप की तरफ़ चले, फिर रुके, पीछे मुड़े और पानवाले के पास जाकर पूछा,‘‘क्या कैप्टन चश्मेवाला नेताजी का साथी है, या आज़ाद हिंद फ़ौज का भूतपूर्व सिपाही?’’
पानवाला नया पान खा रहा था. पान पकड़े अपने हाथ को मुंह से डेढ़ इंच दूर रोककर उसने हालदार साहब को ध्यान से देखा, फिर अपनी लाल-काली बत्तीसी दिखाई और मुसकराकर बोला,‘‘नहीं साब! वो लंगड़ा क्या जाएगा फ़ौज में? पागल है पागल! वो देखो वो आ रहा है. आप उसी से बात कर लो. फोटो-वोटो छपवा दो उसका कहीं.’’
हालदार साहब को पानवाले द्वारा एक देशभक्त का इस तरह मज़ाक उड़ाया जाना अच्छा नहीं लगा. मुड़कर देखा तो अवाक रह गए. एक बेहद बूढ़ा मरियल-सा लंगड़ा आदमी सिर पर गांधी टोपी और आंखों पर काला चश्मा लगाए एक हाथ में एक छोटी-सी संदूकची और दूसरे हाथ में एक बांस पर टंगे बहुत-से चश्मे लिए और अभी-अभी एक गली से निकला था और अब एक बंद दुकान के सहारे अपना बांस टिका रहा था. तो इस बेचारे की दुकान भी नहीं! फेरी लगाता है! हालदार साहब चक्कर में पड़ गए. पूछना चाहते थे, इसे कैप्टन क्यों कहते हैं? क्या यही इसका वास्तविक नाम है? लेकिन पानवाले ने साफ़ बता दिया था कि अब वह इस बारे में और बात करने को तैयार नहीं. ड्राइवर भी बेचैन हो रहा था. काम भी था. हालदार साहब जीप में बैठकर चले गए.
दो साल तक हालदार साहब अपने काम के सिलसिले में उस क़स्बे से गुज़रते रहे और नेताजी की मूर्ति में बदलते हुए चश्मों को देखते रहे. कभी गोल चश्मा होता, तो कभी चौकोर, कभी लाल, कभी काला, कभी धूप का चश्मा, कभी बड़े कांचों वाला गोगो चश्मा….पर कोई-न कोई चश्मा होता ज़रूर….उस धूलभरी यात्रा में हालदार साहब को कौतुक और प्रफुल्लता के कुछ क्षण देने के लिए.
फिर एक बार ऐसा हुआ कि मूर्ति के चेहरे पर कोई भी, कैसा भी चश्मा नहीं था. उस दिन पान की दुकान भी बंद थी. चौराहे की अधिकांश दुकानें बंद थीं. अगली बार भी मूर्ति की आंखों पर चश्मा नहीं था. हालदार साहब ने पान खाया और धीरे से पानवाले से पूछा,‘‘क्यों भई, क्या बात है? आज तुम्हारे नेताजी की आंखों पर चश्मा नहीं है?’’
पानवाला उदास हो गया. उसने पीछे मुड़कर मुंह का पान नीचे थूका और सिर झुकाकर अपनी धोती के सिरे से आंखें पोंछता हुआ बोला,‘‘साहब! कैप्टन मर गया.’’
और कुछ नहीं पूछ पाए हालदार साहब. कुछ पल चुपचाप खड़े रहे, फिर पान के पैसे चुकाकर जीप में आ बैठे और रवाना हो गए.
बार-बार सोचते, क्या होगा उस कौम का जो अपने देश की ख़ातिर घर-गृहस्थी-जवानी-ज़िंदगी सब कुछ होम कर देनेवालों पर भी हंसती है और अपने लिए बिकने के मौक़े ढूंढ़ती है. दुखी हो गए. पंद्रह दिन बाद फिर उसी क़स्बे से गुजरे. क़स्बे में घुसने से पहले ही ख़्याल आया कि क़स्बे की हृदयस्थली में सुभाष की प्रतिमा अवश्य ही प्रतिष्ठापित होगी, लेकिन सुभाष की आंखों पर चश्मा नहीं होगा… क्योंकि मास्टर बनाना भूल गया… और कैप्टन मर गया. आज वहां रुकेंगे नहीं, पान भी नहीं खाएंगे, मूर्ति की तरफ़ देखेंगे भी नहीं, सीधे निकल जाएंगे. ड्राइवर से कह दिया,‘‘चौराहे पर रुकना नहीं, आज बहुत काम है, पान आगे कहीं खा लेंगे.’’
लेकिन आदत से मजबूर आंखें चौराहा आते ही मूर्ति की तरफ़ उठ गईं. कुछ ऐसा देखा कि चीखे,‘‘रोको!’’जीप स्पीड में थी, ड्राइवर ने ज़ोर से ब्रेक मारी. रास्ता चलते लोग देखने लगे. जीप रुकते-न-रुकते हालदार साहब जीप से कूदकर तेज़-तेज़ कदमों से मूर्ति की तरफ़ लपके और उसके ठीक सामने जाकर अटेंशन में खड़े हो गए.
मूर्ति की आंखों पर सरकंडे से बना छोटा-सा चश्मा रखा हुआ था, जैसा बच्चे बना लेते हैं. हालदार साहब भावुक हैं. इतनी-सी बात पर उनकी आंखें भर आईं.

Illustration: Pinterest

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