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सच का सौदा: कहानी एक ईमानदार पत्रकार की (लेखक: सुदर्शन)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
December 25, 2022
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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Sudarshan_Kahani
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नैतिक मूल्यों को कहानी की रूपरेखा में प्रस्तुत करनेवाले कहानीकार सुदर्शन की कहानी ‘सच का सौदा’ में सच्चाई की अहमियत के बारे में बात की गई है.

1
विद्यार्थी-परीक्षा में फ़ेल होकर रोते हैं, सर्वदयाल पास होकर रोए. जब तक पढ़ते थे, तब तक कोई चिंता नहीं थी; खाते थे; दूध पीते थे. अच्‍छे-अच्‍छे कपड़े पहनते, तड़क-भड़क से रहते थे. उनके माता-पिता इस योग्य न थे कि कॉलेज के ख़र्च सह सकें, परंतु उनके मामा एक ऊंचे पद पर नियुक्त थे. उन्‍होंने चार वर्ष का ख़र्च देना स्वीकार किया, परंतु यह भी साथ ही कह दिया,‘देखो, रुपया लहू बहाकर मिलता है. मैं वृद्ध हूं, जान मारकर चार पैसे कमाता हूं. लाहौर जा रहे हो, वहां पग-पग पर व्‍याधियां हैं, कोई चिमट न जाए. व्‍यसनों से बचकर डिग्री लेने का यत्न करो. यदि मुझे कोई ऐसा-वैसा समाचार मिला, तो ख़र्च भेजना बंद कर दूंगा.’
सर्वदयाल ने वृद्ध मामा की बात का पूरा-पूरा ध्‍यान रक्‍खा, और अपने आचार-विचार से न केवल उनको शिकायत का ही अवसर नहीं दिया, बल्कि उनकी आंख की पुतली बन गए. परिणाम यह हुआ कि मामा ने सुशील भानजे को आवश्‍यकता से अधिक रुपए भेजने शुरू कर दिए, और लिख दिया,‘तुम्‍हारे खान-पान पर मुझे आपत्ति नहीं, हां! इतना ध्‍यान रखना कि कोई बात मर्यादा के विरूद्ध न होने पाए. मैं अ‍केला आदमी, रुपया क्‍या साथ ले जाऊंगा! तुम मेरे संबंधी हो, यदि किसी योग्य बन जाओ, तो इससे अधिक प्रसन्‍नता की बात क्‍या होगी?’
इससे सर्वदयाल का उत्‍साह बढ़ा. पहले सात पैसे की जुराबें पहनते थे, अब पांच आने की पहनने लगे. पहले मलमल के रूमाल रखते थे, अब एटोनिया के रखने लगे. दिन को पढ़ने और रात को जागने से सिर में कभी-कभी पीड़ा होने लगती थी, कारण यह कि दूध के लिए पैसे न थे. परंतु अब जब मामा ने ख़र्च की डोरी ढीली छोड़ दी, तो घी-दूध दोनों की तंगी न रही. परंतु इन सबके होते हुए भी सर्वदयाल उन व्‍यसनों से बचे रहे, जो शहर के विद्यार्थियों में प्राय: पाए जाते हैं.
इसी प्रकार चार वर्ष बीत गए, और इस बीच में उनकी माता की मुत्‍यु हो गई. इधर सर्वदयाल बी.ए. की डिग्री लेकर घर को चले. जब तक पढ़ते थे, सैकड़ों नौकरियां दिखाई देती थीं. परंतु पास हुए, तो कोई ठिकाना न दीख पड़ा. वह घबरा गए, जिस प्रकार यात्री दिन-रात चल-चलाकर स्‍टेशन पर पहुंचे, परंतु गाड़ी में स्‍थान न हो. उस समय उसकी जो दुर्दशा होती है, ठीक वही सर्वदयाल की थी.
उनके पिता पंडित शंकरदत्त पुराने ज़माने के आदमी थे. उनका विचार था कि बेटा अंग्रेज़ी बोलता है, पतलून पहनता है, नेकटाई लगाता है, तार तक पढ़ लेता है, इसे नौकरी न मिलेगी, तो और किसे मिलेगी? परंतु जब बहुत दिन गुज़र गए और सर्वदयाल के लिए कोई आजीविका न बनी, तो उनका धीरज छूट गया. बेटे से बोले,‘अब तू कुछ नौकरी भी करेगा या नहीं? मिडिल पास लौंडे रुपयों से घर भर देते हैं. एक तू है कि पढ़ते-पढ़ते बाल सफ़ेद हो गए, परंतु कोई नौकरी ही नहीं मिलती.’
सर्वदयाल के कलेजे में मानों किसी ने तीर-सा मार दिया. सिर झुका कर बोले,‘नौकरियां तो बहुत मिलती हैं, परंतु थोड़ा वेतन देते हैं, इस लिए देख रहा हूं कि कोई अच्‍छा अवसर हाथ आ जाय, तो करूं.’
शंकरदत्त ने उत्तर दिया,‘यह तो ठीक है, परंतु जब तक अच्‍छी न मिले, मामूली ही कर लो. जब फिर अच्‍छी मिले, इसे छोड़ देना. तुम आप पढ़े लिखे हो, सोचो, निकम्‍मा बैठे रहने से कुछ दे थोड़ा ही जाता है.’ सर्वदयाल चुप हो गए, वे उत्तर दे न सके. शंकरदत्त, पूजापाठ करने वाले आदमी, इस बात को क्‍या समझें कि ग्रैजुएट साधारण नौकरी नहीं कर सकता.’

2
दोपहर का समय था, सर्वदयाल अखबार में ‘वान्‍टेड’ देख रहे थे. एकाएक एक विज्ञापन देखकर उनका हृदय धड़कने लगा. अंबाले के प्रसिद्ध रईस रायबहादुर हनुमंतराय सिंह एक मासिक पत्र ‘रफ़ीक हिंद’ के नाम से निकालने वाले थे. उनको उसके लिए एक संपादक की आवश्‍यकता थी, उच्च श्रेणी का शिक्षित और नवयुवक हो, तथा लिखने में अच्‍छा अभ्‍यास रखता हो, और जातीय-सेवा का प्रेमी हो. वेतन पांच सौ रुपए मासिक. सर्वदयाल बैठे थे, खड़े हो गए और सोचने लगे,‘यदि यह नौकरी मिल जाए तो द्ररिद्रता कट जाए. मैं हर प्रकार से इसके योग्य हूं.’ जब पढ़ते थे, उन दिनों साहित्य परिषद् (लिटरेरी क्लब) में उनकी प्रभावशाली वक्‍तृताओं और लेखों की धूम थी. बोलते समय उनके मुख से फूल झड़ते थे, और श्रोताओं के मस्तिष्क को अपनी सूक्तियों से सुवासित कर देते थे. उनके मित्र उनको गोद में उठा लेते और कहते,‘तेरी वाणी में मोहिनी है. इसके सिवाय उनके लेख बड़े-बड़े प्रसिद्ध पत्रों में निकलते रहे. सर्वदयाल ने कई बार इस शौक़ को कोसा था, आज पता लगा कि संसार में इस दुर्लभ पदार्थ का भी कोई ग्राहक है. कंपित कर से प्रार्थना-प्रत्र लिखा और रजिस्‍ट्री करा दिया. परंतु बाद में सोचा-व्‍यर्थ ख़र्च किया. मैं साधारण ग्रैजुएट हूं, मुझे कौन पूछेगा? पांच सौ रुपया तनख़ाह है, सैकड़ों उम्‍मीदवार होंगे और एक से एक बढ़कर. कई वक़ील और बैरिस्टर जाने को तैयार होंगे. मैंने बड़ी मूर्खता की, जो पांच सौ रुपया देखकर रीझ गया. परंतु फिर ख़्याल आया-जो इस नौकरी को पाएगा, वह भी तो मनुष्य होगा. योग्‍यता सबमें प्राय: एक सी ही होती है. हां, जब तक कार्य में हाथ न डाला जाए, तब तक मनुष्य झिझकता है. परंतु काम का उत्‍तरदायित्व सब कुछ लिखा देता है.’
इन्‍ही विचारों में कुछ दिन बीत गए. कभी आशा कल्‍पनाओं की झड़ी बांध देती थी, कभी निराशा हृदय में अंधकार भर देती थी. सर्वदयाल चाहते थे कि इस विचार को मस्तिष्क से बाहर निकाल दें, और किसी दूसरी ओर ध्‍यान दें, किंतु वे ऐसा न कर सके. स्‍वप्न में भी यही विचार सताने लगे. पंद्रह दिन बीत गए, परंतु कोई उत्तर न आया.
निराशा ने कहा अब चैन से बैठो, कोई आशा नहीं. परंतु आशा बोली, अभी से निराशा का क्‍या कारण? पांच सौ रुपए की नौकरी है, सैकड़ों प्रार्थना पत्र गए होंगे. उनको देखने के लिए कुछ समय चाहिए. सर्वदयाल ने निश्चय किया कि अभी एक अठवाड़ा और देखना चाहिए. उनको न खाने की चिंता थी, न पीने की. दरवाज़े पर खड़े डाकिए की बाट देखते थे. उसे आने में देर हो जाती, तो टहलते-टहलते बाज़ार तक चले आते. परंतु अपनी इस अवस्‍था को डाकिए पर प्रकट न करते, और पास पहुंचकर देखते-देखते आगे निकल जाते. फिर मुड़कर देखने लगते कि डाकिया बुला तो नहीं रहा. फिर सोचते-कौन जाने, उसने देखा भी है या नहीं. इस विचार से ढाढ़स बंध जाती, तुरंत चक्कर काट कर डाकिए से पहले दरवाज़े पर पहुंच जाते, और बेपरवा से होकर पूछते,‘कहो भाई, हमारा भी पत्र है या नहीं?’ डाकिया सिर हिलाता और आगे चला जाता. सर्वदयाल हताश होकर बैठ जाते. यह उनका नित का नियम हो गया था.
जब तीसरा अठवाड़ा भी बीत गया और कोई उत्तर न आया तो सर्वदयाल निराश हो गए, और समझ गए कि वह मेरी भूल थी. ऐसी जगह सिफ़ारिश से मिलती है, ख़ाली डिग्रियों को कौन पूछता है? इतने ही में तार के चपरासी ने पुकारा. सर्वदयाल का दिल उछलने लगा. जीवन के भविष्य में आशा की लता दिखाई दी. लपके-लपके दरवाज़े पर गए, और तार देखकर उछल पड़े. लिखा था,‘स्‍वीकार है, आ जाओ.’

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3
वे सायंकाल की गाड़ी में बैठे, तो हृदय आनंद से गद्गद हो रहा था और मन में सैकड़ों विचार उठ रहे थे. पत्र-संपादन उनके लिए जातीय सेवा का उपयुक्त साधन था. सोचते थे,‘यह मेरा सौभाग्य है, जो ऐसा अवसर मिला. जो कहीं क्‍लर्क भरती हो जाता, तो जीवन काटना दूभर हो जाता. बैग में कागज और पेंसिल निकालकर पत्र की व्‍यवस्‍था ठीक करने लगे. पहले पृष्ठ पर क्‍या हो? संपादकीय वक्‍तव्य कहां दिए जाएं? सार और सूचना के लिए कौन-सा स्‍थान उपयुक्त होगा? ‘टाईटिल’ का स्‍वरूप कैसा हो? संपादक का नाम कहां रहे? इन सब बातों को सोच-सोचकर लिखते गए. एकाएक विचार आया-कविता के लिए कोई स्‍थान न रक्‍खा, और कविता ही एक ऐसी वस्‍तु है, जिससे पत्र की शोभा बढ़ जाती है. जिस प्रकार भोजन के साथ चटनी एक विशेष स्‍वाद देती है, उसी प्रकार विद्वत्‍ता-पूर्ण लेख और गंभीर विचारों के साथ कविता एक आवश्यक वस्‍तु है. उसे लोग रुचि से पढ़ते है. उस समय उन्‍हें अपने कोई सुह्रद मित्र याद आ गए, जो उस पत्र को बिना पढ़े फेंक देते थे, जिसमें कविता व पद्य न हों. सर्वदयाल को निश्चय हो गया कि इसके बिना पत्र को सफलता न होगी. सहसा एक मनोरंजक विचार से वे चौंक उठे.’
रात का समय था, गाड़ी पूरे बेग से चली जा रही थी. सर्वदयाल जिस कमरे में सफ़र कर रहे थे, उसमें उनके अतिरिक्त केवल एक यात्री और था, जो अपनी जगह पड़ा सो रहा था. सर्वदयाल बैठे थे. खड़े हो गए, और पत्र के तैयार किए हुए नोट गद्दे पर रखकर इधर-उधर टहलने लगे. फिर बैठकर काग़ज पर सुंदर अक्षरों में लिखा
पंडित सर्वदयाल बी.ए., एडिटर ‘रफ़ीक हिंद’, अंबाला
परंतु लिखते समय हाथ कांप रहे थे, मानो कोई अपराध कर रहे हों. यद्यपि कोई देखनेवाला पास न था, तथापि उस काग़ज के टुकड़े को, जिससे ओछापन और बालकापन छलकता था, बार-बार छिपाने का यत्न करते थे. जिस प्रकार अनजान बालक अपनी छाया से डर जाता हो. परंतु धीरे-धीरे यह भय का भाव दूर हो गया, और वे स्‍वाद ले-लेकर उस पंक्ति को बारम्बार पढ़ने लगे:
पंडित सर्वदयाल बी. ए., एडिटर ‘रफ़ीक हिंद’, अंबाला
वे संपादन के स्‍वप्न देखा करते थे. अब राम-राम करके आशा की हरी हरी भूमि सामने आई, तो उनके कानों में वहीं शब्द, जो उस काग़ज पर लिखे थे:
पंडित सर्वदयाल बी.ए., एडिटर ‘रफ़ीक हिंद’, अंबाला
देर तक इसी धुन और आनंद में मग्न रहने के पश्‍चात पता नहीं कितने बजे उन्हें नींद आई, परंतु आंखें खुलीं, तो दिन चढ़ चुका था, और गाड़ी अंबाला स्‍टेशन पर पहुंच चुकी थी. जागकर पहली वस्‍तु, जिसका उन्‍हें ध्‍यान आया, वह वही काग़ज का टुकड़ा. पर अब उसका कहीं पता नहीं था. सर्वदयाल का रंग उड़ गया, आंख उठाकर देखा, तो सामने का यात्री जा चुका था. सर्वदयाल की छाती में किसी ने मुक्‍का मारा, मानो उनकी कोई आवश्यक वस्‍तु खो गई. ख़्याल आया,‘यह यात्री कहीं ठाकुर हनुमंतराय सिंह न हो. यदि हुआ और उसने मेरा ओछापन देख लिया, तो क्‍या कहेगा? इतने में गाड़ी ठहर गई. सर्वदयाल बैग लिए हुए नीचे उतरे और स्‍टेशन से बाहर निकले. इतने में एक नवयुवक ने पास आकर पूछा,‘क्‍या आप रावलपिंडी से आ रहे हैं ?
‘हां, मैं वहीं से आ रहा हूं. तुम किसे पूछते हो?’
‘ठाकुर साहब ने गाड़ी भेजी है.’
सर्वदयाल का हृदय कमल की तरह खिल गया. आज तक कभी बग्‍घी में न बैठे थे. उचक कर सवार हो गए और आस-पास देखने लगे. गाड़ी चली और एक आलीशान कोठी के हाते में जाकर रुक गई. सर्वदयाल का हृदय धड़कने लगा. कोचवान ने दरवाज़ा खोला और आदर से एक तरफ़ खड़ा हो गया. सर्वदयाल रूमाल से मुंह पोंछते हुए नीचे उतरे और बोले,‘ठाकुर साहब किधर हैं?’
कोचवान ने उत्तर में एक मुंशी को पुकारकर बुलाया और कहा,‘बाबू साहब रावलपिंडी से आए हैं. ठाकुर साहब के पास ले जाओ.’
‘रफ़ीक हिंद’ के ख़र्च का ब्‍योरा इसी मुंशी ने तैयार किया था, इसलिए तुरंत समझ गया कि यह पंडित सर्वदयाल हैं, जो ‘रफ़ीक हिंद’ संपादन के लिए चुने गए हैं. आदर से बोला,‘आइए साहब’!
पंडित सर्वदयाल मुंशी के पीछे चले. मुंशी एक कमरे के आगे रुक गया और रेशमी पर्दा उठाकर बोला,‘चलिए, ठाकुर साहब बैठे हैं!’

4
सर्वदयाल का दिल धड़कने लगा. जो अवस्‍था निर्बल विद्यार्थी की परीक्षा के अवसर पर होती है, वही अवस्‍था इस समय सर्वदयाल की थी. शंका हुई कि ठाकुर साहब मेरे विषय में जो सम्‍मति रखते हैं, वह मेरी बातचीत से बदल न जाए. फिर भी साहब करके अंदर चले गए. ठाकुर हनुमंतराय सिंह तीस-बत्‍तीस वर्ष के सुंदर नवयुवक थे. मुस्‍कराते हुए आगे बढ़े और बड़े आदर से सर्वदयाल से हाथ मिलाकर बोले,‘आप आ गए. कहिए, राह में कोई कष्ट तो नहीं हुआ.’
सर्वदयाल ने धड़कते हुए हृदय से उत्तर दिया,‘जी नहीं.’
‘मैं आपके लेख बहुत समय से देख रहा हूं. ईश्वर की बड़ी कृपा है, जो आज दर्शन भी हुए. निस्‍संदेह आपकी लेखनी में आश्‍चर्यमयी शक्ति है.’
सर्वदयाल पानी-पानी हो गए. अपनी प्रशंसा सुनकर उनके हर्ष का वारापार न रहा. तो भी संभलकर बोले,‘यह आप की कृपा है?’
ठाकुर साहब ने गंभीरता से कहा,‘यह नम्रता आपकी योग्‍यता के अनुकूल है. परंतु मेरी सम्‍मति में आप सरीखा लेखक पंजाब भर में नहीं. आप मानें या न मानें, समाज को आप पर गर्व है. ‘रफ़ीक हिंद’ का सौभाग्य है कि आप-सा संपादक उसे प्राप्त हुआ.’
सर्वदयाल के हृदय में जो आशंका हो रही थीं, वह दूर हो गई. समझे, मैदान मार लिया. वे बात का रुख़ बदलने को बोले,‘पत्रिका कब से निकलेगी?’
ठाकुर साहब ने हंसकर उत्तर दिया,‘यह प्रश्न मुझे आप से करना चाहिए था.’
उस दिन 15 फ़रवरी थी. सर्वदयाल कुछ सोचकर बोले,‘पहला अंक पहली अप्रैल को निकल जाए?’
‘अच्‍छी बात है, परंतु इतने थोड़े समय में लेख मिल जाएंगे या नहीं, इस बात का विचार आप कर लीजिएगा.’
‘इसकी चिंता न कीजिए, मैं आज से ही काम आरंभ किए देता हूं. परमात्‍मा ने चाहा, तो आप पहले ही अंक को देखकर प्रसन्न हो जाएंगे.’
एकाएक ठाकुर साहब चौंककर बोले,‘कदाचित् यह सुनकर आपको आश्‍चर्य होगा कि इस विज्ञापन के उत्तर में लगभग दो हज़ार दरख्‍वास्‍तें आई थीं. उनमें से बहुत-सी ऐसी थीं, जो साहित्य और लालित्य के मोतियों से भरी हुई थीं. परंतु आपका पत्र सच्‍चाई से भरपूर था. किसी ने लिखा था-मैं इस समय दुकान करता हूं, और चार-पांच सौ रुपए मासिक पैदा कर लेता हूं. परंतु जातीय सेवा के लिए यह सब छोड़ने को तैयार हूं. किसी ने लिखा था-मेरे पास खाने-पीने की कमी नहीं है, परंतु स्‍वदेश-प्रेम हृदय में उत्‍साह उत्‍पन्न कर रहा है. किसी ने लिखा था-मैं बारिस्‍टरी के लिए विलायत जाने की तैयारियां कर रहा हूं. परंतु यदि आप यह काम मुझे दे सकें, तो इस विचार को छोड़ा जा सकता है. अर्थात हर एक प्रार्थना-प्रत्र से यही प्रकट होता था कि प्रार्थी को वेतन की तो आवश्‍यकता नहीं, और कदाचित् वह नौकरी करना अपमान भी समझता है, परंतु यह सब कुछ देश-प्रेम के लिए करने को तैयार है. मानो यह नौकरी करके मुझ पर कोई उपचार कर रहा है. केवल आपका पत्र है, जिसमें सच से काम लिया गया है. और यह वह गुण है, जिसके सामने मैं सब कुछ तुच्छ समझता हूं.’
अप्रैल की पहली तारीख को ‘रफ़ीक हिंद’ का प्रथम अंक निकला, तो पंजाब के पढ़े-लिखे लोगों में शोर मच गया और पंडित सर्वदयाल के नाम की जहां-तहां चर्चा होने लगी. उनके लेख लोगों ने पहले भी पढ़े थे, परंतु ‘रफ़ीक हिंद’ के प्रथम अंक ने तो उनको देश के प्रथम श्रेणी के संपादकों की पंक्ति में ला बिठाया. पत्र क्‍या था, सुंदर और सुगंधित फूलों का गुच्‍छा था, जिसकी एक-एक कुसुम-कलिका चटक-चटकर अपनी मोहिनी वासना से पाठकों के मनों की मुग्ध कर रही थी. एक समाचार-पत्र ने समालोचना करते हुए लिखा,‘रफ़ीक हिंद’ का प्रथम अंक प्रकाशित हो गया है, और ऐसी शान से कि देखकर चित्त प्रसन्न हो जाता है. पंडित सर्वदयाल को इस समय तक हम केवल एक लेखक ही जानते थे, परंतु अब जान पड़ा कि पत्र-संपादक के काम में भी इनकी योग्‍यता पराकाष्‍ठा तक पहुंची हुई है. अच्‍छे लेख लिख देना और बात है, और अच्‍छे लेख प्राप्त करके उन्‍हें ऐसे क्रम और विधि से रखना कि किसी की दृष्टि में खटकने न पाए, और बात है. पंडित सर्वदयाल की प्रभावशाली लेखनी में किसी को संदेह न था, परंतु ‘रफ़ीक हिंद’ ने इस बात को और पुष्ट कर दिया है कि आप संपादक के काम में भी पूर्णतया योग्य हैं. हमारी सम्‍मति में ‘रफ़ीक हिंद’ से वंचित रहना जातीयभाव से अथवा साहित्य व सदाचार के भाव से दुर्भाग्य ही नहीं वरन् अपराध है.’
एक और प्रत्र की सम्‍मति थी,‘यदि हमारी भाषा में कोई ऐसी मासिक पत्रिका है, जिसे यूरोप और अमेरीका के पत्रों के सामने रखा जा सकता है, तो वह ‘रफ़ीक हिंद’ है, जो सब प्रकार के गुणों से सुसज्जित है. उस‍के गुणों को परखने के लिए उसे एक बार देख लेना ही पर्याप्त है. निस्‍संदेह पंडित सर्वदयाल ने हमारे साहित्य का सिर ऊंचा कर दिया है.’
ठाकुर हनुमंतराय सिंह ने ये समालोचनाएं देखीं, तो हर्ष से उछल पड़े. वह मोटर में बैठकर ‘रफ़ीक हिंद’ के कार्यालय में गए और पंडित सर्वदयाल को बधाई देकर बोले ‘मुझे यह आशा न थी कि हमें इतनी सफलता हो सकेगी.’
पंडित सर्वदयाल ने उत्तर दिया,‘मेरे विचार में यह कोई बड़ी सफलता नहीं.’ ठाकुर साहब ने कहा,‘आप कहें, परंतु स्मरण रखिए, वह दिन दूर नहीं जब अख़बारी दुनिया आपको पंजाब का शिरोमणि स्‍वीकार करेगी.’

5
इसी प्रकार एक वर्ष बीत गया ‘रफ़ीक हिंद’ की कीर्ति देश भर में फैल गई, और पंडित सर्वदयाल की गिनती बड़े आदमियों में होने लगा था. उन्‍हें जीवन एक आनंदमय यात्रा प्रतीत होता था, जो फूलों की छाया में तय हो, और जिसे आम्रपल्‍लवों में बैठकर गाने वाली श्‍यामा और कली-कली का रस चूसनेवाला भौंरा भी प्‍यासे नेत्रों से देखता हो, कि इतने में भाग्य ने पांसा पलट दिया.
अंबाला की म्युनिस्‍पैलिटी के मेंबर चुनने का समय समीप आया, तो ठाकुर हनुमंतराय सिंह भी एक पक्ष की और से मेंबरी के लिए प्रयत्न करने लगे. अमीर पुरुष थे, रुपया-पैसा पानी की तरह बहाने को उद्यत हो गए. उनके मुक़ाबले में लाला हशमतराय खड़े हुए. हाईस्‍कूल के हेडमास्टर, वेतन थोड़ा लेते थे कपड़ा साधारण पहनते थे. कोठी में नहीं, वरन् नगर की एक गली में उनका आवास था. परंतु जाति की सेवा के लिए हर समय उद्यत रहते थे. उनसे पंडित सर्वदयाल की बड़ी मित्रता थी. उनकी इच्‍छा न थी कि इस झंझट में पड़ें, परंतु सुहृद मित्रों ने ज़ोर देकर उन्‍हें खड़ा कर दिया. पंडित सर्वदयाल ने सहायता का वचन दिया.
ठाकुर हनुमंतराय सिंह, जातीय सेवा के अभिलाषी तो थे, परंतु उनके वचन और कर्म में बड़ा अंतर था. उनकी जातीय सेवा व्‍याख्‍यान झाड़ने, लेख लिखने और प्रस्‍ताव पास कर देने तक ही सी‍मित थी. इससे परे जाना वे अनावश्यक ही न समझते, बल्कि स्‍वार्थ सिद्ध होता, तो अपने बच्‍चे के विरूद्ध भी कार्य करने से न झिझकते थे. इस बात से पंडित सर्वदयाल भलीभांति परिचित थे. इसलिए उन्‍होंने अपने मन में निश्चय कर लिया कि परिणाम चाहे कैसा ही बुरा क्‍यों न हो, ठाकुर साहब को मेंबर न बनने दूंगा. इस पद के लिए वे लाला हशमतराय ही को उपयुक्त समझते थे.
रविवार का दिन था. पंडित सर्वदयाल का भाषण सुनने के लिए सहस्‍त्रों लोग एकत्र हो रहे थे. विज्ञापन में व्‍याख्‍यान का विषय ‘म्‍युनिसिपल इलेक्शन’ था. पंडित सर्वदयाल क्‍या कहते हैं, यह जानने के लिए लोग अधीर हो रहे थे. लोगों की आंखें इस ताक में थी कि देखें पंडितजी सत्य को अपनाते हैं, या झूठ की ओर झुकते हैं? न्‍याय का पक्ष लेते हैं, या रुपए का? इतने में पंडित जी प्‍लैटफ़ॉर्म पर आए. हाथों ने तालियों से स्‍वागत किया. कान प्लैटफ़ॉर्म की ओर लगाकर सुनने लगे. पंडितजी ने कहा:
‘मैं यह नहीं कहता कि आप अमुक मनुष्य को अपना वोट दें. किंतु इतना अवश्य कहता हूं कि जो कुछ करें, समझ-सोचकर करें. यह कोई साधारण बात नहीं कि आप बेपरवाई से काम लें, और चाय की प्‍यालियों पर, बिस्‍कुट की तश्‍तरियों पर और तांगे की सैर पर वोट दे दें. अथवा जाति-बिरादरी व साहूकारे-ठाठ-बाट पर लट्टू हो जाएं, प्रत्‍युत इस वोट का अधिकारी वह मनुष्य है, जिसके हृदय में करुणा तथा देश और जाति की सहानुभूति हो, जो जाति के साधारण और छोटे लोगों में घूमता हो, और जाति को ऊंचा उठाने में रात-दिन मग्न रहता हो. जो प्लेग और हैजे के दिनों में रोगियों की सेवा-शुश्रूषा करता हो, और अकाल के समय कंगालों की सांत्वना देता हो. जो सच्‍चे अर्थो में देश का हितैषी हो, और लोगों को हार्दिक विचारों को स्‍पष्‍टतया प्रकट करने और उनके समर्थन करने में निर्भय और पक्षपात-रहित हो. ऐसा मनुष्य निर्धन होने पर भी चुनाव का अधिकारी है, क्‍योंकि ये ही भाव उसके भविष्य में उपयोगी सिद्ध होने के प्रमाण हैं.’
ठाकुर हनुमंतराय सिंह को पूरा-पूरा विश्‍वास था कि पंडितजी उनके पक्ष में बोलेंगे, परंतु व्‍याख्‍यान सुनकर उनके तन में आग लग गई. कुछ मनुष्य ऐसे भी थे, जो पंडितजी की लोकप्रियता देखकर उनसे जलते थे. उनको मौक़ा मिल गया, ठाकुर साहब के पास जाकर बोले,‘यह बात क्‍या है, जो वह आपका अन्न खाकर आप ही के विरूद्ध बोलने लग गया?’
ठाकुर साहब ने उत्तर दिया,‘मैंने उसके साथ कोई बुरा व्‍य‍वहार नहीं किया. जाने उसके मन में क्‍या समाई है?’
एक आदमी ने कहा,‘कुछ घमंडी है.’
ठाकुर साहब ने जोश में आकर कहा,‘मैं उसका घमंड तोड़ दूंगा.’
कुछ देर बाद पंडित सर्वदयाल बुलाए गए. वे इसके लिए पहले ही से तैयार थे. उनके आने पर ठाकुर साहब ने कहा,‘क्‍यों पंडितजी! मैंने क्‍या अपराध किया है?’
पंडित सर्वदयाल का हृदय धड़कने लगा, परंतु साहस से बोले,‘मैंने कब कहा है कि आपने कोई अपराध किया है?’
‘तो इस भाषण का क्‍या मतलब है?’
‘यह प्रश्न सिद्धांत का है.’
‘तो मेरे विरूद्ध व्‍याख्‍यान देंगे आप?’
पंडित सर्वदयाल ने भूमि की ओर देखते हुए उत्तर दिया,‘मैं आप‍की अपेक्षा लाला हशमतराय को मेंबरी के लिए अधिक उपयुक्त समझता हूं.’
‘यह सौदा आपको बहुत महंगा पड़ेगा.’
पंडित सर्वदयाल ने सिर ऊंचा उठाकर उत्तर दिया,‘मैं इसके लिए सब कुछ देने को तैयार हूं.’
ठाकुर साहब इस साहस को देखकर दंग रह गए और बोले,‘नौकरी और प्रतिष्‍ठा भी?’
‘हां,नौकरी और प्रतिष्‍ठा भी .’
‘उस, तुच्छ, उद्धत, कल के छोकरे हशमतराय के लिए?’
‘नहीं, सच्‍चाई के लिए.’
ठाकुर साहब को ख़्याल न था कि बात बढ़ जाएगी, न उनका यह विचार था कि इस विषय को इतनी दूर ले जाएं. परंतु जब बात बढ़ गई तो पीछे न हट सके, गरजकर बोले,‘यह सच्‍चाई यहां न निभेगी.’
पंडित सर्वदयाल को कदाचित् कोमल शब्‍दों में कहा जाता, तो संभव है, हठ को छोड़ देते. परंतु इस अनुचित दबाव को सहन न कर सके! धमकी के उत्तर में उन्होंने तुरन्‍तु उठकर कहा,‘ऐसी निभेगी कि आप देखेंगे.’‘
‘क्या कर लोगे? क्या तुम समझते हो कि इन भाषणों से मैं मेंबर न बन सकूंगा?’
‘नहीं, यह बात तो नहीं समझता.’
‘तो फिर तुम अकड़ते किस बात पर हो?’
‘यह मेरा कर्तव्य है. उसे पूरा करना मेरा धर्म है. फल परमेश्वर के हाथ में है.’
ठाकुर साहब ने मुंह मोड़ लिया. पंडित सर्वदयाल तांगे पर जा बैठे और कोचवान से बोले,‘चलो.’
इसके दूसरे दिन पंडित सर्वदयाल ने त्यागपत्र भेज दिया.
संसार की गति विचित्र है. जिस सच्चाई ने उन्हें एक दिन सुख-संपति के दिन दिखाए थे, उसी सच्चाई के कारण नौकरी करते समय पंडित सर्वदयाल प्रसन्न हुऐ थे. छोड़ते समय उससे भी प्रसन्न हुए.
परंतु लाला हशमतराम ने यह समाचार सुन तो अवाक् रह गए.
वह भागे-भागे पंडित सर्वदयाल के पास जाकर बोले,‘भाई, मैंने मेंबरी छोड़ी, तुम अपना त्यागपत्र लौटा लो.’
पंडित सर्वदयाल के मुख-मंडल पर एक अपूर्व तेज़ की आभा दमकने लगी, जो इस मायावी संसार में कहीं-कहीं ही देख पड़ती है. उन्होंने धैर्य और दृढ़ता से उत्तर दिया,‘यह असंभव है.’
‘क्या मेरी मेंबरी का इतना ही ख़याल है?’
‘नहीं, यह सिद्धांत का प्रश्न है.’
लाला हशमतराय निरुतर होकर चुप गए. सहसा उन्हें विचार आया कि ‘रफ़ीक हिंद’ पंडितजी को अत्यंत प्रिय है, मानो वह उनका प्यारा बेटा है! धीर भाव से बोले,‘रफ़ीक हिंद को छोड़ दोगे?’
‘हां,छोड़ दूंगा.’
‘फिर क्या करोगे?’
‘कोई और काम कर लूंगा,परंतु सचाई को न छोड़ूंगा.’
‘पंडितजी! भूल रहे हो, अपना सब कुछ गंवा बैठोगे.’
‘परंतु सच तो बचा रहेगा, मैं यह चाहता हूं.’
लाला हशमतराय ने देखा कि अब और कहना निष्फल है. चुप होकर बैठ गए. इतने में ठाकुर हनुमंतराय के नौकर ने पंडित सर्वदयाल के हाथ में लिफ़ाफ़ा रख दिया. उन्होंने खोलकर पढ़ा और कहा,‘मुझे पहले ही आशा थी.’
लाला हशमतराय ने पूछा,‘क्या है? देखूं.’
‘त्यागपत्र स्वीकार हो गया.’

6
ठाकुर हनुमंतराय सिंह ने सोचा, यदि अब भी सफलता न हुई, तो नाक कट जाएगी. धनवान पुरुष थे, थैली का मुंह खोल दिया. सहृदय मित्र और लोलुप ख़ुशामदियों की सम्मति से कारीगर हलवाई बुलवाए गए और चूल्हे गर्म होने लगे. तांगे दौड़ने लगे और वोटों पर रुपए निछावर होने लगे. अब तक ठाकुर साहब का घमंडी सिर किसी बूढ़े के आगे भी न झुका था. परंतु इलेक्शन क्या आया, उनकी प्रकृति ही बदल गई. अब कंगाल से कंगाल आदमी भी मिलता, तो मोटर रोक लेते और हाथ जोड़कर नम्रता से कहते,‘कोई सेवा हो, तो आज्ञा दीजिए, मैं दास हूं.’ कदाचित् ठाकुर साहब का विचार था कि लोग इस प्रकार वश में हो जाएंगे. परंतु यह उनकी भूल थी. हां, जो लालची थे, वे दिन-रात ठाकुर साहब के घर मिठाइयां उड़ाते थे और मन में प्रार्थना करते थे कि काश, गवर्नमेंट नियम बदल दे और इलेक्शन हर तीसरे महीने हुआ करे.
परंतु लाला हशमतराय की ओर से न तो तांगा दौड़ता था, न लड्‌डू बंटते थे. हां दो-चार सभाएं अवश्य हुईं, जिनमें पंडित सर्वदयाल ने धारा-प्रवाह व्याख्यान दिए, और प्रत्येक रूप से यह सिद्ध करने का यत्न किया कि लाला हशमतराय से बढ़कर मेंबरी के लिए और कोई आदमी योग्य नहीं.
इलेक्शन का दिन आ पहुंचा. ठाकुर हनुमंतराय सिंह और लाला हशमतराय दोनों के हृदय धड़कने लगे, जिस प्रकार परीक्षा का परिणाम निकलते समय विद्यार्थी अधीर हो जाते हैं. दोपहर का समय था, पर्चियों की गिनती हो रही थी. ठाकुर हनुमंतराय के आदमी फूलों की मालाएं, विक्टोरिया बैंड और आतिशबाजी के गोले लेकर आए थे. उनको पूरा-पूरा विश्‍वास था कि ठाकुर साहब मेंबर बन जाएंगे और विश्‍वास का कारण भी था, क्योंकि ठाकुर साहब का पचीस हज़ार उठ चुका था. परंतु परिणाम निकला, तो उनकी तैयारियां धरी-धराई रह गईं. लाला हशमतराय के वोट अधिक थे.
इसके पंद्रहवें दिन पंडित सर्वदयाल रावलपिंडी को रवाना हुए. रात्रि का समय था, आकाश तारों से जगमगा रह था. इसी प्रकार की रात्रि थी, जब वे रावलपिंडी से अंबाले को आ रहे थे. किन्तु इस रात्रि और उस रात्रि में कितना अंतर था! तब हर्ष से उनका चेहरा लाल था, आज नेत्रों से उदासी टपक रही थी. भाग्य की बात, आज सूट भी वही पहना हुआ था, जो उस दिन था. उसी प्रकार कमरा ख़ाली था, और एक मुसाफ़िर एक कोने में पड़ा सो रहा था.
पंडित सर्वदयाल ने शीत से बचने के लिए, हाथ जेब में डाला, तो काग़ज का एक टुकड़ा निकल आया. देखा तो वही काग़ज था, जिसे वर्ष पहले उन्होंने बड़े चाव से लिखा था.
पंडित सर्वदयाल बी.ए., एडिटर ‘रफीक़ हिंद’, अंबाला
उस समय इसे देखकर आनंद की तरंगे उठी थीं, आज शोक आ गया. उन्होंने इसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए और कंबल ओढ़कर लेट गए, परंतु नींद न आई.

7
कैसी शोकजनक और हृदयद्रावी घटना है कि जिसकी योग्यता पर समाचार पत्रों के लेख निकलते हों, जिसकी वक्तॄताओं पर वग्मिता निछावर होती हो, जिसका सत्य स्वभाव अटल हो, उसको आजीविका चलाने के लिए केवल पांच सौ रुपये की पूंजी से दुकान करनी पड़े. निस्संदेह यह सभ्य समाज का दुर्भाग्य है!
पंडित सर्वदयाल को दफ़्तर की नौकरी से घृणा थी. और अब तो वे एक वर्ष एडिटर की कुर्सी पर बैठ चुके थे,‘हम और हमारी सम्मति’ का स्वाद चख चुके थे, इसलिए किसी नौकरी को मन न मानता था. कई समाचार पत्रों में प्रार्थना-पत्र भेजे, परंतु काम न मिला. विवश होकर उन्होंने दुकान खोली, परंतु दुकान चलाने के लिए जो चालें चली जाती हैं, जो झूठ बोले जाते हैं, जो अधिक से अधिक मूल्य बताकर उसको कम से कम कहा जाता है, इससे पंडित सर्वदयाल को घृणा थी. उनको मान इस बात का था कि मेरे यहां सच का सौदा है. परंतु संसार में इस सौदे के ग्राहक कितने हैं! उनके पिता उनसे लड़ते थे, झगड़ते थे. पंडित सर्वदयाल यह सब कुछ सहन करते थे और चुपचाप जीवन के दिन गुज़ारते जाते थे. उनकी आय इतनी न थी कि पहले की तरह तड़क-भड़क से रह सकें. इसलिए न कालर-नेकटाई लगाते थे, न पतलून पहनते थे. बालों में तेल डाले महीनों बीत जाते थे, परंतु उन्हें कोई चिंता न थी. घर में गाय रखी हुई थी, उसके लिए चारा काटते थे, सानी बनाते थे. कहार रखने की शक्ति न थी, अतः कुएं से पानी भी आप लाते थे. उनकी स्त्री चर्खा कातती थी, कपड़े सीती थी, और घर के अन्य काम-काज करती थी. और कभी-कभी लड़ने भी लगती थी. परंतु सर्वदयाल चुप रहते थे.
प्रातःकाल का समय था. पंडित सर्वदयाल अपनी दुकान पर बैठे ‘रफ़ीक हिंद’ का नवीन अंक देख रहे थे. जैसे एक माली सिर-तोड़ परिश्रम से फूलों की क्यारियां तैयार करे, और उनको कोई दूसरा माली नष्ट कर दे.
इतने में उनकी दुकान के सामने एक मोटरकार आकर रुकी और उसमें से ठाकुर हनुमंतराय सिंह उतरे. पंडित सर्वदयाल चौंक पड़े. ख़्याल आया-आंखे कैसे मिलाऊंगा. एक दिन वह था कि इनमें प्रेम का वास था, परंतु आज उसी रुथान पर लज्जा का निवास है.
ठाकुर हनुमंतराय ने पास आकर कहा,‘अहा! पंडितजी बैठे हैं. बहुत देर के बाद दर्शन हुए. कहिए क्या हाल है?’
पंडित सर्वदयाल ने धीरज से उत्तर दिया,‘अच्छा है. परमात्मा की कृपा है.’
‘यह दुकान अपनी है क्या?’
‘जी हां.’
‘कब खोली?’
‘आठ मास के लगभग हुए हैं.’
ठाकुर साहब ने उनको चुभती हुई दॄष्टि से देखा और कहा,‘यह काम आपकी योग्यता के अनुकूल नहीं है.’
पंडित सर्वदयाल ने बेपरवाई से उत्तर किया,‘संसार में बहुत से मनुष्य ऐसे हैं, जिनको वह करना पड़ता हैं, जो उनके योग्य नहीं होता. मैं भी उनमें से एक हूं.’
‘आमदनी अच्छी हो जाती है?’
पंडित सर्वदयाल उत्तर न दे सके. सोचने लगे, क्या कहूं. वास्तव में बात यह थी कि आमदनी बहुत ही थोड़ी थी परंतु इस सच्चाई को ठाकुर साहब के सम्मुख प्रकट करना उचित न समझा. जिसके सामने एक दिन गर्व से सिर ऊंचा किया था और मान-प्रतिष्ठा को पांव से ठुकरा दिया था. मानो मिट्टी तुच्छ ढेला हो, उनके सामने पश्‍चाताप न कर सके और यह कहना उचित न जान पड़ा कि हालत खराब है. सहसा उन्होंने सिर ऊंचा किया और धीर भाव से उत्तर दिया,‘निर्वाह हो रहा है.’
ठाकुर साहब दूसरे के हृदय को भांप लेने में बड़े चतुर थे. इन शब्दों से बहुत कुछ समझ गए. सोचने लगे, कैसा सूरमा है, जो जीवन के अंधकारमय क्षणों में भी सुमार्ग से इधर-उधर नहीं हटता. चोट पर चोट पड़ती है, परंतु हृदय सच के सौदे को नहीं छोड़ता. ऐसे ही पुरुष हैं, जो विपत्ति की तेज नदी में सिंह की तरह सीधे तैरते हैं, और अपनी आन पर धन और प्राण दोनों को निछावर कर देते हैं. ठाकुर साहब ने जोश से कहा,‘आप धन्य हैं!’
पंडित सर्वदयाल अभी तक यही समझे हुए थे कि ठाकुर साहब मुझे जलाने के लिए आए हैं, परंतु इन शब्दों से उनकी शंका दूर हो गई. अंधकार-आवृत्त आकाश में किरण चमक उठी. उन्होंने ठाकुर साहब के मुख की ओर देखा. वहां धीरता, प्रेम और लज्जा तथा पश्‍चाताप का रंग झलकता था. आशा ने निश्चय का स्थान लिया. सकुचाए हुए बोले,‘यह आपकी कृपा है! मैं तो ऐसा नहीं समझता.’
ठाकुर साहब अब न रह सके. उन्होंने पंडित सर्वदयाल को गले से लगा लिया और कहा,‘मैंने तुम पर बहुत अन्याय किया है. मुझे क्षमा कर दो. ‘रफ़ीक हिंद’ को संभालो, आज से मैं तुम्हें छोटा भाई समझता हूं. परमात्मा करे तुम पहले की तरह सच्चे, विश्‍वासी, न्यायप्रिय और दृढ़ बने रहो, मेरी यही कामना है.’
पंडित सर्वदयाल अवाक् रह गए. वे समझ न सके कि ये सच है. सचमुच ही भाग्य ने फिर पल्टा खाया है. आश्‍चर्य से ठाकुर साहब की और देखने लगे.
ठाकुर साहब ने कथन को जारी रखते हुए कहा,‘मैंने हज़ारों मनुष्य देखे हैं, जो कर्तव्य और धर्म पर दिन-रात लेक्चर देते नहीं थकते, परंतु जब परीक्षा का समय आता है, तो सब कुछ भूल जाते हैं. एक तुम हो, जिसने इस जादू पर विजय प्राप्त की है. उस दिन तुमने मेरी बात रद्द कर दी, लेकिन आज यह न होगा. तुम्‍हारी दुकान पर बैठा हूं, जब तक हां न कहोगे, तब तक यहां से नहीं हिलूंगा.’
पंडित सर्वदयाल की आंखों में आंसू झलकने लगे. गर्व ने गर्दन झुका दी. तब ठाकुर साहब ने सौ-सौ के दस नोट बटुए में से निकाल कर उनके हाथ में दिए और कहा,‘यह तुम्‍हारे साहस का पुरस्कार है. तुम्हें इसे स्वीकार करना होगा.’
पंडित सर्वदयाल अस्वीकार न कर सके.
ठाकुर हनुमंतराय जब मोटर में बैठे, तो पुलकित नेत्रों में आनंद का नीर झलकता था, मानो कोई निधि हाथ लग गई हो. उनके साथ एक अंग्रेज़ मित्र बैठा था, उसने पूछा,‘वेल, ठाकुर साहब. इस दुकान में क्या ठा टुम डेर खड़ा मांगटा.’
‘वह चीज़ जो किसी भी दुकान पर नहीं.’
‘कौन-सा ?’
‘सच का सौदा!’
परंतु अंग्रेज़ इससे कुछ न समझ सका.
मोटर चलने लगी.

Illustrations: Pinterest

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