• होम पेज
  • टीम अफ़लातून
No Result
View All Result
डोनेट
ओए अफ़लातून
  • सुर्ख़ियों में
    • ख़बरें
    • चेहरे
    • नज़रिया
  • हेल्थ
    • डायट
    • फ़िटनेस
    • मेंटल हेल्थ
  • रिलेशनशिप
    • पैरेंटिंग
    • प्यार-परिवार
    • एक्सपर्ट सलाह
  • बुक क्लब
    • क्लासिक कहानियां
    • नई कहानियां
    • कविताएं
    • समीक्षा
  • लाइफ़स्टाइल
    • करियर-मनी
    • ट्रैवल
    • होम डेकोर-अप्लाएंसेस
    • धर्म
  • ज़ायका
    • रेसिपी
    • फ़ूड प्लस
    • न्यूज़-रिव्यूज़
  • ओए हीरो
    • मुलाक़ात
    • शख़्सियत
    • मेरी डायरी
  • ब्यूटी
    • हेयर-स्किन
    • मेकअप मंत्र
    • ब्यूटी न्यूज़
  • फ़ैशन
    • न्यू ट्रेंड्स
    • स्टाइल टिप्स
    • फ़ैशन न्यूज़
  • ओए एंटरटेन्मेंट
    • न्यूज़
    • रिव्यूज़
    • इंटरव्यूज़
    • फ़ीचर
  • वीडियो-पॉडकास्ट
  • लेखक
ओए अफ़लातून
Home बुक क्लब क्लासिक कहानियां

सफ़ेद सड़क: कहानी दो मुल्कों, दो नज़रियों की (लेखक: कमलेश्वर)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
September 7, 2023
in क्लासिक कहानियां, ज़रूर पढ़ें, बुक क्लब
A A
Safed-sadak
Share on FacebookShare on Twitter

एक जर्मन लड़की और हिंदुस्तानी लड़के की रोचक बातचीत. जो धर्म और राष्ट्रवाद को एक नए नज़रिए से देखने के लिए प्रेरित करती है.

सुबह खिड़की के कांच पर भाप जमी थी. भीतर से साफ़ करना चाहा तो बाहर पानी की लकीरें नरम बर्फ की परत जमी रहीं. फिर भी कुछ-कुछ दिखाई देता था. ट्रेन किसी मोड़ पर थी. उसके कूल्हे पर ख़ूबसूरत खम पड़ रहा था. नर्तकी की मुद्रा की तरह. मैं बाहर झांक रहा था…. कुछ देखने के लिए. तभी अपने कुशेट से उठकर जून मेरी पीठ पर अधलेटी होकर चिपक गयी. उसकी रेशमी बांहों ने मेरी बगलों के गलियारे घेर लिए थे. उसके ओठों ने चम्पा के फूल की भीगी पत्तियों की तरह स्पर्श किया और धीरे से कहा नमस्ते! नमस्ते! वह ‘नमस्टे’ ही बोल पाती थी.
‘‘बाहर क्या है, जो देख रहे हो?’’ जून ने पूछा.
‘‘बाहर सर्दी उतर रही है!’’ मैंने कहा.
‘‘हां….यही तो मुश्किल है. सर्दी आते ही मधुमक्खियां चली जाती हैं. तुम भी चले जाओगे…’’ जून ने कहा.
मेरे पास कोई उत्तर नहीं था. उसे भी शायद किसी उत्तर की ज़रूरत नहीं थी. वह मेरे कुशेट में ही अधलेटी होकर साथ-साथ बाहर देखने लगी. खेतों पर, घास पर नंगे पेड़ों की शाखों पर गुज़रते जंगलों और आंख चुराकर पीछे भागती पहाड़ियों पर उनकी गोद और घरों की ढलवां छतों पर सफ़ेद चने की हलकी परत पडी हुई थी. नदी के पानी से भाप उठ रही थी. नंगे काले पेड़ों की टहनियों पर बर्फ की सफ़ेद झालरें लटकी हुई थीं. छितरी-छितरी!
‘‘तुम्हारी अयोध्या में बर्फ पड़ती है?’’ जून ने पूछा था.
‘‘नहीं!…..’’ मैंने कहा था. जून अयोध्या को अयोधा ही पुकार पाती थी.
‘‘पर तुम्हारे देश में सफ़ेद बजरी वाली सड़कें तो नहीं हैं?’’ जून ने बड़ी आसानी से पूछा था. पर इस बात को मैं समझ नहीं पाया था. इसका सन्दर्भ क्या था….सफ़ेद बजरी वाली सड़कें! सफ़ेद बजरी वाली सड़कें! आखिर इसका मतलब क्या था?
लेकिन जून की चेतना में सफ़ेद बजरी वाली सड़के अटकी हुई थी. क्योंकि उसे उसकी असलियत का पता था.
हुआ यह था कि बॉन के बाहरी इलाके में काफी दूर, हम एक म्यूज़ियम देखने पहुंचे थे. तभी भी जून साथ थी. यह बात एक वॉर मेमोरियल था म्यूज़ियम से ज़्यादा वह क़ब्रिस्तान था…जहां दूसरे विश्व-युद्ध के शवों को दफ़नाया गया था. प्रहरी की तरह एक प्रोटेस्टेण्ट चर्च भी वहां मौजूद था. उसमें ताला पड़ा था. कोई पादरी या कीपर वहां नहीं था.
और जब मैं उस स्मारक को देखने के लिए आगे बढ़ने लगा था तो सफ़ेद बजरी की सड़क देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा था. कितनी ख़ूबसूरत थी सफ़ेद बजरी वाली सड़क! भारत की गेरुआ-नारंगी बजरी से अलग….और इससे पहले कि मैं उस सड़क पर क़दम रखता जून दौड़ती आयी थी. उसने मुझे दोनों बांहों से पकड़कर एक तरफ़ खींच लिया और चीखी थी,‘‘आगे क़दम नहीं बढ़ाओगे तुम! ’’
‘‘क्यों, क्या हुआ?’’
जून लगभग कांप रही थी. वह मुझे बांहों में पकड़े पागलों की तरह देख रही थी,
‘‘तुम्हें पता है….यह क्या है?’’
‘‘क्या! क्या है?’’
‘‘यह सफ़ेद बजरी वाला रास्ता….यह सड़क……’’
‘‘यह तो बहुत सुन्दर सड़क है!’’
‘‘लेकिन तुम इस पर पैर नहीं रखोगे!’’ जून ने बहुत अधिकार से कहा था और मुझे अपने शरीर के साथ जकड़ लिया था. इस पल उसके शरीर में वह ऊष्मा नहीं थी, जिससे मैं परिचित था. उसके शरीर में भयानक प्रतिरोध था.
‘‘लेकिन बात क्या है जून?’’ मैंने उसे कन्धों से भरते हुए पूछा था ‘‘यह रास्ता यह सड़क….सफ़ेद बजरी तो बड़ी खूबसूरत लग रही है….हमारे यहां ऐसी बजरी नहीं होती. अगर होती भी है तो मटमैली, गेरुआ या नारंगी बजरी होती है….’’
‘‘वह बहुत खूबसूरत होगी….तुम बहुत खुशनसीब हो! यह तो बेहद मनहूस और बदसूरत बजरी है…..क्या तुम्हें मालूम नहीं?’’ जून ने लगभग चीखते हुए पूछा था, ‘‘क्या तुम्हें मालूम नहीं?’’
‘‘नहीं!’’
‘‘देन लेट बी कर्स ऑन यू ….बट.,..सॉरी…..मैं तुम्हें शाप कैसे दे सकती हूं, क्योंकि तुम तो मासूम हो!’’ कहते हुए जून की आंखों में तरलता तैर गयी थी.
‘‘जून डार्लिंग! पहेलियां मत बुझाओ, तुम कहना क्या चाहती हो?’’ मैंने उसे बेबसी से देखते हुए कहा था, क्योंकि वह एक भारतीय लड़की की तरह ही बहुत समर्पित और वीतराग लड़की थी.
‘‘मुझे मालूम है कि तुम्हें नहीं मालूम…यह, सफ़ेद बजरी सड़क बेकसूर मासूम लोगों की हड्डियों के चूरे से मिलकर बनी है जिन्हें नाज़ियों ने गैस चैम्बर्स में मारा था….उन्हीं की हड्डियों की यह बजरी है!….क्या तुम इस सड़क पर चलना चाहोगे?’’ जून ने वेधती आंखों से देखते हुए पूछा था.
तब मेरे दिमाग की धुर्रियां उड़ गयी थीं….मैं सहम गया था….नाज़ियों की नृशंसता के शिकार करोड़ों लोगों की हड्डियों की बजरी वाली सफ़ेद सड़क!…जो कब्रिस्तान तक पहुंचाती थी. जहां एक प्रोटेस्टेण्ट चर्च ताला बन्द किये खड़ा था. सन्नाटा और भयानक शून्य.
लगभग वैसा ही सन्नाटा हमारे बीच छा गया था. ट्रेन का कुशेट तो गर्म था और जून के शरीर की गर्मी भी यथावत थी पर उस सड़क ध्यान आते ही मैं भीतर से ठण्डा पड़ गया था. मेरी इस तरह की मनःस्थिति को जून अच्छी तरह समझने लग गयी थी. उसने धीरे से मेरे ऊपर करते हुए कहा था, ‘‘तुम परेशान हो गये? मुझे मालूम है तुम्हें कुछ याद आया है…’’
तुम भी परेशान हो मुझे अच्छी तरह मालूम है! तुम्हीं ने तो बताया था कि तुम्हारे देश में नाजी शक्तियां बहुत प्रबल हो रही हैं….कि उन्होंने अयोधा की मस्जिद को गिरा दिया है…
क्या तुम्हारे यहां भी हजारों-लाखों लोग मारे गये हैं, मैंने तो उसी की वजह से पूछा था कि क्या तुम्हारे देश में भी सफ़ेद बजरी वाले रास्ते हैं मैं तुम्हें परेशान नहीं करना चाहती थी. सर्दी उतर आई है मुझे मालूम है कि अब तुम्हें अपने देश लौटना है….सुनो कोई बोझ लेकर मत जाओ. तुम भी मधुमक्खियों की तरह बिना बताये चले जाओ…सर्दी आ गयी है न…’’ कहते हुए जून ने दूसरी तरफ देखना शुरू कर दिया था. उसकी आंखों में पानी की परत थी. नूरेमबर्ग स्टेशन शायद आनेवाला था.
मैंने जून की ओर देखा. जून ने मेरी ओर. लगा कि वह मुझे ठीक से देख नहीं पा रही थी…मैं भी उसे ठीक से नहीं देख पा रहा था. उसने कई बार पलक झपकाकर उनसे वाइपर का काम लिया था. और तब मैंने आहिस्ता से उसे बांहों में समेट लिया था. मेरे लिए उसका चेहरा अब पानी की सतह के नीचे था. मैंने उससे पूछा था-
‘‘जून! तुम किस नदी में हो?’’
‘‘राइन में!’’ और वह धीरे से मुस्करा दी थी. उसके ओठ हल्की लहरों की तरह थरथराये थे, जैसे राइन के पानी को हवा के हाथ ने धीरे से छू लिया हो. ‘तुम किस नदीं में हो?’ यह सवाल अब तक हमारे नितान्त आत्मीय क्षणों का गवाह बन चुका था. जब भी हमारी आंखों में सुख या दुःख का पानी भर आता था, तब हम यही सवाल एक दूसरे से पूछते थे.
‘‘तुम किस नदीं में हो?’’ जून ने पूछा था.
‘‘गंगा में!’’
हम अब एक-दूसरे में समाये हुए थे. ट्रेन रुकी. चम्पा की भीगी पंखुड़ियां सिकुड़कर अगल हो गयीं. खिड़की में एक पेण्टिंग समा गयी. पतझड़ था. मौसम की पहली बर्फ पीछे छूट गयी थी. सामने एक नंगा पेड़ खड़ा था. कुछ पत्तियां अभी भी उसमें लगी हुई थीं. बाहर हवा चली, तो पेड़ पर बैठी पत्तियां चिड़ियों के बच्चों की तरह शाखों से उड़ीं और नीचे बिछे पीले कार्पेट पर आकर बैठ गयीं. हम दोनों ने चिड़ियों के उन बच्चों को साथ-साथ देखा.
‘‘आंसू हमेशा साथ देते हैं….अन्त तक….’’ जून ने फिर वही वाक्य बोला जो वह बॉन में बोली थी. तब हम बॉन में गंगा की तरह बहती राइन नदी के तट पर खड़े थे, कैनेड़ी ब्रूक….,उस छोटे-से पुल के नीचे. मुंसतर प्लाज़ के पास, जहां बायीं ओर वाली गली में बीथोवन का घर है. दूसरे तट पर मोटर बोट्स खड़ी थीं.
‘‘पता है…..फ्रैंकफ्रर्त के पास राइन एक बहुत पतली घाटी से गुजरती है. उस पतली-पथरीली घाटी में बीथोवन का उदास संगीत हमेशा गूँजता रहता है और एक लड़की उस शान्त एकान्त में हमेशा गाती रहती है….वह अपने एकान्त में खलल पसन्द नहीं करती…इसलिए जो नावें वहां जाती हैं….पथरीली चट्टानों से टकराकर टूट जाती हैं!’’
‘‘तुम इन दन्त कथाओं में विश्वास करती हो जून?’’
‘‘हां! कम-से-कम दन्त कथाएं इतिहास से तो बेहतर हैं. इतिहास हमें डराता है.
तुम अयोधा से नहीं डरते?’’ जून ने बड़ा तीखा सवाल किया था.
‘‘थोड़ा-थोड़ा!’’ मैंने कहा था.
‘‘खैर छोड़ो.’’ कहकर जून ने अपनी बांह मेरी बांह में उलझा दी थी और वहां से बॉन विश्वविद्यालय की ओर ले गयी थी.
‘‘तुम्हें बताऊं?’’
‘‘क्या?’’
‘‘मैं इसी विश्वविद्यालय में पढ़ी हूं… पिंक हाउस से लेकर यहां का पूरा इलाका दूसरे-विश्व युद्ध में ध्वस्त हो गया था. यह बॉन यूनिवर्सिटी भी. मेरी मां तब इन खंडहरों में पढ़ने आती थी. उसी ने बताया था कि तब हर विद्यार्थी के लिए आवश्यक था कि पत्थर की ईंट बनाए. मेरी मां ने भी एक ईंट बनायी थी. वह इमारत में जरूर कहीं लगी होगी….लेकिन इमारतें खड़ी हो जाने के बाद भी खंडहर दिखाई देते रहते हैं….नहीं!’’ कहकर जून खामोश हो गयी थी.
अयोध्या की बाबरी मस्जिद का खंडहर तब मेरे सामने तैरने लगा था….चारों तरफ पत्थर की ईटों का मलबा बिखरा पड़ा था, जैसै वहां बमबारी हो चुकी हो.
ट्रेन कब चल पड़ी थी और कब नूरेमबर्ग स्टेशन आ गया था, पता नहीं चला. ‘‘यहां से इन्साफ की कुछ आवाजें आती हैं, इस शहर में बर्बरता का उत्तर दिया था!’’ जून ने मेरी बाहों में दस्तक देते हुए कहा, तब समझ में आया कि हमारी ट्रेन नूरेमबर्ग स्टेशन पर खडी़ है.
‘‘हां! बर्बरता की तरह इन्साफ भी कभी–कभी बहुत बर्बर होता है!….’’ यह एक और आवाज थी जो जून की बात का उत्तर बनकर आयी थी.
सामने देखा तो एक यात्री सामान रखकर बैठ चुका था. उसने बिना किसी औपचारिकता से अपना परिचय दिया, ‘‘मैं डेविड मोर्स हूं. मैं तेहरान और अजरबेज़ान में पहले अँग्रेजी पढ़ाता था. अब अपना देश छोड़कर आस्ट्रिया में बस गया हूं आप लोग भी शायद विएना ही चल रहे हैं!’’
‘‘हां!’’
और जब ट्रेन ने नूरेमबर्ग छोड़ा तो बातें डेविड से ही होने लगीं. जून ने उससे पूछा था, ‘‘आपने अपना मुल्क क्यों छोड़ दिया?’’
‘‘क्योंकि हम इन्सान का इन्तजार करते रहे?….हमने अपने देश की बर्बरता का मुकाबला बहुत देर से किया. यही तो जर्मनी में हुआ था. हिटलर का नूरेमबर्ग नहीं हैं. हिटलर तो एक घटना बनकर आया था., बर्बर विचार तो उससे पहले आ गये थे….हमारे देश में भी तेहरान, शीराज़, इस्फहान.. तरबेज़ के लेखकों, पत्रकारों और प्राध्यापकों ने देरी कर दी. इसलिए तो जमाल सादेह, सादिक हिदायत बोजोर्ग जलवी जैसे लेखकों को देश छोड़कर भागना पड़ा था. फिर भी उनकी वर्जित किताबें चोरी-छुपे ईरान में पहुंचती रहीं लेकिन किताबें अकेले तो नहीं लड़ सकती!’’
अभी यह बातें चल रही थीं कि ट्रेन की रफ्तार धीमी पड़ने लगी.
‘‘पासान!’’ जून बोली.
‘‘मतलब!’’
‘‘बॉर्डर.’’
ट्रेन रुकते ही टिकट, पासपोर्ट, वीज़ा और कस्टम कण्ट्रोल वाले आ गये. चैकिंग शुरू हुई तो जून मुझसे और सटकर बैठ गयी. जून का पासपोर्ट चैक करते हुए कण्ट्रोल वालों में कोई खास उत्सुकता नहीं दिखायी, क्योंकि वह आस्ट्रेलिया की ही थी. मेरा पासपोर्ट चेक किया तो उसने पूछा—
‘‘इन्दियन!’’
‘‘हां.’’
‘‘मोहम्मदीन!’’
‘‘यस….इण्डियन मुस्लिम! इण्डियन मोहम्दीन!’’
‘‘मैरिड!’’
‘‘नो…’’
‘‘नो वाइफ!’’ इशारा जून की तरफ था- ‘‘निख्त गूद….यह अच्छा नहीं है…..या…’’
मैं समझ नहीं पा रहा था कि वह इस स्थिति को अच्छा बता रहा था या बुरा. पर वह बोलता जा रहा था- निख्त दिमोक्रातीक दोइचलैन्द….निख्त काफे….बेलकम आस्त्रिया!’’ उसकी बातों पर जून धीरे–धीरे मुस्करा रही थी, तो लग रहा था कि कन्ट्रोल वाला कुछ अच्छा ही बोल रहा है. चैकिंग के बाद जून ने ही बताया, वह कह रहा था-जर्मनी में डेमोक्रेसी नही है, पीने के लिए अच्छी कॉफी भी वहां नहीं मिलती. आस्ट्रिया में तुम्हारा स्वागत है!
लिंज़ क्रास करते हुए जब हम विएना पहुंचे, तब तक शाम हो चुकी थी. डेविड वैस्ट वॉनहोफ स्टेशन पर उतरते ही अलविदा कहके चला गया था. यारगासे में जून का घर था., कमरे में पहुंचते ही वह मुझ पर बेल की तरह छा गयी. साँसों को जब रास्ता मिला तो मैंने उसकी आंखों में झांकते हुए पूछा था-
‘‘तुम किस नदी में हो?’’
‘‘डैन्यूब में!…..तुम किस नदी में हो?’’
‘‘सरयू में! डैन्यूब कहां है जून?’’
‘‘डैन्यूब विएना शहर से बाहर बहती है….बीच शहर में डैन्यूब नहर अब बहने लगी है…तुम किस नदी का नाम ले रहे थे?’’ जून ने पूछा था.
‘‘सरयू का.’’
‘‘वह कहां बहती है?’’
‘‘अयोध्या में!’’
‘‘तुम तो नदी में नहाते हो?’’
‘‘हां.’’
‘‘कोई तुम्हें रोकता नहीं…?’’
‘‘रोकेगा कौन…सरयू हमरे देश की नदी है!’’ आदतन ‘हमरे देस’ निकल ही गया था. जून वैसे भी अवधी के इस आकस्मिक फर्क को क्या समझती. मैंने उसे अंग्रेजी में दोहरा दिया था.
‘‘तुम उस मस्जिद के खंडहर से गुजरते हो?’’
‘‘नहीं वह मेरे रास्ते में नहीं पड़ता. वैसे भी जून हमारी सभ्यता बहुत पुरानी है…..बहुत से धर्मों-पन्थों के खंडहर हमारे यहां पड़े हैं.’’
‘‘खंडहरों में से ही नाज़ी निकलते हैं….सावधान रहना!’’ फिर गहरी सांस लेकर उदास होते हुए उसने कहा था. ‘‘मेरी तो दादी हंगेरियन थी और मेरे दादा यहूदी….पर वे ईसाई हो गये थे. प्रोटेस्टेण्ड ईसाई…..पता नहीं हिटलर के किस यातना शिविर में उसकी मौत हुई….. वे तब पादरी थे….और तो कुछ नहीं बचा …..सिर्फ उनकी एक डायरी हमारे पास है…तुम्हें दिखाऊं?’’ जून ने कहा.
‘‘दिखाओ!’’
‘‘अच्छा दिखाऊंगी……कल ही ऑल सेण्ट्स डे है और कल ही तुम चले जाओगे…सिर्फ आज की रात बाकी है….चलो घुमा लाऊं.’’
‘‘कहां?’’
‘‘ग्रिंजिर! वहां इसी साल की वाइन मिलती है! चलें!’’
यारगासे में जून के घर के पीछे ही पुराना राजमहल था. हम कमर में बांहें डाले निकल पड़े. डैन्यूब नहर के किनारे-किनारे. पापलर के नंगे पेड़ सन्तों की तरह ख़ड़े थे….अंधेरा तो था पर पतझड़ के कारण काफी दूर बहुत कुछ साफ-साफ दिखाई देता था. छोटी नदी विएन भी मिली. अंगूरी पानी की नदी. वह बहुत व्याकुल थी. राइन और गंगा की तरह शान्त नहीं.
‘‘जून!’’
‘‘हां!’’
‘‘यह विएन नदी इतना क्यों अकुला रही है?’’
‘‘सर्दी उतरने से पहले यह हमेशा ऐसे ही अकुलाती है….शायद मेरी तरह!’’ कहते हुए जून ठिठककर खड़ी हो गयी थी. मैं उसे कन्धों से घेरकर खड़ा हो गया. पता नहीं कितनी देर हम लोग मूर्तियों की तरह निश्चल खड़े रहे-मूर्तियों के उस राजमहल के आगे जहां गेटे और शिलर की मूर्तियां लगी थीं, वहां से उन्होंने आंख खोलकर हमें देखा था…कोहरे का धुआं हमारे चारों ओर भरा था. तभी एक गाड़ी गुजरी थी उसमें बैठा परिवार जलती मोमबत्तियां लेकर गुजरा तो पत्थर-प्रतिमाओं की तरह एक दूसरे में आबद्ध हम एकाएक सांस लेने लगे थे.
‘‘जलती मोमबत्तियां लेकर ये कहां जा रहे हैं?’’ मैंने जून से पूछा था.
‘‘कब्रिस्तान जा रहे है आज वीकेण्ड है. आज लोग मृत सम्बन्धियों की कब्रों पर फूल चढ़ाने और मोमबत्तियां जलाने अपने-अपने कब्रितान में जाएंगे.’’ जून ने बताया था.
‘‘अपने-अपने कब्रिस्तान में!’’
‘‘क्यों? सबका अपना-अपना कब्रिस्तान होता है! नहीं?’’
‘‘तुम्हारे दादा-दादी का कहां है?’’
‘‘पता नहीं!’’ कुछ पलों के लिए हमारे बीच खामोशी छा गयी थी.
‘‘ग्रिंजिर पहुंचकर हम बहुत-सी बातों को भूल जाएंगे..’’ कहकर उसने मुझे पकड़ा और दूसरी सड़क पर ले आयी थी. वहीं पुराने राजमहल के पास से हमने इकहत्तर नम्बर ट्राम पकड़ी थी-‘‘लेकिन पहले किसी कब्रिस्तान में हो लें….जिन्हें भी याद करना है, उन्हें पहले याद कर लें. आओ…
ट्राम खचाखच भरी थी. और ट्रामें भी. लगता था पूरा विएना अपने मृतकों को याद करने के लिए निकल पड़ा है. यह पितरों के तर्पण का दिन है. कब्रों पर फूल चढ़ाने और गिरजों में मोमबत्तियां जलाने का दिन!
बड़े कब्रिस्तान में पहुंचकर जून ने एक अलग खड़े क्रास पर फूल भी चढ़ाये थे और दो मोमबत्तियां भी जलायी थीं.
“आज सोना नहीं है?” कब्रिस्तान से हम चले तो मैंने जून से पूछा.
“आज तो जागने की रात है…कल तो तुम चले जाओगे…अब ग्रिंजिर… ” जून ने कहा, “वहां रौनक होगी.’!
और ग्रिंजिर के इलाके में सचमुच बहुत गैनक थी. सैकड़ों पब. इस साल की वाइन के. पबों के पीछे अंगूरों की लताएं. सड़कों पर सैकड़ों कारें और हजारों लोग.
“यहां बीथोवन भी कभी रहता था…” जून ने बताया और मेरा हाथ पकड़े हुए वह एक पब में घुस गयी. लकड़ी की मेजें और बेंचें. माहौल एकदम घरेलू. निशानी के तौर पर बाक्सर्स अपने ग्लब्ज लटका गये थे. सौ-सौ शिलिंग के नोटों पर हस्ताक्षर करके कुछ लोग उन्हें चिपका गये थे. लकड़ी की दीवारों पर बड़े-बड़े हस्ताक्षर कर गये थे.
सामने ब्रेड थी, पोर्क, सलामी, हैम, बीफ और डक…सिरके में भीगे खीरे और हरी मिर्चें. मैंने डक का एक टुकड़ा उठा लिया.
“क्यों, बीफ भी नहीं!”
“नहीं…आखिर हिन्दुस्तानी हूं…मन भी नहीं करता…अच्छा भी नहीं लगता!’’
और वाइन का प्याला उठाते हुए मैंने कहा, ”चीयर्स!” वाइन हल्की गरम थी. तो जून ने पास खिसककर बहुत गहराई से भरपूर प्यार किया था और बोली थी–
“वेनीस!’’
‘‘हां वेनीस…कल जाऊंगा, फिर वहां से अपने देश!”
“तुम्हें वेनीस का मतलब शायद नहीं मालूम…” जून ने एक बार फिर भरपूर प्यार करके रुकते हुए बताया, “वेनीस का अर्थ होता है, फिर मिलेंगे!”
और ‘फिर मिलेंगे’ के सहारे ही सारी रात बीत गयी. पहले पब की लकड़ी की दीवार की सेंधों से कोहरे की धुन्ध आयी, फिर सामने के दरवाजे से आकर कोहरे ने हमें लपेट लिया. कोहरे के बाद हल्की रोशनी आयी. गुनगुनी वाइन के आखिरी घूंट के बाद हम बाहर निकले. रात वाली कारों की भीड़ छितरा चुकी थी. कोहरे और धुन्ध के बादल पापलर के नंगे दरख्तों और अंगूर की बेलों में उलझे हुए थे. कुछ हवा चलती तो कोहरे के टुकड़े खरगोशों की तरह भागने लगते. सड़क नम थी. सारी रात जागने के बावजूद जून के ओठ नम थे. उसकी हथेलियां वाइन की तरह गुनगुनी थीं.
हमें पैदल ही जाना था. विएनावासी अपने कुत्तों को सड़कों पर टहलाकर लौट चुके थे. अब चौड़ी-पतली सड़कें धोयी जा रही थीं. बड़ी-बड़ी गॉथिक इमारतों को रोशनी में पसीजते कोहरे की कपास साफ कर रही थी.
एक शानदार इमारत के सामने रुककर जून ने कहा, “यह इम्पीरियल होटल है. दूसरे विश्वयुद्ध से पहले हिटलर आस्ट्रिया आया था. इसी होटल में ठहरा था…’’
“तुम हिटलर के बारे में क्या सोचती हो जून?’’
“एक तरह से सोचें तो उसका राष्ट्रवाद ही भयानक था, अपने उग्र राष्ट्रवादी प्रवाह की लपेट में वह भयंकर दोषों का शिकार होता गया…उसने जातीयता, नस्‍लवाद और संकीर्णता का दामन थाम लिया…युद्ध की मानसिकता ने तभी उसे घेर लिया था और वह निरंकुश हो गया था. सारा योरुप उसके डर से कांपने लगा था…तुमने भी तो शायद कहा था कि तुम्हें अपने देश में उदित होते नाज़ीवाद…उस हिन्दूवाद से डर लगता है!’’
“हां! थोड़ा-बहुत…लेकिन वह डर उतना बड़ा नहीं है…और अच्छी बात यह है कि उस डर, उस हिन्दूवाद से हमारा हिन्दू ही लड़ रहा है!” मैंने कहा था.
“यह सोचकर तब शायद तुम भी वही गलती कर रहे हो, जो मेरे दादा पादरी मार्टिन ने की थी!” घर का दरवाजा खोलते हुए जून बोली थी, ”इसी बात से याद आया, मैं तुम्हें दादा की डायरी दिखाना चाहती थी…वह डायरी उनकी आखिरी निशानी है…
हम भीतर घुसे तो सामने दीवार पर लटकी घड़ी मेरी रवानगी के वक्‍त का ऐलान कर रही थी. मैंने कहा-जून! वक्‍त हो गया है!
हां, चलते हैं…स्टेशन बहुत दूर नहीं है…कहते हुए वह अंदर चली गई. कुछ देर बाद लौटी तो धब्बेदार मुड़ी-तुड़ी डायरी उसके हाथों में थी.
यही है दादाजी की डायरी! मैंने पूछा.
हां! जर्मन में है…धीरे-धीरे पन्‍ने पलटते हुए वह बोली-उन्होंने बहुत-सी बातें लिखी हैं, पर मैं तुम्हें एक पन्‍ना जरूर दिखाना चाहती हूं…हां यह…मैं इसका अनुवाद कर दूंगी-सुनो-
दादा ने लिखा है, पहले वे यहूदियों के लिए आए. मैं नहीं बोला क्योंकि मैं धर्म बदलकर ईसाई बन चुका था. फिर वे कम्युनिस्टों के लिए आए, मैं चुप रहा क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था. तब वे ट्रेड-यूनियन वालों के लिए आए, मेरे पास चुप रहने का बहाना था, क्योंकि मैं ट्रेड-यूनियन वाला नहीं था. फिर वे कैथोलिक ईसाइयों के लिए आए, मैं ख़ामोश रहा, क्योंकि मैं ईसाई तो था, पर कैथोलिक नहीं था. अंत में जब वे मेरे लिए आए, तब तक किसी के पक्ष में बोलने वाला कोई नहीं बचा था-कोई नहीं बचा था-
हमारे बीच सन्‍नाटा-सा छा गया. उस सन्‍नाटे को तोड़ने के लिए थोड़ी बहुत बातें करते हुए हम स्टेशन आ गए.
ट्रेन चलने से पहले जून बोली-
दादा के बाद और सारी बातें कितनी छोटी लगती हैं. पता नहीं, उनकी बजरी किस रास्ते पर पड़ी होगी-
ट्रेन चली तो उसने हाथ मिलाया-वेनीस!
वेनीस! मैंने उसे बहुत गहरी नजरों से देखा. उसने भी मुझे वेधती आंखों से देखा. उसकी और मेरी आंखों को अब सिर्फ एक सफ़ेद सड़क जोड़ रही थी. सफ़ेद बजरी वाली सड़क.
ट्रेन भागती जा रही थी. बल्कान एक्सप्रेस. पहाड़ियों और घाटियों को पीछे छोड़ती, कंक्रीट की पहाड़ियां, बीच-बीच में पतझड़ी रंगों की ठिंगनी झाड़ियां-वाइंस के खेत. खेतों की पीली मिट्टी. आतिशबाजी के अनारों की तरह फूटते हुए पापलर के पेड़. मक्का के सूखे खेत. पत्तागोभी की बाड़ियां. घरों के पिछवाड़े नारंगी और संतरों के पेड़-पहाड़ियों और बस्तियों से गुजरती गलियां, पतले रास्ते और सड़कें. सब कुछ था, पर मेरी और जून की आंखों को जोड़ती सफ़ेद सड़क रह-रहकर दिखाई पड़ जाती थी-सारी प्रकृति पीछे छूटती जाती थी पर वह सड़क पीछा नहीं छोड़ रही थी.

Illustration: Pinterest

इन्हें भीपढ़ें

grok-reply-1

मामला गर्म है: ग्रोक और ग्रोक नज़र में औरंगज़ेब

March 24, 2025
इस दर्दनाक दौर की तुमको ख़बर नहीं है: शकील अहमद की ग़ज़ल

इस दर्दनाक दौर की तुमको ख़बर नहीं है: शकील अहमद की ग़ज़ल

February 27, 2025
फटी एड़ियों वाली स्त्री का सौंदर्य: अरुण चन्द्र रॉय की कविता

फटी एड़ियों वाली स्त्री का सौंदर्य: अरुण चन्द्र रॉय की कविता

January 1, 2025
democratic-king

कहावत में छुपी आज के लोकतंत्र की कहानी

October 14, 2024
Tags: Famous writers’ storyHindi KahaniHindi StoryHindi writersKahaniKamleshwarKamleshwar ki kahaniKamleshwar ki kahani Safed SadakKamleshwar storiesSafed SadakUrdu Writersउर्दू के लेखक कमलेश्वर की कहानी मांस का दरियाकमलेश्वरकमलेश्वर की कहानियांकमलेश्वर की कहानीकहानीमशहूर लेखकों की कहानीसफ़ेद सड़कहिंदी कहानीहिंदी के लेखकहिंदी स्टोरी
टीम अफ़लातून

टीम अफ़लातून

हिंदी में स्तरीय और सामयिक आलेखों को हम आपके लिए संजो रहे हैं, ताकि आप अपनी भाषा में लाइफ़स्टाइल से जुड़ी नई बातों को नए नज़रिए से जान और समझ सकें. इस काम में हमें सहयोग करने के लिए डोनेट करें.

Related Posts

Butterfly
ज़रूर पढ़ें

तितलियों की सुंदरता बनाए रखें, दुनिया सुंदर बनी रहेगी

October 4, 2024
त्रास: दुर्घटना के बाद का त्रास (लेखक: भीष्म साहनी)
क्लासिक कहानियां

त्रास: दुर्घटना के बाद का त्रास (लेखक: भीष्म साहनी)

October 2, 2024
ktm
ख़बरें

केरल ट्रैवल मार्ट- एक अनूठा प्रदर्शन हुआ संपन्न

September 30, 2024
Facebook Twitter Instagram Youtube
Oye Aflatoon Logo

हर वह शख़्स फिर चाहे वह महिला हो या पुरुष ‘अफ़लातून’ ही है, जो जीवन को अपने शर्तों पर जीने का ख़्वाब देखता है, उसे पूरा करने का जज़्बा रखता है और इसके लिए प्रयास करता है. जीवन की शर्तें आपकी और उन शर्तों पर चलने का हुनर सिखाने वालों की कहानियां ओए अफ़लातून की. जीवन के अलग-अलग पहलुओं पर, लाइफ़स्टाइल पर हमारी स्टोरीज़ आपको नया नज़रिया और उम्मीद तब तक देती रहेंगी, जब तक कि आप अपने जीवन के ‘अफ़लातून’ न बन जाएं.

संपर्क

ईमेल: [email protected]
फ़ोन: +91 9967974469
+91 9967638520
  • About
  • Privacy Policy
  • Terms

© 2022 Oyeaflatoon - Managed & Powered by Zwantum.

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

No Result
View All Result
  • सुर्ख़ियों में
    • ख़बरें
    • चेहरे
    • नज़रिया
  • हेल्थ
    • डायट
    • फ़िटनेस
    • मेंटल हेल्थ
  • रिलेशनशिप
    • पैरेंटिंग
    • प्यार-परिवार
    • एक्सपर्ट सलाह
  • बुक क्लब
    • क्लासिक कहानियां
    • नई कहानियां
    • कविताएं
    • समीक्षा
  • लाइफ़स्टाइल
    • करियर-मनी
    • ट्रैवल
    • होम डेकोर-अप्लाएंसेस
    • धर्म
  • ज़ायका
    • रेसिपी
    • फ़ूड प्लस
    • न्यूज़-रिव्यूज़
  • ओए हीरो
    • मुलाक़ात
    • शख़्सियत
    • मेरी डायरी
  • ब्यूटी
    • हेयर-स्किन
    • मेकअप मंत्र
    • ब्यूटी न्यूज़
  • फ़ैशन
    • न्यू ट्रेंड्स
    • स्टाइल टिप्स
    • फ़ैशन न्यूज़
  • ओए एंटरटेन्मेंट
    • न्यूज़
    • रिव्यूज़
    • इंटरव्यूज़
    • फ़ीचर
  • वीडियो-पॉडकास्ट
  • लेखक

© 2022 Oyeaflatoon - Managed & Powered by Zwantum.