भारत के पूर्व राष्ट्रपति और शीर्ष वैज्ञानिक रहे डॉ एपीजे अब्दुल कलाम का व्यक्तित्व ऐसा था कि हर कोई उनका सम्मान करता था, उनसे प्यार करता था. युवा पीढ़ी में बेहद लोकप्रिय रहे डॉ कलाम रोज़ाना ईमेल पर युवाओं के सवालों का जवाब दिया करते थे. उनके जवाबों के संकलन फ़ोर्ज योर फ़्यूचर नामक किताब में संकलित है. यह लेख उन्होंने हताशा के चरमबिंदु पर पहुंच चुके एक युवा को समझाते हुए लिखा था. उस युवक का मानना था कि वह एक असफल व्यक्ति है.
दोस्त, असफलता के बिना सफलता का कोई वजूद नहीं. सफलता मंज़िल है. असफलता बीच-बीच में आने वाला अवरोध. अगर आप बीच-बीच में पड़ने वाले इन अवरोधों को हिम्मत और पक्के इरादे के साथ पार कर जाते हैं, तो आप असफलता को हराकर जीवन में सफलता को प्राप्त कर सकते हैं.
मैं आपको श्रीनिवास रामानुजन की कहानी सुनाता हूं जिन्हें दुनिया के महानतम गणितज्ञों में से एक माना जाता है. सिर्फ़ बत्तीस साल की ज़िन्दगी में, और वह भी बहुत कम औपचारिक शिक्षा के बावजूद उन्होंने मैथमैटिकल एनालिसिस, नम्बर थ्योरी, इनफ़ाइनाइट सिरीज़ और कंटिन्यूड फ्रैक्शंस के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान दिया, और चार सौ मौलिक प्रमेय पीछे छोड़ गए. 1887 में तमिलनाडु के इरोड में जन्मे रामानुजन में बचपन से ही गणित की नैसर्गिक प्रतिभा दिखाई देने लगी थी. बारह साल की उम्र में तो रामानुजन ने अपने ख़ुद के प्रमेय गढ़ लिए थे. उन दिनों गणित की दुनिया के दिग्गज उनकी पहुंच से दूर यूरोप में केन्द्रित थे, इसलिए भारत में रहकर काम करते हुए उन्होंने गणित में शोध की अपनी अलग ही धारा विकसित कर ली. सत्रह साल के होते-होते रामानुजन बरनौली संख्याओं (Bernoulli numbers) और इयूलर-मैस्केरॉनी स्थिरांक (Euler-Mascheroni constant) पर शोधकार्य कर चुके थे.
असफलता के बिना सफलता का कोई वजूद नहीं. असफलता बीच-बीच में आने वाला अवरोध है. सफलता मंज़िल है.
रामानुजन को कुम्बक्कोनम के गवर्नमेंट कॉलेज में पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति मिली, जो कि बाद में उनके गणित को छोड़, दूसरे विषयों में फ़ेल होने पर रोक दी गई. अलग से गणित में शोध के लिए उन्होंने दूसरे कॉलेज में दाखिला लिया, जबकि इस दौरान वह अपने गुज़ारे के लिए मद्रास पोर्ट ट्रस्ट के अकाउंटेंट जनरल के दफ़्तर में क्लर्क के तौर पर काम भी कर रहे थे. जनवरी 1912 में रामानुजन ने अपना कुछ काम कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के ट्रिनिटी कॉलेज के प्रोफ़ेसर जी. एच. हार्डी को भेजा. प्रोफ़ेसर हार्डी ने रामानुजन के काम से उनकी प्रतिभा को पहचाना, और उन्हें केम्ब्रिज आकर अपने साथ काम करने के लिए आमन्त्रित किया. बाद में वह रॉयल सोसायटी के फ़ेलो बने और उन्हें केम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज की फ़ेलोशिप भी मिली.
रामानुजन ने केम्ब्रिज में पांच साल बिताए जहां उनके 21 शोधपत्र प्रकाशित हुए. दुर्भाग्य से, जीवन भर उन्हें स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएं घेरे रहीं. घर से दूर विदेश में रहते हुए, और दीवानगी की हद तक अपने गणित में डूबे रहते हुए, शायद तनाव बढ़ने और शाकाहार की कमी के चलते इंग्लैंड में रामानुजन की सेहत और बिगड़ गई. 1919 में वह भारत लौटे तो बहुत बीमार थे. उन्हें तपेदिक (टीबी) ने जकड़ लिया था. भारत लौटने के बाद जल्दी ही, सिर्फ़ बत्तीस साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई.
श्रीनिवास रामानुजन रामानुजन के सामने कौन सी मुश्क़िलें नहीं आईं? लेकिन इतनी सारी कठिनाइयां भी उनकी प्रतिभा के आगे रुकावट नहीं खड़ी कर सकीं. हालांकि कष्ट और कठिनाइयां नुक़सानदेह और नकारात्मक लगती हैं, लेकिन लम्बे समय में सब कुछ सन्तुलित हो जाता है और यहां तक कि उनके शक्तिशाली सकारात्मक प्रभाव के आगे सारी दिक्कतें बहुत पीछे छूट जाती हैं.
जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे ने भी बहुत अधिक सहा. अपने जीवन के ज़्यादातर समय उन्होंने भयंकर पेट दर्द और अत्यन्त कष्टप्रद माईग्रेन के सिरदर्द को झेला, जिससे वह कई-कई दिन तक कुछ भी करने की स्थिति में नहीं रहते थे. उन्हें अपने ख़राब स्वास्थ्य की वजह से पैंतीस साल की उम्र में स्विट्ज़रलैंड के बेसेल विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर का पद छोड़ना पड़ा और बाक़ी का जीवन तनहाई में बिताना पड़ा. उनके दोस्त भी बहुत कम थे, और बीवी या प्रेमिका कभी नसीब नहीं हुई और उनके साथ काम करने वाले बुद्धिजीवियों ने उनके अपरम्परागत विचारों के कारण उनका बहिष्कार किया. एक लेखक के तौर पर वह इस क़दर असफल थे कि उन्हें अपनी किताबें प्रकाशित करवाने के लिए ख़ुद ख़र्च करना पड़ता था, और इसके बावजूद उनकी बहुतेरी किताबें दोबारा कागज़ बनाने के लिए लुगदी बना डाली गईं, क्योंकि उन्हें ख़रीदने वाला कोई नहीं था. आख़िरकार जब उनकी किताबों को पाठकों की प्रशंसा मिलनी शुरू हुई तब तक उनमें मानसिक
अस्थिरता के लक्षण दिखाई देने लगे थे. पैंतालीस साल की उम्र में वह पूरी तरह मानसिक विकार के शिकार हो चुके थे और फिर वह मानसिक और शारीरिक रूप से पूरी तरह अक्षम होकर अपने जीवन के आख़िरी दस साल अपनी मां के साथ रहे.
नीत्शे में गज़ब का लचीलापन था, और वह हमेशा यही सोचा करते थे कि कष्ट उनके लिए फ़ायदेमन्द होंगे. वह अपनी पीड़ा को अपनी भावनाओं का सबसे ज़्यादा भला करने वाला मानते थे जो कि उनके दर्शन के लिए ज़रूरी थी, क्योंकि वही ‘हम दार्शनिकों को अपने अन्दर की सबसे गहरी गर्तों में उतरने को मजबूर करती है’… मुझे शक है कि ऐसा कष्ट मनुष्य को बेहतर बनाता होगा, लेकिन मुझे इतना ज़रूर पता है कि गहरा ज़रूर बनाता है. उनका अपना अनुभव यह था कि जब इंसान बीमारी, अकेलेपन या अपमान के दौर से निकलकर आता है, तो ‘जैसे उसका नया जन्म होता है, नई चमड़ी आ जाती है, ‘ और उसके साथ ‘आनन्द का रस लेने की बेहतर समझ’ आ जाती है. ख़लील जिब्रान ने भी अपनी किताब दि प्रॉफिट में इससे मिलती-जुलती बात कुछ यूं कही है,‘ग़म आपके वजूद को जितना गहरा कुरेद देता है, उतना ही आनन्द आपके अन्दर ठहर पाता है.’
मैं नहीं कहता कि हमें कष्टों का स्वागत करना चाहिए, या फिर जानबूझ कर उन्हें पाने की कोशिश करनी चाहिए. लेकिन जब कभी जीवन में हमारा उनसे सामना हो तो हमें साफ़ तौर पर यह ध्यान रखना चाहिए कि कष्टों के ऊपर से नकारात्मक लगने वाले स्तर के नीचे विकास और गहराई तक उतरने की सम्भावना भी छुपी है. हम में से कोई भी नाकाम नहीं हो सकता. अगर हमारा अस्तित्व कोई चमत्कार नहीं है, या यह कि हम ज़िन्दा हैं, हमारी सेहत ठीक है, सोच समझ सकते हैं और जहां चाहें जा सकते हैं, और कितना कुछ और भी कर सकते हैं.
स्टीव टेलर की पुस्तक, आउट ऑफ़ द डार्कनेस: फ्रॉम टरमॉयल टू ट्रांसफॉर्मेशन में ज़िन्दगी की बेहद ख़राब परिस्थितियों में ज्ञान का उजाला फैलने की, ताज्जुब में डाल देने वाली कहानियां हैं. उसे पढ़कर यह समझने में मदद मिलती है कि ज़िन्दगी हमारे सामने जो कभी-कभी बेहद बुरा लाकर रख देती है, उसमें से भी हम कुछ अच्छा बनाने का मन बना सकते हैं, जिससे हमारे डर कम हो जाते हैं और ज़िन्दगी ख़ुशियों को बाहों में भर लेने के लिए बेचैन हो जाती है. इसलिए कभी ख़ुद को असफल मत मानो. ऐसा क्यों होता है कि कुछ लोग कठिनाइयों के दौर से गुज़रने के बाद ज़्यादा हिम्मतवाले, समझदार हो जाते हैं और हर बात के लिए ख़ुद को धन्य मानने लगते हैं, जबकि कुछ अवसाद और कड़वाहट में डूब जाते हैं और निराशा को अपना लेते हैं? मैं सिर्फ़ इतना कह सकता हूं कि मनोवैज्ञानिक उथल-पुथल आध्यात्मिक रूपान्तरण की कीमियागिरी के लिए उत्प्रेरक की तरह काम करती है, और कष्टों की मूल धातु को सुख और मुक्ति के खरे सोने में बदलने का काम करती है.
जब कभी जीवन में कष्टों से हमारा सामना हो तो हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि कष्ट के नकारात्मक लगने वाले ऊपरी स्तर के नीचे विकास और गहराई तक उतरने की सम्भावनाएं छुपी रहती हैं.
आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाए तो उथल-पुथल एक तरह से जागृति पैदा करने वाला काम करती है, और मनुष्य की कष्ट से पार पाने की लगभग असीम क्षमता को व्यक्त करती है.
जब तक हमारे पास नकारात्मक परिस्थितियों का सामना करने और उन्हें स्वीकार करने का साहस है, तब तक हमें किसी बात से डरने की ज़रूरत नहीं है. लेकिन, उससे बढ़कर, इससे यह पता चलता है कि मनुष्य के लिए आध्यात्मिक जागृति कितनी स्वाभाविक है, और हम सब इससे कितने गहरे जुड़े हैं. जिस कठिन परिस्थिति का आप सामना कर रहे हैं, उसे अपनी आध्यात्मिकता का रस लेने और जीवन में कुछ सार्थक करने की नींव के तौर पर इस्तेमाल करें.
पुस्तक साभार: आपका भविष्य आपके हाथ में
लेखक: डॉ एपीजे अब्दुल कलाम
प्रकाशक: राजपाल एण्ड सन्ज़
मूल्य: रु. 250