यदि आप भी किशोर वय में क़दम रखते बच्चों के माता/पिता हैं तो आप अपने बच्चे के बदलते स्वभाव को महसूस भी कर रहे होंगे और कई बार उनके जवाबों से आहत भी हो जाते होंगे. आप उन्हें भरसक समझाने की कोशिश करें, लेकिन यह बात तय मानकर चलिए कि इस उम्र में उन्हें कोरी नैतिकता की बातें क़तई समझ नहीं आने वालीं. तो उन्हें समझाने के लिए क्या किया जाए? अपने अनुभवों से उन्हें समझाइए… कैसे? वही तो हम बता रहे हैं.
‘‘मम्मा, हर समय लेक्चर मत दिया करो.’’, ‘‘हां, हां मुझे पता है!’’, ‘‘हर वक़्त पीछे ही क्यों पड़े रहते हो?’’, ‘‘हां, तो कर दो शिकायत आप मेरी टीचर से’’, ‘‘आप मुझे कम्पेयर क्यों करते हो?‘‘… यदि आप टीनएजर बच्चे के अभिभावक हैं तो ये वाक्य आपको यक़ीनन जाने पहचाने लग रहे होंगे. आप उन्हें कितनी ही अच्छी बातें बताने की कोशिश क्यों न करें, इस उम्र के बच्चे थोड़े चिड़चिड़े हो ही जाते हैं. अच्छी बात यह है कि इन दिनों माता-पिता अपने किशोर बच्चों के हॉर्मोनल बदलाव से वाक़िफ़ होते हैं और इसका ध्यान रखते हुए बात करते हैं, लेकिन बावजूद इसके अक्सर बच्चे माता-पिता की बात को समझने से इनकार कर देते हैं.
ऐसे में ज़रूरत है कि आप उन्हें समझाने का तरीक़ा बदल दें. हम बिल्कुल नहीं कहेंगे कि आप उनके साथ दोस्त की तरह पेश आएं, क्योंकि माता-पिता की अपनी अलग ज़िम्मेदारियां होती हैं, जिन्हें आपको निभाना ही होगा और ये ज़िम्मेदारी आप माता-पिता बनकर ही उठा सकते हैं, दोस्त बनकर नहीं. बच्चे आपकी बात आज भले ही न सुनें, लेकिन यह याद रखिए कि आप जो भी उन्हें आज सिखाएंगे वह बात उनके मन में बैठ जाएगी. कुछ समय बाद वे अपने आप आपकी सिखाई बात पर अमल करने लगेंगे. तब तक आपको धीरज धरना होगा.
जहां तक बात बच्चों को अपने अनुभवों से सिखाने की है तो यहां किसी मेंटर की भूमिका में आने से बात नहीं बनेगी. आपको अपने बचपन में जाना होगा और याद करना होगा कि आपने भी तो ऐसी ग़लतियां की थीं, तब आपने उससे कैसे सबक सीखा था. बच्चों को यह पूरी बात बताएं, इससे वे आपके अनुभव से सीखेंगे. महसूस कर सकेंगे कि कभी मां-पापा ने भी यही ग़लती की थी और उससे सीखा. तब वे आपकी बात ज़्यादा मानेंगे.
‘‘एक दिन मेरी बेटी लंच टाइम में ही घर वापस लौट आई, वह भी अपनी टीचर को बताए बिना,‘‘ यह कहते हुए मोनिका पटेल बताती हैं, ‘‘मेरे पूछने पर उसने कहा कि उसके सिर में दर्द हो रहा है. जबकि मैं जानती थी कि लंच के बाद उसका एक टेस्ट होने वाला था, जिसके लिए उसने पढ़ाई नहीं की थी. उस समय उससे कुछ कहती तो हम बहस पर उतर आते. मैंने उसकी टीचर को मैसेज किया और बताया कि उसकी तबियत ठीक नहीं है इसलिए वह घर आ गई है. शाम को बातों-बातों में मैंने उसे बताया कि कैसे जब मैं उसके बराबर थी तब एक बार हमारे स्कूल में अचानक मैथ्स का टेस्ट ले लिया गया था और मेरे उस टेस्ट में ज़ीरो मार्क्स आए थे. घर पर मुझे मां-पापा से डांट तो पड़ी, पर बाद में मेरे पापा ने कहा, ‘कोई बात नहीं. चलो, ज़ीरो नंबर आने का अनुभव तो हुआ. अब अच्छे से पढ़ना.’’ यह सुनकर मेरे बेटी को हंसी आ गई. उसके बाद उसने ऐसा दोबारा नहीं किया.’’
वहीं ऊषा पात्रा बताती हैं, ‘‘आजकल बच्चों के बीच ‘क्रश’, बॉयफ्रेंड-गर्लफ्रेंड जैसी बातें आठवीं-नवीं क्लास से ही होने लगती हैं. मेरा बेटा बहुत इमोशल है. मुझे इस बात की चिंता सताती थी कि कहीं वह ‘ब्रेकअप’ जैसी बातों से अपना मन छोटा न कर ले. जब वह अपने कॉलेज में आया तो मैंने उसे इस टॉपिक पर बात करते हुए अपने बारे में बताया कि कैसे जब मैं कॉलेज में थी तो मुझे एक लड़का अच्छा लगने लगा था. बहुत डरते-डरते एक दिन मैंने उसे कॉफ़ी पीने के लिए बुलाया. वहां मैंने बहुत हिम्मत करते हुए उससे कहा, ‘‘मैं तुम्हारे साथ अपना फ़्यूचर देखना चाहती हूं.‘‘ उस लड़के ने कोई ख़ास प्रतिक्रिया नहीं दी. उसने कहा कि वह ऐसा नहीं सोचता. उस दिन तो मुझे बहुत बुरा लगा, मैं बहुत रोई भी, लेकिन कुछ ही दिनों में मैं संभल गई. तो यदि तुम्हारे साथ कभी ऐसा हो कि कोई तुम्हें पसंद आए, पर वह तुम्हें पसंद न करता हो तो कोई बात नहीं. जीवन में हमें हमारा साथी मिल ही जाता है.’’ वह आगे कहती हैं, ‘‘मेरे बेटे ने मुझे कहा, ‘‘मां, आई ऐम सो प्राउड ऑफ़ यू! आपने किसी को प्रपोज़ किया ये बड़ी बात है और उसके ‘न’ कहने पर आप उससे उबर गईं, ये उससे भी बड़ी बात है. डोंट वरी, मैं ध्यान रखूंगा.’’’
कहने का अर्थ ये कि उनकी उम्र में आपसे क्या ग़लती हुई थी, आपको कैसा अनुभव हुआ था, इसके बारे में बताते हुए तरुण बच्चों को समझाया जाए तो वे बात को समझते हैं, लेकिन जहां आपने ख़ुद को उनसे बड़ा, अनुभवी और समझदार मानते हुए बात की, वहीं वे अड़ियल रुख़ अपना लेते हैं. अत: अपने बच्चों को इस उम्र में आपके द्वारा की गई ग़लतियों के क़िस्से सुनाकर समझाएं, वे आपकी बात ज़रूर सुनेंगे.
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