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Home ज़रूर पढ़ें

कहानी भारत के वित्तीय बाज़ार बनने की

जानिए कि आख़िर भारत इतना भरोसेमंद वित्तीय बाज़ार कैसे बना?

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
August 26, 2024
in ज़रूर पढ़ें, नज़रिया, सुर्ख़ियों में
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आज हम सभी भारत के विश्व की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की बात से प्रसन्न होते हैं। लेकिन यह एक ऐसा अवसर है, जब हमें पीछे मुड़कर यह भी देखना चाहिए कि आख़िर हमारी अर्थव्यवस्था को मज़बूत बनाने की नींव किसने रखी और किस तरह रखी? इस संदर्भ में बहुत ज़रूरी है कि हम यह जानें कि आख़िर भारत इतना भरोसेमंद वित्तीय बाज़ार कैसे बना। हमें यही बात बता रहे हैं भगवान दास।

 

1991 में नरसिम्हा राव भारत के प्रधानमंत्री बनते हैं और अपनी कैबिनेट में वित्त मंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह को नियुक्त करते हैं। और फिर सिलसिला शुरू होता है भारत में आर्थिक सुधारों का, जिसके सूत्रधार बनते है मनमोहन सिंह। इन्हीं आर्थिक सुधारों के साथ शुरू होता है,भारत के वित्तीय बाज़ार के पुनर्गठन का दौर। सरकार इस बात को महसूस करती है कि अगर भारत में पोर्टफ़ोलियो निवेश चाहिए और भारत को एक प्रमुख वित्तीय मार्केट के रूप में उभरना है तो इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ले जाना होगा। इसके लिए भारत को एक ऐसा स्टॉक एक्स्चेंज चहिए, जो पारदर्शी तरीक़े से काम करता हो और जिसके प्रॉसेस और टेक्नोलॉजी अंतरराष्ट्रीय मानकों पर खरे उतरते हों और सबसे बड़ी बात ये एक्स्चेंज पूरी तरह डिम्यूचलाइज़्ड हो, जिसमे मेंबर ब्रोकर्स, मैनेजमेंट और एक्स्चेंज के ओनर्स के बीच हितों का टकराव न हो।

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यहां पर mutualization का अर्थ समझना भी ज़रूरी है। भारत का पुराना एक्स्चेंज पूरी तरह demutualized नहीं था। जो मेंबर ब्रोकर थे, वो एक्स्चेंज के ओनर भी थे। मैनेजमेंट में भी ओनर्स का दख़ल रहता था,कई जगह हितों का टकराव था और इस कारण एक्स्चेंज संस्थागत निवेशकों और ख़ासकर विदेशी संस्थागत निवेशकों को भरोसा नहीं दे पाता था। किसी भी स्टॉक एक्स्चेंज का demutualized होना आवश्यक है,ताकि निवेशकों का भरोसा बना रहे।

इसी बैक्ग्राउंड में NSE की स्थापना की गई। मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे, एक कुशल प्रशासक डॉक्टर आर एच पाटिल के नेतृत्व में एक बढ़िया टीम चुनी गई, जिसमें प्रोफ़ेशनली क्वालिफ़ाइड लोग थे- अधिकांश वित्तीय मामलों के जानकार और बेहतरीन शिक्षा पाए पेशेवर लोग थे। NSE को पूरी तरह demutualized रखा गया- प्रबंधन में ये पेशेवरों की टीम थी, एक्स्चेंज की ओनरशिप सरकारी बैंकों और वित्तीय संस्थानों, जैसे- आईडीबीआई, एसबीआई, एलआईसी के पास थी। और मेंबर ब्रोकर अलग थे और उनके चुनाव में पूंजी के अलावा प्राथमिकता उन लोगों को दी गई, जो फ़ाइनेंस के क्षेत्र में क्वालिफ़ाइड हों, जैसे कि चार्टर्ड अकाउंटेंट, कंपनी सेक्रेटरी, एमबीए फ़ाइनेंस वगैरह। इस तरह NSE पूरी तरह demutualized एक्स्चेंज था, जिसमें मेंबर ब्रोकर, ओनरशिप और मैनेजमेंट अलग-अलग लोग थे यानी उनके बीच हितों का टकराव नहीं था।

इसके अलावा ये पूरी तरह टेक्नोलॉजी पर आधारित एक एक्स्चेंज था, जिसमे मेंबर ब्रोकर देश के किसी भी हिस्से से वीसैट (vsat) लिंक के द्वारा कनेक्ट कर कारोबार कर सकते थे। उनका मुंबई में होना ज़रूरी नहीं था। देशभर से लोगों ने मेंबरशिप के लिए अप्लाई किया और पेशेवर लोगों को एक्स्चेंज की मेंबरशिप एक पारदर्शी तरीक़े से दी गई। अगर आप NSE के पुराने ब्रोकरों से मिलेंगे तो आप ये पाएंगे कि उनमें से अधिकतर चार्टर्ड अकाउंटेंट है। चार्टर्ड अकाउंटेंट, जो पहले अधिकतर टैक्सेशन,ऑडिट का काम देखते थे, उनके करियर को एक नई उड़ान मिली।

एक्स्चेंज का गठन 92- 93 में हुआ और अपने पेशेवर रुख़ के कारण इसने संस्थागत निवेशकों का भरोसा जीत लिया। एक साल बाद NSE लगभग 100 साल पुराने बॉम्बे स्टॉक एक्स्चेंज को पीछे छोड़ते हुए आगे निकल गया। अब NSE का टर्नओवर BSE से ज़्यादा हो गया था। रिटेल निवेशकों में भी NSE पर भरोसा जताया, क्योंकि इसमें निवेश की प्रक्रिया पूरी तरह टेक्नोलॉजी आधारित थी। निवेशक ब्रोकर्स के ऑफ़िस में बैठकर देख सकते थे कि मार्केट में रेट किस तरह आ रहे हैं, मार्केट का रुख़ क्या है और उनका सौदा किस रेट पर हुआ है। ये उनके लिए नया, पारदर्शी और रोमांचक अनुभव था।

दूसरी समस्या मार्केट में फ़िज़िकल शेयरों और बेड डिलीवरी की थी। होता ये था कि शेयर फ़िज़िकल सर्टिफ़िकेट के फ़ॉर्म में डिलीवर किए जाते थे। शेयर ट्रांस्फ़र की प्रक्रिया जटिल और थका देने वाली थी। ट्रांस्फ़र में 2- 3 हफ़्ते लगना आम बात थी और अगर शेयर डीड में सेलर के सिग्नेचर नहीं मिलते थे तो वो बेड डिलीवरी में बदल जाती थी और फिर शेयर ट्रांस्फ़र होते महीनों लग जाते थे। दूसरी तरफ़ दुनिया के प्रमुख मार्केट डीमैट के फ़ॉर्म में ट्रेडिंग शुरू कर चुके थे।

इसी को ध्यान में रखते हुए नैशनल सिक्योरिटी डिपॉज़िटरी लिमिटिड (NSDL)की स्थापना की गई,जिसका मुख्य उद्देश्य शेयरों को फ़िज़िकल फ़ॉर्म से इलेक्ट्रॉनिक डीमैट करना और डीमैट के माध्यम से शेयरों की ट्रेडिंग के लिए आधारभूत ढांचा तैयार करना था। NSDL ने शानदार काम किया। उन्होंने बैंको और बड़े शेयर ब्रोकर्स को इंटरमीडियरी डिपॉज़िटरी पार्टिसिपेंट नियुक्त किया, जो रिटेल और संस्थागत निवेशकों को शेयर सर्टिफ़िकेट डीमैट में बदलने की सुविधा देने लगे और शेयरों की डीमैट फ़ॉर्म में ट्रेडिंग के बाद सेटलमेंट के लिए ये डिपॉज़िटरी पार्टिसिपेंट मुख्य भूमिका निभाने लगे।

भारत ने जितनी तेज़ी से डीमैट को अपनाया, वो अपने आप में अनोखा था। एक दशक के भीतर 2001 आते-आते भारत में 99% ट्रेडिंग डीमैट फ़ॉर्म में होने लगी। दुनिया के किसी मार्केट ने डीमैट को इतनी तेज़ी से नहीं अपनाया था। जो रिटेल निवेशक अभी पिछले कुछ सालों से शेयर बाजार में निवेश कर रहे हैं, उन्हें ये कभी मालूम ही नहीं चल पाएगा कि पहले शेयर ट्रेडिंग की प्रक्रिया कितनी जटिल थी, क्योंकि इन दिनों शेयर ख़रीदते ही अगले दिन उनके डीमैट अकाउंट में शेयर आ जाते हैं।

इसके अलावा गवर्नमेंट बॉन्ड मार्केट में ट्रेडिंग और सेटलमेंट की प्रक्रिया को दुरुस्त करने के लिए क्लीयरिंग कॉरपोरेशन ऑफ़ इंडिया (CCIL)की स्थापना की गई। पहले बॉन्ड ट्रेडिंग की प्रक्रिया बैंकों के बीच फ़ोन पर होती थी और इस सिस्टम में कई तरह की रिस्क मौजूद थी। इसको पूरी तरह से बदला गया, अब यह पूरी तरह कंप्यूटरीकृत है और बैंक अपने ट्रेड CCIL के सिस्टम पर डालते हैं और ट्रेड कंप्यूटर के द्वारा मैच हो जाते हैं। सेटलमेंट की प्रक्रिया भी पूरी तरह CCIL के प्लेटफ़ॉर्म पर डीमैट फ़ॉर्म में होती है। बॉन्ड मार्केट, क्योंकि एक B2B मार्केट है और क्योंकि इसमें रिटेल निवेशक निवेश नहीं करते इसीलिए CCIL का ज़िक्र स्टॉक एक्स्चेंज के समान आम लोगो की ज़ुबान पर नही आता, लेकिन CCIL ने भी बॉन्ड ट्रेडिंग के मार्केट में नए आयाम स्थापित किए।

तो ये थी भारत के वित्तीय बाज़ार के पुनर्गठन की कहानी, ये भारत के दो प्रधानमंत्री, पहले नरसिम्हा राव और बाद में डॉक्टर मनमोहन सिंह के दौर की भी कहानी है, जिन्होंने इसकी नींव रखी। ये कहानी बताना इसलिए और ज़्यादा ज़रूरी है, क्योंकि हाल ही में जब हिंडेनबर्ग मामले में जब कांग्रेस पार्टी ने इसकी जेपीसी से जांच की मांग की तो सत्ताधारी दल ने कांग्रेस पे ये इल्ज़ाम लगा दिया कि वो भारत के वित्तीय बाज़ारों को ख़राब और अस्थिर करने का प्रयास कर रही है।

राजनीति है तो राजनैतिक आरोप-प्रत्यारोप लगते रहेंगे, लेकिन भारत के वित्तीय बाज़ारों के बनने में दो प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव और डॉक्टर मनमोहन सिंह के योगदान को कभी-भी भुलाया नही जा सकता। आज भारत का वित्तीय बाज़ार वैश्विक स्तर का है। NSE मार्केट कैपिटलाइज़ेशन के हिसाब से दुनिया का 5वां सबसे बड़ा और शंघाई स्टॉक एक्स्चेंज के बाद एशिया का दूसरे नंबर का एक्स्चेंज है। भारत के वित्तीय बाजार में NSE एक शाहकार है, जो प्रॉसेस और टेक्नोलॉजी के मामले में दुनिया के बेहतरीन स्टॉक एक्सचेंजों की लिस्ट में शुमार होता है और जिसने भारत के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

फ़ोटो साभार: फ्रीपिक

Tags: Bombay Stock ExchangeBrokersBSEEconomyFinancial MarketindiaManagementNiftyNSEShare MarketStock Exchangeअर्थव्यवस्थाएनएसईनिफ़्टीबीएसईबॉम्बे स्टॉक एक्स्चेंजब्रोकर्सभारतमैनेजमेंटवित्तीय बाज़ारशेयर मार्केटस्टॉक एक्स्चेंज
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