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Home ज़रूर पढ़ें

महिला किसान (पहली कड़ी): खेती-किसानी में कितना योगदान है अदृश्य किसानों का?

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
September 6, 2023
in ज़रूर पढ़ें, नज़रिया, सुर्ख़ियों में
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कई आर्थिक और सामाजिक अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि कृषिप्रधान देश भारत में महिला कृषकों के बारे में अलग से बात नहीं की जाती. पूरी मुस्तैदी के साथ खेती-किसानी में जुटी महिलाओं को बतौर किसान परिभाषित नहीं किया जाता. महिला सशक्तिकरण अथवा नारीवाद के तमाम सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक तथा राजनीतिक चर्चाओं में उनका ज़िक्र ना के बराबर होता है. सामाजिक चिंतक, लेखक और दयाल सिंह कॉलेज, करनाल के पूर्व प्राचार्य डॉ रामजीलाल अपने लेखों की श्रृंखला ‘महिला किसान’ की पहली कड़ी में कृषि क्षेत्र में महिलाओं के योगदान को रेखांकित कर रहे हैं.

महिलाओं को किसान क्यों नहीं माना जाता?
महिलाओं को किसान क्यों नहीं माना जाता? यह एक यक्ष प्रश्न है, यद्यपि महिलाएं भारतीय कृषि व्यवस्था की रीढ़ की हड्डी हैं. भारत ही नहीं पूरे विश्व में लगभग 900 मिलियन महिलाएं कृषि क्षेत्र से जुड़ी हुई हैं. आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण 2019 -20 की रिपोर्ट के अनुसार 75.7% ग्रामीण महिलाएं किसी न किसी रूप में कृषि कार्य करती हैं. कृषि समुदायों से संबंधित केवल 13. 87% महिलाओं का कृषि योग्य भूमि पर कानूनी अधिकार है. योग्य भूमि की स्थिति के मामले में गैर-कृषि समुदायों की महिलाओं की स्थिति सबसे अधिक दयनीय है, क्योंकि केवल 2% महिलाओं के पास भूमि का क़ानूनी अधिकार है या भूमि का मालिकाना हक़ है .अन्य शब्दों में कृषि समुदायों की लगभग 86% और कृषि श्रमिक समुदायों की 98% महिलाओं के पास भूमि संबंधी कोई संपत्ति नहीं है.
कृषि समुदायों की महिलाएं अधिकतर अपनी परिवारिक भूमि पर काम करती हैं, जबकि गैर-कृषि समुदायों की महिलाएं श्रमिक के रूप में ग्रामीण किसानों की भूमि पर काम करती हैं. महिला किसान अधिकार मंच (एमएकेएएम) की संस्थापक अध्यक्ष, डॉ. रुक्मिणी राव के अनुसार, प्रत्येक एकड़ पर 70% कार्य महिलाओं के द्वारा किया जाता है, जबकि बिल्कुल विपरीत पुरुषों के द्वारा महज़ 30%कार्य किया जाता है.
एक अनुमान के अनुसार एक महिला किसान खेतों में एक वर्ष में 3485 घंटे काम करती है, जबकि एक पुरुष किसान 1212 घंटे काम करता है. समस्त भारत के विभिन्न क्षेत्रों-पूर्वोत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक अथवा कश्मीर से कन्याकुमारी तक कृषि क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं के कार्यों के आधार पर तीन वर्गों विभाजित किया जा सकता है.
पहला वर्ग: वह महिलाएं जो बिना किसी भूमि के अधिकार के दिहाड़ी (वेतन) पर कृषि कार्य करती हैं.
दूसरा वर्ग: वह महिलाएं, जो स्वयं भूमिका मालिकाना अधिकार रखती हैं अथवा अपने परिवार की भूमि पर काम करती हैं.
तीसरा वर्ग: वह महिलाएं जो कृषि संबंधी प्रबंधन के लिए काम करती हैं.

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कृषि संबंधी कार्यों में महिलाओं का योगदान 
प्रथम, कृषि संबंधी कार्य: महिलाएं भारतीय कृषि के रीढ़ की हड्डी है. और कृषि विकास में अहम भूमिका है महिलाओं द्वारा किए गए कृषि कार्य, जैसे-बुवाई के लिए ज़मीन तैयार करने में सहयोग देना, बुवाई करना, रोपाई करना, सिंचाई करना, छंटाई करना, उर्वरकों का प्रयोग करना, बंधाई करना, भराई करना, प्लांट संरक्षण करना, भंडारण करना, खेत में काम करने वाले पुरुषों एवं कृषि श्रमिकों के लिए चाय तथा भोजन लेकर जाना व पुरुषों की अनुपस्थिति में महिलाएं खेतों की सुरक्षा करने का भी काम करती हैं. वर्तमान युग में आर्थिक रूप से संपन्न महिलाएं खेतों में ट्रैक्टर तथा आधुनिक उपकरणों का प्रयोग भी करती हैं और उधर दूसरी ओर ग़रीब महिलाएं खेतों में बैल जोत कर हल चलाने, झोटा बुग्गी व बैल गाड़ी चलाने का काम करती हैं.

कृषि क्षेत्र में लैंगिक भेदभाव, जिससे मीडिया में एग्रीकल्चर हीराइंस नहीं दिखतीं
आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 के अनुसार पुरुषों के काम की तलाश में गांव घर और गांव से पलायन करके शहरों में अथवा दूसरे राज्यों में रोज़गार हेतु जाने के पश्चात कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका में और अधिक वृद्धि हुई है. परंतु इसके बावजूद भूमि, कृषि ऋण, बीज और बाज़ार जैसे समस्त संसाधनों में लैंगिक भेदभाव बढ़ रहा है. परिणाम स्वरूप महिलाएं सरकार की योजनाओं और नीतियों का ना तो पूरा लाभ उठा सकती हैं और ना ही उनके लिए बदलाव के लिए निरंतर दबाव बना सकती हैं. अधिकांश महिलाएं ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे कृषि नायिकाएं (एग्रीकल्चरल हीरोइंस) के रूप में महिलाएं लगभग अदृश्य हैं. समाचारपत्रों, पत्रिकाओं, पुस्तकों, मास मीडिया तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से किसान महिलाएं ग़ायब नजर आती हैं. महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों में महिला अध्ययन केंद्रों की स्थापना की गई है. महिला सशक्तिकरण के नाम पर सेमिनारों व भाषणों का आयोजन किया जाता है और हर रोज़ राजनेताओं के द्वारा महिला सशक्तिकरण का ढिंढोरा भी पीटा जाता है.
राष्ट्रीय मेन स्ट्रीम मीडिया, प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और मास मीडिया में किसान महिलाओं तथा कृषि श्रमिक महिलाओं की समस्याओं के संबंध में विशेष चर्चा नहीं होती. यही कारण है कि राजनेताओं, अधिकारियों, शिक्षकों और शोधार्थियों के द्वारा इनकी समस्याओं को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है
शिक्षण संस्थाओं में शोध कार्य करने वाले विद्वानों के द्वारा महिला सशक्तिकरण के नाम पर उन महिलाओं पर शोध किया जाता है, जो शक्तिशाली हैं. परंतु अन्य शब्दों में महिला किसान और महिला श्रमिक किसान को ढूंढ़ते रह जाओगे. ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे महिला किसानों और महिला कृषि श्रमिकों का राष्ट्रीय विकास में कोई योगदान नहीं है. परिणामस्वरूप कृषक महिलाओं व कृषि श्रमिक महिलाओं की समस्याओं और उनके समाधान पर बहुत कम शोध कार्य हुए हैं. महिलाओं के द्वारा कृषि कार्य करते हुए उनके शरीर पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है और उनकी मांसल सख्त हो जाती है तथा चिलचिलाती धूप, कप कंपाती सर्दी और बारिश में काम करने के कारण अनेक समस्याएं और बीमारियां भी होती हैं. आज तक यह शोध कार्य नहीं किया गया कि कृषि कार्यों से जुड़ी महिलाओं के कितने गर्भपात हुए हैं.

महिला किसान भी करती हैं आत्महत्या
आमतौर पर यह धारणा है कि खेती में बढ़ती लागत और घटती आय से तंग आकर पुरुष किसान आत्महत्या करते हैं. पर यह धारणा पूरी तरह सही नहीं है. भारत में किसानों को स्वामीनाथन रिपोर्ट 2006 में जो संस्तुति समर्थन मूल्य सीटू 50% फ़ॉर्मूले के आधार पर संस्तुति की गई है. सरकारों द्वारा इस फ़ॉर्मूले को लागू नहीं दिया गया. परिणामस्वरूप किसानों का शोषण जारी है और उन्हें प्रति एकड़ लगभग 8000 रुपए से 1000 रुपए का नुक़सान होता है. बाढ़, अकाल, सूखा पड़ना, ओलावृष्टि, फसल में बीमारी, ऋण का भुगतान ना होना, घर का ख़र्च चलाने में कठिनाई होना तथा अन्य समस्याओं के कारण पुरुषों की भांति महिलाएं हताश होती हैं और जब उनके सामने कोई वैकल्पिक दृष्टिगोचर नहीं होता तो वह भी किसान पुरुषों की भांति आत्महत्या करती हैं. किसान आत्महत्या समस्त विश्व में करते हैं. भारत में सन्1995 से सन् 2018 के बीच राष्ट्रीय गृह मंत्रालय की राष्ट्रीय अपराध पंजीकरण शाखा (एनसीआरबी) के द्वारा संग्रहित आंकड़ों के अनुसार 50,188 महिलाओं ने आत्महत्या की है. यह कुल किसानों की आत्महत्याओं का 14.82 प्रतिशत है.

विधवा किसानों की समस्याएं, ख़त्म ही नहीं हो रहीं…
महिला विधवाओं के मामले में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पति की मृत्यु के बाद उत्तरोत्तर उत्तराधिकार में भूमि का अधिकार प्राप्त होता है या अधिकार प्राप्त नहीं होता है. किसान महिला किसान अधिकार मंच की रिपोर्ट (सन् 2012-सन् 2018) के अनुसार भारत में हर 30 मिनट में एक किसान आत्महत्या करता है. पति की मृत्यु के पश्चात विधवा का जीवन अचानक और अपरिवर्तनीय रूप में अंधेरे में चला जाता है. विधवा महिलाओं की मार्मिक स्थिति का वर्णन कोटा नीलिमा ने अपनी पुस्तक (कोटा नीलिमा, विडोज़ ऑफ़ विदर्भ: मेकिंग ऑफ़ शैडोज़, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, सन् 2018) में किया है.
महिला विधवाओं के सामने सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि उनके पति की मृत्यु के बाद उन्हें ज़मीन का उत्तराधिकार पाने में कठिनाई होती है या अधिकार नहीं मिल पाता है. किसान महिला किसान अधिकार मंच 2012 की रिपोर्ट 2018 के अंतराल में 40% विधवा महिलाओं को ज़मीन का अधिकार नहीं मिला. उनके लिए पटवारी से लेकर रेवड़ी विभाग के राजस्व विभाग के वरिष्ठ अधिकारी तक की दौड़ लगाना बहुत कठिन काम है, क्योंकि उनके पति की मृत्यु के बाद कृषि कार्य के साथ-साथ उन पर अन्य ज़िम्मेदारियां भी आती हैं. इतना ही नहीं, जब वे घर से बाहर निकलते हैं तो उन्हें लोगों से बुरे शब्द भी सुनने पड़ते हैं. इसके अलावा उन्हें कोर्ट जाने में कई दिक्क़तों का सामना करना पड़ता है, जिसमें सबसे पहले वक़ील की फ़ीस और बार-बार लगने वाले चार्ज शामिल हैं.

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ग्रामीण महिलाएं और क्या-क्या करती हैं?
महिलाओं के पशुपालन संबंधी कार्य: महिलाएं पशुओं के लिए खेतों और जंगलों से चारा/घास काट कर लाना और उसे मशीन से काटना. चारा (घास) खाने के लिए डालना, दूध निकालना, दूध का प्रसंस्करण करना, पशुओं का गोबर उठाना, उपले बनाना, पशुओं को विशेष तौर से भैंसों को नहलाना, पशु बीमार होने पर सरकारी पशु अस्पताल में इलाज कराने के लिए पति का सहयोग करना अथवा परंपरागत घरेलू इलाज करना, पशुओं के शिशुओं की देखरेख करना और जब पति अथवा घर के पुरुष बाहर गए हुए हों तो पशुओं की सुरक्षा करना, इत्यादि मुख्य कार्य हैं. संक्षेप में पशुपालन की गतिविधियों में महिलाओं की भूमिका अति महत्वपूर्ण एवं अद्वितीय है.

घरेलू कार्य: कृषि कार्य तथा पशुपालन के अतिरिक्त महिलाओं के द्वारा घरेलू कार्य भी किए जाते हैं. प्राय यह धारणा है कि घरेलू कार्यों का शत-प्रतिशत दायित्व महिलाओं का है. घरेलू कार्य करने के लिए महिलाएं सुबह सबसे पहले उठती हैं और रात को सबके बाद सोती हैं. दूसरे शब्दों में घरेलू कार्य महिला केंद्रित हैं. घरेलू कार्यों में घर व आंगन साफ़ करना, भोजन बनाना, बर्तन साफ़ करना, कपड़े धोना, पानी लाना (पोखरों, कुओं और तालाबों से पानी लाना), बच्चों का पालन-पोषण करना, बच्चों को तैयार करके स्कूल भेजना, उनकी शिक्षा का ध्यान रखना, जंगलों से इंधन लाना, परिवार के सदस्यों के स्वास्थ्य की देखरेख करना, परिवार में आने वाले मेहमानों और रिश्तेदारों की विशेष सेवा करना, विवाह शादियों के लिए पुरुषों के साथ मिलकर ख़रीद-फ़रोख्त करना इत्यादि सभी कार्य महिला केंद्रित हैं. इसके बावजूद भी अगर कोई गृह स्वामी से पूछे कि उसकी पत्नी क्या काम कर रही है तो उसका उत्तर होगा कोई काम नहीं करती, बस घर का काम चलाती है. अन्य शब्दों में घरेलू कार्य को कार्य नहीं समझा जाता और महिलाओं के उन कार्यों को, जो पशुपालन और कृषि के लिए जुड़े कार्यों कार्य किए जाते हैं उनका कहीं कोई वर्णन नहीं होता. इतना अधिक कार्यों का बोझ उठाने के बावजूद महिलाएं परिवार के सदस्यों द्वारा प्रताड़ना की जाती हैं और वह घरेलू हिंसा का शिकार भी होती हैं. ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे महिलाएं घर के अंदर गृह स्वामिनी नहीं, अपितु कोई शत्रु हैं. मगर अफ़सोस की बात है महिलाओं के कार्यों को समस्त विश्व में वेतन के साथ नहीं जोड़ा जाता.
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की रिपोर्ट (2022) के अनुसार विश्व के 64 देशों में महिलाएं 1640 करोड़ घंटे बिना वेतन के काम करती हैं, जिसका मूल्य विश्व की जीडीपी के 9% (11 ट्रिलियन डॉलर) के लगभग है.
स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया के आर्थिक अनुसंधान विभाग (इकोनॉमिक रिसर्च डिपार्टमेंट) की रिपोर्ट के अनुसार भारत में घर पर कार्य करनेवाली महिलाओं का भारतीय जीडीपी में 22.7 लाख करोड़ रुपए का योगदान है. महिलाओं के बिना वेतन काम का वैज्ञानिक आधार पर आकलन किया जाए तो भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) की रिपोर्ट (2023) के अनुसार काम करने वाली महिलाओं को यदि वेतन मिले तो यह भारतीय जीडीपी का 7 .5% होगा.
इसके बावजूद महिलाएं ‘किसान की श्रेणी से अदृश्य’ हैं . परिणाम स्वरूप उन्हें सरकारी नीतियों व योजनाओं, मसलन-कर्ज़, क्रेडिट, तकनीकी सहायता, निवेश, बीज, सब्सिडी यूरिया तथा कृषि इनपुट से वंचित रहना पड़ता है. महिला किसान अधिकार मंच (एमएकेएएम) की संस्थापक अध्यक्ष डॉ रुक्मिणी राव कहती हैं कि,‘‘हमारा सिस्टम महिलाओं को अदृश्य और अस्तित्वहीन मानता है.’’


संदर्भ:
vikaspedia.in/agriculture/women-and-agriculture/role-of-women-in-agriculture-and-its-allied-fields 
livehindustan.com/business/story-women-are-working-1640-crore-hours-daily-without-pay-7848381
feminisminindia.com/


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