वैवाहिक जीवन को हम सब सुखी रहने के लिए ही अपनाते हैं, परेशान होते रहने के लिए नहीं. लेकिन वैवाहिक रिश्तों में दुर्व्यवहार आम बात है, क्योंकि इसमें भी सत्ता या वर्चस्व का समीकरण पैठ बना लेता है. भारती पंडित का कहना है कि यह भी सच है कि इस समीकरण को संतुलित करने और सुख को खोजने का काम भी हमें ही करना होता है. विकल्प हमेशा मौजूद रहते हैं, बस ज़रूरत इस बात की होती है कि हम सही विकल्प चुनें और इस रिश्ते को बराबरी के धरातल पर ले आएं.
रिश्तों में दुर्व्यवहार हर जगह आम बात है. विशेषतः वैवाहिक रिश्तों में यह बहुत आम होता है, क्योंकि इस रिश्ते में आपको सत्ता के समीकरण बहुत स्पष्ट काम करते दिखाई देंगे. एक व्यक्ति (पति हो या पत्नी) अपनी सत्ता का वर्चस्व स्थापित करता है और दूसरा उसके अधीन रहने को विवश होता है या कहिए कि किया जाता है. इस स्थिति में दूसरे व्यक्ति के पास केवल मन ही मन घुटने, परेशान होने, दुखी होने और अपमानित होते रहने का ही विकल्प ही रह जाता है, क्योंकि रिश्ते से अलग होना आज भी हमारे यहां बिल्कुल आसान नहीं है. हमारे यहां मुश्क़िल रिश्तों को भी येन केन प्रकारेण बनाए रखने की ही हिदायतें दी जाती हैं, चूंकि समाज कभी नहीं चाहता कि उसकी व्यवस्था भंग हो और कोई व्यक्ति अकेला भी सुखी जीवन बिता सके.
यह भी कटु सत्य है कि हमारे अधिकांश घरों में पारिवारिक समस्याएं, विवाद कभी भी हल नहीं होते हैं, क्योंकि हम उन्हें हल करने के लिए सार्थक प्रयास नहीं करते. हम विवादों के बारे में पीठ पीछे बात करते हैं, एक-दूसरे के बारे में बात करते हैं, मगर एक-दूसरे से बात नहीं करते. सीधे विवाद से बचना हमारी फ़ितरत होती और उसके चलते हम बड़े-बड़े मुद्दों को कार्पेट के नीचे दबाते चलते हैं. उदाहरण के लिए घर में पति-पत्नी के बीच किसी मुद्दे पर विवाद हुआ. अ ने विवाद किया, ब को जी भरकर अपमानित किया, वह विजयी मुद्रा में रहा. ब के साथ विवाद हुआ, उसका मूड दिन भर के लिए ख़राब हो गया. अब घर में रहना है, तो बातचीत किए बिना रह नहीं सकते, इसलिए अ जिसने विवाद किया, उसने समझौता करने का प्रयास किया. ख़ुद ही ब को फ़ोन किया, या कोई सामान लाने को कहा, या तबियत ख़राब है का बहाना किया या घर आने के बाद सब नॉर्मल है, दिखाने का प्रयास किया. वहीं, ब जो विवाद का शिकार हुआ, उसने भी सोचा तनाव को ख़त्म करना ठीक रहेगा, कौन फिर से मूड ख़राब करे तो उसने भी सामान्य तरीक़े से बातचीत शुरू कर दी और विवाद थम गया.
दिखने को तो सब सामान्य हो गया पर क्या मुद्दा सचमुच सुलझ गया? नहीं, कुछ दिनों बाद उसी मुद्दे पर अ ने ब से फिर विवाद किया, फिर समझौता हुआ और फिर वही साइकल सी चलती रही.
ब ने कभी प्रयास नहीं किया कि बेशर्त समझौता करने की बजाय थोड़ा अड़कर अ से उस मुद्दे पर बातचीत की जाए और अ की हरकतों का विरोध किया जाए. ब लगातार दबता रहा तो अ ने उसकी कमज़ोरी का फ़ायदा उठाया. अ आजीवन ब का जीना दूभर करता रहा, बिना इस एहसास के कि वह ब से ख़ुशी से जीने का अधिकार छीन रहा है.
घरों में सत्ता के समीकरण इसी तरह से काम करते हैं. वर्चस्व की लड़ाई में पहला व्यक्ति दूसरे की कमज़ोरी पकड़ लेता है और उसे हमेशा हथियार के रूप में इस्तेमाल करता है. दूसरा व्यक्ति विक्टिम बना दूसरों का पास अपने हाल पर रोता रहता है, लेकिन अपने लिए कुछ नहीं करता और फिर भी रिश्तों में प्रेम का दिखावा किया जाता है.
ऐसे रिश्तों में प्यार हो यह तो संभव ही नहीं. प्रेम का अर्थ है सम्मान और परवाह और ऐसे रिश्तों में तो यह सिरे से ही ग़ायब दिखता है, हां अगर शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति को प्रेम समझा जा रहा हो तो बात और है. विवाह हम करते हैं सहजीवन के लिए, शोषक और शोषित का रिश्ता बनाने के लिए नहीं… लेकिन अधिकतर संबंध इसी तरह से जीवन भर चलते जाते हैं.
मुझे व्यक्तियों के ऐसे व्यवहार पर कई बार हैरानी होती है. इन रिश्तों में वे कितनी ही ग़ैरज़रूरी बातें, दुर्व्यवहार अपना आत्मसम्मान दांव पर लगाकर सहते जाते हैं. पहला व्यक्ति बार-बार दुर्व्यवहार करता है, अपमान करता है और दूसरा व्यक्ति उसे यह एहसास तक नहीं दिलाता कि उसका ऐसा व्यवहार ग़लत है. क्या अपने लिए बात करना, अपने लिए विरोध करना, अपने आत्मसम्मान के लिए उठ खड़े होना, ग़लत का विरोध करना इतना कठिन होता है? यदि अपने ऊपर हो रहे अन्याय के ख़िलाफ़ ही खड़े नहीं हो सकते तो किसी और के साथ हो रहे अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ कैसे उठा पाओगे? जिसे विरोध का रास्ता या तरीक़ा नहीं पता, उसे तो फिर भी समझा जा सकता है, लेकिन जो सब कुछ मालूम होते हुए भी आवाज़ नहीं उठा रहा हो तो फिर उसे विक्टिम कार्ड खेलने का अधिकार नहीं होना चाहिए.
मुझे लगता है कि वैवाहिक जीवन को हम सब सुखी रहने के लिए ही अपनाते हैं, परेशान होते रहने के लिए नहीं, पर उस सुख का मार्ग भी हमें ही खोजना होता है. विकल्प हमेशा मौजूद रहते हैं, बस हम हमेशा एक ही आसान विकल्प चुनते हैं, जो हमें तकलीफ़ की राह पर वापस ले जाता है. जबकि ज़रूरत इस बात की होती है कि हम सही विकल्प चुनें और इस रिश्ते को बराबरी के धरातल पर ले आएं.
फ़ोटो साभार: पिन्टरेस्ट