हर धार्मिक व्यक्ति अपने धर्म, अपने मज़हब को श्रेष्ठ और पूर्ण मानता है. वहीं विज्ञान, जिसने मानव जीवन को आसान बनाया, हर मज़हब के लोगों के लिए, वो पूर्णता का दावा नहीं करता. विज्ञान कहता है कि अभी हमें और जानना है. संविधान कहता है सबके मानव अधिकार एक समान हैं. लेकिन मज़हब में डूबे हुए लोग एक दूसरे के मानव अधिकार कुचले जाने पर ख़ुश होते हैं, इन बातों पर प्रकाश डालते हुए सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार इस बात की ओर ध्यान दिला रहे हैं कि यह यह मज़हबी सोच बावजूद इसके चली आ रही है कि हम सभी की यह धरती सांझी है.
धार्मिक व्यक्ति कहता है पहले ज्ञान था, पर अब हम ज्ञान को भूल चुके हैं और अज्ञानी हो गए हैं. विज्ञान कहता है पहले हम कम जानते थे, आज हम पहले से ज़्यादा जानते हैं. और भविष्य में हमें और भी बहुत कुछ जानना है, क्योंकि ज्ञान धीरे-धीरे बढ़ता है.
धार्मिक व्यक्ति कहता है सत्य मेरे मज़हब में है. जो कुछ सत्य था वह मेरे मज़हब की धार्मिक किताब में लिखा जा चुका है. मेरे मज़हब की सारी बातें सच हैं. जबकि विज्ञान कहता है अभी तक के प्रयोगों और अनुभवों के अनुसार हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं किअभी हमें और सत्य जानना है.
विज्ञान कोई दावा नहीं करता. उसके पास कोई वाद नहीं है. यहां आपकी पसंद-नापसंद का कोई मतलब नहीं है. यह किसी पर अपनी बात मानने के लिए दबाव नहीं डालता. विज्ञान के पास घमंड नहीं है. वह नम्र है. विज्ञान अपना लाभ उसे भी देता है जो उस में यक़ीन नहीं करते.
बुख़ार होने पर अल्लाह का नाम उसी को राहत देता है, जो अल्लाह में यक़ीन करता है. इसी तरह बुख़ार होने पर राम का नाम उसी को शांति देता है जो राम में विश्वास करता है. लेकिन विज्ञान का बनाया हुआ पंखा सबको एक जैसी शीतलता देता है. भले ही आप विज्ञान और पंखे में यकीन करते हों या नहीं.
मनुष्य आज जो जी रहा है वह वैज्ञानिक समझ के कारण जी पा रहा है. घर बनाने का विज्ञान हो समाज और आपसी रिश्ते समझने का समाज विज्ञान या मनोविज्ञान हो. पहिए की खोज से लगाकर चिकित्सा या अन्य जीवन का कोई भी क्षेत्र हो. मनुष्य ने देख कर, समझ कर, खोज करके विज्ञान की समझ को आगे बढ़ाया है. समाज का कामकाज संविधान, क़ानून और समाज विज्ञान के आधार पर चलता है
संविधान कहता है सबके मानव अधिकार एक समान हैं. लेकिन मज़हब में डूबे हुए लोग एक दूसरे के मानव अधिकार कुचले जाने पर ख़ुश होते हैं. धर्म की बुनियाद पर अलग-अलग समुदाय में बंटे हुए लोग, ख़ुद को दूसरों से अलग समझते हैं और दूसरे की तकलीफ़ पर या तो ध्यान नहीं देते या उन्हें तकलीफ़ में देखकर ख़ुश होते हैं. और यही नहीं, वे तकलीफ़ देने वाली सरकार का समर्थन करते हैं.
जबकि सच्चाई यह है हम सबके सुख दुख सांझे हैं, धरती सांझी है, समाज सांझा है. एक समुदाय तकलीफ़ में रहेगा तो तकलीफ़ सबको होगी. यह बात समझना बहुत मुश्क़िल तो नहीं है, लेकिन फिर भी सच्चाई यही है किअभी समझदारी पर आधारित समाज बनना बाक़ी है!
फ़ोटो : फ्रीपिक