हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं, जहां आस्था जैसी प्रबल भावना, और वो अज्ञात सत्ता भी महज़ बिगाड़ के डर पर टिकी है. आप ख़ुद ईश्वर तक से स्नेह और सौहार्द की उम्मीद नहीं कर सकते? एक समाज की ऐसी मानसिकता हो तो उससे कितना प्रतिकूल माहौल बनता है क्या कल्पना की जा सकती है? क्या ऐसे भयभीत आस्थावान समाज से आप इंसानियत भरे व्यवहार की उम्मीद कर सकते हैं? कनुप्रिया की डायरी में दर्ज ये बातें आंखें खोलने वाली हैं. ये बातें हर जागरूक नागरिक को यह सोचने के लिए बाध्य करती हैं कि ऐसी आस्था का आख़िर क्या मोल है?
बीकानेर में इन दिनों धार्मिक मेलों का मौसम चल रहा है. लोग पैदल कई किलोमीटर पुनरासर और रामदेवरा की यात्राएं कर रहे हैं. लोगों के पैरों में छाले पड़ गए हैं, चला नहीं जा रहा, मगर ये सच है कि आस्था से बलवान मैंने अब तक कुछ नहीं देखा.
मैं आमतौर पर नास्तिक मानी जाती हूं, हालांकि मुझे पता है कि मैं भले पूजा, आस्था और धार्मिक क्रियाकर्मो में ज़्यादा यक़ीन नहीं करती, मगर अकेलेपन और दुख में, यहां तक जब कोई दिल की सुनने वाला न हो, मैंने किसी अदृश्य ईश्वर से अपने मन की बातें कहीं हैं. मुझे तो कभी कभी वही सबसे सच्चा दोस्त लगता है, ऐसा जो मेरी चुपचाप सुन लेता है, जब कोई सुनने वाला न हो. इस तरह किसी अज्ञात से मेरा मित्रता का नाता है, भले ही एकतरफ़ा. तो ज़ाहिर है मैं नास्तिकों और आस्तिकों दोनों द्वारा ख़ारिज, बेदख़ल क़ौम में हूं.
आज किसी ने पुनरासर का प्रसाद देते हुए क़िस्सा सुनाया कि कैसे उनकी बस खड्डे में गिरते गिरते बची, जब बाबे का नाम लेकर बस में प्रसाद बांटा गया. मैं आमतौर पर आस्थावान लोगों की आस्था को छेड़ती नहीं. जबरन तार्किक ज्ञान देना मुझे जबरन धार्मिक ज्ञान जैसा ही काम लगता है, जब तक कोई मुझसे मेरी राय न पूछे. मगर इस क़िस्से पर मुझे हंसी आ गई. मेरी हंसी से धार्मिक भावना आहत होनी ही थीं, हुईं. तुरन्त फ़तवा टाइप जारी हुआ कि आप नास्तिक हो, ऊपर वाला जिस दिन आपके नाम का पर्चा फाड़ेगा उस दिन पता चलेगा. मैने कहा कि वो मेरे नाम के इतने पर्चे फाड़ चुका है कि अब रोक दे तो उसका भला हो. सच ये है कि मेरी ऊपरवाले से कोई दुश्मनी नहीं, वो मेरे हंसने भर से मेरे नाम का पर्चा फाड़ दे तो मुझ निरीह पर अपनी ताक़त दिखाने की उसकी कोशिश पर मुझे ताज्जुब ही होगा.
मगर दूसरी तरफ़ देखिए तो लोगों के बीच ईश्वर भी भय के बल पर बना हुआ है, प्रेम के नहीं? हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं, जहां आस्था जैसी प्रबल भावना, और वो अज्ञात सत्ता भी महज़ बिगाड़ के डर पर टिकी है. आप ख़ुद ईश्वर तक से स्नेह और सौहार्द की उम्मीद नहीं कर सकते?
एक समाज की ऐसी मानसिकता हो तो उससे कितना प्रतिकूल माहौल बनता है क्या कल्पना की जा सकती है? क्या ऐसे भयभीत आस्थावान समाज से आप इंसानियत भरे व्यवहार की उम्मीद कर सकते हैं? कभी कभी जितने ज़्यादा आस्थावान लोग होते हैं मुझे उनसे, उतना ही ज़्यादा डर लगता है. वो भीतर से बेहद रूखे और अविनीत लगते हैं, क्योंकि ख़ुद उनका ईश्वर भी ऐसा ही है.
क्या आस्थावानों को डर है कि वो किसी प्रेमिल ईश्वर की कल्पना करेंगे तो ईश्वर का अस्तित्व ही ख़तरे में आ जाएगा? या फिर सत्ता और प्रेम का सहअस्तित्व सम्भव ही नहीं?
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट