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ओए अफ़लातून
Home बुक क्लब नई कहानियां

ऊपर वाली खिड़की: पूनम अहमद की कहानी

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
June 27, 2022
in नई कहानियां, बुक क्लब
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Book Club
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खिड़कियां न सिर्फ़ मकानों में होती हैं, बल्कि ये हमारे दिलों में भी होती हैं. कई बार कुछ खिड़कियां हमारी कई बीती हुई अच्छी, बुरी यादों का वो झरोखा भी होती हैं, जिन्हें हम कभी भूल नहीं सकते. इस कहानी में आपको एक युवती के मन की खिड़की की झलक मिलेगी.

 

लखनऊ से मेरठ तक का मेरा सफ़र अनमना सा ही बीता. पिछले दो सालों में मुझसे अगर कोई पूछे कि सबसे मुश्क़िल काम मेरे लिए क्या है तो मेरा जवाब होता, मायके, मेरठ जाना! दो साल पहले मेरा नवीन से विवाह हुआ है, विवाह हुआ है या कर दिया गया है, इन दोनों बातों में फ़र्क़ है ! और यह फ़र्क़ वही जानता है, जिसने इस बात को महसूस किया है कि विवाह हुआ नहीं, कर दिया गया है. माता पिता ने एक ज़िम्मेदारी निपटा ली है, बस! यही हुआ है! वरना शादी के बाद दो सालों में क्या कोई लड़की एक बार भी मायके न आती? नवीन ने कई बार पूछा, कई रस्मों के लिए मेरा मायके जाना बनता था पर मेरे अल्पभाषी होने ने किसी को ज़्यादा सवाल पूछने की सहूलियत दी ही नहीं.

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लखनऊ में मेरा ससुराल भरा पूरा था, सास-ससुर, एक देवर, एक विवाहित ननद. कपड़ों का शो रूम था, मेरे माता पिता के लिए इतना ही बहुत था कि उन्हीं की जात बिरादरी में अच्छा लड़का मिल गया. उनके लिए अच्छे लड़के की परिभाषा ही यही थी कि लड़के का परिवार कमाता खाता हो. बस! इससे किसी को मतलब नहीं था कि मैं एक जीती जागती लड़की हूं, इंसान हूं और मेरा दिल भी किसी के नाम से धड़कता है. अब दिल अनवर के नाम से धड़का तो इसमें मेरी क्या ग़लती? प्यार कोई सोच समझ कर थोड़े ही किया जाता है, बस हो जाता है!
जैसे ही सामने वाले घर में रह रहे किरायेदार अनवर को देख मेरे चेहरे के रंग बदलने लगे, वहीं मेरी मां ने मुझ पर पहरे बिठा दिए. सबसे पहले ऊपर बने मेरे कमरे की खिड़की पर मेरा आना जाना बंद हुआ, मां कभी भी अनवर को छत पर देख लेतीं, फौरन मुझे आवाज़ देकर नीचे बुला लेतीं.

मैं भी समझ रही थी और मेरी छोटी बहन मीता भी. मां की झिड़कियों से पिता भी समझ गए और पहरे बढ़ते गए. अनवर और मैं एक दूसरे को देखते, मुस्कुराते, करार पाते और अपनी अपनी दुनिया में लौट जाते. बस इतना ही सुकून था दोनों को कि मैं ऊपर वाले कमरे में ही सोती, सोने से पहले मैं एक बार खिड़की में खड़ी होती और दो बेचैन दिलों को कुछ पल अपने लिए मिल जाते. यह सिलसिला ज़्यादा दिन नहीं चला, मां ने उस खिड़की पर सामान रख, वह रास्ता ही बंद कर दिया जहां से होकर दिल चैन पाते थे और अपनी जाति में लड़का ढूंढ़ते ही चट मंगनी पट ब्याह करके ही मानी. मम्मी-पापा बहुत ख़ुश थे कि उन्होंने अपनी बेटी को समय रहते दूसरी जाति के लड़के को प्रेम करने से रोक लिया… वे शायद नहीं जानते कि प्रेम को कोई रोक नहीं सकता. वह आज़ाद है! बस मन में ऐसी कुंडली मार कर बैठ जाता है कि किसी को दिखाई नहीं देता. मैं फिर मायके आ ही नहीं पाई, अनवर को भुला दिया… भुला दिया? नहीं, तभी तो नहीं आ पाई मायके! हां, इस बीच सबसे फ़ोन पर बात करती रही हूं. अब मीता की कल सगाई है तो मीता की ज़िद पर ही एक दिन के लिए आई हूं, बस. कल रात की ट्रेन से वापस चली जाऊंगी. स्टेशन से बाहर आकर मैंने रिक्शा लिया, ‘थापर नगर’ कहते हुए सिर्फ़ अनवर का ध्यान आया, होगा या नहीं? कहीं चला तो नहीं गया होगा? अपनी शादी तय होने के बाद से मैंने उसे देखा ही नहीं था, मीता ने बताया था कि दूसरे शहर चला गया था.

आर पी कॉलेज के आगे से रिक्शा निकला तो वह दिन आंखों के आगे घूम गया, जब मैं कॉलेज से निकली तो अनवर यहीं, इसी पेड़ के नीचे हाथ बांधे खड़ा था. मैं हैरान सी उसके पास जाकर खड़ी हो गई थी. कितनी देर दोनों इस सड़क पर पैदल चलते रहे थे, जब बिना कुछ कहे और कितना कुछ मौन-सा सुनते हुए. मेरी आंखों में अचानक आंसू आ गए. दिल से एक आह निकल गई. यह शहर मुझे इतना अजनबी क्यों लग रहा था? यहां तो मैं पली बढ़ी हूं. क्या ज़िन्दगी से एक इंसान के जाने पर सब कुछ इतना ख़ाली-ख़ाली लगता है?

मेरे दिल में अपने माता पिता के लिए सिर्फ़ नाराज़गी थी. मैं घर पहुंची, मीता मुझसे लिपट गई. मैं मम्मी-पापा को दूर से नमस्ते कर एक मेहमान की तरह बैठ गई. उन्हें भी मेरी नाराज़गी का अच्छी तरह भान था. मेरी बहुत कम बोलने की आदत ने हमेशा एक बचाव का काम किया है. यह कम ही लोग जानते हैं कि जो कम बोलते हैं, उनके अंदर लफ़्ज़ों का एक समंदर ठाठे मारा करता है. मैं फ्रेश हुई, मीता उत्साहित थी, ख़ुशनसीब थी. अपनी ही जाति के लड़के को पसंद करती थी और अब उसी से कल सगाई है. कितना भी अनजान बनतीं, पर हैं तो मां ही न! मेरे दिल की उदासी मेरी मां को बेहाल कर रही थी, मेरे सर पर हाथ फेरते हुए उन्होंने माहौल को हल्का करने की कोशिश में पूछा, “जबसे आई है, मेहमान बन कर उठ बैठ रही है. थोड़ा आराम कर ले ऊपर जाकर. सफ़र से थक गई होगी. किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो बता.”
मैंने अपना बैग उठाया, ऊपर की सीढ़ियों पर जाते हुए एक पल रुक कर मां को देखते हुए पूछा, “खिड़की से सामान तो हटा ही दिया होगा, अब कुछ देर खिड़की पर खड़ी हो सकती हूं?”
पर मैं जवाब के लिए रुकी नहीं. अनवर नहीं होगा, जानती हूं. हो भी तो भी अब कुछ नहीं हो सकता. सब ख़त्म हो गया है, जानती हूं. पर मुझे यूं ही कुछ पल उस खिड़की पर खड़ा होना था, कुछ पल अपने भीतर समेटने थे, जिनमें डूब कर मैं फिर अगले कुछ साल तक जी सकूं.

फ़ोटो: पिन्टरेस्ट

Tags: fictionshort storystoryUpar wali Khidkiऊपर वाली खिड़कीकहानीफ़िक्शनशॉर्ट स्टोरीस्टोरी
टीम अफ़लातून

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