नेटफ़्लिक्स पर दिसंबर में प्रदर्शित हुई फ़िल्म वध में मुख्य किरदार में संजय मिश्रा के साथ नीना गुप्ता हैं. दोनों ही मंजे हुए कलाकार हैं और पूरी फ़िल्म को साध ले गए हैं. सारी फ़िल्म ग्वालियर की तंग गलियों में शूट की गई है. कहानी और निर्देशन जसपाल सिंह संधू और राजीव बर्नवाल का है, जो शानदार बन पड़ा है. समय निकालकर नेटफ़्लिक्स पर यह फ़िल्म ज़रूर देखिए यह कहना है भारती पंडित का.
फ़िल्म: वध
प्लैफ़ॉर्म: नेटफ़्लिक्स
सितारे: संजय मिश्र, नीना गुप्ता, मानव विज, सौरभ सचदेव और अन्य
निर्माता: यश राज फ़िल्म्स
लेखक व निर्देशक: जसपाल सिंह संधु, राजीव बर्नवाल
इसका शीर्षक पढ़कर पहले लगा कि कोई मसाला फ़िल्म होगी, पर फ़िल्म के कथानक ने अन्दर तक झिंझोड़कर रख दिया. शब्दकोश के हिसाब से हत्या को गलत और वध को सही, हत्या को कायराना और वध को साहसी कृत्य के तौर पर लिया जाता है. वध का अर्थ अन्यायी के ख़ात्मे से लिया जाता है. यह फ़िल्म इसी लीक को पकड़े हुए चलती है.
ग्वालियर की पृष्ठभूमि पर रची गई यह कहानी साधारण सी शुरुआत लिए हुए है, जिसमें वृद्ध शिक्षक पिता शंभुनाथ मिश्रा है, जो बेटे की अमेरिका जाने की ज़िद के चलते अपना सब कुछ दांव पर लगाए हुए हैं. और अब बेटे ने अमेरिका में सेटल होकर पिता की मदद करने से मना कर दिया है. वृद्ध मां मंजू है जो जी-जान से अपने पति की संगिनी का कर्तव्य वहन कर रही है और यह आस लगाए हुए है कि बेटा उनकी खोज-ख़बर लेगा. मिश्रा जी मोहल्ले के बच्चों को मुफ़्त में पढ़ाते हैं और शांति से जीवन बिता रहे हैं.
कहानी की शुरुआत ही मिश्रा जी की बेचारगी से होती है… बेटे के लिए मिश्रा जी ने महाजनी करने वाले एक नेता से कर्ज़ लिया है और अब उसका गुंडा प्रजापति पांडे आए दिन उन्हें अपमानित करता है, घर में घुसकर धमकाता, मारता है…पुलिस भी मिश्रा जी की नहीं सुनती. परिस्थिति से लाचार एक असहाय मास्टर और उसे धमकाता गली का गुंडा…दिल टूक-टूक हो जाता है देखकर. लोग तमाशा देखते हैं, वीडियो बनाते हैं पर सहायता नहीं करते. संजय मिश्रा ने मास्टर जी की भूमिका निभाई है और उनके चेहरे का एक-एक भाव दहला देता है दिल को.
नेता की नज़र मिश्रा जी के घर पर है और इसके लिए पांडे उन्हें धमकाता है. सुलह करने के लिए उनके पड़ोस की लड़की नैना को उसे सौंपने की मांग करता है. आवेश में मिश्रा जी के हाथों पांडे का ख़ून हो जाता है. वे लाश को बेहतरी से ठिकाने लगाते हैं और कहानी इसी का आधार लिए आगे बढ़ती है.
कहने को हम लोकतंत्र की बात करते हैं, क़ानून की बात करते हैं, मगर असमानता और गुंडागर्दी किस क़दर आम आदमी का जीवन हलकान किए हुए है, यह फ़िल्म उसका सटीक चित्र खींचती है. जीवन भर अपनी इज्ज़त के लिए जीता आम आदमी अंत तक उसी इज्ज़त को बचाने की जुगत में पिसता रहता है, घुटता रहता है, दबता रहता है. सत्ता भी रुपए की और क़ानून भी रुपए वालों का. और रुपए के इस खेल में मास्टर जी जैसे आम और लाचार आदमी की कोई सुनवाई नहीं है.
चौथाई से ज़्यादा फ़िल्म पांडे के अत्याचार और दुर्व्यवहार से भरी है और हर दृश्य देखकर मन में आता है कि यार इतना क्यों डरना है मास्टर जी को? पर सच यही है कि पलटवार करना भी बहुत हिम्मत का काम है, वह भी उस समाज में जहां व्यक्ति ख़ुद समाज में मूल्यों का प्रणेता बना हुआ हो. पर अंत में सब्र का बांध टूट जाता है और पांडे का वध किया जाता है. मिश्रा जी कहते हैं, मैंने हत्या नहीं की, वध किया है. मिश्रा जी की पत्नी अवाक् है. आपने यह क्या कर दिया, हमारे भगवान की सुनवाई तक का इंतज़ार नहीं किया. हमें किसी को सज़ा देने का अधिकार नहीं है.
मिश्रा जी ने सही किया या नहीं, इस पर ख़ासी बहस हो सकती है, पर फ़िल्म में पांडे को मरते देख बड़ी राहत मिलती है. कुछ मामलों में हिंसा का जवाब हिंसा से ही दिया जाना आवश्यक हो जाता है, विशेषतः जब प्रतिपक्ष किसी की भलमनसाहत या डर का नाजायज़ लाभ उठा रहा हो. आत्मरक्षा, आत्मसम्मान की रक्षा सबसे बड़ा धर्म है और इसके लिए जो भी ज़रूरी हो, करना आवश्यक है.
वास्तव में सही-ग़लत का फ़ैसला तब हो सकता है जब हमारा समाज आदर्शवादी हो, जहां सबको समान अधिकार हो, कोई किसी पर सत्ता का रौब न जमाता हो, कोई किसी का दमन न करता हो. एक ऐसे समाज में जहां लाचार की कोई सुनवाई न हो, उसकी चुप को कमज़ोरी समझा जाता हो, उसकी तकलीफ़ में कोई साथ तक न देने आता हो, ऐसे में एक पत्थर उछालना या आवाज़ बुलंद करना निहायत ज़रूरी होता है. मिश्रा जी कहते हैं, सालों पहले एक बच्चे को जोर से डांट दिया था, उसकी आंखों में आंसू आ गए थे और हमें रात भर नींद नहीं आई थी मगर इस पांडे को मारकर हम रात चैन से सोए. हमने कुछ भी ग़लत नहीं किया.
ऐसे में एक युवा की बात याद आई जो विरोध प्रदर्शन की हिंसा को सही बताते हुए कह रहा था, आप ही बताइए आंटी, प्रदर्शन या हिंसा की ज़रूरत पड़ी ही क्यों? इसीलिए न कि हमारी बात सुनी ही नहीं जा रही, यदि देश लोकतान्त्रिक है तो हरेक की बात को मान्यता क्यूं नहीं है? क्यों सत्ता और धन की सुनवाई है और दूसरे पक्ष को नकारा जाता रहा है? यदि धीमी आवाज़ नहीं सुनेंगे तो आवाज़ ऊंची करनी होगी और यदि वे लाठी बरसाएंगे तो हमें पत्थर उछालना होगा.
धीमी गति से फ़िल्म आगे बढ़ती है. पुलिस और राजनेता हरेक के अपने-अपने स्वार्थ हैं, उनकी जोड़-तोड़ के चलते मिश्रा जी इस चक्रव्यूह से बाहर आ जाते हैं. फ़िल्म में संजय मिश्रा के साथ नीना गुप्ता हैं. दोनों ही मंजे हुए कलाकार हैं और पूरी फ़िल्म को साध ले गए हैं. सारी फ़िल्म ग्वालियर की तंग गलियों में शूट की गई है. कहानी और निर्देशन जसपाल सिंह संधू का है और शानदार बन पड़ा है. तो समय निकालकर नेटफ़्लिक्स पर यह फ़िल्म ज़रूर देखिए.
फ़ोटो: गूगल