वैलेंटाइन्स डे आते न आते हर वर्ष हमारे देश में इस तरह के त्यौहारों को पाश्चात्य परंपरा का पैरहन ओढ़ा दिया जाता है और कई बार युवा जोड़ों के साथ मारपीट या अभद्रता भी की जाती है. चाहे हज़ारों बंदिशें बिठा दी जाएं, बावजूद इसके यह सच है कि इतिहास के हर समय में प्रेम रहा था, रहा है और रहेगा. प्रेम एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, जिस पर धर्म, संप्रदाय या संस्कृतिक का हवाला देकर अंकुश लगाने का प्रयासभर किया जा सकता है, लेकिन मोहब्बत ऐसी शै है जिसे रोकना कभी संभव नहीं हो सकेगा. पर ‘सिर्फ़ हंगाम खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं’ की तर्ज़ पर मेरा ज़ोर यहां इन बातों की बजाय आपको यह बताना है कि भारत में वैलेंटाइन डे की तरह कई जनजातियों में अपने साथी को ख़ुद चुनने और उसके प्रति मोहब्बत का इज़हार कर, उसका हो जाने की परंपरा न जाने कब से रही है और यह आज भी मौजूद है.
पाश्चात्य देशों से भले ही आई हो, पर वैलेंटाइन्स डे मनाने की परंपरा युवाओं में पिछले कई सालों में ख़ासी लोकप्रिय हुई है. यह जितनी लोकप्रिय हुई है, पारंपरिक संस्थानों द्वारा इसका विरोध भी उतना ही मुखर हुआ है. मेरी मानें तो इस दुनिया को पहले भी और आज भी, जिस बात की सबसे अधिक ज़रूरत है, वो है-प्रेम, मोहब्बत यानी इश्क़ की. क्योंकि घृणा, कड़वाहट और द्वेष तो ख़ुद ब ख़ुद फैलता जाता है, उसे रोकने पर हमारा ज़ोर नहीं होता, लेकिन बात प्रेम की हो तो उसे रोकने के लिए हमारे पास तरह-तरह के तर्क होते हैं और उसे रोकने में हम कोई कसर नहीं छोड़ते. ख़ैर… चूंकि बात वैलेंटाइन डे से शुरू हुई है तो पहले इसी के बारे में जान लेते हैं.
वैलेंटाइन्स डे, आख़िर क्यों?
तो जनाब, यह कहानी संत (सैंट) वैलेंटाइन से जुड़ी है. अब मज़े की बात ये है कि संत वैलेंटाइन के बारे में लोगों की जानकारी बहुत सटीक नहीं है और कैथलिक चर्च इस बात की पुष्टि करते हैं कि कुल मिलाकर 11 सैंट वैलेंटाइन्स अब तक हो चुके हैं. इस सिलसिले में वर्ष 1260 में संकलित की गई एक किताब ‘ऑरिया ऑफ़ जैकोबस डी वॉराजिन’ में उनका ज़िक्र मिलता है. तीसरी शताब्दी (268-270) में रोम का शासक था क्लॉडियस टू गोथिकस. उससे जुड़ी यह किंवदंति वैलेंटाइन्स डे की वजह बताती है. क्लॉडियस का मानना था कि विवाह करने से पुरुषों की शक्ति का हास होता है और उनकी बुद्धिमत्ता में कमी आती है. उसने अपने सैनिकों और अधिकारियों को विवाह न करने का फ़रमान सुनाया. सैंट वैलेंटाइन ने इस आदेश का विरोध किया और उनका संरक्षण पाकर कई सैनिकों और अधिकारियों ने शादी कर ली. इससे क्रुद्ध क्लॉडियस ने 14 फ़रवरी के दिन सैंट वैलेंटाइन को फांसी की सज़ा दे दी. फांसी से पहले सैंट वैलेंटाइन ने जेलर की नेत्रहीन बेटी जैकोबस की आंखों को ठीक कर दिया और उसे एक पत्र लिखा, जिसके अंत में उन्होंने लिखा था ‘तुम्हारा वैलेंटाइन’. तभी से लोग इस दिन को सैंट वैलेंटाइन के नाम पर प्रेम के पर्व के रूप में मनाने लगे, जहां प्रेम को केवल स्त्री-पुरुष के बीच के प्रेम से परे कहीं गहरे मायने मिले-पूरे विश्व में नि:स्वार्थ प्रेम का फैलाव.
गूढ़ार्थ ज़्यादा मायने रखता है, लेकिन…
यूं तो इस पूरे वाक़ये का गूढ़ार्थ यही है कि विश्वभर में प्रेम का संदेश पहुंचे, लोग एक-दूसरे से प्रेम करें, एक-दूसरे के प्रति संवेदना रखें, यक़ीनन प्रेमी जोड़ी भी इससे अलग नहीं, लेकिन इसका गूढ़ार्थ संकुचित नहीं था. वैलेंटाइन्स डे को मनाने का उद्देश्य प्रेम के हर रूप को सराहना या मान देना माना जा सकता है, लेकिन चीज़ों का सामान्यीकरण करने में माहिर आम लोग इसे प्रेमी-युगल के प्रेम का ही पर्याय मानने लगे हैं. बात यह भी हो तो भी वैलेंटाइन्स डे का विरोध यह कह कर नहीं किया जाना चाहिए, कि यह पाश्चात्य परंपरा है. क्योंकि दरअसल प्रेम एक रूहानी परंपरा है, जो मनुष्य की उत्पति से लेकर आज तक मौजूद है या यूं कहना ज़्यादा सही होगा कि प्रकृति के उत्पत्ति से लेकर आज तक हर जगह मौजूद है. हमारे देश में भी आदिवासियों के बीच अपना साथी चुनने और उसे प्रणय निवेदन करने को लेकर कई परंपराएं हैं, जिनपर कम से कम आज तो नज़र डाली जानी ही चाहिए.
प्रेम पर्व के रूप में मनाया जाता था चंद्रोत्सव
चर्वाक दर्शन के बारे में आपने कभी न कभी सुना होगा. या फिर ऋषि चर्वाक का यह श्लोक कहीं न कहीं पढ़ा-सुना होगा: यावद्जीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत, भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत:. यानी जब तक जिओ सुख से जिओ, कर्ज लेकर घी पिओ या मौज-मस्ती करो, क्योंकि शरीर के भस्म हो जाने के बाद तुम वापस नहीं आनेवाले हो. लगभग 600 ईसा पूर्व हुए ऋषि चर्वाक को नास्तिक के रूप में जाना जाता था, क्योंकि कोई प्रमाण न होने के चलते उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व को नकार दिया था. मराठी लेखक विद्याधर पुंडलीक की किताब चर्वाक की मानें तो चर्वाक के समय उनके मतावलंबी एक ख़ास ऋतु में चंद्रोत्सव पर्व मनाया करते. इसे प्रेम और प्रणय के उत्सव के रूप में मनाया जाता था, जहां युवक-युवतियां साथ में नृत्य करते और एक-दूसरे को रिझाने का प्रयास करते थे. कहा जाता है कि यह उत्सव कई दिनों तक चलता था. और तब भी इस उत्सव के कई विरोधी मौजूद थे, जो उस समय के राजा से इस संदर्भ में शिकायत किया करते थे कि यह नहीं होना चाहिए. लेकिन चर्वाक को माननेवाले प्रेम का उत्सव मनाया करते थे.
गरासिया जनजाति में बिन फेरे रहना भी मान्य है
यह हमारे देश की विविधता ही है, जो इसे हर मामले में ख़ास बनाती है. वैलेंटाइन्स डे पर प्रेम का विरोध करनेवालों को शायद राजस्थान की गरासिया जनजाति के इस रिवाज़ के बारे में मालूमात न हों. अरावली की पहाड़ियों पर पलनेवाले गरासी लोग उदयपुर के गोगुंदा को अपनी उत्पत्ति की जगह मानते हैं. इस जनजाति के युवा अपने साथी को चुनने के लिए मेलों का इंतज़ार करते हैं. फसलों की कटाई के बाद मार्च-अप्रैल के महीने में इनका एक प्रमुख मेला लगता है, गणगौर के त्यौहार पर. इस मेले में युवक और युवतियां सज-धज कर पहुंचते हैं और वहां से प्रेमिकाएं अपने प्रेमी के साथ उनके घर चली जाती हैं. कई लड़के-लड़कियां तो पहली बार मेले में ही मिलते हैं, एक-दूसरे को पसंद करते हैं और अपना साथी मान लेते हैं. यह जानते हुए भी कि उनके युवा बच्चे इस मेले में क्यों जा रहे हैं, उनके परिवार के बड़े उन पर कोई बंदिश नहीं लगाते. जब प्रेमिका अपने प्रेमी के घर पहुंचते है तो प्रेमी के घर के बड़े-बुज़ुर्ग प्रेमिका के परिवारवालों को उसके अपने घर में होने की सूचना देते हैं. कुछ दिनों बाद लड़की के घरवाले यह देखने आते हैं कि लड़की अपने प्रेमी के घर सुखी है या नहीं. यदि बेटी संतुष्ट है तो आगे की रस्में की जाती हैं. यदि जोड़ा चाहे तो बाद में आपस में शादी कर सकता है और नहीं तो बिना शादी के भी साथ रह सकता है. यदि कोई प्रेमी जोड़ा या पति-पत्नी अलग होना चाहें तो भी गरासियों के यहां इस पर कोई पाबंदी नहीं है. वह लड़की अपने मायके में वापस लौट सकती है.
मुरिया जनजाति में घोटुल परंपरा से चुना जाता है साथी
छत्तीसगढ़ की बस्तर ज़िले की मुरिया जनजाति के बुज़ुर्गों लोगों ने अपनी किशोरियों और किशोरों के लिए अपने माता-पिता की चुभती आंखों से दूर साथ-साथ सोने के लिए घोटुल के नाम से एक छात्रावास की प्रथा शुरू है. वहां उन्हें किसी एक व्यक्ति को अपने लिए चुनने से पहले एक या फिर कई पार्टनर्स के साथ डेट करने और सेक्स का अनुभव लेने की पूरी आज़ादी है. क्योंकि मुरिया लोगों का भरोसा है कि यह अनुभव साझा करने से उनके भीतर जनजातीय संस्कृति को और बल मिलेगा, वे एक-दूसरे से चीज़ें बांटेंगे और उनके बीच लगाव बढ़ेगा, जिससे युवा पीढ़ी का व्यक्तित्व बेहतर होगा.
गांव के सभी शादी के योग्य लड़के लड़कियां घोटुल घर में जाते हैं, जो गांव के बाहर ही एक ऐसा घर होता है, जहां डोरमेटरी की तरह की व्यवस्था होती है. जहां युवा लड़के-लड़कियां एक साथ समय बिताते हैं, एक-दूसरे को समझते हैं और अपनी शादी के रिश्ते की शुरुआत करते हैं.
कोरकू और गोंड जनजाति में पान खिलाकर करते हैं साथी की घोषणा
मध्य प्रदेश के हरदा ज़िले में रहने वाली आदिवासी जनजातियों के युवक-युवतियां भी मेले में ही अपना जीवनसाथी चुनते हैं. हर वर्ष दीपावली के सप्ताहभर बाद यहां एक ठठिया बाज़ार नामक मेला लगता है. जहां ये आदिवासी युवक-युवतियां अपने प्रेमी-प्रेमिकाओं को पान खिलाकर उनके साथ अपनी शादी की घोषणा कर देते हैं. यहां भी कई जोड़े एक-दूसरे से पहली बार ही मिल रहे होते हैं, लेकिन यदि वे एक-दूसरे को पसंद कर पान खिला देते हैं तो मान लिया जाता है कि अब वे जीवनसाथी हैं. पान खिलाने के बाद दोनों एकसाथ लड़के के घर चले जाते हैं और लड़की के परिवार वालों को इस बारे में सूचना भिजवा दी जाती है. होता कुछ यूं है कि युवतियां अपने पसंद के युवक से प्रेम का इज़हार करती हैं और युवक जब हामी भर देता है तो दोनों एक-दूसरे को पान खिलाते हैं और एक-दूसरे के जीवनसाथी बन जाते हैं. यह इस जनजाति में प्रणय के निवेदन का तरीक़ा माना जाता है.
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