अभिनेता रणवीर सिंह की न्यूड फ़ोटोज़ पर अश्लीलता के आरोप लगाए गए हैं और मामला कोर्ट कचहरी तक पहुंच गया है. इस मुद्दे ने एक बार फिर ‘अश्लीलता’ को सुर्ख़ियों में ला दिया है. लेकिन दरअसल, अश्लीलता क्या है? क्या समय और परिस्थिति के साथ इसकी परिभाषा बदल जाती है? और कैसे परिभाषित किया जाए इसे? अश्लीलता की आड़ में सबसे ज़्यादा महिलाओं के साथ ही अत्याचार क्यों होता है? बाज़ारवाद इसका कैसे फ़ायदा उठाता है? इन्हीं सब बातों पर पढ़िए वरिष्ठ संपादक प्रियदर्शन का नज़रिया.
अभिनेता रणवीर सिंह के बेलिबास फ़ोटो शूट पर शुरू हुआ हंगामा थाने-कचहरी तक पहुंच चुका है. निश्चय ही जिस सांस्कृतिक-सामाजिक माहौल में हम पले-बढ़े हैं, उसमें ऐसी बेलिहाज-बेलिबास तस्वीरें कुछ खटकती हैं. वे सुरुचिपूर्ण नहीं लगतीं. लेकिन किसी दृश्य का खटकना या उसका सुरुचिपूर्ण न लगना और उसको अश्लील मान लेना दो अलग-अलग बातें हैं. रुचि या सुरुचि काफ़ी-कुछ सामाजिक संस्कारों द्वारा निर्मित चीज़ होती है, उसमें समय के साथ बदलाव भी आते हैं. यही बात अश्लीलता की अवधारणा के बारे में कही जा सकती है. जो चीज़ें कल तक अश्लील लगती थीं आज वे सुरुचिपूर्ण मालूम होती हैं. पचास और साठ के दशकों की जिन फ़िल्मों को तब के बूढ़े-बुज़ुर्ग नौजवानों को बिगाड़ने वाली बताया करते थे, वे अब क्लासिक का दर्जा पा चुकी हैं. बहुत सारा ऐसा साहित्य जो बीते दिनों अश्लीलता के आरोप में जला दिया गया, अब महान मान लिया गया है.
रणवीर सिंह की तस्वीरों पर कई ऐतराज़ हैं. यह कहा गया कि वे तस्वीरें अश्लील हैं. यह भी कहा गया कि उनसे महिलाओं की भावनाओं को ठेस पहुंचती है. वे कला का नमूना नहीं हैं. उनसे पैसे कमाने की मंशा है. जहां तक अंतिम दो ऐतराज़ों की बात है, उनका कोई ज़्यादा मतलब नहीं है. जो चीज़ कला का नमूना न हो या पैसा कमाने के लिए की जा रही हो, वह ज़रूरी नहीं कि ओछी भी हो और उस पर पाबंदी लगाई जाए. जहां तक भावनाओं को ठेस पहुंचने का सवाल है, यह भी एक अजीब दलील है. देश में अचानक बेहद लोकप्रिय हो चुके ओटीटी प्लैटफ़ॉर्म के कार्यक्रमों में गालियों की भरमार से भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचती जो अपने चरित्र में स्त्री-विरोधी ही होती हैं, उनमें स्त्रियों को लेकर बहुत आक्रामक ढंग से दिखाए जाने वाले खुले दृश्यों से किसी की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचती, तमाम सार्वजनिक माध्यमों पर स्त्रियों का जो ‘वस्तुकरण’ किया जा रहा है, उससे भी किसी को ठेस नहीं पहुंचती, जीवन और समाज में स्त्रियों के साथ जो कुछ हो रहा है, उससे भी किसी को ठेस नहीं पहुंच रही, लेकिन रणवीर सिंह के कपड़े उतार देने से भावनाएं घायल हो जा रही हैं.
अश्लीलता के सवाल पर आते हैं. अश्लीलता के बारे में कई बातें कही जाती हैं. वह देखने वाले की नज़र में होती है. वह दिखाने वाले की नीयत में होती है. वह दृश्य में नहीं होती. दृश्य अपने-आप में एक निरपेक्ष चीज़ है. उसको लेकर आपकी दृष्टि अश्लील हो सकती है. बहुत सारी कला विधाओं को अश्लील होने की तोहमत इसलिए उठानी पड़ी कि उनमें उनके कलाकारों ने जो देखा, बाक़ी दुनिया उससे कुछ अलग देखती रही. कई बार कुछ लोगों की हंसी भी अश्लील हो सकती है और कुछ लोगों की चुप्पी भी. जब लोकसभा में रेणुका चौधरी पर ताना कसते हुए इस देश के प्रधानमंत्री ने शूर्पनखा की हंसी को याद किया था और उनके साथ पूरा सदन ठठा कर हंस पड़ा था तो वह एक अश्लील दृश्य था. जब हस्तिनापुर के दरबार में द्रौपदी का वस्त्रहरण हो रहा था तब सारे महारथियों की चुप्पी अश्लील थी. नक़ली विरोध भी अश्लील हो सकता है और अंधश्रद्धा भी. कभी देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने बनारस में 500 ब्राह्मणों के पांव धोए थे. डॉ राममनोहर लोहिया ने इसे अश्लीलता की संज्ञा दी थी. उन्होंने कहा था कि जो समाज जाति के नाम पर किसी के पांव धोता हो, वह उदासी में डूबा समाज ही हो सकता है.
भारत में स्थूल सामाजिक दृष्टि अक्सर खुलेपन को अश्लीलता से जोड़ देती है. वह इसके विरोध में भारतीय परंपरा का हवाला देती है. यह सच है कि भारत में मर्यादा का बहुत महत्व है. मगर ओढ़ी हुई मर्यादा भी दरअसल कई अश्लील स्थितियों की जनक होती है. बहरहाल, यह मान लें- जो सच भी है- कि सारी मर्यादा ओढ़ी हुई नहीं होती, कुछ मर्यादा-भाव हमारे संस्कारों में बद्धमूल चला आता है. लेकिन क्या परंपरा मर्यादा की ही है? एक परंपरा खुलेपन की भी है. पुराने दौर में यह खुलापन परिधानों में भी दिखता है और बात-व्यवहार में भी. पूर्व वैदिक काल संभवतः अपनी उन्मुक्त जीवन दृष्टि के लिए भी जाना जाता था, जिसे उत्तर वैदिक काल ने कई जड़ताओं में बदल डाला. अजंता-एलोरा इस खुलेपन की निशानियां हैं.
लेकिन जब अश्लीलता का सवाल उठता है तो दोनों दृष्टियां बड़े आक्रामक ढंग से एक-दूसरे से उलझ जाती हैं. मर्यादा की परंपरा को लगता है कि उसके समानांतर कोई रेखा है ही नहीं, जबकि खुलेपन की परंपरा को लगता है कि जो भी मर्यादा है, वह रूढ़िग्रस्त है. जबकि सच यह है कि अगर एक देश में दो या दो से अधिक परंपराएं हैं तो उन्हें एक-दूसरे के प्रति उदारता दिखानी चाहिए. खुलेपन की परंपरा अगर चाहती है कि मर्यादा की परंपरा उसका सम्मान करे तो उसे भी मर्यादा की परंपरा का सम्मान करना होगा.
तो अब रणवीर सिंह के फ़ोटो शूट पर लौटें. अगर कुछ लोगों को यह मर्यादा विरुद्ध लग रहा है तो वे इसे न देखने को स्वतंत्र हैं. संकट यह है कि मर्यादा का अपना भाष्य वे बाक़ी समाज पर भी थोपना चाहते हैं. और फिर इस तथाकथित मर्यादा की चपेट में सबसे पहले और सबसे ज़्यादा स्त्रियां आती हैं. लगभग हर समाज उनका ‘ड्रेस कोड’ तय करने को तैयार रहता है. हर देश में एक ‘डिज़ाइनर अच्छी लड़की’ बनाने की कोशिश होती है. यह कोशिश इस कदर ख़तरनाक होती है कि वह लड़कियों के हर क़दम को नियंत्रित करने में लग जाती है. लड़कियों का प्रेम करना तो पाप होता है, बाहर घूमना, किसी से खुल कर बात कर लेना, खिलखिला कर हंस देना या किसी की बात मानने से इनकार कर देना भी ऐसा अपराध हो सकता है जिसके लिए उन्हें पीटा जाए, जलाया जाए और उनके साथ बलात्कार भी किया जाए.
लेकिन अगर मर्यादा की परंपरा स्त्री के साथ इस कदर अन्यायी है तो ख़ुद को आधुनिकता की तरह पेश करने वाली खुलेपन की परंपरा उसके साथ दूसरे छल करती है. दरअसल परंपरा लड़की का घर में गला घोंटती है तो आधुनिकता उसको बाज़ार में बेलिबास कर मारती है. अश्लीलता की किसी भी बहस का फ़ायदा उठाने में बाज़ार सबसे आगे होता है. कभी वह परंपरा के साथ खड़ा होता है और कभी आधुनिकता के साथ. उसे न परंपरा से लगाव है और न आधुनिकता से. उसे बस अपने मुनाफ़े से लगाव है, जो बेशक़, खुलेपन से कुछ ज़्यादा सधता है. लेकिन यह सच है कि खुलेपन के नाम पर बाज़ार कई बार अपनी छुपी हुई अश्लीलता पर समाज की मुहर लगाने की कोशिश में लगा रहता है. इसमें भी कोई हर्ज नहीं होता, अगर बाज़ार इस खुलेपन के केंद्र में सिर्फ स्त्री की देह को न रखता. यह अनायास नहीं है कि जिस दौर में स्त्रियां सबसे ज़्यादा तेज़ी से आगे बढ़ रही हैं, उसी दौर में उनकी खरीद-फ़रोख़्त भी बढ़ रही है.
रणवीर सिंह का फ़ोटो शूट कहीं से कलात्मक नहीं है- न वे इसका दावा कर रहे हैं, उनके लिए वह उनकी कारोबारी प्राथमिकताओं का मामला है. उस पर किए गए केस ने उसको चर्चित बना कर उसे फ़ायदा ही पहुंचाया है. लेकिन जो लोग आज रणवीर सिंह पर मुकदमा कर रहे हैं, कल को दूसरी नायिकाओं पर मुक़दमा करेंगे- घर-परिवार की बहू-बेटियों से तो वे वैसे ही निबट लेंगे. उसके लिए किसी क़ानून की ज़रूरत नहीं. अश्लीलता की अधकचरी अवधारणा वह चाबुक है जिसकी सबसे ज़्यादा मार स्त्रियों को झेलनी है और उसके बाद समाज के उन संवेदनशील लोगों को, जो किसी समानांतर दृष्टि में, खुलेपन में, कला की कोई संभावना खोजते हैं, जीवन की कोई परत देखते हैं. दरअसल हर खुलेपन को अश्लीलता करार देने वाले और इससे डरने वाले वे लोग हैं, जो किसी भी परिवर्तन से डरते हैं, क्योंकि इससे उनका वर्चस्व टूटता है.
साभार: ndtv.in
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट