इस्लाम को मानने वाले पूरी दुनिया में फैले हुए हैं, लेकिन किसी ईद को मनाने के जितने देश उतने ही तौर-तरीक़े कहें, तो कुछ ग़लत न होगा. भारत सहित दुनिया के कई देशों में मुसलमानों के त्यौहार मनाने के तौर-तरीक़े अलग-अलग होते हैं. त्यौहार तो एक ही होता है लेकिन शायद स्थानीय संस्कृति, कल्चर या तहज़ीब का असर कहें, उनमें विविधता तो दिखाई ही देती है. ईद-ए-मिलादुन नबी यानी पैग़म्बर मुहम्मद साहब के जन्मदिन पर मनाई जाने वाली ईद. आइए, शकील अहमद के साथ जानते हैं कि इसे कैसे मनाते हैं.
पूरी दुनिया भर में ‘ईद-ए-मिलादुन नबी’ का मनाई जा रही है. ‘ईद-ए-मिलादुन नबी’ मनाने के तौर-तरीक़े पूरी इस्लामी दुनिया में अलग-अलग हैं. सभी मुस्लिम मुल्क़ स्थानीय परम्पराओं और संस्कृति के अनुसार ‘ईद-ए-मिलादुन नबी’ मनाते हैं और कहीं-कहीं तो इसे ईद या यूं कहें कि ख़ुशी या जश्न के रूप ही मनाया जाता है. लेकिन जहां-जहां यह मनाया जाता है, वहां के रूप-रंग और तरीक़े बिल्कुल ही अलग होते हैं.
इसे ‘मौलिद’ भी कहा जाता है
‘ईद-ए-मिलादुन नबी’ दरअसल पैग़म्बर-ए-इस्लाम मुहम्मद सल्लललाहू अलैही वसल्लम की जन्मतिथि के रूप में मनाया जाता है. इसे ‘मौलिद’ भी कहा जाता है. माना जाता है कि ‘ईद-ए-मिलादुन नबी’ मनाने का चलन मिस्र से शुरू हुआ और बीबी फ़ातिमा के एक वंशज की ओर से यह शुरू किया गया था. कहा जाता है कि उस दौर में इस्लामी विद्वान कहीं जमा होते थे, खुत्बा सुनते थे और मिठाई बांटते थे, ख़ासकर शहद; क्योंकि यह पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ.व.) को पसंद था. लेकिन ‘ईद-ए-मिलादुन नबी’ को लेकर इस्लामी दुनिया में अलग-अलग राय और ख़याल भी रहे हैं. सऊदी अरब का इस्लामी संस्करण यानी वहाबी संप्रदाय इसके ख़िलाफ़ है और कहता है कि पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ.व.) का जन्मदिन मनाना इस्लाम के ख़िलाफ़ है और इस दिन जश्न तो हरग़िज़ नहीं मनाया जाना चाहिए. दूसरी ओर, भारतीय महाद्वीप सहित दुनिया के कई मुल्क़ों में ‘ईद-ए-मिलादुन नबी’ के मौक़े पर जश्न मनाया जाता है, कहीं सादगी से, तो कहीं पूरी तड़क-भड़क के साथ.
सऊदी अरब के मुख्य मुफ़्ती शेख़ अब्दुल अज़ीज़ अशेख का कहना है कि ‘ईद-ए-मिलादुन नबी’ का जश्न मनाना इस्लाम में जायज़ नहीं है और यह अवैध ढंग से धर्म में घुस आया है. उनकी नज़र में यह बिद्दत (इस्लाम में बाहर से आए हुए रस्मो-रिवाज़ व परम्पराएं) है. इसकी बजाय मुसलमानों को पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ.व.) के बताए रास्ते पर चलना चाहिए और हदीसों का पालन करना चाहिए. यही उनके प्रति उचित सम्मान, प्रेम और श्रद्धांजलि है. इसलिए हर मुसलमान का फ़र्ज़ है कि वह पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ.व.) का सम्मान करे, लेकिन उनके नाम पर न कोई ग़लत काम करे और न ही उन्हें बदनाम करे.
दूसरी ओर, दुनिया के ज़्यादातर देशों में ‘ईद-ए-मिलादुन नबी’ मनाई जाती है. इस अवसर पर नई पीढ़ी को पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ.व.) के बचपन और उम्र के हर पड़ाव के क़िस्से सुनाए जाते हैं, हदीसें सुनाई जाती हैं, उनके पैग़ाम और उनका मक़सद बताया जाता है, नमाज़ें अदा की जाती हैं और क़ुरान शरीफ़ की तिलावत की जाती है, ग़रीबों को खाना खिलाया जाता है; ताकि हर तरह से उन्हें याद किया जा सके. इसके अलावा भारतीय उपमहाद्वीप सहित अन्य मुल्क़ों में पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ.व.) की तारीफ़ में गीत गाए जाते हैं, जिन्हें ‘मौलूद’ कहा जाता है और उन पर सलाम भेजे जाते हैं. उनकी तारीफ़ में नातें (मदिहा), नशीद भी लिखी और गाई जाती हैं. कुल मिलाकर ‘ईद-ए-मिलादुन नबी’ एक शुद्ध आध्यात्मिक और धार्मिक अवसर है, जिसमें पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ.व.) को याद किया जाता है और अल्लाह का ज़िक्र किया जाता है.
भारत में भी दोनों पक्ष मौजूद हैं
भारत में भी दोनों पक्ष हैं यानी ‘ईद-ए-मिलादुन नबी’ मनानेवाले और नहीं मनाने वाले. बरसों से यहां भी दोनों ही पक्ष अपना-अपना मत रखते हुए उस पर चलते आए हैं. एक पक्ष का कहना है कि चूंकि इसी दिन पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ.व.) दुनिया से रुख़सत भी हुए थे, तो ज़ाहिर है कि जश्न मनाया ही नहीं जा सकता, हां इसके बजाय इस दिन उनकी याद में इबादतें की जा सकती हैं और उनके पैग़ाम से दुनिया को रू-ब-रू करवाया जा सकता है और यही उनके प्रति वास्तविक सम्मान होगा. इस तरह ‘ईद-ए-मिलादुन नबी’ के मुद्दे पर इस्लामी दुनिया बंटी नज़र आती है.
भारत की बात करें, तो इन दिनों देखने में आ रहा है कि ‘ईद-ए-मिलादुन नबी’ के तौर-तरीक़े और उसका मिजाज़ बदला-बदला-सा है. ‘ईद-ए-मिलादुन नबी’ पहले भी मनाया जाता था, लेकिन अब इसका स्वरूप काफ़ी बदल गया है. पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ.व.) के क़िस्से और हदीसें सुनाए जाने का दौर जारी है, पर इसमें लोगों की मौजूदगी काफ़ी कम हो गई है. क़ुरान शरीफ़ की तिलावत और मस्जिदों में जाकर नमाज़ें तो कम अदा की जा रही हैं, लेकिन सड़कों पर निकाले जा रहे जुलूसों और जलसों की तादाद बढ़ती ही जा रही है. लोग ग़रीबों को खाना कम ही खिलाते हैं, बल्कि इसके बजाए ख़ुद के लिए ही दावतों का इंतज़ाम कर लेते हैं.
मुंबई की सड़कों पर ‘ईद-ए-मिलादुन नबी’ के जुलूसों की तड़क-भड़क, रंगीनियां, रौशनियां, फ़िज़ूलख़र्ची, शोर-शराबा, नारेबाज़ी, लाउडस्पीकरों पर बजती कव्वालियां, पश्चिमी संगीत का आधार बनाकर तैयार की गईं नातें-नशीदें और उसकी धुन पर थिरकते-झूमते नौजवानों को देखकर लगता है कि यह कोई “ईद” नहीं, बल्कि एक शानदार जश्न है. सादगी का दूर-दूर तक नामो-निशान नहीं होता और मस्ती हर जगह-हर तरफ़ नज़र आती है. सड़कों पर बेशुमार भीड़ उतर आती है और शहर की तमाम सड़कें जाम हो जाती हैं और ट्रैफ़िक थम-सा जाता है. ‘ईद-ए-मिलादुन नबी’ का सारा मक़सद और पैग़ाम काफ़ूर हो गया जान पड़ता है. लोग झूमने, गाने और खाने-पीने में लगे हुए नज़र आते हैं और जगह-जगह मेलों-सा माहौल बन जाता है.
इसे मनाने के तरीक़े पर लोगों की राय
अपनी उम्र के 15 बरस सऊदी अरब के मुख्य शहर ज़िद्हा में गुज़ार चुके और इन दिनों भारत में रह रहे याक़ूब शेख़ कहते हैं, “सऊदी और यहां भारत में ‘ईद-ए-मिलादुन नबी’ के बीच में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ दिखाई देता है. उस दिन जितनी सादगी और शांति सऊदी में नज़र आती है, उसके उलट उतनी तड़क-भड़क यहां भारत में नज़र आती है.”
उम्र का एक लंबा अरसा सऊदी अरब के दूर-दराज़ इलाक़ों में बिता चुके यूनुस शेख़ कहते हैं, “हमें पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ.व.) की सादगी का लिहाज़ रखते हुए अपने त्यौहारों में भी सादगी रखना चाहिए और फ़िज़ूलख़र्ची से बचना चाहिए. एक जगह ‘ईद-ए-मिलादुन नबी’ मनाया ही नहीं जाता और दूसरी तरफ़ जश्न का यह आलम है कि एक मेले जैसा माहौल बन जाता है, तो लोगों में एक उलझन-सी पैदा होती है. इसलिए एक संतुलन होना चाहिए ‘ईद-ए-मिलादुन नबी’ में.”
मुंबई में रहनेवाले आज़ाद ख़याल के मतीन शेख़ कहते हैं, “आज-कल ‘ईद-ए-मिलादुन नबी’ के मौक़े पर जिस तरह जश्न मनाने का चलन शुरू हुआ है वह ठीक नहीं है. जिस तरह लोग डीजे की धुनों पर झूम रहे हैं और सड़कों पर नारे लगा रहे हैं वह देखकर लगता है कि इस तरह इस्लाम का नाम बदनाम किया जा रहा है. हैरत की बात यह भी है कि सड़कों पर इन जुलूसों में औरतों की मौजूदगी भी बढ़ती जा रही है. लेकिन लोगों ने इसे जश्न और तफ़रीह का मामला बना लिया है, तो भला औरतें ही क्यों पीछे रहें. यह अज्ञानता की निशानी है कि लोग सादगी के त्यौहार को जश्न और मस्ती के त्यौहार में बदल रहे हैं और पैसों की बरबादी के साथ-साथ शहर में भीड़ बढ़ाकर ट्रैफ़िक और अन्य नागरिक सुविधाओं के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं. इस त्यौहार को सादगी के साथ घरों और मस्जिदों में ही मनाया जाना चाहिए.”
मुंबई में ही रहने वाले रशीद शेख़ कहते हैं, “मौलवियों और उलेमाओं को ही बार-बार नसीहत देनी चाहिए कि ‘ईद-ए-मिलादुन नबी’ को सादगी, ऐहतराम और तहज़ीब से मनाया जाना चाहिए. क्योंकि नई पीढ़ी जिस तरह से इसका रंग-रूप बदल रही है और मस्जिदे-नबवी और अन्य धार्मिक प्रतीकों की झांकियां निकाल रही है वह बर्दाश्त नहीं किया जा सकता.”
सऊदी रिटर्न और अब मुंबई में इलेक्ट्रॉनिक स्टोर चला रहे हादी पटेल कहते हैं, “इस तरह के जश्न और तड़क-भड़क उन लोगों को भी पसंद नहीं है जो ‘ईद-ए-मिलादुन नबी’ मनाए जाने की वक़ालत करते हैं. ‘ईद-ए-मिलादुन नबी’ मनाया जाना चाहिए, ताकि हम अपने प्यारे नबी पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ.व.) को याद करें और उनके पैग़ाम को दिलों में ताज़ा रखें और इबादत में यह दिन गुज़ारें, न कि सड़कों और जुलूसों में.”
मुंबई के मौलाना मुईन मियां ने ‘ईद-ए-मिलादुन नबी’ में मनाए जानेवाले ग़ैर-ज़रूरी जश्न के ख़िलाफ़ मुहीम-सी छेड़ रखी है. वे शहर के कई इलाक़ों में जाकर तक़रीरें करते हैं और समाचारपत्रों आदि में छपवाते भी हैं कि शोर-शराबा, नाचना-गाना और हुजूम लगाकर मस्ती में झूमना ‘ईद-ए-मिलादुन नबी’ का मक़सद हरग़िज़ नहीं है.
मुंब्रा में रहनेवाले पत्रकार अनवारुल हक़ ख़ान कहते हैं कि ‘ईद-ए-मिलादुन नबी’ के मौक़े पर मनाए जानेवाले जश्न और तड़क-भड़क से बचने के लिए मौलाना मुईन की मुहीम का मुंब्रा में काफ़ी असर हुआ है. वे कहते हैं कि पिछले कुछ बरसों में यहां डीजे के साथ 15-20 गाड़ियां जुलूस का हिस्सा हुआ करती थीं, लेकिन पिछले ही साल उनमें काफ़ी गिरावट आई है और दो-तीन गाड़ियां ही दिखाई दी हैं. यानी लोगों को समझाने का असर हो रहा है और वे सादगी से ‘ईद-ए-मिलादुन नबी’ मनाने पर राज़ी हो रहे हैं.
तख़लीकी काम करते हुए समाज और देश का भला करें
यह बड़े ही दुख की बात है कि त्यौहार या कोई जश्न मनाने को लेकर मुस्लिम विश्व बंटा नज़र आता है. हालांकि दुनिया में करने के लिए और भी बहुत कुछ है. दुनिया तरक़्क़ी के रास्ते पर बढ़ते हुए अपनी ज़िंदगी के हर पहलू में ख़ुद को बेहतर से बेहतरीन करने की जद्दोजहद में लगी हुई है और मुस्लिम हैं कि बिना मतलब की बातों को लेकर उलझे हुए नज़र आते हैं. मुस्लिम उम्मत या समाज की वास्तविक समास्याओं, मुश्किलों और मुद्दों का समाधान निकालने के बजाय वे फ़िज़ूल की बातों पर अपना वक़्त और रिसोर्सेस बरबाद कर रहे हैं. कहीं ‘ईद-ए-मिलादुन नबी’ मनाए जाने की बात होती है, तो कहीं नहीं मनाए जाने पर ज़ोर देते हुए फ़तवे जारी होते हैं और तक़रीरें होती हैं. ज़ाहिर है ऐसी बातों से समाज और उम्मत का माहौल बिगड़ता है और दो समुदाय के बीच नफ़रत पैदा होती है. आख़िरकार ये दूरियां और नफ़रत कुल मिलाकर समाज और फिर देश का नुकसान ही करती हैं.
मुसलमानों को चाहिए कि फ़िज़ूल की बातों पर वक़्त बरबाद न करते हुए किसी रचनात्मक या तख़लीकी काम में ख़ुद को लगाएं और समाज के साथ-साथ देश का भी भला करें. शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार जैसे विषयों पर ध्यान देकर अज्ञानता, ग़रीबी, पिछड़ापन और बेरोज़गारी दूर करने के उपाय किए जाएँ और पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ.व.) के बताए रास्ते पर चलते हुए ख़ुद की ज़िंदगी संवारें, तो यह उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि यानी ख़िराज-ए-अक़ीदत के साथ-साथ इज़हार-ए-अक़ीदत भी होगी और इस तरह उनके लिए हमारा ऐहतराम, सम्मान, प्रेम और मुहब्बत भी ज़ाहिर होगी.