विश्वास करना इंसानी प्रवृत्ति है. हमारी यह प्रवृत्ति हमारी सबसे बड़ी शक्ति है, तो कभी-कभी कमज़ोरी भी बन जाती है. जिसका फ़ायदा कुछ ढोंगी लोग अपने फ़ायदे के लिए उठाने लगते हैं. डॉ अबरार मुल्तानी विश्वास के मनोविज्ञान की पड़ताल करते हुए हमें आगाह करते हैं कि हम ढोंगियों के कुचक्र में फंसने से ख़ुद को कैसे रोक सकते हैं.
हम इंसानों की प्रबल इच्छा होती है कि हम किसी चीज़ में विश्वास करें. हमें अनुसरण करवाने के लिए कोई नई आस्था या नया उद्देश्य देकर हमारा लाभ उठाया जाता है. संगठित धर्म और महान उद्देश्यों के अभाव में ढोंगियों के हम अनुयायी बन जाते हैं और फिर जब इन ढो़ंगियों का पर्दाफ़ाश होता है तो हमारी आस्थाएं तार-तार होकर बिखर जाती हैं और हम स्वयं को लुटा हुआ महसूस करते हैं. हमारी आस्थाओं के साथ खिलवाड़ होता है और हमें तन, मन और धन से लूट लिया जाता है. अभी हाल के कुछ वर्षों में इन बाबाओं के पर्दाफाश होने की कई घटनाएं सामने आई हैं.
आपको ऐसा लगता होगा की स्वयं को भगवान मनवाना और पंथ चलाना काफ़ी मुश्क़िल काम है, लेकिन वास्तविकता में यह एक बहुत आसान काम हैं. हम मनुष्य हमेशा किसी न किसी पर भरोसा करने के लिए उतावले रहते हैं, हम किसी संगठन या समूह में शामिल होना चाहते हैं, इसलिए हम अनावश्यक रूप से संतों, भगवानों और पंथों का निर्माण कर लेते हैं. यह ढोंगी ऐसा कैसे कर लेते हैं, आइए जानते हैं इनकी चालबाज़ियों को.
लोग चमत्कार और चकाचौंध को नमस्कार करते हैं और ढोंगी फ़ायदा उठाते हैं
पंथ बनाने के लिए सबसे पहले ढोंगी लोगों का ध्यान अपनी तरफ़ खींचते हैं, इसके लिए वे कुछ कलाबाज़ियां या कुछ जादू का इस्तेमाल कर सकते हैं, इसके लिए सम्मोहन का सहारा अक़्सर लिया जाता है. फिर वे अपने भाषणों में शब्दों की धोखेबाज़ी करते हैं. यह अपने भाषणों में दो तत्वों को समाहित करते हैं एक-महानता और दूसरा-थोड़ी सी अस्पष्टता. दोनों के संयोग से ये अपने श्रोताओं को सपने दिखाने में क़ामयाब हो जाते हैं. अस्पष्टवादों और आकर्षक सपनों का उत्साह एक शक्तिशाली बंध बनाता है. इस प्रकार एक नए पंथ का निर्माण हो जाता है.
ढोंगियों का दूसरा क़दम होता है ख़ुद को विलासिता से घेरे रहना. अपने आसपास चकाचौंध का आभामंडल निर्मित करके वे अपने अनुयायियों को चौंका देते हैं और उनके अनुयायी भी उनके विचारों के बल पर यही आभामंडल स्वयं के आसपास होने के सुनहरे सपने देखने लगते हैं और ऐसा करते हुए वे अपने ढोंगी संत के मूर्खतापूर्ण विचारों को भी नज़रअंदाज कर देते हैं.
विश्वास के बाद वे समूह की शक्ति का फ़ायदा उठाते हैं
जब उनके अनुयायियों की भीड़ बन जाती है तो वे उन्हें कुछ नियम, तंत्र-मंत्र, कर्म-काण्ड, विशेष बात या संकेत धारण करने के लिए कहते हैं, जिससे उनके अनुयायियों का एक समूह बन जाता है.
समूह बनाने के बाद ढोंगी अब उसके अनुयायियों से दान देने के लिए कहता है और उससे वह अपनी सम्पत्ति बनाता है, लेकिन वह यह बात गोपनीय रखता है कि इस दान से उसकी तिज़ोरी भर रही है. इसके स्थान पर वह अपनी आय के स्रोत कुछ दिव्यस्रोत दिखाता है या फिर उसकी पुस्तक की बिक्री या फिर दवाइयों की बिक्री को बताता है. उसके पास धन और ऐश्वर्य बढ़ने पर उसके अनुयायी और भी अधिक उसकी भक्ति करने लगते हैं और ख़ुद को सपनों के वन में भ्रमण करवाते हैं.
अंतिम चरण होता है एक अदद दुश्मन की तलाश
जब ढोंगियों के अनुयायियों का समूह सशक्त हो गया होता है तो वे फिर एक शत्रु का निर्माण करते हैं और अपने अनुयायियों से कहते हैं कि फलां-फलां समूह या संगठन या धर्म हमारा शत्रु है. किसी भी समूह को संगठित करने का यह एक अचूक इलाज़ है कि उसे किसी शत्रु से भयभीत किया जाए. ‘हम बनाम वे’ एक ऐसा नुस्ख़ा है, जो कि लोगों को समूह में बांधे रखता है. इसी सूत्र का प्रयोग करके ये ढोंगी बरसों-बरस या मरते दम तक या मरने के बाद भी अपने अनुयायियों पर राज करते हैंऔर बदले में अनुयायियों को छलावे के सिवाय कुछ नहीं मिलता.
और अंत मे नीत्शे का यह कथन हमें याद रखना चाहिए बाबा बनने के लिए भी और बाबाओं से बचने के लिए भी-‘किसी नए धर्म का संस्थापक बनने के लिए इंसान को आम लोगों के मनोविज्ञान का अच्छा ज्ञान होना चाहिए, जो अब तक इस बात को नहीं पहचान पाए हैं कि वे एक साथ जुड़ सकते हैं.’
Photo Credit: Amul Butter