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Home सुर्ख़ियों में नज़रिया

अभिभावकों के लिए क्यों ख़त्म नहीं होता मिशन ऐड्मिशन?

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
March 26, 2022
in नज़रिया, सुर्ख़ियों में
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अभिभावकों के लिए क्यों ख़त्म नहीं होता मिशन ऐड्मिशन?
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अच्छे स्कूलों में अपने बच्चे के दाख़िले की जद्दोजहद में लगे अभिभावकों को भावना शेखर का यह नज़रिया ज़रूर पढ़ना चाहिए.

 

कंपकंपाती ठंड हो या चिलचिलाती गर्मी, अपने बच्चों के सुनहरे भविष्य का सपना लिए अभिभावकों का दल बड़े-बड़े स्कूलों के बाहर लंबी-लंबी कतारों में खड़ा दिखता है. ऐड्मिशन फ़ॉर्म के लिए धक्का-मुक्की और मारा-मारी तक की नौबत आ जाती है. अपने बच्चे को इंटरव्यू में सर्वश्रेष्ठ साबित करने की होड़ और दाख़िला न मिलने पर घंटों स्कूल के बाहर चिरौरी हर शहर या कस्बे में आमतौर से देखने को मिल जाता है.

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आज के मां-बाप संतान की भौतिक उन्नति को लेकर बेहद महत्त्वाकांक्षी हो गए हैं. एक या दो बच्चे होने से वे अपनी आय का बड़ा हिस्सा अपने बच्चों की शिक्षा पर ख़र्च करने लगे हैं. शहर के नामी-गिरामी स्कूलों में बच्चे को ऐड्मिशन दिलाना उनके लिए स्टेटस सिंबल बन चुका है. यह बात मध्यम या निम्न मध्यम वर्ग के अभिभावकों में भी देखने को मिल रही है. उन्नति की ललक अच्छी बात है, पर उसका मानक बड़े और मंहगे स्कूल कतई नहीं हो सकते.

आज शर्मा जी सुबह से काफ़ी परेशान नज़र आ रहे थे. उनके सहयोगी पांडे जी ने पूछा-”क्या बात है शर्मा जी? आज बड़े परेशान से दिख रहे हैं?” शर्मा जी ने बड़े ही रूआंसे स्वर में जबाव दिया,”अरे क्या बताऊं पांडे जी, ईयर एंड होने की वजह से एक तो ऑफ़िस की टेंशन और दूसरी ओर अपनी चार वर्षीय बेटी के ऐड्मिशन की टेंशन. अपनी तरफ़ से पूरी जोड़-तोड़ लगा रहा हूं, पर बात नहीं बन पा रही है और श्रीमती जी हैं कि कुछ सुनने-समझने को तैयार ही नहीं. घर में घुसते ही हाल-चाल पूछना तो दूर पानी का एक ग्लास भी नहीं पूछतीं. तोप के गोले की तरह सीधा बस एक ही सवाल दागना शुरू कर देती हैं- ”क्या हुआ आज बात बनी या नहीं?”, ”इस साल हमारी गुड़िया का ऐड्मिशन होगा या नहीं?, ”तुम किस बात के पत्रकार हो, जी! एक ढंग के स्कूल में अपनी बेटी का ऐड्मिशन भी नहीं करवा सकते? पड़ोसवाले मिश्रा जी ने पिछले साल ही अपने बेटे का ऐड्मिशन करवा दिया और तुम हो कि अब तक झक ही मार रहे हो.” वगैरह-वगैरह… अब मैं उन्हें कैसे समझाऊं कि आजकल प्रतिष्ठित स्कूलों में बच्चों का ऐड्मिशन करवाना यूपीएससी एग्ज़ाम से भी कठिन काम हो गया है. यहां जब बड़े-बड़े नेता और आईएएस अफसरों की नहीं चल रही तो मुझ जैसे पत्रकारों की क्या औकात… पर घरवालों को तो लगता है कि हम पत्रकार न हुए, देश के राष्ट्रपति हो गए कि झट कहा और फट से ऐड्मिशन हो गया.”

पांडे जी ने शर्मा जी की हां में हां मिलाते हुए कहा,”पिछले साल मैंने भी अपने बेटे का ऐड्मिशन करवाने के चक्कर में बड़े पापड़ बेले थे. एक-दो नहीं, बल्कि कुल दस स्कूलों के ऐड्मिशन फ़ॉर्म भरे थे मैंने कि किसी स्कूल के ऐड्मिशन लिस्ट में तो बेटे का नाम आ जाए. हालांकि उस वक़्त मेरा बेटा मात्र साढ़े तीन साल का ही था, पर फिर भी मैंने जी जान से दौड़-भाग शुरू कर दी थी. सोचा इस साल न भी हो, तो क्या….कम-से-कम मुझे ऐड्मिशन की प्रकिया का तो अनुभव हो जाएगा. शुक्र है कि मेरी साल भर की मेहनत रंग लाई और इस बार ऐड्मिशन हो गया, वर्ना पूरे साल श्रीमती जी के साथ- साथ घरवालों के भी ताने सुनने पड़ते.

सचमुच, बड़ा दुखद होता है मिशन ऐड्मिशन में फ़ेल हो जाना. हर साल के अंत में स्कूलों के ऐड्मिशन फ़ॉर्म आते ही इस चूहा- दौड़ में शामिल बड़े-बड़े ओहदेदार अफ़सर, बिल्डर, डॉक्टर से लेकर मझौली हैसियत रखनेवाले हज़ारो-लाखों लोगों के घर की स्थिति कुछ ऐसी होती है, मानो उनका बच्चा स्कूल ऐड्मिशन से नहीं, बल्कि आईएएस-आईपीएस की परीक्षा देने से चूक गया हो या वे ख़ुद ज़िंदगी का सबसे बड़ा दांव हार गए हों.

आज समाज में यह मानसिकता गहराई से जड़ पकड़ चुकी है कि बच्चा बड़े या महंगे स्कूल में पढ़ेगा, तभी बढ़ेगा. क्योंकि हिंदी मीडियम या सरकारी स्कूल में उनके बच्चे के सुंदर भविष्य की कोई गारंटी नहीं होती. कुछ वर्ष पूर्व आई बॉलीवुड की फ़िल्म ‘हिंदी मीडियम’ में इस भेड़-चाल को पर्दे पर बख़ूबी दर्शाया गया है.

आलम यह है कि संतान की पैदाइश के साथ ही अभिभावक उसके भावी स्कूल का सपना संजोने लगते हैं, जो कि आमतौर से शहर का सबसे प्रतिष्ठित स्कूल होता है. बच्चे के होश संभालते ही उसे उसके अनुसार तैयार करने में जुट जाते हैं. सुबह-शाम की खुराक के साथ उसे ‘ए बी सी डी’ से लेकर ‘क से कबूतर‘ और ‘ट्विंकल-ट्विंकल लिटिल स्टार…’ तक की घुट्टियां भी पिलाना शुरू कर देते हैं. यहां तक कि शादी-पार्टी जैसे मौक़ों पर भी बच्चों के ज्ञान की नुमाइश करने से नहीं चूकते. इन सबके कारण बच्चा भी धीरे-धीरे ख़ुद को उस स्कूल के प्रोडक्ट के तौर पर देखने लगता है और जब इन मासूम आंखों के ऊंचे ख़्वाब पूरे नहीं होते तो ज़रा सोचिए कि उनके दिल पर क्या बीतती होगी. बेहतर होगा कि अभिभावक अपने बच्चों को भेड़-चाल का हिस्सा बनाने की बजाय उन्हें भावनात्मक रूप से मज़बूत बनाने पर ध्यान दें, ताकि वे जीवन की किसी भी परिस्थिति में ख़ुद को ख़ुश और मज़बूत बनाए रख सकें.

आजकल प्रायः हर घर में सजग मां-बाप के होनहार बच्चे हैं, जो बड़ी ही आसानी से ऐड्मिशन इंटरव्यू में बेहतर अंक बटोर लेते हैं. ऐसे में स्कूलों के समक्ष एक बड़ी समस्या यह आती है कि छांटा किसे जाए? सरकारी निर्देशों के अनुसार नर्सरी में प्रवेश के लिए कोई इंटरव्यू नहीं होना चाहिए. स्कूल से डेढ़ किलोमीटर की दूरी और निश्चित आयु को ऐड्मिशन का आधार बनाया जाए. उस पर भी सीट के मुकाबले अभ्यर्थियों की संख्या अनुपात से अधिक हो, तो क्या? इसके लिए सरकार ने कोई निश्चित नीति नहीं बनायी है. ऐसे में कई स्कूल आजकल अभिभावकों की उपस्थिति में एक खुले पारदर्शी लकी ड्रॉ की प्रक्रिया अपनाने लगे हैं,जो कि ग़लत भी नहीं है. इसके बावजूद ऐड्मिशन सूची में अपने बच्चे का नाम न देख कर अभिभावक शोर-शराबा करते हैं. स्कूलों पर पक्षपात और चयन में अनियमितता का आरोप लगाते हैं. कई बार ये आरोप सही भी सिद्ध होते हैं, फिर भी तटस्थ होकर यह सोचना चाहिए कि आख़िर ये स्कूल भी क्या करें, जहां सौ सीटों के लिए पांच हजार आवेदन आए हों.

दरअसल, सरकार द्वारा शिक्षा के प्रचार-प्रसार को लेकर कई बड़ी-बड़ी नीतियां और योजनाएं तो बना दी गई हैं, पर सही क्रियान्वयन के अभाव में वे सारी नीतियां और योजनाएं बस काग़ज़ों पर ही सिमट कर रह गई हैं. ज़्यादातर सरकारी स्कूलों की हालत जस-की-तस बनी हुई है. उनमें बेसिक इंफ्रास्ट्रक्चर का भी अभाव है. आज हम इस बात को नकार नहीं सकते कि गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर के जमाने की शिक्षा नीति अब बदल चुकी है, जिसके अनुसार प्रकृति का खुला आंगन ही शिक्षा का मंदिर हुआ करता था. भारत में मुख्यत: चार तरह के स्कूल हैं: सरकारी, जिनके तहत राज्य सरकार द्वारा चालित आम विद्यालय और केंद्र सरकार द्वारा चालित सेंट्रल और नवोदय विद्यालय आते हैं. इनके अलावा दो तरह के ग़ैर-सरकारी विद्यालय भी हैं, जिनके तहत प्राइवेट स्कूल और माइनॉरिटी स्कूल आते हैं. ग़ैर-सरकारी स्कूलों पर सरकार का पूरा हस्तक्षेप नहीं है. इसी का लाभ उठा कर कुछ विद्यालय फ़ीस और ऐड्मिशन से संबंधित मनमानी नीतियां बना कर धन की उगाही में लिप्त हैं और अक्सर बच्चे के ओवरऑल डेवलपमेंट की लालसा में अभिभावक भी इन जेब काटनेवाले स्कूलों के चंगुल में फंस जाते हैं.
बहरहाल, अभिभावकों को वर्तमान शिक्षा नीति को समझते हुए बच्चे के स्कूल का चुनाव करने में अपने निर्णय को लचीला बनाने की दरकार है. केवल किताबी ज्ञान, शानदार इंफ़्रास्ट्रक्चर, नामचीन स्कूल के लेबल और चमकदार यूनिफ़ॉर्म से बच्चों का विकास नहीं होता. अभिभावकों को लगता है कि मोटी फ़ीस अदा करने से उन्हें एक रेडिमेड प्रोडक्ट तैयार मिलेगा. वे भूल जाते हैं कि बच्चे के सच्चे गुरु तो अभिभावक ही होते हैं. महंगे स्कूलों में भी उन्ही बच्चोँ का बेहतर विकास होता है, जिन्हें घर से भरपूर मार्गदर्शन और सहयोग मिलता रहा है. बच्चों को देश, परिवार, प्रकृति, रिश्तों और नागरिक -कर्तव्यों का बोध कराने से ही उनका संपूर्ण विकास और राष्ट्र की उन्नति संभव है. साधारण समझे जाने वाले स्कूलों से भी कामयाब बच्चे निकलते हैं. इसलिए जरूरत है सोच बदलने की और भेड़चाल की बजाय अपने नए फ़ुटप्रिंट रचने की.

फ़ोटो: पिन्टरेस्ट

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