यूं तो वे मध्य प्रदेश सरकार के सरकारी अधिकारी हैं, लेकिन उनके चुटीले व्यंग्य, उनकी पहचान को सीधे तौर पर हिंदी भाषा से और हिंदी के लोगों से भी गहराई से जोड़ देते हैं. व्यंग्यकार यूं भी किसी को नहीं बख़्शते फिर चाहे वह व्यवस्था हो, शासन-प्रशासन हो या फिर दोस्त और रिश्ते-नातेदार. वे भी इन सब की मलामत इस अंदाज़ में करते हैं कि सच्चाई भी सामने आ जाए और आप मुस्कुराए बिना भी न रह सकें. हिन्दी वाले लोग, हमारी इस साक्षात्कार श्रृखंला में आज मिलिए मुकेश नेमा से.
इससे पहले कि उनसे हुए सवाल-जवाब आपके सामने रखूं , उनके बारे में यह बता देना ज़रूरी है कि वे वर्तमान में वे एडिशनल कमिश्नर, एक्साइज़, मध्य प्रदेश, हैं. वे मुद्दों पर पैनी नज़र बनाए रखनेवाले लोगों में से हैं और एक संवेदनशील शख़्सियत भी हैं. उनकी दो किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं: साहबनामा और तुम्हारी हंसी सदानीरा. ख़ुद उनके मुताबिक़,‘पिताजी सरकारी नौकरी में थे. उनकी देखा-देखी पढ़ने में दिलचस्पी जगी. बचपन की हर शाम खंडवा में माणिक्य वाचनालय में गुज़री. किताबें पढ़ने के अलावा कुछ किया ही नहीं मैंने. इक्कीस का होने पर पीएससी दी और तेईस साल में सरकारी अफ़सर हो गया. फिर एक बेहद सुंदर, शिष्ट और भद्र लड़की मेरे जीवन में आई, राजेश्वरी. दो बच्चे हैं रोहित और राधा. जीवन ठीक-ठाक बीत रहा है.’ तो आइए, अब मुकेश जी से कुछ चटपटे सवाल पूछते हैं और उनके चटखारेदार जवाबों से आपको रूबरू करवाते हैं.
हमें ये बताइए कि अफ़सर होना आपके लेखन में सहायक है या बाधक?
लेखन के साथ अफ़सरी थोड़ा मुश्किल काम है. ख़ासकर व्यंग्य. सरकार के नौकर को अपनी हद का ध्यान रखना पड़ता है. यहां आप ‘बेहद’ हुए और वहां ‘पटरी’ से उतरे. ऐसे में मनचाहा लिखना बिल्कुल भी आसान नहीं. आपको नौकरी और लेखन में संतुलन बनाना होता है और इससे आपके लिखे की धार का कम होना स्वाभाविक ही है.
आप में भी एक लेखक है यह आपको कब और कैसे पता चला?
लिखना पढ़ना तो हमेशा से मेरा पसंदीदा काम रहा है, पर अपने अंदर के लेखक से मेरा परिचय कराया फ़ेसबुक ने. यहां लिखा मैंने और लोगों ने पसंद किया मेरा लिखना. फिर दो किताबें भी आईं और अब ये सिलसिला जारी है!
व्यंग्यकार की सबसे बड़ी चुनौती या दुविधा क्या होती है?
व्यंग्यकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती तो यह कि वो अपने आसपास, दुनिया जहान में जो विद्रूपता, विसंगतियां देख रहा है, उसे पढ़नेवालों यानी पाठकों के सामने किस तरह पेश करें कि लोग मर्म तक पहुंच भी जाएं और उसके पिटने की नौबत भी ना आए. यह भी चुनौती होती है कि अपने लिखे में ताज़गी कैसे बनाए रखें, दोहराव से कैसे बचें… और जो व्यंग्यकार ऐसा कर पाते हैं लोग उन्हें पसंद करते भी हैं.
आपने व्यंग्य लेखन ही क्यों चुना?
मुझे नहीं लगता कि कोई लेखक अपने लिए ख़ुद विषय चुन सकता है. सच्चाई तो यह है कि विषय उसे चुन लेता है. हां, चुटकियां लेने का कुटैव बचपन से ही है मुझे, शायद मेरी ये वाली लिखा-पढ़ी उसी का नतीजा है.
पत्नी और रिश्तेदारों पर व्यंग्य लिखना कितना जोखिमभरा है?
पत्नी और रिश्तेदारों पर लिखना उतना ही कठिन है, जितना अपनी सरकारी नौकरी बचाते हुए लिख पाना. बारूदी सुरंगों पर नंगे पांव चलने जितना ख़तरनाक है ये. ऐसे में कभी-कभी मुझे लगता है कि ख़ुद पर लिख लेना ज़्यादा समझदारी का काम है!
तंत्र में रहकर तंत्र पर ही चुटकियां लेना क्या यह एक बेहद मुश्क़िल काम नहीं है? वह कौन-सा विषय है, जिसपर लिखते समय आपको हिचक होती है?
हां, यह बहुत मुश्क़िल है. बतौर सरकारी अफ़सर ऐसा करना इसलिए भी आसान नहीं, क्योंकि आप ख़ुद भी उस व्यवस्था का हिस्सा होते है, उतने ही अच्छे या बुरे जितना कि तंत्र होता है. पर लिखने वाला ऐसा करते हुए ख़ुद को रोक ले यह भी बड़ा मुश्क़िल है. ऐसे में पर्दा हटाने की इच्छा के साथ छुपे रहने की मंशा यही मेरी हिचक है. ऐसे में मैं थोड़ा बचकर निकलता हूं, सावधानी बनाए रखता हूं, ताकि दुर्घटना ना घटे.
क्या कभी आपके लिखे के चलते कभी कोई नाराज़ भी हुआ है? या कोई ऐसा वाक़या, जब आपकी सोच के विपरीत किसी ने बिल्कुल भी बुरा न माना हो.
अभी तक तो ऐसे किसी मौक़े से वाक़िफ़ नहीं मैं. हो सकता है कुछ लोग नाराज़ हुए भी हों, पर उनकी नाराज़गी पहुंची नहीं हो मुझ तक. ऐसा हो भी तो मैं ज़्यादा परवाह नहीं करता. परवाह करना मेरे स्वभाव का हिस्सा नहीं. वैसे भी चूंकि मैं काम का आदमी हूं इसलिए वैसे भी मुझसे नाराज़ होना लोगों के लिए घाटे का ही सौदा होगा.
आपके मुताबिक़ कौन-सी बातें एक व्यंग्यकार में होनी चाहिए और कौन-सी बिल्कुल भी नहीं?
व्यंग्यकार में तीखापन होना बहुत ज़रूरी है. उसमें दुनिया देखने का, उसे समझने का नज़रिया दूसरों से बेहतर और मौलिक होना चाहिए. यदि वो कुछ कहने से डरता, हिचकता है तो व्यंग्यकार होने की बजाय उसका किसी दूसरी विधा में हाथ आज़माना ही ठीक होगा.