मेधावी लोग किसी भी समुदाय में हो सकते हैं. खोजू की बिटिया मंजरी भी ऐसी ही थी. मेहनत, लगन से आगे बढ़नेवाली. ना-नुकुर के बाद खोजू ने उसे पढ़ाने की ठानी भी, लेकिन एक कुम्हार की बेटी का आगे बढ़ना समाज के कई लोगों को नागवार गुज़रा. यह कहानी हमें हमारे समाज का आईना दिखाती है.
सुबह से ही खोजू की आंखें घर के दरवाज़े पर लगी थीं. आज उसकी छोटी बिटिया मंजरी पूरे दो साल के बाद घर जो वापिस आ रही थी. घर के आंगन में एक खटिया पर बैठा हुआ खोजू कभी अपने हाथों की टेढ़ी उंगलियों को देखता तो कभी कोने में रखे हुए चाक को. यह केवल एक चाक भर नहीं था, बल्कि खोजू के परिवार का ख़र्चा चलाने का एकमात्र साधन था. चाक को देखते हुए समय के पिछले चक्र में खोजू खोता चला गया.
खोजू और उसका परिवार मिट्टी लाता, उसकी कुटाई-छनाई से लेकर मिट्टी सानने में खोजू की मदद करने में लगा रहता.
खोजू किसी सोनार की तरह पारखी नज़रों से मिट्टी में उंगली लगाकर उसको परखता और जब उसे लगता कि अब मिट्टी पूरी तरह तैयार हो गई है तो चाक को एक डंडे की मदद से तेज़ी से घुमाता ओर चाक के गति पकड़ लेने पर बड़ी कुशलता से थोड़ी मिट्टी उठाकर बर्तन बनाता.
आसपास के गांव में कोई भी दूसरा कुम्हार खोजू के बनाए बर्तनों की बराबरी नहीं कर सकता था. मज़ाल है कि खोजू के बर्तनों में कोई भी कमी होती. मिट्टी के बर्तन आग में तपने के बाद निकलते तो ऐसे चमकते गोया उन पर सोने का पानी चढ़ा दिया गया हो. इन बर्तनों के साथ नए नए प्रयोग करने में भी पीछे नहीं हटता था खोजू. वह मन से एक कलाकार था.
हां, अन्य भारतीयों की तरह उसके मन में भी एक बेटे की चाह थी, जिसके कारण एक के बाद एक दो बेटियों का जन्म हो गया था. बड़ी बेटी की शादी पास के एक गांव में ही हो गई थी और अब घर में तीन प्राणी ही बचे थे. खोजू की छोटी बेटी मंजरी को पढ़ाई करने का बहुत शौक़ था. वो गांव के स्कूल में पढ़ने भी जाती थी.खोजू ने कई बार उसे स्कूल जाने से मना भी किया.
“अरे तू काहे को स्कूल जाती है. तू चली जाती है तो मेरा हाथ बटानेवाला कोई नहीं बचता है यहां पर और वैसे भी तुझे पढ़ाई-लिखाई करके करना भी क्या है?”
रास्ते में गांव के मनचले लड़कों ने कई बार मंजरी ओर उसकी सहेलियों को स्कूल जाते वक़्त छेड़ा भी था. जब इसकी शिकायत मंजरी ने अपने घर वालों से की तो उल्टा उसके घरवाले उसे ही डांटने लगे और घर से बाहर निकलने को मना करने लगे.
पर मंजरी नहीं मानी. जबरन स्कूल जाती और इस तरह ज़बरदस्ती करके ही उसने पूरी आठ जमात पास कर ली थी, पर अब आगे की पढ़ाई के लिए उसे दूसरे स्कूल जाना पड़ता. उसकी अनुमति तो खोजू ने दी नहीं उल्टा उसको अपने साथ काम में और लगा लिया.
गांव के स्कूल के हेडमास्टर को ये बात पता चली कि खोजू मंजरी को आगे पढ़ाई नहीं करवा रहा है तो वो खोजू को समझाने के लिए उसके घर भी गए. संयोग से उसी समय खोजू के घर पर गांव के कुछ ऊंची जाति के लोग बर्तन ख़रीदने आए थे.
“अरे, मास्साब! आइए… बैठिए न,”खोजू ने अपने गमछे से एक स्टूल को साफ़ करते हुए कहा.
हेडमास्टर ने खोजू को समझाया कि उसकी बेटी मंजरी कक्षा में बहुत अच्छी रही है और कक्षा की अन्य कार्यों में भी काफ़ी आगे रहती है. अच्छा होगा कि वह उसको आगे भी पढ़ाए.
उनकी बातें सुनकर खोजू कुछ बोलता इससे पहले ही ख़रीददारी को आए गांव के ऊंची जाति के लोगों में से एक ने कहा,‘‘अरे ओ मास्टर! ज़्यादा समाज सुधारक मत बन. जितने बच्चे तेरी पाठशाला में आ रहे हैं न, वो ही बहुत हैं. उन्हीं को पढ़ा कर खुश रहो. खोजू कुम्हार है, इन लोगों की जाति में लड़कियों को ज़्यादा पढ़ाया-लिखाया नहीं जाता. इसकी लड़की इतना पढ़ गई यही बहुत है…”
उनमें से एक लंबा वाला आदमी तो मंजरी को घूरता ही रहा.
“ज…ज…जी ….” मास्टरजी ने उसकी रौबीली आवाज़ सुनते हुए अटक-अटक कर कहा.
मंजरी के आगे पढ़ाई के सारे रास्ते तो बन्द ही हो चुके थे. खोजू उस अपने साथ काम में लगाए रहता और मंजरी भी पूरे मनोयोग से अपने पिता का साथ निभाती, पर भला आजकल के गांव में कोई कुम्हार कितना पैसा कमा सकता था.
“अरे ओ…खोजू., अब तो तुम्हारे दिन बहुरने वाले हैं,‘‘खोजू के घर के बाहर से गांव के एक सरपंच ने आवाज़ लगाई.
“पर कैसे सरपंचजी…?” खोजू तेज़ी से उनकी ओर बढ़ा. उसकी बुझी आंखों में चमक-सी आ गई थी.
“अरे अब तो प्रदेश सरकार मिट्टी के बर्तन और दिए बनाने और उनके प्रयोग करने पर बहुत जोर दे रही है. अब क्या है ख़ूब बनाओ मिट्टी के दिये और सोने के भाव बेचो,” सरपंच ने आंखें घुमाते हुए कहा.
वैसे तो खोजू ज़्यादा मुखर नहीं था पर सरपंच की ये बात सुनकर पता नहीं कहां से उसमें ऊर्जा आ गई और उसका स्वर तेज़ हो गया,”अरे सरपंचजी, क्या आप भी… कुछ नहीं ये सब राजनीतिक पैंतरेबाज़ी है, कोई सरकार मंदिर बनवाती है तो कोई सरकार लाखों दिए जलवाकर अपना वोट बैंक पक्का करती है, पर इन सबसे हम मज़दूर और ग़रीब लोग का तो कुछ भी भला नहीं होता. हम तो ग़रीब कर ग़रीब ही रहते हैं और असली मलाई तो दलाल लोग खाते हैं, जो हमसे सामान कौड़ियों के भाव ख़रीदकर शहरों में ऊंचे दाम पर बेच देते हैं.”
सरपंच खोजू की बात सुनकर मुस्कुराया और उसके समर्थन में सिर को हिलाता हुआ वहां से चला गया.
खोजू का गांव ऐसा गांव था, जो सड़क से सीधा शहर को जोड़ता था और इसीलिए यह गांव एनजीओ वालों तथा अन्य समाज सेवी संगठनों का पसंदीदा स्थान था. कुछ एक समाजसेवी संस्थाएं इस समय खोजू के गांव मे काम कर रही थीं. इनमे से एक संगठन की एक महिला थी सुनीता मैडम. सुनीता मैडम हमेशा ही गांव में लड़कियों की शिक्षा के लिए लोगों को नुक्कड़ नाटक जैसे सरल तरीक़ों से लोगों प्रेरित करती आई थी. वे गांव वालों से उनके जीवन स्तर को भी अच्छा बनाने के लिए आधुनिक तौर-तरीक़े से खेती और अन्य काम सीखने को प्रेरित करती.
एक दिन की बात है जब सुनीता मैडम ओर उनके साथी खोजू के घर के सामने से गुज़रे. उस समय खोजू चाक चला रहा था. थोड़ी-सी मिट्टी रखकर अपने हाथों की उंगलियों से उसे दिये का आकार देने की कोशिश कर रहा था. पास में खड़ी मंजरी भी अपने पिता के कुशल हाथों को देखकर अपने हाथों को भी उसी प्रकार एक सांकेतिक अंदाज़ में हवा में घुमा रही थी, मानो सच में ही वह चाक चलाकर दिए बना रही हो और फिर पानी में पड़े एक धागे से उसे काटकर अलग रखती जाती हो.
मंजरी की ये अदा सुनीता मैडम को बहुत अच्छी लगी. उन्हें मंजरी में छुपी हुई प्रतिभा नज़र आई.
जब मंजरी की ने सुनीता मैडम को अपनी ओर देखता पाया तो वह शरमा गई.
“बहुत अच्छा कर रही हो बेटी. क्या कुछ गाना वगैरह भी जानती हो?” सुनीता मैडम ने पूछा तो सर हिलाकर सहमति जताई मंजरी ने
“तो फिर कुछ सुनाओ.”
मैडम के इस तरह से कहने पर मंजरी ने एक गाना शुरू किया.
“माटी तेरो धरम कौन सो
कौन-सी तेरी जाति रे
तुझमें तो सब मिल मिल जावे
तू न बदली जाति रे
माटी तेरो धरम कौन सो”
“अरे वाह, तुम तो बहुत अच्छा गाती हो. मेरे साथ चलोगी?’’ सुनीता मैडम के इस प्रश्न पर मंजरी कुछ भी न बोल सकी. सुनीता मैडम खोजू की ओर मुख़ातिब हुईं.
“जी देखिए, मैं गांवों में लोगों की सहायता करती हूं और घूमकर नुक्कड़ नाटक करके लोगों को तरह-तरह की जानकारी देती हूं. आपकी बेटी का हुनर देखकर इसको में अपने साथ ले जाना चाहती हूं, ताकि ये मेरे साथ रहे और नुक्कड़ नाटक में मेरी मदद करे,” सुनीता मैडम ने कहा
“का मैडम. आप तो अपना काम करो. भला ये लड़की आपके क्या काम आ सकती है?” खोजू बोला
“आपकी बेटी में प्रतिभा है और ये मेरे साथ रहेगी तो जो भी काम करेगी उसके कुछ पैसे भी मैं आपको दिया करूंगी,” सुनीता मैडम ने कहा.
वैसे तो खोजू को सुनीता मैडम की बात समझ नहीं आ रही थी, पर जब उन्होंने पैसे मिलने की बात कही तो खोजू ने सोचा कि आख़िर घर में चार पैसे आ जाएंगे तो बुराई ही क्या है. यह सोचकर खोजू ने सुनीता मैडम के साथ भेजने के लिए हामी भर दी.
सुनीता मैडम ओर उनकी टीम के साथ मंजरी भी आसपास के गांव में जाती और नुक्कड़ नाटक करती. मंजरी जब नुक्कड़ नाटक के ज़रिए कोई संदेश देती तो उसमें रच बस जाती और उसकी सहजताभरा अंदाज़ लोगों को बड़ी आसानी से समझ में आ जाता. इन नुक्कड़ नाटकों में अक्सर साफ़-सफ़ाई ,कन्या भ्रूण हत्या न करना, बेटियों को पढ़ाना जैसे कई मुद्दे शामिल होते.
लोग इन नुक्कड़ नाटकों का मज़ा भी ले रहे थे और सीख भी. गांव के कुछ उत्साही युवकों ने इन नाटकों का वीडियो फ़ेसबुक पर पोस्ट कर दिया. जिसको लोगों ने बहुत पसंद किया ओर इस सुनीता मैडम के इस ग्रुप की ख्याति दूर तक फैलने लगी, जिससे प्रेरित होकर खुद सुनीता मैडम ने एक यू ट्यूब चैनल भी बनाया और वे अपने नुक्कड़ नाटक के वीडियो पोस्ट करने लगीं.
सोशल मीडिया पर लोगों को कुछ चीज़ पसंद आ जाए उसकी प्रसिद्धि बहुत जल्दी फैलती है. ऐसा ही कुछ सुनीता मैडम के ग्रुप के साथ हुआ अब उन्हें शहरों में भी नाटकों के मंचन के लिए बुलाया जाने लगा. थिएटर में भी इन ज्ञानवर्धक नुक्कड़ नाटकों की गूंज पहुंची.
मंजरी का अधिक समय अब शहर में ही बीतने लगा था. वह अब सुनीता मैडम के साथ उनके घर पर ही रहने लगी थी. सुनीता मैडम का अपने पति से तलाक़ हो चुका था और उनकी कोई औलाद भी नहीं थी इसलिए उन्हें भी मंजरी से लगाव हो गया था. उन्होंने खोजू से अनुमति लेकर मंजरी का दाख़िला वही शहर के एक स्कूल में करा दिया.
मंजरी अब नुक्कड़ नाटकों के साथ साथ पढ़ाई पर भी ध्यान देने लगी. बीच-बीच में सुनीता मैडम उसे खोजू से मिलाने उसके गांव भी ले जाती और उनकी समाज सेवा संस्था में से कुछ अनुदान के पैसे खोजू को दे आतीं, जिससे उसका गुज़ारा होता.
मंजरी कुम्हार की बेटी थी. विषयों को सरलता से समझना उसके स्वभाव में ही था. हाई स्कूल में जब मंजरी के नब्बे प्रतिशत अंक आए तो सुनीता मैडम कितनी ख़ुश थीं, पर मंजरी को इतने अंकों से भी अधिक अंक लाने की आशा थी इसलिए वह उदास थी. उसने इंटरमीडिएट में जी तोड़ मेहनत की और उसके पंचानबे प्रतिशत अंक आए. मंजरी का नाम पूरे शहर के लोगों की ज़ुबान पर था, सारे टीवी चैनल वाले उसका इन्टरव्यू लेने आ रहे थे. सारे समाचार पत्रों में मंजरी का नाम प्रमुखता से छपा. लेकिन मंजरी और सुनीता मैडम को बहुत सुखद आश्चर्य तब हुआ, जब सरकार ने मंजरी को आगे की पढ़ाई के लिए स्कॉलरिशप देने की घोषणा के साथ-साथ आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली भेजने का प्रस्ताव भी दिया.
वो छोटी-सी बच्ची, वो गांव के एक ग़रीब कुम्हार की बेटी इतना आगे निकल जाएगी ये तो किसी ने नहीं सोचा था. ना ही सुनीता मैडम को यकीन हो रहा था और ना ही मंजरी को ही विश्वास हो रहा था कि सरकार उसके लिए इतना कुछ कर रही है.
आगे पढ़ाई और स्कॉलरशिप का सहारा ओर मौक़ा मिला तो मंजरी बेहद ख़ुश थी. उसने दिल्ली जाने की स्वीकृति तो दे दी, पर उसे अपने माता-पिता की चिंता हो रही थी.
“अरे तू उनकी चिंता मत कर मंजरी. मुझ पर भरोसा है न! मैं उन्हें यही शहर ले आऊंगी और अपने साथ ही रखूंगी,” सुनीता मैडम ने मंजरी को भरोसा दिलाया.
दिल्ली जाने में अभी महीना बाक़ी था. उस दिन सुनीता मैडम बोलीं,‘‘तेरे दिल्ली जाने से पहले एक बार गांव हो आते हैं. तू माता-पिता से भी मिल लेगी और मैं उनसे मेरे साथ रहने की बात भी कर लूंगी.’’
आज जब मंजरी और सुनीता मैडम खोजू के घर पहुंचे तो खोजू की आंखों में आंसू तैर आए. उसके चेहरे पर सुनीता मैडम के प्रति कृतज्ञता के भाव थे. सारे गांववाले सुनीता मैडम और मंजरी को ऐसे देख रहे थे, जैसे कि वे किसी दूसरे ग्रह के प्राणी हों.
मंजरी की स्कॉलरशिप की चर्चा जहां चारों ओर थी, वहीं गांव के ऊंची जाति वालों को एक कुम्हार की बेटी का इस तरह आगे बढ़ना सहन नहीं हो रहा था. जो ऊंची जाति के मनचले लड़के भी मंजरी को दूर से देखते ओर फिकरे कसते थे, वे भी इनमें शामिल थे, पर अब तो मंजरी इन सबकी परवाह किए बिना आत्मविश्वास से भरी हुई थी.
उस दिन दोपहर में अचानक खोजू की तबियत अचानक ख़राब हो गई. बहुत खांसी और साथ-साथ तेज़ बुख़ार भी आ रहा था उसे. उपचार की तुरंत आवश्यकता थी. गांव में एक ही कम्पाउंडर रहता था, लेकिन आज वह भी छुट्टी पर था इसलिए खोजू को पास के ही दूसरे गांव के अस्पताल ले जाने की व्यवस्था की जाने लगी.
पड़ोस में रहने वाला मनोज अपनी मोटरसाइकल ले आया और खोजू को पकड़कर मंजरी पिछली सीट पर बैठ गई.
गांव के दबंग मनचलों ने मंजरी को मोटरसाइकल पर जाते हुए देखा तो उनकी आंखों में शैतानियत आ गई और मंजरी को छेड़ने की गरज से उन्होंने अपनी मोटरसाइकल मनोज की मोटरसाइकल के पीछे लगा दी ओर फिकरे कसने लगे. उन लड़कों को इस बात की भी परवाह नहीं थी कि मंजरीअपने बीमार पिता को डॉक्टर के पास ले जा रही है. उन्हें तो बस एक कुम्हार की बेटी के आगे बढ़ जाने से परेशानी हो रही थी और आज उनके पास अपनी खुन्नस निकालने का पूरा मौक़ा था.
मनोज की मोटरसाइकल अब गांव के कच्चे रास्तों से निकलकर मुख्य सड़क पर आ गई थी. मनचले अब भी उनके पीछे थे. कभी वे अपनी बाइक मनोज की बाइक से आगे करते तो कभी अपनी बाइक को कुछ इस तरब से लहराते कि मनोज बमुश्क़िल ही अपनी बाइक का संतुलन सम्भाल पाता.
मुख्य सड़क पर अब ट्रक और बड़े वाहनों की आवक तेज़ हो गई थी. दबंग लड़कों को फिर से शरारत सूझी ओर उन्होंने अपनी बाइक से मनोज की बाइक को कुछ इस तरह से ओवरटेक किया कि मनोज को अचानक ब्रेक लगाना पड़ा. इससे मंजरी सड़क पर गिर गई और पीछे से आते हुए ट्रक का पहिया मंजरी के सिर पर चढ़ गया.
खोजू अपनी बेटी की इस आकस्मिक मौत पर सन्न था. वो दबंग लड़के दो पल को तो वहां रुके, लेकिन फिर तुरंत ही वहां से बाइक लेकर फुर्र हो गए.
मंजरी का धड़ शेष था पर उसके सिर का कुछ पता नहीं चल पा रहा था, क्योंकि वह तो पहिया चढ़ जाने के कारण अपना अस्तित्व ही खो बैठा था. घंटेभर तक मनोज ओर खोजू मंजरी के शव के पास बैठे रहे, फिर कहीं जाकर पुलिस आई और मनोज ओर खोजू से इस तरह से सवाल-जवाब करने लगी जैसे कि मंजरी का कत्ल उन लोगों ने ही किया हो.
मंजरी की मौत के दो महीने बीतने के बाद भी जब हत्यारों का कोई भी सुराग लगाने में पुलिस नाकामयाब रही तो सुनीता मैडम ओर खोजू एक बार फिर से थाने पहुचे. थानाध्यक्ष दीवार पर लगे टीवी पर कुछ ख़बर देखने में व्यस्त था.
खोजू ने थानाध्यक्ष के सामने पहुंचकर जैसे ही अपनी बात शुरू की, थानाध्यक्ष गरजते हुए बोला,”अभी जाकर बाहर बैठो. देखते नहीं कि कितने बड़े बॉलिवुड स्टार ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली है और तुम लोग तो अपना रोना ही लिए रहते हो.”
सुनीता मैडम ओर खोजू के आवाक् थे उनके चेहरे पर दर्द के कई रंग आ-जा रहे थे.
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट, Art with artist Milton Danda