एक अपराजिता कैसे समय के साथ समाज से हार मान लेती है? कैसे आज भी एक पढ़ी-लिखी और आज़ाद ख़्याल महिला को बेटा पैदा करने के लिए मजबूर किया जाता है? जानने के लिए पढ़ें, डॉ संगीता झा की कहानी ‘ग्रीन कार्ड’.
मैं और अवनी एक ही सिक्के के दो पहेलू से थे. मैं जब उसके जीवन का प्रत्यलोकन करती हूं तो उसकी उपलब्धियां ये एहसास कराती हैं मानो मैंने ही स्वयं सब कुछ जिया है. बचपन से कॉलेज तक मानो हम दो जिस्म एक जान थे. उसके भाई मेरे भाई, उसकी अम्मा मेरी अम्मा और यही हाल मेरे घर पर भी था जहां मेरे भाई और मां उस पर जान छिड़कते थे. आज उसका पच्चाासवां जन्मदिन है और मैं उसके साथ हूं. सोचती हूं मेरी नायिका अवनी कहां से चलकर, कैसे-कैसे चलकर, कैसे-कैसे विचित्र अनुभव प्राप्त कर यहां तक आई है. मेरे सिवाय किसी को उसने इस जटिल रास्ते की भनक भी ना पड़ने दी. और जो जानते थे वो अनजान बने हुए हैं. लगता है उसकी भटकन में एक पीड़ा थी, एक प्रेरणा थी, आज इतने बड़े माहौल में ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वो अंतिम विजय शिखर पर हो. मैं ही मूरख उसकी जीवन यात्रा का पुनरालोकन कर रही हूं. इतना जीवन में संघर्ष और साथ में एड्जेस्टमेंट और चेहरे पर शिकन तक नहीं. जब अवनी की बेटियों का फ़ोन आया कि वो अपनी मम्मा का पचासवां जन्मदिन मना अपनी मां को सर्प्राइज़ देना चाहती हैं जिसमें मेरी उपस्थिति अनिवार्य है, तो मैं मना ना कर पाई, बिना कुछ सोचे समझे निकल पड़ी.
हम दोनों ने साथ में स्कूल और कॉलेज में साथ पढ़ाई की. मेरी जाने जिगर अवनी थी ही सबसे अनोखी निराली. कभी तितलियों के पीछे भागती तो कभी भौरों को देख मचलने लगती. मुझे याद ही नहीं कि कभी स्कूल में प्रेस कपड़े पहने हों. तुड़ी-मुड़ी स्कर्ट ब्लाउज़ मानो रातभर एक घड़े में ठूंस कर रखा गया हो और सुबह पहन लिया. लेकिन जो अच्छी बात थी वो ये कि पढ़ने में हमेशा अव्वल. क्लास में बैठे-बैठे उसका मन कभी पतंग तो कभी सपने उड़ाते रहता. एक बार तो पीछे की बेंच से ही सामने बैठी रीता का जूता इतनी ज़ोर से पैर से धक्का दिया कि सीधे जा फ़िज़िक्स के सर के जूते से टकराया. सर आगबबूला हो उस लड़की की खोज में लग गए जिसका जूता था. बेचारी….रीता कुछ बोल भी नहीं सकती थी, क्योंकि सर तो अंधे थे अवनी के प्यार में. वो कैसे मानते कि टॉपर भी ऐसा कर सकते हैं. उनकी नज़र में उनसे बहस करने वाली उनकी आइंस्टाइन स्टूडेंट भला किसी का जूता फेंक सकती है, वो भी उन पर. रीता की ख़ूब खिंचाई हुई और रीता की हालत देख अवनी दुखी. उसकी शैतानियां सबके चेहरे पर ख़ुशी लाने के लिए थीं, ना किसी को सज़ा देने के लिए. स्वभाव से स्वार्थी भी नहीं थी वो. उसी रीता के एक बार फ़िज़िक्स के मन्थली टेस्ट में बीस में से छः नम्बर आए तो उसे डर लगा कि घर पर कैसे दिखाएगी. तब उसी अवनी ने उन पन्नों को फाड़ कर रीता की टेस्ट कॉपी में अपने टेस्ट के पन्नों को ट्रेस पेपर लगा पता नहीं कैसे उसे उन्नीस कर सर की डुप्लिकेट हूबहू साइन भी कर दी. रीता के घर और ना ही सर को शक़ हुआ. दोबारा जब कॉपी पैरेंट्स सिग्नेचर के बाद सर को दिखाई जा रही थी तो जहां रीता डरी हुई थी वहीं सर उसकी भूरी-भूरी प्रशंसा कर पूरी क्लास को उसका उदाहरण दे रहे थे.
मेरा सारा बचपन भी अवनी के इन्हीं यादगार पलों से भरा था. पता नहीं ये सारे आइडियाज़ उसके दिमाग़ में आते कहां से थे! एक बार तो घर घर खेलते-खेलते उसने हमारी ही एक सहेली की नौकरानी को उसकी ही बालकनी के ऊपर बने छज्जे पर उतार दिया, क्योंकि नौकरानी भी हमारे खेल का हिस्सा थी. हमारा घर ऊपर वाले माले यानी छत और उसका घर नीचे. नौकरानी उतर तो गई उस छज्जे या कहिए पैरापेट पर लेकिन खेल ख़त्म होने पर चढ़े कैसे? नौकरानी रोने लगी, सहेली डर गई, पड़ोसी नीचे इकट्ठे हो गए. फिर सहेली के पापा ने घर की सीढ़ी छज्जे पर फेंकी. किसी तरह उस सीढ़ी की मदद से वो ऊपर चढ़ी पर सीढ़ी महीनों उसी छज्जे पर पड़ी रही. इस तरह की दर्जनों शरारतें या कहिए क़िस्से थे जो उस समय परेशानी का कारण बने थे और आज उनकी याद बरबस चेहरे पर मुस्कुराहट ला देती है. एक बार बच्चों के दो ग्रुप बने जिसमें मोहल्ले के लड़के लड़कियां दोनों शामिल थे. एक ग्रुप चोरों का गैंग था तो दूसरा पुलिस का. अवनी के प्लान के मुताबिक़ पुलिस ने चोरों के अड्डे में आग लगा दी. बस फिर क्या था, उसके पड़ोसी अपनी लकड़ी की खटिया जलते देख दौड़ कर बाहर आ गए और बच्चों को डांटने लगे और उनकी परवरिश को धिक्कारने लगे. लेकिन अवनी तो फिर सीन से ग़ायब. बच्चों ने डांट चुपचाप खा ली और उसके बाद मां बाप से मार भी, क्योंकि सब अवनी को दिलोजान से चाहते थे. किसी ने भी उसका नाम नहीं लिया, क्योंकि अवनी सबकी जान थी. उसके बिना सबका बचपन नीरस जो था. वो सबको होम वर्क करने में भी मदद करती थी. कभी सीधे तो कभी घुंघराले करने के बहाने सहेलियों के बाल जलाना, तो कभी किसी लड़की को किसी लड़के के नाम से ख़त लिखना और फिर ऐसे ऐक्ट करना मानो किसी चीज़ की मालूमात ही ना हो. एक बार तो हद ही हो गई जब किसी पड़ोसी के घर से पके हुए पपीते चुराए, खाए और छिलके किसी दूसरे के घर के आगे फेंक दिए. दोनों पड़ोसी आपस में लड़ते रहे और मैडम अवनी सीन से नदारद. बाद में कभी सच बाहर भी आया तो भी सबको अवनी पर प्यार ही आया कि मासूम है वो नादान है.
जीवन के हर रंगमंच की विजेता अवनी ने कॉलेज में भी कम झंडे नहीं गाड़े थे. बचपन से ही हमारी अवनी अपराजिता रही है. बचपन में ही एक बार मैं और अवनी हमारी बचपन की दोस्त मधु के घर गए थे जहां उसकी मौसी अमेरिका से आई थीं. उनकी वेशभूषा कपड़ों और उस पर छिड़के परफ़्यूम ने तो मानो हम दोनों के होश उड़ा दिए. उसके बाद तो मदहोश करने वाली बात ये हुई जब मौसी ने अपने पति को पुकारा,“डार्लिंग, वॉन्ट टू हैव टी?’’ डार्लिंग शब्द ने तो हमारे दिमाग़ की घंटी बजा दी. पहली बार किसी पत्नी को पति को इतने प्यार से डार्लिंग कह पुकारते सुना था. मुझसे ज़्यादा तो अवनी परेशान क्योंकि उसकी अम्मा तो उसके पापा को “अजी सुनते हो’’ या “ए जी’’वाली पत्नी थी. इस तरह अंग्रेज़ी फ़िल्म की नायिका की तरह कौन डार्लिंग शब्द का प्रयोग करता है. उसके बाद वो अपने पति को हनी या डार्लिंग ही सम्बोधित करती रही. मधु ने बताया उसकी मौसी के पास ग्रीनकार्ड है और अब अमेरिका में ही बस गई हैं. मेरी अवनी के दिमाग़ में ग्रीन कार्ड और डार्लिंग इस क़दर घुस गया कि ग्रीन कार्ड भी एक ट्रॉफ़ी की तरह हो गया जिसे मेरी अपराजिता अवनी हासिल करना चाहती थी.
अपराजिता की पहली हार तब हुई जब उसकी शादी उसकी पसंद नहीं बल्कि घर वालों की पसंद के एक होनहार लड़के से हुई. लड़कियों की आज़ादी और हक़ की बातें करने वाली अवनी ने समय के आगे हथियार डाल दिए. दोनों पति पत्नी मल्टी नैशनल कम्पनी में कार्यरत थे इसलिए वो अपने रूढ़िवादी ससुराल से दूर ज़रूर थी पर उसके जीवन में उनकी दख़लंदाजी ज़रूरत से ज़्यादा थी. बार-बार पति से कहती,“क्यों ना कम्पनी के थ्रू अमेरिका चलें. हम लोगों को तो हाइली क्वॉलिफ़ाइड कैटेगरी में ग्रीन कार्ड भी मिल जाएगा.’’ पति इस तरह देखते मानो बीबी के दिमाग़ का कहीं फ़ालूदा तो नहीं बन गया है. कभी बचपन के सपने के अनुसार डार्लिंग और हनी बुलाने की कोशिश भी की तो इस तरह घूर कर देखा मानो किसी सिरफिरे को देख रहे हों. मां बाप लोगों से कहते फिरते,“अवनी की ज़िंदगी तो स्वर्ग है. दोनों की मोटी तनख़्वाह और बड़ा घर, हर सुख है हमारी अवनी के पास.”
पहली बार अवनी मां बनने वाली थी, बड़ी ख़ुश थी और मां-पापा भी अपनी नाना-नानी बनने की ख़ुशी में बड़े उत्साहित थे. मैं जब भी अंकल आंटी से मिलने जाती कभी अंकल को सौंठ कुटते पाती तो कभी बड़ी मुस्तैदी से हल्दी पीपर काला नमक का मसाला जो आम तौर से हर हिंदुस्तानी फ़ेमिली में डिलीवरी के बाद दिया जाता है. आंटी ने भी प्यारे-प्यारे मोज़े स्वेटर बुने थे लेकिन सब नीले रंग से मिलते जुलते थे. मैंने आंटी से पूछा,“आंटी ये ब्लू ब्लू क्यों सब कुछ, अवनी तो ब्लू कलर से चिढ़ती है.”
आंटी ने जवाब दिया,“उसके चिढ़ने से क्या होता है. ब्लू तो लड़कों का कलर है और हमारे दामाद को लड़का ही चाहिए.”
मैंने आश्चर्य से उस महिला को देखा जो लोगों को सीख देती थी कि,“बेटे बेटे क़्या करते हो? अवनी तो हमारा बेटा है. देखो कितना नाम कमा रही है.’’
मुझे चुप देख धीरे से आंटी ने कहा,“नहीं बेटा उसके ससुराल वालों की सोच हमारी तरह नहीं है ना. उसकी सास, ससुर, पति सब बेटे की रट लगाए हैं. इसलिए हमें भी लगता है कि बेटा हो जाए तो अच्छा.’’
मैंने सोचा आंटी से पूछूं कि मेरी अवनी क्या चाहती है? पर मौक़े की नज़ाकत देख मैं चुप ही रही. मैंने भी दिल से भगवान से दुआ की कि अवनी की गोद में बेटा ही आए. लेकिन भगवान शायद अवनी की ज़्यादा सुनते थे. अवनी की गोद में एक प्यारी सी बेटी नन्ही आ गई. बेचारी अवनी अपनी मनमांगी मुराद पूरी होने का जश्न भी ना मना सकी. उसे तो शुरू से बेटी का शौक़ था. बचपन के खेलों में हमेशा गुड़िया की ही मां बनती थी. मुझे बाद में पता चला बेटी के पैदा होते उसके ससुराल वाले अस्पताल से ही ग़ायब हो गए थे. सारी देखभाल और ख़र्चे अंकल आंटी को ही उठाने पड़े थे. बेटी के पैदा होने के बाद पूरी मेटरनिटी लिव अवनी ने अंकल आंटी के साथ ही अपने मायके में गुज़ारी. बेटी अदिति तो मानो परियों की रानी हो. मैं मिलने गई तो अवनी ख़ुश ही दिखी, कॉलेज की एक बड़ी अदाकारा जो थी. मुझे यानी अपनी सुख दुःख की साथी को भनक भी ना पड़ने दी कि उसे भी कोई दुःख है.
मैंने मज़ाक़ भी किया,“क्या हुआ तेरा ग्रीन कार्ड?”
अवनी.‘‘मेरी कल्पनाएं तो अभी भी वैसी ही हैं, एबी माने तब तो.” (पति अभिषेक को वो अकेले में एबी पुकारती थी शायद ससुराल वालों के सामने वो एजी ही थे)
मैं,“और वो डार्लिंग बोलना!’’
अवनी फीकी मुस्कान के साथ बोली,“वो इच्छाएं अगले जन्म के लिए, ग्रीन कार्ड के साथ भी डार्लिंग नहीं बुला पाऊंगी. बाप रे…कहीं एबी को झटके ना आ जाएं.’’
हम कई बार मिले लेकिन उसने अपने दिल का पन्ना बंद ही रखा. मैं भी अपनी ज़िंदगी में उलझती गई. बाद में पता चला अवनी दो बेटियों की मां बन गई. अचानक एक दिन आंटी मार्केट में मिलीं और बताया अवनी अमेरिका शिफ़्ट हो गई है और थोड़े दिनों में उनका ग्रीन कार्ड भी आ जाएगा. दोनों बेटियों को आंटी के पास छोड़ कर गई है. उनका दाख़िला इसी शहर के स्कूल में कर दिया गया है. मन ही मन मैं बड़ी ख़ुश हुई कि अब डार्लिंग बोलने की ख़्वाहिश भी पूरी हो जाएगी. पर फिर लगा बेटियों को क्यों यहां छोड़ गई. आंटी भी ज़्यादा बात करने के मूड में नहीं थीं शायद दो-दो नातिनों की वजह से परेशान रहती हों. मैंने सोचा अवनी नहीं मतलब रखती तो क्या, मैं भी उसको फ़ोन कर लूंगी, आंटी से फ़ोन नम्बर ले लिया. समय का ध्यान रखते हुए सुबह के सात बजे यानी न्यू यॉर्क की शाम सात बजे फ़ोन लगाया.
मैं,“हेलल्लो हेलल्लो पहचान कौन?”
अवनी,“और कौन? मेरी जाने जिगर, और कौन मुझे याद करता है?”
मैं,“अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे, यहां सिर्फ़ तू और तेरे एबी. बुला जी भर के उन्हें डार्लिंग.’’
अवनी,“मेरी छोड़ अपनी सुना. मां के पास जा बेटियों से मिल आना. प्लीज़.’’
अवनी ज़ोर-ज़ोर फ़ोन पर ही रोने लगी. पीछे से एबी ने आवाज़ लगाई,“कौन है फ़ोन पर? किसके सामने रो रही हो?”
अवनी ने कहा,“मेरी दोस्त रमा.’’
उसके बाद फ़ोन डिस्कनेक्ट हो गया या उसने कर दिया, समझ नहीं आया. मैं पूरे दिन बैचेन रही. भले अवनी से दूर थी पर उसके सपने मेरे सपने थे. ये तो वो ही थी जिसने किनारा कर लिया था.
दूसरे ही दिन अपने कॉलेज से छुट्टी ले अवनी के घर जा पहुंची. ठीक पुरानी रमा की तरह आंटी से फ़रमाइश कर पसंद का खाना बनवाया. बेटियों से पहले मिली ज़रूर थी पर आपस में बॉन्डिंग नहीं थी. लेकिन आश्चर्य की बात स्कूल से आते ही दोनों मुझसे “मौसी -मौसी’’ कह इस तरह लिपट गईं, मानो अपनी मां से लिपट रहीं हों. उस प्यार और अपनेपन की गर्माहट मैंने भी महसूस की. पूरे शरीर में ममतत्व जाग उठा. आंटी अपनी सहूलियत के लिए उन्हें बड़ू छोटू कह पुकारती थीं. दोनों में उम्र का अंतर केवल डेढ़ साल का होने से दोनों जुड़वा बहनों की तरह थीं. बड़ी ग्यारह और छोटी दस साल की थी. उसके बाद आंटी ने जो बात बताई उसने मेरे रोंगटे खड़े कर दिए.
आंटी,“रमा तू सोच भी सकती है मेरी अवनी की रोज़ अग्नि परीक्षा होती थी ससुराल में. दो-दो बेटियों का दुःख सास-ससुर को तो था ही, अभिषेक भी कोई कम नहीं. उसे भी लगता है बेटे ही वंश को आगे बढ़ाते हैं. तुझे तो याद है ना मैंने और तेरे अंकल ने कभी लड़के और लड़कियों में भेद नहीं किया, बल्कि अवनी की सारी ख़्वाहिशें पहले पूरी करते थे. अतुल और अजय अपने पापा से ग़ुस्सा भी हो जाया करते थे. अब ही देख लो, छोटू-बड़ू की वजह से यहां अटकी हूं. बेटों के पास नहीं जा पा रही हूं. तू मानेगी नहीं इन दोनों के लिए सिवाय अवनी के किसी के भी फ़ोन नहीं आते हैं. दादा-दादी तो कभी पलट कर भी नहीं पूछते.”
मैंने आंटी की बात काटते हुए कहा,“अरे आंटी आप भी ना, कुछ ही दिनों की ही तो बात है. मेरी मैडम का ग्रीन कार्ड आ जाएगा, एनआरआई बन जाएगी. फिर ले जाएगी अपनी परियों को.”
अब आंटी ने मेरी बात काटते हुए मुझे सन्न कर दिया,“काश… बात इतनी सिंपल होती. मेरी बेटी तो बचपन से ही घर के ऊपर उड़ने वाले हर जहाज़ के साथ ख़ुद भी अपनी कल्पनाओं में उड़ती और अपने ड्रीमलैंड अमेरिका जाती. याद है, इंग्लिश भी कितने ऐक्सेंट से बोलती थी. ग्रीन कार्ड उसकी मंज़िल थी पर मंज़िल का रास्ता ये ना था.’’
मैं,“अब क्या हुआ? अरे अभी भी अमेरिका कोई पैदल तो नहीं गई है? जहाज़ से ही गई है.’’
आंटी,“अरे ये बात नहीं है. अवनी ने किसी से भी बताने मना किया था. पर तू तो किसी नहीं मेरी दूसरी बेटी है.’’
उसके बाद जो आंटी ने बताया वो तो मेरी कल्पना से ना केवल परे बल्कि अविश्वसनीय-सा था. अवनी के ससुराल ही नहीं स्वयं पति का भी दबाव था कि बेटा होना चाहिए. औरतों और लड़कियों की पुरज़ोर हिमायती अवनी ने बहुत विरोध किया पर फिर हथियार डाल दिए. अमेरिका जाना और ग्रीन कार्ड तो उसी प्लान का हिस्सा था. कम्पनी के फ़ेवरेट और इम्पोर्टेंट इम्पलोई के लिए कम्पनी ने ही सुपर फ़ास्ट ट्रैक से ग्रीन कार्ड का बंदोबस्त कर दिया था. अमेरिका में प्रेग्नेंट महिलाओं को पेट में पल रहे बच्चे का सेक्स बतला देते हैं. ये ग्रीन कार्ड अवनी के लिए पूतोंवाली का ख़िताब लेने के लिए था.
इसके बाद जब आंटी से मुलाक़ात हुई तो उनके घर में सब बहुत ख़ुश थे क्योंकि अवनी फिर मां बनने वाली थी और वो भी बेटे की. आंटी ब्लू कलर के स्वेटर, मोज़े और टोपे बुन रही थी. दोनो बेटियों ने मुझे बताया कि उनका भाई आने वाला है और भाई के साथ उनकी मम्मी भी इंडिया आ जाएंगी. मुझे पता नहीं क्यों लगा जैसे मैं ही अपनी ज़िंदगी की जंग हार गई हूं. एक अवनी जैसी मज़बूत औरत की हार हर उस औरत की हार थी जो ख़ुद को अपराजिता कहलाना पसंद करती थी.
उसके बाद अवनी से तब मुलाक़ात हुई जब वो अपने बेटे को लेकर अमेरिका से आई थी. मायके में ख़ुशी का जश्न, जिसमें ससुराल वाले, अड़ोसी-पड़ोसी और मैं शामिल थे. दोनों बेटियां भी बड़ी ख़ुश थीं और भाई के आगे-पीछे घूम रही थीं. सास बार-बार कभी बहू तो कभी पोते की बलैयां ले रही थीं. आंटी-अंकल के चेहरे पर एक राहत की ठंडक थी कि अब उन्हें बेटियों की ज़िम्मेदारी से छुटकारा मिल जाएगा. अगर मैं अवनी को ताने देती तो लगता कि जैसे मुझे उसकी ख़ुशियों से परहेज़ है.
आज पच्चासवें जन्मदिन पर लोग ‘अवनी दी लेडी’ की तारीफ़ों के कशिदे पढ़ रहे थे कि कभी हार नहीं मानी, कभी मैदान नहीं छोड़ा, जो चाहा उसे पाने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया. पति तो अपने भाग्य की सराहना कर रहे थे कि उन्हें अवनी जैसी जीवनसाथी मिली. उस पूरी भीड़ में मैं ही अकेली मूर्ख थी जिसकी ज़ुबान कुछ भी कहने से हिचक रही थी.
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