अपनी कविताओं में अपने जीवन की छोटी-मोटी घटनाओं का बरबस ज़िक्र करके समाज के तानेबाने और देश-दुनिया की स्थिति बयां करना रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ की ख़ासियत थी. कविता नूर मियां में दादी द्वारा नूर मियां के सुरमे के प्रति लगाव की कहानी, हमारे समाज की कहानी कहती है.
आज तो चाहे कोई विक्टोरिया छाप काजल लगाए
या साध्वी ऋतंभरा छाप अंजन
लेकिन असली गाय के घी का सुरमा
तो नूर मियां ही बनाते थे
कम से कम मेरी दादी का तो यही मानना था
नूर मियां जब भी आते
मेरी दादी सुरमा ज़रूर ख़रीदती
एक सींक सुरमा आंखों में डालो
आंखें बादल की तरह भर्रा जाएं
गंगा जमुना कि तरह लहरा जाएं
सागर हो जाएं बुढ़िया कि आंखें
जिनमें कि हम बच्चे झांके
तो पूरा का पूरा दिखें
बड़ी दुआएं देती थी मेरी दादी नूर मियां को
और उनके सुरमे को
कहती थी कि
नूर मियां के सुरमे कि बदौलत ही तो
बुढ़ौती में बितौनी बनी घूम रही हूं
सुई मे डोरा दाल लेती हूं
और मेरा जी कहे कि कहूं
कि ओ री बुढ़िया
तू तो है सुकन्या
और तेरा नूर मियां है च्यवन ऋषि
नूर मियां का सुरमा
तेरी आंखों का च्यवनप्राश है
तेरी आंखें, आंखें नहीं दीदा हैं
नूर मियां का सुरमा सिन्नी है मलीदा है
और वही नूर मियां पाकिस्तान चले गए
क्यूं चले गए पाकिस्तान नूर मियां
कहते हैं कि नूर मियां का कोई था नहीं
तब, तब क्या हम कोई नहीं होते थे नूर मियां के?
नूर मियां क्यूं चले गए पकिस्तान?
बिना हमको बताए
बिना हमारी दादी को बताए
नूर मियां क्यूं चले गए पकिस्तान?
अब न वो आंखें रहीं और न वो सुरमे
मेरी दादी जिस घाट से नूर मियां थी
उसी घाट गई
नदी पार से ब्याह कर आई थी मेरी दादी
और नदी पार ही चली गई
जब मैं उनकी राखी को नदी में फेंक रहा था
तो लगा कि ये नदी, नदी नहीं मेरी दादी कि आंखें हैं
और ये राखी, राखी नहीं
नूर मियां का सुरमा है
जो मेरी दादी कि आंखों मे पड़ रहा है
इस तरह मैंने अंतिम बार
अपनी दादी की आंखों में
नूर मियां का सुरमा लगाया
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