दुनिया के शोर-शराबे के बीच हमें ख़ुद से भी बात करते रहनी चाहिए. कवि कुंवर बेचैन की कविता ‘सबकी बात न माना कर’ सिर्फ़ पढ़ने ही नहीं, रुककर सोचने को भी मजबूर करती है.
सबकी बात न माना कर
ख़ुद को भी पहचाना कर
दुनिया से लड़ना है तो
अपनी ओर निशाना कर
या तो मुझसे आकर मिल
या मुझको दीवाना कर
बारिश में औरों पर भी
अपनी छतरी ताना कर
बाहर दिल की बात न ला
दिल को भी तहखाना कर
शहरों में हलचल ही रख
मत इनको वीराना कर
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