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धुआं: नफ़रत के बीच उम्मीद की कहानी (लेखक: गुलज़ार)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
March 30, 2022
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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धुआं: नफ़रत के बीच उम्मीद की कहानी (लेखक: गुलज़ार)
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महजबों के बीच नफ़रत की भावना ने किस क़दर घर कर लिया है कि एक मरे हुए आदमी की आख़िरी इच्छा के लिए दो समुदायों के बीच तलवारें खिंच जाती हैं.

बात सुलगी तो बहुत धीरे से थी, लेकिन देखते ही देखते पूरे क़स्बे में धुआं भर गया. चौधरी की मौत सुबह चार बजे हुई थी. सात बजे तक चौधराइन ने रो-धो कर होश सम्भाले और सबसे पहले मुल्ला ख़ैरूद्दीन को बुलाया और नौकर को सख़्त ताकीद की कि कोई ज़िक्र न करे. नौकर जब मुल्ला को आंगन में छोड़ कर चला गया तो चौधराइन मुल्ला को ऊपर ख़्वाबगाह में ले गई, जहां चौधरी की लाश बिस्तर से उतार कर ज़मीन पर बिछा दी गई थी. दो सफ़ेद चादरों के बीच लेटा एक ज़रदी माइल सफ़ेद चेहरा, सफेद भौंवें, दाढ़ी और लम्बे सफ़ेद बाल. चौधरी का चेहरा बड़ा नूरानी लग रहा था.
मुल्ला ने देखते ही ‘एन्नल्लाहे व इना अलेहे राजेउन’ पढ़ा, कुछ रसमी से जुमले कहे. अभी ठीक से बैठा भी ना था कि चौधराइन अलमारी से वसीयतनामा निकाल लाई, मुल्ला को दिखाया और पढ़ाया भी. चौधरी की आख़िरी ख़ुवाहिश थी कि उन्हें दफ़न के बजाय चिता पर रख के जलाया जाए और उनकी राख को गांव की नदी में बहा दिया जाए, जो उनकी ज़मीन सींचती है.
मुल्ला पढ़ के चुप रहा. चौधरी ने दीन मज़हब के लिए बड़े काम किए थे गांव में. हिंदू-मुसलमान को एकसा दान देते थे. गांव में कच्ची मस्जिद पक्की करवा दी थी. और तो और हिन्दुओं के शमशान की इमारत भी पक्की करवाई थी. अब कई वर्षों से बीमार पड़े थे, लेकिन इस बीमारी के दौरान भी हर रमज़ान में ग़रीब गुरबा की अफ़गरी (अफ़तारी) का इन्तज़ाम मस्जिद में उन्हीं की तरफ़ से हुआ करता था. इलाक़े के मुसलमान बड़े भक्त थे उनके, बड़ा अकीदा था उन पर और अब वसीयत पढ़ के बड़ी हैरत हुई मुल्ला को कहीं झमेला ना खड़ा हो जाए. आज कल वैसे ही मुल्क़ की फ़िज़ा ख़राब हो रही थी, हिंदू कुछ ज़्यादा ही हिंदू हो गए थे, मुसलमान कुछ ज़्यादा मुसलमान!!
चौधराइन ने कहा,‘‘मैं कोई पाठ पूजा नहीं करवाना चाहती. बस इतना चाहती हूं कि शमशान में उन्हें जलाने का इन्तज़ाम कर दीजिए. मैं रामचन्द्र पंडित को भी बता सकती थी, लेकिन इस लिए नहीं बुलाया कि बात कहीं बिगड़ न जाए.’’
बात बताने ही से बिगड़ गई जब मुल्ला ख़ैरूद्दीन ने मसलेहतन पंडित रामचंन्द्र को बुला कर समझाया कि,‘‘तुम चौधरी को अपने शमशान में जलाने की इज़ाज़त ना देना वरना हो सकता है, इलाक़े के मुसलमान बावेला खड़ा कर दें. आख़िर चौधरी आम आदमी तो था नहीं, बहुत से लोग बहुत तरह से उन से जुड़े हुए हैं.’’
पंडित रामचंद्र ने भी यक़ीन दिलाया कि वह किसी तरह की शर अंगेज़ी अपने इलाक़े में नहीं चाहते. इस से पहले बात फैले, वह भी अपनी तरफ़ के मख़सूस लोगों को समझा देंगे.
बात जो सुलग गई थी धीरे-धीरे आग पकड़ने लगी. सवाल चौधरी और चौधराइन का नहीं हैं, सवाल अकीदों का है. सारी कौम, सारी कम्युनिटी और मज़हब का है. चौधराइन की हिम्मत कैसे हुई कि वह अपने शौहर को दफ़न करने की बजाय जलाने पर तैयार हो गई. वह क्या इसलाम के आईन नहीं जानती?
कुछ लोगों ने चौधराइन से मिलने की भी ज़िद की. चौधराइन ने बड़े धीरज से कहा,‘‘भाइयों! ऐसी उनकी आख़िरी ख़्वाहिश थी. मिट्टी ही तो है, अब जला दो या दफ़न कर दो, जलाने से उनकी रूह को तसकीन मिले तो आपको एतराज़ हो सकता है?’’
एक साहब कुछ ज़्यादा तैश में आ गए.
बोले,‘‘उन्हें जलाकर क्या आप को तसकीन होगी?’’
‘‘जी हां,’’चौधराइन का जवाब बहुत मुख़्तसर था.
‘‘उनकी आख़िरी ख़्वाहिश पूरी करने से ही मुझे तसकीन होगी.’’
दिन चढ़ते-चढ़ते चौधराइन की बेचैनी बढ़ने लगी. जिस बात को वह सुलह सफ़ाई से निपटना चाहती थी वह तूल पकड़ने लगी. चौधरी साहब की इस ख़्वाहिश के पीछे कोई पेचीदा प्लॉट, कहानी या राज़ की बात नहीं थी. ना ही कोई ऐसा फ़लसफ़ा था जो किसी दीन मज़हब या अकीदे से ज़ुड़ता हो. एक सीधी-सादी इन्सानी ख़्वाहिश थी कि मरने के बाद मेरा कोई नाम व निशान ना रहे.
‘‘जब हूं तो हूं, जब नहीं हूं तो कहीं नहीं हूं.’
बरसों पहले यह बात बीवी से हुई थी, पर जीते जी कहां कोई ऐसी तफ़सील में झांक कर देखता है. और यह बात उस ख़्वाहिश को पूरा करना चौधराइन की मुहब्बत और भरोसे का सुबूत था. यह क्या कि आदमी आंख से ओझल हुआ और आप तमाम ओहदो पैमाने भूल गए.
चौधराइन ने एक बार बीरू को भेजकर रामचंद्र पंडित को बुलाने की कोशिश भी की थी लेकिन पंडित मिला ही नहीं. उसके चौकीदार ने कहा,‘‘देखो भई, हम जलाने से पहले मंत्र पढ़के चौधरी को तिलक ज़रूर लगाएंगे.’’
‘‘अरे भई जो मर चुका उसका धर्म अब कैसे बदलेगा?’’
‘‘तुम ज़्यादा बहस तो करो नहीं. यह हो नहीं सकता कि गीता के श्लोक पढ़े बगैर हम किसी को मुख अग्नि दें. ऐसा ना करें तो आत्मा हम सब को सताएगी, तुम्हें भी, हमें भी. चौधरी साहब के हम पर बहुत एहसान हैं. हम उनकी आत्मा के साथ ऐसा नहीं कर सकते.’’
बीरू लौट गया.
बीरू जब पंडित के घर से निकल रहा था तो पन्ना ने देख लिया. पन्ना ने जाकर मस्जिद में ख़बर कर दी.
आग जो घुट-घुट कर ठंडी होने लगी थी, फिर से भड़क उठी. चार-पांच मुअतबिर मुसलमानों ने तो अपना क़तई फ़ैसला भी सुना दिया. उन पर चौधरी के बहुत एहसान थे वह उनकी रूह को भटकने नहीं देंगे. मस्जिद के पिछवाड़े वाले क़ब्रिस्तान में, क़ब्र खोदने का हुक़्म भी दे दिया.
शाम होते-होते कुछ लोग फिर हवेली पर आ धमके. उन्होंने फ़ैसला कर लिया था कि चौधराइन को डरा धमका कर, चौधरी का वसीयतनामा उससे हासिल कर लिया जाए और जला दिया जाए फिर वसीयतनामा ही नहीं रहेगा तो बुढ़िया क्या कर लेगी.
चौधराइन ने शायद यह बात सूंघ ली थी. वसीयतनामा तो उसने कहीं छुपा दिया था और जब लोगों ने डराने धमकाने की कोशिश की तो उसने कह दिया,‘‘मुल्ला ख़ैरूद्दीन से पूछ लो, उसने वसीयत देखी है और पूरी पढ़ी है.’’
‘‘और अगर वह इन्कार कर दे तो?’’
‘‘क़ुरआन शरीफ़ पर हाथ रख के इन्कार कर दे तो दिखा दूंगी, वरना…’’
‘‘वरना क्या?’’
‘‘वरना कचहरी में देखना.’’
बात कचहरी तक जा सकती है, यह भी वाज़े हो गया. हो सकता है चौधराइन शहर से अपने वक़ील को और पुलिस को बुला ले. पुलिस को बुला कर उनकी हाज़री में अपने इरादे पर अमल कर ले. और क्या पता वह अब तक उन्हें बुला भी चुकीं हों. वरना शौहर की लाश बर्फ़ की सिलों पर रखकर कोई कैसे इतनी ख़ुद एतमादी से बात कर सकता है.
रात के वक़्त ख़बरें अफ़वाहों की रफ़्तार से उड़ती हैं.
किसी ने कहा,‘‘एक घोड़ा सवार अभी-अभी शहर की तरफ़ जाते हुए देखा गया है. घुड़सवार ने सर और मुंह साफ़े से ढांप रखा था, और वह चौधरी की हवेली से ही आ रहा था.’’
एक ने तो उसे चौधरी के अस्तबल से निकलते हुए भी देखा था.
ख़ादू का कहना था कि उसने हवेली के पिछले अहाते में सिर्फ़ लकड़ियां काटने की आवाज़ ही नहीं सुनी, बल्कि पेड़ गिरते हुए भी देखा है.
चौधराइन यक़ीनन पिछले अहाते में, चिता लगवाने का इन्तज़ाम कर रही हैं. कल्लू का ख़ून खौल उठा.
‘‘बुज़दिलों-आज रात एक मुसलमान को चिता पर जलाया जाएगा और तुम सब यहां बैठे आग की लपटें देखोगे.’’
कल्लू अपने अड्डे से बाहर निकला. ख़ून ख़राबा उसका पेशा है तो क्या हुआ? ईमान भी तो कोई चीज़ है.
‘‘ईमान से अज़ीज़ तो मां भी नहीं होती यारों.’’
चार पांच साथियों को लेकर कल्लू पिछली दीवार से हवेली पर चढ़ गया. बुढ़िया अकेली बैठी थी, लाश के पास. चौंकने से पहले ही कल्लू की कुल्हाड़ी सर से गुज़र गई.
चौधरी की लाश को उठवाया और मस्जिद के पिछवाड़े ले गए, जहां उसकी क़ब्र तैयार थी. जाते-जाते रमजे ने पूछा,
‘‘सुबह चौधराइन की लाश मिलेगी तो क्या होगा?’’
‘‘बुढ़िया मर गई क्या?’’
‘‘सर तो फट गया था, सुबह तक क्या बचेगी?’’
कल्लू रुका और देखा चौधराइन की ख़्वाबगाह की तरफ़. पन्ना कल्लू के ‘जिगरे’ की बात समझ गया.
‘‘तू चल उस्ताद, तेरा जिगरा क्या सोच रहा है मैं जानता हूं. सब इन्तज़ाम हो जाएगा.’’
कल्लू निकल गया, क़ब्रिस्तान की तरफ़.
रात जब चौधरी की ख़्वाबगाह से आसमान छूती लपटें निकल रही थी तो सारा क़स्बा धुएं से भरा हुआ था.
ज़िंदा जला दिए गए थे,और मुर्दे दफ़न हो चुके थे.

Illustration: Pinterest

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