नवरात्र में चाव के साथ अनुष्ठान करना हमारी इच्छा या श्रद्धा हो सकती है. लेकिन हमारे व्रत और त्यौहार, हमारी पौराणिक कथाएं केवल अनुष्ठान करने के लिए नहीं बनाई गईं थीं, बल्कि अनुष्ठान तो केवल माध्यम थे, हमें उनकी महत्ता सीखने के लिए आकर्षित करने का. वास्तव में पूजा पाठ के लिए गढ़े गए नाम किसी के प्रतीक होते थे. इन प्रतीकों में ही उस पूजा को किए जाने के पीछे का प्रयोजन छिपा होता था. तो आइए, नवरात्र में देवी के नौ रूपों के प्रतीकार्थ को समझें भावना प्रकाश से.
नवरात्र में पूजे जाने वाले देवी के नौ रूप वास्तव में मां के व्यक्तित्व की वे नौ विशेषताएं हैं, जिनसे वह सर्वगुण सम्पन्न संतति यानी संतान का निर्माण कर सकती है. वेदकाल से ही नारी को गरिमामंडित तथा शक्ति और प्रेरणा का स्रोत माना गया. जिस प्रकार धरती में बीज को धारण करके विशाल और छायादार वृक्ष में परिणित करने की क्षमता होती है. उसी प्रकार नारी को भी ये क्षमता ईश्वर ने दी है. इसीलिए प्रकृति और नारी दोनों को देवी माना गया.
गृहणी विभिन्न व्रत तथा उपवासों में पीपल, बरगद तथा तुलसी की पूजा के माध्यम से पर्यावरण के रक्षण का दायित्व निभाती है, जो भावी पीढ़ी को शीतलता की विरासत देने के लिए ज़रूरी है. इसीलिए वो शीतलता की देवी शैलपुत्री तथा समस्त प्रकृति की रक्षिका कुष्मांडा के रूप में पूजित है.
अपनी संतान को कुंठारहित बनाने तथा पावन संस्कार देने के लिए उनके पालन के लिए दिए जाने वाले समय में या यों भी बच्चों के सामने उसका ब्रह्मचारिणी रूप अपेक्षित होता है. इसीलिए वो पवित्रता की देवी ब्रह्मचारिणी के रूप में पूजित है.
मां ही अपनी संतान की प्रथम गुरु होती है. वो गायत्री के रूप में उनकी सद्बुद्धि तथा विवेक का विकास करती है. कभी सरस्वती बनकर उनकी बुद्धिमत्ता और कलाओं को अपने अनुशासन द्वारा तराशती है. उनकी नैसर्गिक प्रतिभाओं का पोषण और संवर्धन करती है. अपना सम्पूर्ण प्रेम उन पर उड़ेल कर उनकी चेतना में मिठास घोलती है इसीलिए वह स्कंदमाता के रूप में पूजित है.
वो संतान की हिंसक प्रवृत्तियों को अनुशासित करके सही दिशा देने में सक्षम है इसीलिए उसे मां दुर्गा के रूप में पूजा तथा सिंह पर सवार दिखाया जाता है.
अक्सर मां को कमल पर सवार दिखाने का आशय यह है कि मां का वास बनने की क्षमता उसी हृदय में है, जो दुर्भावनाओं के कीचड़ से भरी दुनिया में रहकर भी उसमे लिप्त नहीं है. वो कात्यायनी तथा कालरात्रि बनकर अपनी संतान के दुर्गुणों तथा निरंकुश प्रवृत्तियों का नाश भी करती है. आज संसार में व्याप्त अनाचार का कारण यही है कि हम मांओं ने अपने इन रूपों को अप्रासंगिक समझ लिया है जबकि हमारे पूर्वजों ने नारी के इन रूपों को बहुत सोच समझ कर गढ़ा था.
हां, समय के साथ पनपी सामंतवादी सोच ने नारी के प्रति जो दमनकारी नीति विकसित की, उससे क्षुब्ध होना स्वाभाविक है और केवल देवी बनकर मानवीय मनोरंजन के पूर्ण तिरस्कार को नकारने की अपेक्षा का विरोध भी आवश्यक है. मैं यह क़तई नहीं कहती कि हमें स्वतंत्रता या स्वयं के लिए जीने का अधिकार नहीं. लेकिन हम तर्क की छलनी से पौराणिक प्रथाओं के कारणों को छान, आवश्यक प्रथाओं को अपने पास रख सकते हैं. आरंभ में नारी को देवी की संज्ञा उसके अधिकारों के हनन के लिए नहीं, बल्कि इसलिए दी गई थी कि वही एक सभ्य, सुसंस्कृत और विवेकशील नागरिक का निर्माण कर सकती है. जिसके लिए उसका नींव की ईंट बनना आवश्यक था.
आज स्त्रियों के प्रति हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध तरह-तरह से संघर्ष हो रहे हैं. ये विरोध, आंदोलन ज़रूरी हैं, पर इन्हें पुरुष विरोधी बनाने के बजाय दूषित मानसिकता विरोधी होना चाहिए. ऐसा होगा तभी तो समाधान स्थाई और दूरगामी होंगे. तो आइए, इसकी शुरुआत अपने घर से करें. इस नवरात्र संकल्प लें कि बेटा-बेटी दोनों की ही मनोवृत्ति दूषित न होने देंगे और उनकी आत्मशक्ति को मजबूत बनाएंगे.
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