जहां न्याय होता है, वहां शांति, प्रगति और बरक़त होती है. जबकि अन्याय अशांति को जन्म देता है. इस बात को रेखांकित करती यह कहानी बहुत सामयिक है. इसे ज़रूर पढ़ें.
भोलू और सोनू दो पड़ोसी थे. उन दोनों के आंगन में एक एक आम का पेड़ था. एक दिन भोलू के आंगन में पका आम गिरा, जिसे सोनू ने उठा कर खा लिया. भोलू ने गांव की पंचायत में इसकी शिकायत की. पंचों ने फ़ैसला दिया कि सोनू ने वह आम उठाकर कोई ग़लती नहीं की है, वह तुम्हारा पड़ोसी है और इस नाते ऐसा कर सकता है.
दो दिन बाद सोनू के आंगन में पका आम गिरा हुआ देखकर भोलू ने सोचा कि यह आम तो मैं खा सकता हूं, क्योंकि मैं भी सोनू का पड़ोसी हूं और इस नाते यह करना कोई जुर्म नहीं है. उसने वह आम खा लिया. जब यह बात सोनू को पता चली तो उसने पंचायत में इसकी शिकायत की. पंचों ने इस बार बिल्कुल अलग फ़ैसला दिया. उन्होंने कहा चूंकि इस बार पेड़ सोनू का था और खाने वाला भोलू था, जबकि पहले इसका ठीक उलट हुआ था इसलिए यह एक अलग मामला हुआ. अतः पंचायत इसे चोरी का मामला मानती है और भोलू को चोर मानते हुए पांच कोड़े मारने की सज़ा सुनाती है. कोड़े भोलू को सोनू ही मारेगा, क्योंकि चोरी उती बेचारे के यहां हुई है.
इस क़िस्से में सबसे ख़ास बात यह रही कि पंचायत ने एक ही जुर्म के लिए एक को ईनाम दिया और दूसरे को सज़ा. मज़े की बात यह है कि पंचायत के ऐसे फ़ैसले को देखकर ईनाम पाने वाले, सज़ा पाने वाले और इस पूरी प्रक्रिया को देखने वालों के दिलों में यह बात पक्की हो गई कि यह पंचायत इंसाफ़ नहीं करती.
इसका असर यह हुआ कि लोग अब पंचायत के पास ना जाकर अपने फ़ैसले ख़ुद ही करने लगे. कभी ये फ़ैसले आपसी सहमति से किए जाते तो कभी बाहुबल से या फिर हथियारों से. अव्यवस्था और बर्बरता के ये हालात यहां तक पहुंच गए कि एक दिन किसी व्यक्ति को लकड़ियों की ज़रूरत पड़ी तो वह सोनू का आम का पेड़ ही काट कर ले गया. पर बात यहीं नहीं रूकी. एक दबंग जो बेऔलाद था वह पुत्र प्राप्ति के लिए तांत्रिक के कहने पर सोनू के बेटे की बलि चढ़ा आया. गांव में त्राहि-त्राहि मची हुई थी. सब परेशान थे. सभी के मन में डर, असुरक्षा और अशांति ने घर कर लिया.
जब सभी लोगों को लगा कि इस तरह कैसे गुज़र होगी तो गांव वाले अपनी यह समस्या लेकर एक संत के पास गए और बोले, “संत जी हमारे गांव को बचा लो, सब वहशी और ज़ालिम बन चुके हैं.”
संत ने उनसे पूछा, “यह सब कब से शुरू हुआ?”
गांव वालों ने बताया कि, “जबसे भोलू के साथ पंचायत ने नाइंसाफ़ी की, उसके प्रति ग़लत फ़ैसला दिया तब से ही.”
संत ने मुस्कुराते हुए कहा, “तो फिर आप सब ही बताओ कि अब शांति, सौहार्द्र और अमन कैसे आएगा गांव में?”
लोग चुप रहे. उन्हें कोई जवाब न सूझा. बोले, ‘‘इसी के समाधान के लिए तो आपके पास आए हैं महात्मन!’’
संत ने संयत वाणी में कहा कि, “भोले ग्रामीणों, शांति के लिए न्याय सबसे पहली शर्त है. न्याय के बिना शांति आ ही नहीं सकती और शांति के बिना समृद्धि, सुख और बरक़त का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता. इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि अन्याय किसके साथ किया जा रहा है. यह अन्याय सोनू के साथ होता तो भी परिणाम यही होता. अन्याय के साथ अशांति आएगी ही आएगी. यदि अपने गांव में अमन-चैन लाना चाहते हो तो गांव वालों तुम्हे चाहिए कि अपनी पंचायत को भंग करो, नए और ईमानदार पंच और सरपंचों को चुनो. पुरानों को उनके अन्यायपूर्ण कृत्य की सज़ा दो. न्याय को क़ायम करो. यही एकमात्र रास्ता है तुम्हारे गांव में शांति और समृद्धि लाने का.”
गांव वालों ने संत की बातों का अक्षरशः पालन किया. और उनकी बात सही निकली कि न्याय को क़ायम करते ही शांति आने लगी. लेकिन सबसे दुखद बात यह रही कि वे लोग वापस नहीं आ सके, जो इस अशांति की बलि चढ़ गए थे.
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट, canva.com