हम दुनिया को अपना जो चेहरा दिखाते हैं, क्या हमारा वह एकमात्र चेहरा होता है? डॉ संगीता झा की यह कहानी बताती है, आख़िर क्यों जाने-अनजाने हम लोग अपने चेहरे पर दूसरे चेहरे लगा लेते हैं.
“आई एम दी फ़ेवरेट चाइल्ड ऑफ़ गॉड, नेवर हैड एनी प्रॉब्लम इन लाइफ़. आई हैड बेस्ट सेट ऑफ़ पैरेंट्स फ़ैमिली देन इन लॉज़ हसबैंड व्हाट मोर यू वॉन्ट. लेकिन मेरी आवाज़ मेरी उन बहनों के लिए है, जिन्हें समाज के दरिंदों से बचाना है. उन्हें ख़ुद को पहचानना सिखाना है.’’ ये भाषण था मिसेस रस्तोगी का, जो हमारे क्लब के विमन्स डे सेलब्रेशन की चीफ़ गेस्ट थीं. मैंने ही उन्हें बुलाने का मशवरा दिया था, क्योंकि मैंने उन्हें बचपन से देखा था और उनके संघर्ष को बहुत पास से देखा था. सोचा था इतनी सारी महिलाएं, जो सेकंड ग्रेड सिटिज़न की ज़िंदगी जी रही हैं, इनकी कहानी से प्रेरित होंगी, लेकिन यहां तो माजरा ही दूसरा था. इतना बड़ा झूठ! कैसे कोई बोल सकता है? समझ ही नहीं आ रहा कोई इतना बड़ा झूठ कैसे बोल सकता है, वो भी वहां, जहां प्रधानमंत्री ख़ुद अपनी किशोरावस्था में चाय बेचने की बात करते हैं. जबकि इन मैडम की कहानी तो फ़र्श से लेकर अर्श तक की है और इन्हें बुलाने वाली मैं इनके सफ़र की चश्मदीद गवाह.
“गोल गोल रानी इत्ता इत्ता पानी.’’
वही बचपन घूमने लगा मेरी आंखों के सामने. मैं अपने अम्मा बाबूजी की इकलौती लाड़ली बेटी, भैय्या की भी जान. घर से थोड़ी दूर एक शर्मा परिवार. पता नहीं क्यों ज़्यादा बेटों की आस में उनके सात बच्चे थे पांच बहनें और दो भाई. छोटा-सा घर. दोनों भाई राजा और बहनें घर की महरी, रसोईया, माली, जमादार सब कुछ. मैं पूरे मोहल्ले में रानी बनी इठलाती फिरती. उन भाई-बहनों में चौथी और बहनों में तीसरे नम्बर की बहन स्वाति मेरी दोस्त थी. हम स्कूल साथ जाते और शाम को भी साथ-साथ घूमते थे. लेकिन क्या मजाल उसने मेरी मस्ती देख कभी ख़ुद पर तरस खाया हो. वो ख़ुद के जीवन से इतनी संतुष्ट थी कि मुझे वो बौड़म समझती थी, जिसे ना चाय बनानी आती है ना कपड़ा धोना. हर संडे वो घर से थोड़ी दूर गोबर भी चुनने जाती. जिससे वो ना केवल वो अपना आंगन लीपती, बल्कि कुछ उपले और गोबर और कोयले का चूरा मिला लड्डू भी बना लेती थी. उसके साथ उसके लिए मैं भी दौड़-दौड़ गोबर उसके लिए इकट्ठा करती. क्या मजाल वो धन्यवाद दे, बल्कि नसीहत ही देती कि मैं कितनी फूहड़ हूं और अपने पूरे कपड़े गंदे कर रही हूं. मैं उसके ही घर के बगीचे वाले नल में ख़ुद को साफ़ कर घर जाती और वहां सब की डांट खाती. भाई ने बचपन में मेरे नाम गोबराइन और जब अचार महकता अचराइन रखे थे. जहां नौवीं कक्षा में आने के बाद सबके सपने डॉक्टर और इंजीनियर बनने के था. वहीं स्वाति ने अंगूर खट्टे हैं, नहीं बल्कि हमें अंगूर नहीं खाना है वाला ऐटिट्यूड अपना ज़ोर शोर से घोषित किया कि दुनिया का सबसे नोबल प्रोफ़ेशन टीचरशिप है और वो एक सफल उदाहरणीय शिक्षिका बनना चाहती है. बस क्या था हम सब मैं डॉक्टर बनूंगी इंजीनियरिंग करूंगी बोलते रह गए और मैडम स्वाति कक्षा की सर्वपल्ली राधा कृष्णन बन गई. सभी शिक्षिकों को बड़ा गर्व हुआ कि कोई तो है कक्षा में जो उन्हें अनुकरण करता है. उसके बाद हमारे रास्ते अलग-अलग हो गए. पढ़ाई और शादी के बाद मैं झांसी आ गई और मायके की डोर पूरी तरह से कट गई. स्वाति ने अपनी इच्छानुसार गवर्न्मेंट स्कूल में शिक्षिका की नौकरी जॉइन कर ली थी. उसकी शादी किसी इन्स्पेक्टर से हुई, पर पति शराबी होने की वजह से वह वापस मायके आ गई और भाभियों की चाकरी कर रही है ऐसा मुझे पता चला था. मैंने और पति ने अपनी लगी लगाई मल्टीनैशनल कम्पनी की नौकरी छोड़ पति के शहर में अपना एनजीओ शुरू किया था और हमारा मक़सद औरतों की हक़ की लड़ाई था.
हमें सरकारी और निजी संस्थानो से भी काफ़ी ग्रांट मिलती थी और हमने स्त्रियों को आत्मनिर्भर करने के लिए कई तरह के स्कूल मसलन सिलाई कढ़ाई से लेकर नर्सिंग और फ़िज़ियोथेरैपी के कॉलेज भी खोल रखे थे. उन महिलाओं की हौसलाअफ़जाई के लिए हम समय-समय पर प्रगतिशील और अपने क्षेत्र में दिग्गज महिलाओं को बुला छोटे-छोटे प्रोग्राम करते थे. सबकी ज़िंदगी की एक ऐसी कहानी होती थी, जिसमें उनकी ज़िंदगी के टर्निंग पॉइंट हुआ करते थे. मसलन कपड़ा उद्योग मंत्री स्मृति ईरानी ने बताया कि वो एक समय में होटेल में वेट्रेस का काम भी करती थीं. ऐसे ही हर सफल महिला की कुछ ना कुछ दिल को छू लेने वाली स्टोरी थी.
मिसेस रस्तोगी भी मुझे ऐसे ही ग्वालियर सिंधिया कॉलेज के एक फ़ंक्शन में मिली. मैं तुरंत पहचान गई और जाकर उससे मिली,“हेलो पहचाना!’’
स्वाति,“हां देखा-देखा सा लग रहा है.”
मैं,“अरे मैं तुम्हारी क्लासमेट सहेली शिखा शेखर की छोटी बहन.”
इतना बताने के बाद भी वो उत्साहित नहीं हुई. तभी उसे किसी ने बुला लिया और वो वहां गई और वहां से ही चुपचाप खिसक ली. मेरे सेक्रेटेरी ने पता कर मुझे बताया वो सिंधिया राजघराने की बहुत क़रीबी मिसेस रस्तोगी हैं. नाम है मिसेस देवप्रिया रस्तोगी.
मैं हैरान परेशान सारी रात बस बचपन में घूमती रही-गोल गोल रानी, इत्ता इत्ता पानी तो कभी हरा समुंदर गोपी चंदर.
क्या एक ही चेहरे के दो लोग स्वाति और देवप्रिया. ना ये स्वाति ही है मेरे बचपन की सखी. मैंने घर आ पति से भी चर्चा की. पति तो शायद दूसरी मिट्टी के बने थे कहने लगे,“आर यू मैड? शी डज़ नॉट वॉन्ट टू टॉक अबाउट हर पास्ट. तुम्हें क्या मिर्ची लगी है? छोड़ो और हां वो हमें अच्छा ख़ासा डोनेशन भी देने वाले हैं, नर्सिंग कॉलेज के लिए सो प्लीज़ ऐसा कुछ ना करना कि बना बनाया काम बिगड़ जाए.’’
मुझे तो अब पति में भी खोट नज़र आने लगा था. बड़े आए हैं जब एनजीओ शुरू किया था तब बड़े आदर्शों की बात और देश सेवा, नारी उत्थान का जज़्बा और अब डोनेशन की बातें. शायद ये पति श्री का दूसरा चेहरा था.
उसके बाद मिसेस रस्तोगी से कई बार मुलाक़ात हुई लेकिन वो मिसेस रस्तोगी ही बनी रही और मैं भी उसके लिए मिसेस धनराज थी. मैंने कई बार कोशिश की कि वो अपना ये नया मुखौटा हटाए और मेरी स्वाति बने पर शायद वो कभी हार मानना जानती ही नहीं थी. कल की सर्वपल्ली राधाकिशन आज अम्बानी बनी हुई थी.
मैं भी कहां हार मानने वाली थी. मैंने भी उसका असली चेहरा देखने की ठान ली थी. पता नहीं बचपन से ऐसा ज़िद्दी दिल पाया था कि अब वो जब तक अपनी ना कर ले मानता ही नहीं. एक दिन चुपचाप सुबह-सुबह बिना अपॉइंटमेंट लिए उसकी विशालकाय कोठी में जा धमकी. बाहर खड़े गार्ड से पूछा,“मिसेस रस्तोगी हैं?”
गार्ड का जवाब,“कौन सी? छोटी वाली या बड़ी?
मैंने आश्चर्य से फिर पूछा,“मतलब “
गार्ड,“अरे आपको नहीं मालूम, हमारे साहब की दो मेमसाब हैं. साहेब और बड़ी मेम साहेब तो कहीं जाते नहीं. छोटी मेमसाहेब ही सब जगह जाती हैं. आपको कैसे नहीं मालूम?’’
मुझे तो मानो पाला मार गया, ये कैसा कॉम्बिनेशन गाड्स फ़ेवरेट चाइल्ड और सेकेंड वाइफ़. सोचा यहीं से थोड़ी जानकारी ले लूं. लिखने के लिए मसाला भी मिलेगा.
गार्ड कहता जा रहा था,“छोटी मालकिन साहेब के स्कूल में पढ़ाती थीं और उसी स्कूल की वॉर्डन भी थीं. दिखने में अच्छी और पढ़ाती भी बहुत अच्छा थीं. पुरानी शादी से तलाक़याफ़्ता भी थीं. पहले हमारे साहेब से दोस्ती हुई फिर दोस्ती प्यार में बदल गई. बड़ी मालकिन बहुत अच्छी हैं पर वो बेबस हो गईं. छोटी मैडम से शादी करने के लिए साहेब ने पेपर पर धर्म परिवर्तन कर ठीक धर्मेन्द्र जी की तरह अपना नाम याकूब और मैडम का नाम रेहाना कर दिया. शादी तो चुपचाप हुई, लेकिन रिसेप्शन शानदार था. अरे रिसेप्शन में धनराज परिवार के भी सभी लोग थे. आपको नहीं देखा.’’
ये सब सुन मैं थोड़ी परेशान हुई और मुझे लगा मेरे पति को भी सब कुछ पता था लेकिन कभी मुझे आभास भी नहीं होने दिया. मैं भी वहां से उल्टे पैर बिना मिले मिसेस धनराज बनी लौट गई.
रास्ते भर सोचती रही मेरा भी छई कि छप्पा छई और एक मस्त हवा वाला चेहरा यहां किसने देखा है. मैंने भी तो मिसेस धनराज का मास्क लगाया है. बचपन की तरह हाथ से चाट चाट कर ना अचार खाया है और ना ही अपनी सो कॉल्ड ब्रैंडेड साड़ी से हाथ पोछा है. जितनी जानकारी मिली वो मेरी दुष्ट बुद्धि के लिए काफ़ी थी. हम अपना-अपना नया चेहरा लेकर मिलते रहें यही वक़्त की मांग है.
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