फ़िल्म को आए अर्सा बीत चुका है, लेकिन हो सकता है कि कभी मनोरंजन हो जाएगा यह सोच कर आप फ़िल्म कबीर सिंह देखने का मन बना लें. आजकल तो ओटीटी प्लैटफ़ॉर्म्स पर भी फ़िल्में उपलब्ध हैं, लेकिन भारती पंडित का यह रिव्यू कहता है कि अपना समय ख़राब करना हो तो भी न देखें इस फ़िल्म को. अब हमारा काम तो आपको सच बताना है, बाक़ी का निर्णय आपका होगा…
फ़िल्म: कबीर सिंह
सितारे: शाहिद कपूर, कियारा अडवाणी, आदिल हुसैन, निकिता दत्ता, अर्जन बाजवा, सुरेश ओबेरॉय, कामिनी कौशल, डॉली मिन्हास और अन्य.
डायरेक्टर: संदीप रेड्डी वांगा
रन टाइम: 172 मिनट
शाहिद “जब वी मेट” के बाद से ही मुझे बहुत अच्छा लगने लगा था और यह उम्मीद भी बंधने लगी थी कि कम से कम बकवास स्क्रिप्ट तो हरगिज़ स्वीकार नहीं करेगा… मगर कबीर सिंह के बाद यह विश्वास भरभराकर टूट गया. यह सिद्ध हो गया कि सचमुच असफलता या लम्बे समय तक स्क्रीन से ग़ायब रहने के बाद एक बार स्क्रीन पर येन केन प्रकारेण दाख़िल होने की इच्छा ही इतनी बलवती हो जाती है कि जो कहानी मिल जाए, उसे कर डाला जाए, यही भाव प्रबल हो जाता होगा.
तो कबीर सिंह कहानी है दिल्ली के एक मेडिकल कॉलेज में पढ़ने वाले लड़के की जो अपनी पढ़ाई के अंतिम वर्ष में है. प्रथम वर्ष में दाख़िल हुई लड़की पर इनका दिल आ जाता है और इस क़दर दिल आ जाता है कि लड़की के पिता से जबरन उसकी देखभाल करने का ठेका सा ले लेते हैं. केवल ठेका ही नहीं लेते, वरन साधिकार उसे कक्षा से उठाकर बाइक पर घुमाने भी ले जाते हैं. यही नहीं, उस लड़की को अपनी जायदाद समझते हुए होली पर उसे रंग लगाने वाले की धुनाई कर डालते हैं, पांव में चोट लगने पर उसे उठाकर गर्ल्स हॉस्टल से बॉएज़ हॉस्टल में ले आते हैं, उसके साथ धड़ल्ले से शारीरिक संबंध बनाते हैं. और हैरान हो जाइए कि इस पूरे प्रकरण में प्रीति यानी कियारा आडवानी किसी कठपुतली की तरह कबीर के इशारे पर नाचती रहती है. प्यार के डंके की आड़ में सामंतवादी मानसिकता का इससे घिनौना प्रदर्शन क्या होगा?
और हद यह कि न तो कॉलेज प्रशासन इस पर कोई आपत्ति लेता है, न ही हॉस्टल के कर्मचारी…गोया कबीर सिंह न हो गए, डॉन हो गए, जिनके इशारे पर सारा कॉलेज नाच रहा हो. और वह भी तब, जब उसके पिता निहायत शरीफ़ और भद्र पुरुष दिखाए गए हैं. तो यह प्रेमी जोड़ा कॉलेज के परिसर में वह हर वह नाजायज़ हरकत करता है, जिसे समाज ग़लत करार देता है.
अब कहानी में मोड़ तो ज़रूरी था, सो प्रीति के माता-पिता शादी के लिए राजी नहीं होते, प्रीति अपने घरवालों का विरोध नहीं कर पाती, कबीर प्रीति से बकवास सी, बचकानी सी बात करते हुए उसे थप्पड़ मार देता है… सच ऐसा ख़ून खौला था यह देखकर कि दो-चार चांटे कबीर में मैं ही जड़ दूं… मगर बेवकूफ़ प्रीति, बस रोती रह जाती है.
यहां प्रीति की शादी हो जाती है और वहां कबीर अपने आप को नशे में (शराब, सिगरेट, कोकीन, अफ़ीम….) में डुबो देता है. उसके बाद इतनी मूर्खताएं फ़िल्म में आती जाती हैं कि सिर पीटने को जी करता है. चाहे वह कबीर का सर्जन बनकर शराब पीकर सर्जरी करना, दिन-रात नशा करना, घर से निकाल दिया जाना, एक फ़िल्म अभिनेत्री से क़रीब होना फिर दूर जाना…दोस्तों का कबीर पर जी-जान लुटाना हो या दादी का बड़ा आउटस्पोकन होना…
अंत तो और भी ड्रमेटिक है…जिसमें उसकी प्रीति आठ महीने के गर्भ से है और सुखद आश्चर्य कि यह बच्चा कबीर का है, चूंकि प्रीति शादी के तीसरे ही दिन पति के घर से भाग गई थी… कहां, कैसे यह सब जानने की ज़रूरत ही क्या है हमें… इतनी बड़ी मुम्बई में वह उसी बगीचे में आती है, जहां कबीर उसे ढूंढ़ने के लिए आता है…और फिर अंत में सब ठीक हो जाता है.
यह फ़िल्म एक तेलगु फ़िल्म का रीमेक है…इसे देखने के बाद दिल ने यही कहा कि शाहिद बेटा, ईश्वर तुम्हें सद्बुद्धि दे. मेरी दुआ है कि घर में इतना तो कुशल-मंगल रहे ही कि आगे से ऐसी बकवास फ़िल्में स्वीकार न करनी पड़ें.
संदीप वांगा का लेखन और निर्देशन इतना बकवास और सीन इतने कृत्रिम हैं कि कई बार लगता है, ख़ुद जाकर सीन वापस ठीक से करवा दिया जाए…
अभिनय की बात करें तो शाहिद ने कोशिश तो ख़ूब की है मगर कमज़ोर स्क्रिप्ट, कमज़ोर निर्देशन में बात कुछ बनी नहीं. प्रीति की भूमिका में कियारा आडवानी इतनी ब्लैंक और कठपुतली सी लगी है कि कई बार झिंझोड़ देने का जी करता है. बाक़ी लोग भी ठीक ही हैं. सुरेश ओबेरॉय को बहुत दिन बाद स्क्रीन पर देखना अच्छा लगा.
इस फ़िल्म का एक ही पक्ष मज़बूत है, और वह है इसके गीत और उनकी धुनें. इरशाद कामिल ने गीत लिखे हैं तो कमाल होंगे ही…बस तो उन्हें डीवीडी पर भी सुन सकते हैं.
फ़िल्म प्रेम के अतिरेक की बात करती है पर विडम्बना यही है कि प्रेम की गहराई को समझा ही नहीं गया. प्रेम सम्मान है, प्रेम साज-संभाल है, प्रेम अपने साथी की स्वतंत्रता को कायम रखना है, प्रेम खोने-पाने के दर्द के परे की अद्भुत अनुभूति है इसका एहसास ही नहीं है किसी को… जिससे प्रेम करते हो उसे येन-केन प्रकारेण हासिल किया जाए और नहीं मिले तो नशे की आड़ ली जाए, बस यही सन्देश देती है फ़िल्म, जो युवाओं को गुमराह करने के लिए काफ़ी है. शायद 25 की उम्र वालों को प्रेम का यह अतिरेक अपील करे भी, मगर वास्तव में इस फ़िल्म को न देखें तो ही बढ़िया रहेगा.
काश कि हमारा फ़िल्म उद्योग इस तरह की फ़िल्मों पर भी कुछ सेंसर बिठाए.
फ़ोटो: गूगल