अपनी सुविधा अनुसार चीज़ों को भुलाने की हमारी आदत ने हमें सचमुच भुलक्कड़ बना दिया है. हम भूलने के युग में जी रहे हैं, यह सच्चाई दिवंगत कवि मंगलेश डबराल की कविता हमें याद दिला रही है.
याद रखने पर हमला है और भूल जाने की छूट है
मैं अक्सर भूल जाता हूं नाम
अक्सर भूल जाता हूं चेहरे
एक आदमी मिलता है बिना चेहरे का एक नाम
एक स्त्री मिलती है बिना नाम का एक चेहरा
कोई पूछता है आपका नाम क्या है
उसे यक़ीन नहीं होता
जब मैं भूला हुआ कुछ याद करने की कोशिश करता हूं
कुछ देर किसी के साथ बैठता हूं
तो याद नहीं आता उसका नाम
जो कभी झण्डे की तरह फहराता था उस पर
उसका चेहरा लगता है
जैसे किसी अनजान जगह की निशानदेही हो
यह भूलने का युग है जैसा कि कहा जाता है
नौजवान भूलते हैं अपने माताओं-पिताओं को
चले जाते हैं बड़ी-बड़ी गाड़ियों में बैठकर
याद रखते हैं सिर्फ़ वह पता वह नाम
जहां ज़्यादा तनख़्वाहें हैं
ज़्यादा कारें ज़्यादा जूते और ज़्यादा कपड़े हैं
बाज़ार कहता है याद मत करो
अपनी पिछली चीज़ों को पिछले घर को
पीछे मुड़ कर देखना भूल जाओ
जगह-जगह खोले जा रहे हैं नए दफ़्तर
याद रखने पर हमले की योजना बनाने के लिए
हमारे समय का एक दरिन्दा कहता है-मेरा दरिन्दा होना भूल जाओ
भूल जाओ अपने सपने देखना
मैं देखता रहता हूं सपने तुम्हारे लिए
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