पति-पत्नी के रिश्ते को बनाए रखने, बचाए रखने के लिए एक पत्नी द्वारा किए जानेवाले प्रयासों की बानगी है मोहन राकेश की कहानी उसकी रोटी. पंजाब के ग्रामीण अंचल के एक पति-पत्नी के लॉन्ग डिस्टेंस रिलेशनशिप पर आधारित है यह कहानी.
बालो को पता था कि अभी बस के आने में बहुत देर है, फिर भी पल्ले से पसीना पोंछते हुए उसकी आंखें बार-बार सड़क की तरफ़ उठ जाती थीं. नकोदर रोड के उस हिस्से में आसपास कोई छायादार पेड़ भी नहीं था. वहां की ज़मीन भी बंजर और ऊबड़-खाबड़ थी-खेत वहां से तीस-चालीस गज़ के फ़ासले से शुरू होते थे. और खेतों में भी उन दिनों कुछ नहीं था. फसल कटने के बाद सिर्फ़ ज़मीन की गोड़ाई ही की गई थी, इसलिए चारों तरफ़ बस मटियालापन ही नज़र आता था. गरमी से पिघली हुई नकोदर रोड का हल्का सुरमई रंग ही उस मटियालेपन से ज़रा अलग था. जहां बालो खड़ी थी वहां से थोड़े फासले पर एक लकड़ी का खोखा था. उसमें पानी के दो बड़े-बड़े मटकों के पास बैठा एक अधेड़-सा व्यक्ति ऊंघ रहा था. ऊंघ में वह आगे को गिरने को होता तो सहसा झटका खाकर संभल जाता. फिर आसपास के वातावरण पर एक उदासी-सी नज़र डालकर, और अंगोछे से गले का पसीना पोंछकर, वैसे ही ऊंघने लगता. एक तरफ़ अढ़ाई-तीन फ़ुट में खोखे की छाया फैली थी और एक भिखमंगा, जिसकी दाढ़ी काफ़ी बढ़ी हुई थी, खोखे से टेक लगाए ललचाई आंखों से बालो के हाथों की तरफ़ देख रहा था. उसके पास ही एक कुत्ता दुबककर बैठा था, और उसकी नज़र भी बालो के हाथों की तरफ़ थी.
बालो ने हाथ की रोटी को मैले आंचल में लपेट रखा था. वह उसे बद नज़र से बचाए रखना चाहती थी. रोटी वह अपने पति सुच्चासिंह ड्राइवर के लिए लाई थी, मगर देर हो जाने से सुच्चासिंह की बस निकल गई थी और वह अब इस इन्तज़ार में खड़ी थी कि बस नकोदर से होकर लौट आए, तो वह उसे रोटी दे दे. वह जानती थी कि उसके वक़्त पर न पहुंचने से सुच्चासिंह को बहुत ग़ुस्सा आया होगा. वैसे ही उसकी बस जालन्धर से चलकर दो बजे वहां आती थी, और उसे नकोदर पहुंचकर रोटी खाने में तीन-साढ़े तीन बज जाते थे. वह उसकी रात की रोटी भी उसे साथ ही देती थी जो वह आख़िरी फेरे में नकोदर पहुंचकर खाता था. सात दिन में छ: दिन सुच्चासिंह की ड्यूटी रहती थी, और छहों दिन वही सिलसिला चलता था. बालो एक-सवा एक बजे रोटी लेकर गांव से चलती थी, और धूप में आधा कोस तय करके दो बजे से पहले सड़क के किनारे पहुंच जाती थी. अगर कभी उसे दो-चार मिनट की देर हो जाती तो सुच्चासिंह किसी न किसी बहाने बस को वहां रोके रखता, मगर, उसके आते ही उसे डांटने लगता कि वह सरकारी नौकर है, उसके बाप का नौकर नहीं कि उसके इन्तज़ार में बस खड़ी रखा करे. वह चुपचाप उसकी डांट सुन लेती और उसे रोटी दे देती.
मगर आज वह दो-चार मिनट की नहीं, दो-अढ़ाई घंटे की देर से आई थी. यह जानते हुए भी कि उस समय वहां पहुंचने का कोई मतलब नहीं, वह अपनी बेचैनी में घर से चल दी थी-उसे जैसे लग रहा था कि वह जितना वक़्त सड़क के किनारे इन्तज़ार करने में बिताएगी, सुच्चासिंह की नाराज़गी उतनी ही कम हो जाएगी. यह तो निश्चित ही था कि सुच्चासिंह ने दिन की रोटी नकोदर के किसी तन्दूर में खा ली होगी. मगर उसे रात की रोटी देना ज़रूरी था और साथ ही वह सारी बात बताना भी जिसकी वजह से उसे देर हुई थी. वह पूरी घटना को मन ही मन दोहरा रही थी, और सोच रही थी कि सुच्चासिंह से बात किस तरह कही जाए कि उसे सब कुछ पता भी चल जाए और वह ख़ामख़ाह तैश में भी न आए. वह जानती थी कि सुच्चासिंह का ग़ुस्सा बहुत ख़राब है और साथ ही यह भी कि जंगी से उलटा-सीधा कुछ कहा जाए तो वह बग़ैर गंड़ासे के बात नहीं करता.
जंगी के बारे में बहुत-सी बातें सुनी जाती थीं. पिछले साल वह साथ के गांव की एक मेहरी को भगाकर ले गया था और न जाने कहां ले जाकर बेच आया था. फिर नकोदर के पंडित जीवाराम के साथ उसका झगड़ा हुआ, तो उसे उसने क़त्ल करवा दिया. गांव के लोग उससे दूर-दूर रहते थे, मगर उससे बिगाड़ नहीं रखते थे. मगर उस आदमी की लाख बुराइयां सुनकर भी उसने यह कभी नहीं सोचा था कि वह इतनी गिरी हुई हरक़त भी कर सकता है कि चौदह साल की जिन्दां को अकेली देखकर उसे छेड़ने की कोशिश करे. वह यूं भी ज़िन्दां से तिगुनी उम्र का था और अभी साल-भर पहले तक उसे बेटी-बेटी कहकर बुलाया करता था. मगर आज उसकी इतनी हिम्मत पड़ गई कि उसने खेत में से आती जिन्दां का हाथ पकड़ लिया?
उसने जिन्दां को नन्ती के यहां से उपले मांग लाने को भेजा था. इनका घर खेतों के एक सिरे पर था और गांव के बाक़ी घर दूसरे सिरे पर थे. वह आटा गूयधकर इन्तज़ार कर रही थी कि जिन्दां उपले लेकर आए, तो वह जल्दी से रोटियां सेंक ले जिससे बस के वक़्त से पहले सड़क पर पहुंच जाए. मगर जिन्दां आई, तो उसके हाथ ख़ाली थे और उसका चेहरा हल्दी की तरह पीला हो रहा था. जब तक जिन्दां नहीं आई थी, उसे उस पर ग़ुस्सा आ रहा था. मगर उसे देखते ही उसका दिल एक अज्ञात आशंका से कांप गया.
“क्या हुआ है जिन्दो, ऐसे क्यों हो रही है?” उसने ध्यान से उसे देखते हुए पूछा.
जिन्दां चुपचाप उसके पास आकर बैठ गई और बांहों में सिर डालकर रोने लगी.
“ख़सम खानी, कुछ बताएगी भी, क्या बात हुई है?”
जिन्दां कुछ नहीं बोली. सिर्फ़ उसके रोने की आवाज़ तेज़ हो गई.
“किसी ने कुछ कहा है तुझसे?” उसने अब उसके सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा.
“तू मुझे उपले-वुपले लेने मत भेजा कर,” जिन्दां रोने के बीच उखड़ी-उखड़ी आवाज़ में बोली,“मैं आज से घर से बाहर नहीं जाऊंगी. मुआ जंगी आज मुझसे कहता था…” और गला रुंध जाने से वह आगे कुछ नहीं कह सकी.
“क्या कहता था जंगी तुझसे…बता…बाल…” वह जैसे एक बोझ के नीचे दबकर बोलीं,“ख़सम खानी, अब बोलती क्यों नहीं?”
“वह कहता था,” जिन्दां सिसकती रही,“चल जिन्दां, अन्दर चलकर शरबत पी ले. आज तू बहुत सोहणी लग रही है….”
“मुआ कमज़ात!” वह सहसा उबल पड़ी,“मुए को अपनी मां रंडी नहीं सोहणी लगती? मुए की नज़र में कीड़े पड़ें. निपूते, तेरे घर में लड़की होती, तो इससे बड़ी होती, तेरे दीदे फटें!…फिर तूने क्या कहा?”
“मैंने कहा चाचा, मुझे प्यास नहीं है,” जिन्दां कुछ संभलने लगी.
“फिर?”
“कहने लगा प्यास नहीं है, तो भी एक घूंट पी लेना. चाचा का शरबत पिएगी तो याद करेगी….और मेरी बांह पकड़कर खींचने लगा.”
“हाय रे मौत-मरे, तेरा कुछ न रहे, तेरे घर में आग लगे. आने दे सुच्चासिंह को. मैं तेरी बोटी-बोटी न नुचवाऊं तो कहना, जल-मरे! तू सोया सो ही जाए….हां, फिर?”
“मैं बांह छुड़ाने लगी, तो मुझे मिठाई का लालच देने लगा. मेरे हाथ से उपले वहीं गिर गये. मैंने उन्हें वैसे ही पड़े रहने दिया और बांह छुड़ाकर भाग आई.”
उसने ध्यान से जिन्दां को सिर से पैर तक देखा और फिर अपने साथ सटा लिया.
“और तो नहीं कुछ कहा उसने?”
“जब मैं थोड़ी दूर निकल आई, तो पीछे से ही-ही करके बोला,‘बेटी, तू बुरा तो नहीं मान गई? अपने उपले तो उठाकर ले जा. मैं तो तेरे साथ हंसी कर रहा था. तू इतना भी नहीं समझती? चल, आ इधर, नहीं आती, तो मैं आज तेरे घर आकर तेरी बहन से शिकायत करूंगा कि जिन्दां बहुत गुस्ताख़ हो गई है, कहा नहीं मानती.’…मगर मैंने उसे न जवाब दिया, न मुड़कर उसकी तरफ़ देखा. सीधी घर चली आई.”
“अच्छा किया. मैं मुए की हड्डी-पसली एक कराकर छोड़ूंगी. तू आने दे सुच्चासिंह को. मैं अभी जाकर उससे बात करूंगी. इसे यह नहीं पता कि जिन्दां सुच्चा सिंह ड्राइवर की साली है, ज़रा सोच-समझकर हाथ लगाऊं.” फिर कुछ सोचकर उसने पूछा,“वहां तुझे और किसी ने तो नहीं देखा?”
“नहीं. खेतों के इस तरफ़ आम के पेड़ के नीचे राधू चाचा बैठा था. उसने देखकर पूछा कि बेटी, इस वक़्त धूप में कहां से आ रही है, तो मैंने कहा कि बहन के पेट में दर्द था, हकीमजी से चूरन लाने गई थी.”
“अच्छा किया. मुआ जंगी तो शोहदा है. उसके साथ अपना नाम जुड़ जाए, तो अपनी ही इज़्ज़त जाएगी. उस सिर-जले का क्या जाना है? लोगों को तो करने के लिए बात चाहिए.”
उसके बाद उपले लाकर खाना बनाने में उसे काफ़ी देर हो गई. जिस वक़्त उसने कटोरे में आलू की तरकारी और आम का अचार रखकर उसे रोटियों के साथ खद्दर के टुकड़े में लपेटा, उसे पता था कि दो कब के बज चुके हैं और वह दोपहर की रोटी सुच्चासिंह को नहीं पहुंचा सकती. इसलिए वह रोटी रखकर इधर-उधर के काम करने लगी. मगर जब बिलकुल ख़ाली हो गई, तो उससे यह नहीं हुआ कि बस के अन्दाज़े से घर से चले. मुश्किल से साढ़े तीन-चार ही बजे थे कि वह चलने के लिए तैयार हो गई.
“बहन, तू कब तक आएगी?” जिन्दां ने पूछा.
“दिन ढलने से पहले ही आ जाऊंगी.”
“जल्दी आ जाना. मुझे अकेले डर लगेगा.”
“डरने की क्या बात है?” वह दिखावटी साहस के साथ बोली, “किसकी हिम्मत है जो तेरी तरफ़ आंख उठाकर भी देख सके? सुच्चासिंह को पता लगेगा, तो वह उसे कच्चा ही नहीं चबा जाएगा? वैसे मुझे ज़्यादा देर नहीं लगेगी. सांझ से पहले ही घर पहुंच जाऊंगी. तू ऐसा करना कि अन्दर से सांकल लगा लेना. समझी? कोई दरवाज़ा खटखटाए तो पहले नाम पूछ लेना.” फिर उसने ज़रा धीमे स्वर में कहा,“और अगर जंगी आ जाए, और मेरे लिए पूछे कि कहां गई है, तो कहना कि सुच्चासिंह को बुलाने गई है. समझी?… पर नहीं. तू उससे कुछ नहीं कहना. अन्दर से जवाब ही नहीं देना समझी?”
वह दहलीज़ के पास पहुंची तो जिन्दां ने पीछे से कहा,“बहन, मेरा दिल धड़क रहा है.”
“तू पागल हुई है?” उसने उसे प्यार के साथ झिड़क दिया,“साथ गांव है, फिर डर किस बात का है? और तू आप भी मुटियार है, इस तरह घबराती क्यों है?”
मगर जिन्दां को दिलासा देकर भी उसकी अपनी तसल्ली नहीं हुई. सड़क के किनारे पहुंचने के वक़्त से ही वह चाह रही थी कि किसी तरह बस जल्दी से आ जाए जिससे वह रोटी देकर झटपट जिन्दां के पास वापस पहुंच जाए.
“वीरा, दो बजे वाली बस को गए कितनी देर हुई है?” उसने भिखमंगे से पूछा जिसकी आंखें अब भी उसके हाथ की रोटी पर लगी थीं. धूप की चुभन अभी कम नहीं हुई थी, हालांकि खोखे की छाया अब पहले से काफ़ी लम्बी हो गई थी. कुत्ता प्याऊ के तख़्ते के नीचे पानी को मुंह लगाकर अब आसपास चक्कर काट रहा था.
“पता नहीं भैणा,” भिखमंगे ने कहा,“कई बसें आती हैं. कई जाती हैं. यहां कौन घड़ी का हिसाब है!”
बालो चुप हो रही. एक बस अभी थोड़ी ही देर पहले नकोदर की तरफ़ गई थी. उसे लग रहा था धूल के फैलाव के दोनों तरफ़ दो अलग-अलग दुनियाएं हैं. बसें एक दुनिया से आती हैं और दूसरी दुनिया की तरफ़ चली जाती हैं. कैसी होंगी वे दुनियाएं जहां बड़े-बड़े बाज़ार हैं, दुकानें हैं, और जहां एक ड्राइवर की आमदनी का तीन-चौथाई हिस्सा हर महीने ख़र्च हो जाता है? देवी अक्सर कहा करता था कि सुच्चासिंह ने नकोदर में एक रखैल रख रखी है. उसका कितना मन होता था कि वह एक बार उस औरत को देखे. उसने एक बार सुच्चासिंह से कहा भी था कि उसे वह नकोदर दिखा दे, पर सुच्चासिंह ने डांटकर जवाब दिया था,“क्यों, तेरे पर निकल रहे हैं? घर में चैन नहीं पड़ता? सुच्चासिंह वह मरद नहीं है कि औरत की बांह पकड़कर उसे सड़कों पर घुमाता फिरे. घूमने का ऐसा ही शौक़ है, तो दूसरा ख़सम कर ले. मेरी तरफ़ से मुझे खुली छुट्टी है.”
उस दिन के बाद वह यह बात ज़बान पर भी नहीं लाई थी. सुच्चासिंह कैसा भी हो, उसके लिए सब कुछ वही था. वह उसे गालियां दे लेता था, मार-पीट लेता था, फिर भी उससे इतना प्यार तो करता था कि हर महीने तनख़ाह मिलने पर उसे बीस रुपये दे जाता था. लाख बुरी कहकर भी वह उसे अपनी घरवाली तो समझता था! ज़बान का कड़वा भले ही हो, पर सुच्चासिंह दिल का बुरा हरगिज़ नहीं था. वह उसके जिन्दां को घर में रख लेने पर अक्सर कुढ़ा करता था, मगर पिछले महीने ख़ुद ही जिन्दां के लिए कांच की चूड़ियां और अढ़ाई गज़ मलमल लाकर दे गया था.
एक बस धूल उड़ाती आकाश के उस छोर से इस तरफ़ को आ रही थी. बालो ने दूर से ही पहचान लिया कि वह सुच्चासिंह की बस नहीं है. फिर भी बस जब तक पास नहीं आ गई, वह उत्सुक आंखों से उस तरफ़ देखती रही. बस प्याऊ के सामने आकर रुकी. एक आदमी प्याज़ और शलगम का गट्ठर लिए बस से उतरा. फिर कंडक्टर ने ज़ोर से दरवाज़ा बन्द किया और बस आगे चल दी. जो आदमी बस से उतरा था, उसने प्याऊ के पास जाकर प्याऊ वाले को जगाया और चुल्लू से दो लोटे पानी पीकर मूंछें साफ़ करता हुआ अपने गट्ठर के पास लौट आया.
“वीरा, नकोदर से अगली बस कितनी देर में आएगी?” बालो ने दो क़दम आगे जाकर उस आदमी से पूछ लिया.
“घंटे-घंटे के बाद बस चलती है, माई.” वह बोला,“तुझे कहां जाना है?”
“जाना नहीं है वीरा, बस का इन्तज़ार करना है. सुच्चासिंह ड्राइवर मेरा घरवाला है. उसे रोटी देनी है.”
“ओ सुच्चा स्यों!” और उस आदमी के होंठों पर ख़ास तरह की मुस्कराहट आ गई.
“तू उसे जानता है?”
“उसे नकोदर में कौन नहीं जानता?”
बालो को उसका कहने का ढंग अच्छा नहीं लगा, इसलिए वह चुप हो रही. सुच्चासिंह के बारे में जो बातें वह ख़ुद जानती थी, उन्हें दूसरों के मुंह से सुनना उसे पसन्द नहीं था. उसे समझ नहीं आता था कि दूसरों को क्या हक़ है कि वे उसके आदमी के बारे में इस तरह बात करें?
“सुच्चासिंह शायद अगली बस लेकर आएगा,” वह आदमी बोला.
“हां! इसके बाद अब उसी की बस आएगी.”
“बड़ा ज़ालिम है जो तुझसे इस तरह इन्तज़ार कराता है.”
“चल वीरा, अपने रास्ते चल!” बालो चिढ़कर बोली,“वह क्यों इन्तज़ार कराएगा?” मुझे ही रोटी लाने में देर हो गई थी जिससे बस निकल गई. वह बेचारा सवेरे से भूखा बैठा होगा.”
“भूखा? कौन सुच्चा स्यों?” और वह व्यक्ति दांत निकालकर हंस दिया. बालो ने मुंह दूसरी तरफ़ कर लिया. “या साईं सच्चे!” कहकर उस आदमी ने अपना गट्ठर सिर पर उठा लिया और खेतों की पगडंडी पर चल दिया. बालो की दाईं टांग सो गई थी. उसने भार दूसरी टांग पर बदलते हुए एक लम्बी सांस ली और दूर तक के वीराने को देखने लगी.
न जाने कितनी देर बाद आकाश के उसी कोने से उसे दूसरी बस अपनी तरफ़ आती नज़र आई. तब तक खड़े-खड़े उसके पैरों की एड़ियां दुखने लगी थीं. बस को देखकर वह पोटली का कपड़ा ठीक करने लगी. उसे अफ़सोस हो रहा था कि वह रोटियां कुछ और देर से बनाकर क्यों नहीं लाई, जिससे वे रात तक कुछ और ताज़ा रहतीं. सुच्चासिंह को कड़ाह परसाद का इतना शौक़ है-उसे क्यों यह ध्यान नहीं आया कि आज थोड़ा कड़ाह परसाद ही बनाकर ले आए?…ख़ैर, कल गुर परब है, कल ज़रूर कड़ाह परसाद बनाकर लाएगी….
पीछे गर्द की लम्बी लकीर छोड़ती हुई बस पास आती जा रही थी. बालो ने बीस गज़ दूर से ही सुच्चासिंह का चेहरा देखकर समझ लिया कि वह उससे बहुत नाराज़ है. उसे देखकर सुच्चासिंह की भवें तन गई थीं और निचले होंठ का कोना दांतों में चला गया था. बालो ने धड़कते दिल से रोटी वाला हाथ ऊपर उठा दिया. मगर बस उसके पास न रुककर प्याऊ से ज़रा आगे जाकर रुकी.
दो-एक लोग वहां बस से उतरने वाले थे. कंडक्टर बस की छत पर जाकर एक आदमी की साइकिल नीचे उतारने लगा. बालो तेज़ी से चलकर ड्राइवर की सीट के बराबर पहुंच गई.
“सुच्चा स्यां!” उसने हाथ ऊंचा उठाकर रोटी अन्दर पहुंचाने की चेष्टा करते हुए कहा,“रोटी ले ले.”
“हट जा,” सुच्चासिंह ने उसका हाथ झटककर पीछे हटा दिया.
“सुच्चा स्यां, एक मिनट नीचे उतरकर मेरी बात सुन ले. आज एक ख़ास वज़ह हो गई थी, नहीं तो मैं….”
“बक नहीं, हट जा यहां से,” कहकर सुच्चासिंह ने कंडक्टर से पूछा कि वहां का सारा सामन उतर गया है या नहीं.
“बस एक पेटी बाक़ी है, उतार रहा हूं,” कंडक्टर ने छत से आवाज़ दी.
“सुच्चा स्यां, मैं दो घंटे से यहां खड़ी हूं,” बालो ने मिन्नत के लहज़े में कहा,“तू नीचे उतरकर मेरी बात तो सुन ले.”
“उतर गई पेटी?” सुच्चासिंह ने फिर कंडक्टर से पूछा.
“हां, चलो,” पीछे से कंडक्टर की आवाज़ आई.
“सुच्चा स्यां! तू मुझ पर नाराज़ हो ले, पर रोटी तो रख ले. तू मंगलवार को घर आएगा तो मैं तुझे सारी बात बताऊंगी.” बालो ने हाथ और ऊंचा उठा दिया.
“मंगलवार को घर आएगा तेरा…,” और एक मोटी-सी गाली देकर सुच्चासिंह ने बस स्टार्ट कर दी.
दिन ढलने के साथ-साथ आकाश का रंग बदलने लगा था. बीच-बीच में कोई एकाध पक्षी उड़ता हुआ आकाश को पार कर जाता था. खेतों में कहीं-कहीं रंगीन पगडियां दिखाई देने लगी थीं. बालो ने प्याऊ से पानी पिया और आंखों पर छींटे मारकर आंचल से मुंह पोंछ लिया. फिर प्याऊ से कुछ फासले पर जाकर खड़ी हो गई. वह जानती थी, अब सुच्चासिंह की बस जालन्धर से आठ-नौ बजे तक वापस आएगी. क्या तब तक उसे इन्तज़ार करना चाहिए? सुच्चासिंह को इतना तो करना चाहिए था कि उतरकर उसकी बात सुन लेता. उधर घर में जिन्दां अकेली डर रही होगी. मुआ जंगी पीछे किसी बहाने से आ गया तो? सुच्चासिंह रोटी ले लेता, तो वह आधे घंटे में घर पहुंच जाती. अब रोटी तो वह बाहर कहीं न कहीं खा ही लेगा, मगर उसके ग़ुस्से का क्या होगा? सुच्चासिंह का ग़ुस्सा बेजा भी तो नहीं है. उसका मेहनती शरीर है और उसे कसकर भूख लगती है. वह थोड़ी और मिन्नत करती, तो वह ज़रूर मान जाता. पर अब?
प्याऊ वाला प्याऊ बन्द कर रहा था. भिखमंगा भी न जाने कब का उठकर चला गया था. हां, कुत्ता अब भी वहां आसपास घूम रहा था. धूप ढल रही थी और आकाश में उड़ते चिड़ियों के झुंड सुनहरे लग रहे थे. बालो को सड़क के पार तक फैली अपनी छाया बहुत अजीब लग रही थी. पास के किसी खेत में कोई गभरू जवान खुले गले से माहिया गा रहा था:
“बोलण दी थां कोई नां
जिहड़ा सानूं ला दे दित्ता
उस रोग दा नां कोई नां.”
माहिया की वह लय बालो की रग-रग में बसी हुई थी. बचपन में गरमियों की शाम को वह और बच्चों के साथ मिलकर रहट के पानी की धार के नीचे नाच-नाचकर नहाया करती थी, तब भी माहिया की लय इसी तरह हवा में समाई रहती थी. सांझ के झुटपुटे के साथ उस लय का एक ख़ास ही सम्बन्ध था. फिर ज्यों-ज्यों वह बड़ी होती गई, ज़िन्दगी के साथ उस लय का सम्बन्ध और गहरा होता गया. उसके गांव का युवक लाली था जो बड़ी लोच के साथ माहिया गाया करता था. उसने कितनी बार उसे गांव के बाहर पीपल के नीचे कान पर हाथ रखकर गाते सुना था. पुष्पा और पारो के साथ वह देर-देर तक उस पीपल के पास खड़ी रहती थी. फिर एक दिन आया जब उसकी मां कहने लगी कि वह अब बड़ी हो गई है, उसे इस तरह देर-देर तक पीपल के पास नहीं खड़ी रहना चाहिए. उन्हीं दिनों उसकी सगाई की भी चर्चा होने लगी. जिस दिन सुच्चासिंह के साथ उसकी सगाई हुई, उस दिन पारो आधी रात तक ढोलक पर गीत गाती रही थी. गाते-गाते पारो का गला रह गया था फिर भी वह ढोलक छोड़ने के बाद उसे बांहों में लिए हुए गाती रही थी-
“बीबी, चन्नण दे ओहले ओहले किऊं खड़ी,
नीं लाडो किऊं खड़ी?
मैं तां खड़ी सां बाबल जी दे बार,
मैं कनिआ कंवार,
बाबल वर लोड़िए.
नीं जाइए, किहो जिहा वह लीजिए?
जिऊं तारिआं विचों चन्द,
चन्दा विचों नन्द,
नन्दां विचों कान्ह-कन्हैया वर लीडि़ए…!”
वह नहीं जानती थी कि उसका वर कौन है, कैसा है, फिर भी उसका मन कहता था कि उसके वर की सूरत-शक्ल ठीक वैसी ही होगी जैसी कि गीत की कड़ियां सुनकर सामने आती हैं. सुहागरात को जब सुच्चासिंह ने उसके चेहरे से घूंघट हटाया, तो उसे देखकर लगा कि वह सचमुच बिलकुल वैसा ही कान्ह-कन्हैया वर पा गई है. सुच्चासिंह ने उसकी ठोड़ी ऊंची की, तो न जाने कितनी लहरें उसके सिर से उठकर पैरों के नाख़ूनों में जा समाईं. उसे लगा कि ज़िन्दगी न जाने ऐसी कितनी सिहरनों से भरी होगी जिन्हें वह रोज़-रोज़ महसूस करेगी और अपनी याद में संजोकर रखती जाएगी.
“तू हीरे की कणी है, हीरे की कणी,” सुच्चासिंह ने उसे बांहों में भरकर कहा था.
उसका मन हुआ था कि कहे, यह हीरे की कणी तेरे पैर की धूल के बराबर भी नहीं है, मगर वह शरमाकर चुप रह गई थी.
“माई, अंधेरा हो रहा है, अब घर जा. यहां खड़ी क्या कर रही है?” प्याऊ वाले ने चलते हुए उसके पास रुककर कहा.
“वीरा, यह बस आठ-नौ बजे तक जालन्धर से लौटकर आ जाएगी न?” बालो ने दयनीय भाव से उससे पूछ लिया.
“क्या पता कब तक आए? तू उतनी देर यहां खड़ी रहेगी?”
“वीरा, उसकी रोटी जो देनी है.”
“उसे रोटी लेनी होती, तो ले न लेता? उसका तो दिमाग़ ही आसमान पर चढ़ा रहता है.”
“वीरा, मर्द कभी नाराज़ हो ही जाता है. इसमें ऐसी क्या बात है?”
“अच्छा खड़ी रह, तेरी मर्ज़ी. बस नौ से पहले क्या आएगी!”
“चल, जब भी आए.”
प्याऊ वाले से बात करके वह निश्चय ख़ुद-ब-ख़ुद हो गया जो वह अब तक नहीं कर पायी थी-कि उसे बस के जालन्धर से लौटने तक वहां रुकी रहना है. जिन्दां थोड़ा डरेगी-इतना ही तो न? जंगी की अब दोबारा उससे कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ सकती. आख़िर गांव की पंचायत भी तो कोई चीज़ है. दूसरे की बहन-बेटी पर बुरी नज़र रखना मामूली बात है? सुच्चासिंह को पता चल जाए, तो वह उसे केशों से पकड़कर सारे गांव में नहीं घसीट देगा? मगर सुच्चासिंह को यह बात न बताना ही शायद बेहतर होगा. क्या पता इतनी-सी बात से दोनों में सिर-फुटव्वल हो जाए? सुच्चासिंह पहले ही घर के झंझटों से घबराता है, उसे और झंझट में डालना ठीक नहीं. अच्छा हुआ जो उस वक़्त सुच्चासिंह ने बात नहीं सुनी. वह तो अभी कह रहा था कि मंगलवार को घर नहीं आएगा. अगर वह सचमुच न आया, तो? और अगर उसने ग़ुस्से होकर घर आना बिलकुल छोड़ दिया, तो? नहीं, वह उसे कभी कोई परेशान करनेवाली बात नहीं बताएगी. सुच्चासिंह ख़ुश रहे, घर की परेशानियां वह ख़ुद संभाल सकती है.
वह ज़रा-सा सिहर गई. गांव का लोटूसिंह अपनी बीबी को छोड़कर भाग गया था. उसके पीछे वह टुकड़े-टुकड़े को तरस गई थी. अन्त में उसने कुएं में छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली थी. पानी से फूलकर उसकी देह कितनी भयानक हो गई थी?
उसे थकान महसूस हो रही थी, इसलिए वह जाकर प्याऊ के तख्ते पर बैठ गई. अंधेरा होने के साथ-साथ खेतों की हलचल फिर शान्त होती जा रही थी. माहिया के गीत का स्थान अब झींगुरों के संगीत ने ले लिया था. एक बस जालन्धर की तरफ़ से और एक नकोदर की तरफ़ से आकर निकल गई. सुच्चासिंह जालन्धर से आख़िरी बस लेकर आता था. उसने पिछली बस के ड्राइवर से पता कर लिया था कि अब जालन्धर से एक ही बस आनी रहती है. अब जिस बस की बत्तियां दिखाई देंगी, वह सुच्चासिंह की ही बस होगी. थकान के मारे उसकी आंखें मुंदी जा रही थीं. वह बार-बार कोशिश से आंखें खोलकर उन्हें दूर तक के अंधेरे और उन काली छायाओं पर केन्द्रित करती जो धीरे-धीरे गहरी होती जा रही थीं. ज़रा-सी भी आवाज़ होती, तो उसे लगता कि बस आ रही है और वह सतर्क हो जाती. मगर बत्तियों की रोशनी न दिखाई देने से एक ठंडी सांस भर फिर से निढाल हो रहती. दो-एक बार मुंदी हुई आंखों से जैसे बस की बत्तियां अपनी ओर आती देखकर वह चौंक गई-मगर बस नहीं आ रही थी. फिर उसे लगने लगा कि वह घर में है और कोई ज़ोर-ज़ोर से घर के किवाड़ खटखटा रहा है. जिन्दां अन्दर सहमकर बैठी है. उसका चेहरा हल्दी की तरह पीला हो रहा है….रहट के बैल लगातार घूम रहे हैं. उनकी घंटियों की ताल के साथ पीपल के नीचे बैठा एक युवक कान पर हाथ रखे माहिया गा रहा है….ज़ोर की धूल उड़ रही है जो धरती और आकाश की हर चीज़ को ढके ले रही है. वह अपनी रोटीवाली पोटली को संभालने की कोशिश कर रही है, मगर वह उसके हाथ से निकलती जा रही है….प्याऊ पर सूखे मटके रखे हैं जिनमें एक बूंद भी पानी नहीं है. वह बार-बार लोटा मटके में डालती है, पर उसे ख़ाली पाकर निराश हो जाती है….उसके पैरों में बिवाइयां फूट रही हैं. वह हाथ की उंगली से उन पर तेल लगा रही है, मगर लगाते-लगाते ही तेल सूखता जाता है….जिन्दां अपने खुले बाल घुटनों पर डाले रो रही है. कह रही है, “तू मुझे छोड़कर क्यों गई थी? क्यों गई थी मुझे छोड़कर? हाय, मेरा परांदा कहां गया? मेरा परांदा किसने ले लिया?”
सहसा कन्धे पर हाथ के छूने से वह चौंक गई.
“सुच्चा स्यां!” उसने जल्दी से आंखों को मल लिया.
“तू अब तक घर नहीं गई?” सुच्चासिंह तख्ते पर उसके पास ही बैठ गया. बस ठीक प्याऊ के सामने खड़ी थी. उस वक़्त उसमें एक सवारी नहीं थी. कंडक्टर पीछे की सीट पर ऊंघ रहा था.
“मैंने सोचा रोटी देकर ही जाऊंगी. बैठे-बैठे झपकी आ गई. तुझे आए बहुत देर तो नहीं हुई?”
“नहीं, अभी बस खड़ी की है. मैंने तुझे दूर से ही देख लिया था. तू इतनी पागल है कि तब से अब तक रोटी देने के लिए यहीं बैठी है?”
“क्या करती? तू जो कह गया था कि मैं घर नहीं आऊंगा!” और उसने पलकें झपककर अपने उमड़ते आंसुओं को सुखा देने की चेष्टा की.
“अच्छा ला, दे रोटी, और घर जा! जिन्दां वहां अकेली डर रही होगी.” सुच्चासिंह ने उसकी बांह थपथपा दी और उठ खड़ा हुआ.
रोटीवाला कटोरा उससे लेकर सुच्चासिंह उसकी पीठ पर हाथ रखे हुए उसे बस के पास तक ले आया. फिर वह उचककर अपनी सीट पर बैठ गया. बस स्टार्ट करने लगा, तो वह जैसे डरते-डरते बोली,“सुच्चा स्यां, तू मंगल को घर आएगा न?”
“हां, आऊंगा. तुझे शहर से कुछ मंगवाना हो, तो बता दे.”
“नहीं, मुझे मंगवाना कुछ नहीं है.”
बस घरघराने लगी, तो वह दो क़दम पीछे हट गई. सुच्चासिंह ने अपनी दाढ़ी-मूंछ पर हाथ फेरा, एक डकार लिया और उसकी तरफ़ देखकर पूछ लिया,“तू उस वक़्त क्या बात बताना चाहती थी?”
“नहीं, ऐसी कोई ख़ास बात नहीं थी. मंगल को घर आएगा ही…”
“अच्छा, अब जल्दी से चली जा, देर न कर. एक मील बाट है…!”
“…सुच्चा स्यां, कल गुर परब है. कल मैं तेरे लिए कड़ाह परसाद बनाकर लाऊंगी….”
“अच्छा, अच्छा…”
बस चल दी. बालो पहियों की धूल में घिर गई. धूल साफ़ होने पर उसने पल्ले से आंखें पोंछ लीं और तब तक बस के पीछे की लाल बत्ती को देखती रही जब तक वह आंखों से ओझल नहीं हो गई.
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