दलित-पिछड़े समाज पर अत्याचार की ख़बरें जब-तब हमारे लोकतांत्रिक देश में सुनाई-दिखाई पड़ जाती हैं. दलित चेतना की मुखर आवाज़ रहे ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी कविताओं में इस तबके को आवाज़ दी है. शम्बूक का कटा सिर में कवि बताते हैं कि अत्याचार का यह क्रम नया नहीं है, बल्कि त्रेतायुग से चला आ रहा है, जब राम ने शम्बूक का सिर काट दिया था. शम्बूक का दोष केवल इतना था कि शूद्र होने के बावजूद वह तपस्या कर रहा था.
जब भी मैंने
किसी घने वृक्ष की छांव में बैठकर
घड़ी भर सुस्ता लेना चाहा
मेरे कानों में
भयानक चीत्कारें गूंजने लगीं
जैसे हर एक टहनी पर
लटकी हो लाखों लाशें
ज़मीन पर पड़ा हो शंबूक का कटा सिर
मैं उठकर भागना चाहता हूं
शंबूक का सिर मेरा रास्ता रोक लेता है
चीख़-चीख़कर कहता है
युगों-युगों से पेड़ पर लटका हूं
बार-बार राम ने मेरी हत्या की है
मेरे शब्द पंख कटे पक्षी की तरह
तड़प उठते हैं
तुम अकेले नहीं मारे गए तपस्वी
यहां तो हर रोज़ मारे जाते हैं असंख्य लोग
जिनकी सिसकियां घुटकर रह जाती हैं
अंधेरे की काली पर्तों में
यहां गली-गली में
राम हैं
शंबूक हैं
द्रोण हैं
एकलव्य हैं
फिर भी सब ख़ामोश हैं
कहीं कुछ है
जो बंद कमरों से उठते क्रंदन को
बाहर नहीं आने देता
कर देता है
रक्त से सनी उंगलियों को महिमा-मंडित
शंबूक! तुम्हारा रक्त ज़मीन के अंदर
समा गया है जो किसी भी दिन
फूटकर बाहर आएगा
ज्वालामुखी बनकर!
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