भीड़ की मानसिकता को समझना हो तो जैनेन्द्र की इस कहानी को पढ़ लीजिए. दुनिया में आवारा भीड़ से ज़्यादा ख़तरनाक कुछ और नहीं है.
बाबा भगीरथजी विचित्र पुरुष हैं. मन में आया, वैसे ही रहते हैं. अपने से बाहर भी कुछ है, जिसका असर व्यक्ति पर होना चाहिए, इसकी सूचना मानो उन्हें प्राप्त नहीं है. समाज अगर कुछ है, तो ठीक है, हो. सरकार अगर कुछ है, तो अवश्य हो. किन्तु इस कारण किसी के मन को कष्ट न हो, इसका पता वे रखेंगे.
यही क्यों उनसे भरसक सबको आराम पहुंचे, इसका भी ख़्याल वह रखेंगे, और बस. इसके आगे उनके नज़दीक दुनिया जैसी है, वैसी ही नहीं है.
मैं कहता हूं, यह ठीक नहीं है. दुनिया है, और इसमें निभकर चलना पहली बात है. इससे बाहर जाकर तो गुज़ारा है नहीं. इससे अगर विद्रोह भी करना हो, तो उससे मिलकर ही हो सकेगा. दुनिया से अजीब, अलग, रूठे हुए बनने से काम नहीं चलेगा. कुछ लोग हैं जो दाढ़ी रखते हैं, और कुछ लोग हैं जो दाढ़ी नहीं रखते. अपना-अपना तरीक़ा है. जो दाढ़ी रखते हैं वे रखने के तरीक़े से रखते हैं. उन्हें मालूम होता है कि यह दाढ़ी है, कोई झाड़ी नहीं है, जिसके न कुछ अर्थ हैं, न प्रयोजन. और दाढ़ी नहीं रखते तो शेव किया कीजिए.
और कपड़ों में पतलून है, पाजामा है, धोती है, कुर्ता, कमीज, कोट, बास्कट है.
अब दाढ़ी रखना न-रखना, और कपड़ों में ऊपर गिनाई चीज़ों को छोड़कर कोई अपनी ही ईजाद करके पहनना, और सोलह में पन्द्रह आने उघारे बदन ही रहना-मैं कहता हूं यह भी कुछ समझदारी है?
लेकिन बाबा भगीरथ पर किसी का बस चले, तो बाबा भगीरथ कैसे?
मैंने एक दिन कहा,‘देखिए बाबाजी! आदमी जो समझता है ठीक है, उसे फिर उसके साथ कसकर देखना होगा, जिसे दुनिया समझती है कि ठीक है. उनके समन्वय से जो मिले, वही तो व्यक्ति का मार्ग है. क्योंकि आदमी अपने में पूरा कहां है? पूर्ण होने के लिए उसे समाज की अपेक्षा नहीं है क्या?’
बात यह कि मैं अपने मन के ऊपर से बाबाजी को टालना चाहता हूं. मन उन पर जाकर कुछ सुख नहीं पाता. उसमें कुछ विद्रोह, एक बेचैनी-सी होती है. बाबा को देखकर जी में होता है कि तेरी प्रतिष्ठा, तेरी दुनियादारी, तेरी क़ामयाबी झूठी है, झूठ है, छल है. चाहता हूं, बाबा पर दया कर डालूं, और इस तरह अपने बड़प्पन को स्थिर रखू; संभाले रखू, पर यह होते होता नहीं.
बाबा को सामने पाकर बड़प्पन हठात मुझ पर से खिसकने लगता है, उतरकर जैसे मुझे छोड़ जाने को उतारू हो जाता है. तब उस बाबा और उसकी सारी फिलासफी पर मुझे बड़ा ग़ुस्सा आता है.
लेकिन कभी वह साढ़े तीन-सौ मासिक पाता था, मेरा सीनियर था, गण्यमान्य था.
और आज है कि मैं चार सौ पाता हूं, और उसे ठौर का ठिकाना नहीं है, और मित्रों का कृपानुजीवी हो, समझिए, बनकर उसे रहना होता है.
उसे मैं पागल कह सकूं, बैरागी कह सकूं, साधु-संन्यासी कह सकूं, तो मुझे चैन पड़ जाए. क्योंकि समाज की रीति-नीति में इन लोगों के लिए जगह है, समाज उन्हें पहचान सकता है. कहा, पागल है और चलो छुट्टी हुई. इस बाबा से, लेकिन इस तरह की छुट्टी मुझे किसी भांति नहीं मिलती. और वह सदा इतना ख़ुश और इतना पक्का और इतना ताज़ा रहता है कि मन-ही-मन में कितना ही झुंझलाऊं, उसके प्रति एक प्रकार की श्रद्धा से भी मुझसे बचा नहीं जाता है.
बाबा ने कहा,‘देखो भाई, समाज से मैं इनकार नहीं करता. जिसको मैं सही कहूं, मन हो तो क्यों न समाज उसे ग़लत माने. स्वतन्त्रता चाहने वाला मैं समाज को तो और भी स्वतन्त्र कर दूंगा. मैं तो कहता हूं, जिसको अपने लिए सही समझें, उसी को समाज मेरे लिए निषिद्ध ठहरा सकता है. मैं यदि अपने समर्थन में उसका विरोध करूं, तो उसका धर्म है कि अपने समर्थन में वह मेरा विरोध करे. यहां तक कि मैं चुप हो जाऊं, नहीं तो मिट जाऊं. समाज ने ईसा को सूली पर चढ़ाकर समाज धर्म की प्रतिष्ठा ही की.
किन्तु ईसा को यदि ईसा बनना था तो सूली पर भी चढ़ना था. समाज को समाज में रहने के लिए, उसी तरह ईसा को जो ईसा बने बिना मानता न था, सूली दिए बिना न रहना था. सूली चढ़नेवाला ईसा समाज के इस दायित्व को जानता था. इसी से अपने कन्धों सलीब लेकर वह वधस्थल गया. कोई अड़चन उसने वधिकों के काम में उपस्थित नहीं की. अब मैं यह कहता हूं कि अपने ऊपर समाज को पूर्ण स्वतन्त्रता देकर या अपनी नियति को अपने ही रूप में सम्पन्न करने का अधिकार ईसा को नहीं हो जाता? समाज के हाथों जब वह ख़ुशी से सूली चढ़ने को उद्यत है, तब ईसा ईसा बने बिना किस भांति रह सकता है, इसलिए व्यक्ति अपने लिए समाज की ओर नहीं भी देख सकता है, बल्कि नहीं देखना चाहिए, अगर उसमें समाज के दण्ड से बचने की इच्छा नहीं है. और वह समाज का हितैषी ही बना रहकर उसके दण्ड का स्वागत कर सकता है. अगर दुनिया मुझे पागल कहेगी तब भी मैं उसका बुरा न सोचूंगा; मुझे पीड़ा देगी, तब भी उसकी कल्याण कामना करूंगा यह मानने के बाद क्या अपने मुताबिक़ चलने का हक़ मेरा न मानोगे?’
देखा आपने! यह बाबा भगीरथ हैं. इस बाबा भगीरथ को, आप समझते हैं, कभी जीवन में आराम मिल सकेगा, सफलता मिल सकेगी? क्या नहीं समझते कि उमर भर उसे मोहताज और आवारा ही रहना होगा?
और आइए, मैं आपको सुनाऊं बाबा के बाबापन का एक रोज़ क्या गुल खिला. क़िस्मत समझिए कि बाबा मौत से बाल-बाल बच गया, नहीं तो विधान की ओर से तैयारी में कमी न रखी गई थी.
और आप जानते हैं क्या? उसके बाद भी बाबा को होश नहीं हुआ है, और वह वही हैं.
***
मास्टर दीनानाथ जी की ग्यारह बरस की लड़की सुखदा को पांच-छ: रोज से उनके घर आए बाबा भगीरथजी से एक भेद की ख़बर मिली है, जिसने उसके चित्त को विभ्रम में डाल दिया है. बाबा ने उसे बताया है कि रामजी ने उसे एक जामुन के पेड़ के ऊपर लटका दिया था.
वहां वह कीं.. कीं.. कीं.. ख़ूब रो रही थी.
दया करके बाबा ने वहां से उसे उतार लिया, और यहां आकर फिर उसकी मां को पालने को दे दिया. समझी की नहीं, चाहे तो अपनी मां से पूछ ले कि तू कहां से आयी थी. बाबा ही दे गया था कि नहीं?
लड़की ने कहा,‘नहीं. नहीं. नहीं. झूठ, बिलकुल झूठ.’
और तभी वह सोचने लगी कि जामुन के पेड़ पे लटकी वह नन्हीं-सी कैसी लगती होगी?
भगीरथजी ने कहा,‘इसमें क्या बात है. जाकर अपनी मां से न पूछ आओ.’
मां से पूछा, तो उसने भी बता दिया कि हां, ठीक तो है, पेड़ के ऊपर ही तो भगीरथ जी ने उसे पाया था.
लड़की ने आंख फाड़कर पूछा,
‘अच्छा!’
मां ने पूछा,
‘तो तू बाबाजी के संग जाएगी?’
बेटी ने कहा,
‘हां बाबाजी के संग जाऊंगी.
तू तो मुझे मारती है.’
इस तरह और जाने किस-किस तरह, बालकों को रिझा और हिला लेने में भगीरथजी-सा दूसरा आदमी न होगा. सुखदा बाबूजी और मां को भूलकर सदा बाबाजी के ही सिर चढ़ी रहती है. या उसके सिर कहो, ‘बाबाजी’ चढ़े रहते हैं.
मास्टर दीनानाथ जी से उन्होंने कहा,‘देखो मास्टरजी, यह स्कूल बिलकुल ग़लत बात है. जब तक हम रहें, लड़की किसी स्कूल में पढ़ने नहीं जाएगी. और, सबसे बड़ी शिक्षा खुली हवा में घुमाना है. आप छोड़िये सुखदा को मेरे ऊपर. अभी तो एक महीने मैं यहां हूं.’
सो, लड़की अब स्कूल नहीं जाती, सुबह-दोपहर-शाम जाने कहां-कहां बाबाजी के साथ नई-नई चीज़ें देखने जाती है. एक-दो घण्टे बाबाजी ही उसे पढ़ा भी देते हैं.
जाड़े के दिन थे. दस बजे होंगे. मीठी-मीठी धूप फैली थी. और निकल्सन बाग में घास पर बैठे बाबा भगीरथजी और सुश्री सुखदाजी बातें कर रहे थे. और, उस बाग के बाहर भी दो-तीन आदमी घूम रहे थे.
यहां एक बात ख़्याल चाहिए कि सुखदा सुन्दर है, गोरी है, देखने से अच्छे घर की मालूम होती है. अच्छी-सी साफ़ साड़ी है, पैरों में बढ़िया चप्पल.
भगीरथजी नंगे पैर हैं, जिनमें बिवाइयां फट रही हैं, उघारे बदन, बस एक मटमैले रंग का जांघिया है.
छः महीने की दाढ़ी है.
रंग धूप से पका ताम्बिया.
सुखदा ने पूछा,‘बाबाजी, यह चौराहों पर आदमी क्यों खड़े रहते हैं?’
‘अच्छा, बताओ, इस चौराहे पर जो खड़ा था, कौन था?’
लड़की ने बताया,‘सिपाही.’
भगीरथ ने कहा,‘हां, सिपाही है. जानती हो, क्यों रहता है? आते-जाते तांगे मोटरों को वह रास्ता बताता है, नहीं तो वे लड़ जाएं. इनका नाम पुलिस है. ये पुलिस के सिपाही हैं. इनसे डरना नहीं चाहिए, समझीं. ये लोगों को मदद देने के लिए हैं. तुम डरती तो नहीं?’
‘नहीं.’
‘हां, डरना कभी नहीं चाहिए. अच्छा, धोती यहीं उतार जाओ. जांघिया तो है न? जाओ, जितनी तरह की कल घास बतायी थी, ढूंढ़कर उसके नमूने लाओ तो.’
लड़की चली गई. इतने में एक आदमी आकर पूछने लगा,‘आप कहां रहते हैं?’
‘हम कहां रहते हैं? यहीं रहते हैं.’
‘यहीं क्या, देहली में? किस मुहल्ले में?’
बाबाजी ने कहा,‘क्यों तुमको मेरे मुहल्ले से ख़ास काम है क्या?’
आदमी ने कहा,‘हिन्दू हो या मुसलमान?’
बाबाजी को यह बड़ा विचित्र लगा. कहा,‘भाई हम जो हैं, हैं. जहां रहते हैं, रहते हैं. तुम जाओ अपना काम देखो.’
इतने में लड़की आ गई, और एक अजनबी को देखकर मनमारी वहां बैठ गई. बाबाजी ने पूछा,‘क्यों, बेटी?’
आदमी ने पूछा,‘यह लड़की कौन है?’
बाबाजी को इस आदमी का यह सवाल बहुत बुरा मालूम हुआ. कहा,‘तुमको इससे मतलब? जाओ, अपना रास्ता देखो.’
आदमी चला गया, और लड़की ने घास दिखानी शुरू की.
इतने में एक आदमी और आया. बोला,‘आप कितनी देर तक यहां बैठेंगे?’
‘हमारी तबीयत.’
‘मैं पूछता हूं, घण्टे, दो घण्टे, आख़िर कितनी देर तक आप यहां हैं?’
‘तुम सुनते नहीं हो.’ बाबाजी ने कहा,‘हमारी तबीयत है, तब तक हम यहां हैं.’
आदमी ने कहा,‘अच्छी बात है.’ और वह चला गया.
बाबाजी के मन पर किसी तरह की कोई जूं नहीं रेंगी. और देखा गया, बगीचे के बाहर टहलते हुए आदमियों की संख्या दो-तीन से छ:-सात हो गई है. उसमें एक बावर्दी पुलिस का सिपाही भी है.
लड़की का उत्साह अकारण मन्द पड़ने लगा, और उसका जी बैठने लगा.
बाबाजी ने कहा,‘देखो सुकी, मैंने छ: तरह की घास तुम्हें बताई थी, और छहों इस बगीचे में है. तुम लाईं चार ही.’
लड़की ने कहा,‘बाबाजी, घर चलो.’
‘क्यों?’ बाबाजी की समझ में जैसे यह बात बिलकुल नहीं आयी.
‘नहीं, हम तो घर चलेंगे.’
‘अच्छी बात है, चलो.’ दोनों उठकर चले.
बगीचे से बाहर निकले, तो वे छहों-सातों आदमी भी पीछे-पीछे चले. अब बाबाजी ने जाना कि दाल में कुछ काला है. पर उन्हें आशंका से अधिक कुतूहल हुआ, और वे दोनों चुपचाप चलते रहे.
फर्लांग भर गए होंगे कि पचास-साठ आदमी हो गए. एक बावर्दी घुड़सवार भी साथ दिखाई देने लगा. सब अपने-अपने अनुमानों से भरे थे. और पुलिस के लिए शीघ्र एक यह काम भी हो गया कि जनता के इन भरे हुए सदस्यों को मर्यादा से आगे बढ़ने से थामे रहे.
‘जरूर मुसलमान गुण्डा है. बाबा बनकर लड़कियां भगाता है, बदमाश!’
‘मुसलमान नहीं है. है हिन्दू, पर गुण्डा है.’
‘लड़की किसकी है?’
‘देखते रहो, कहां जाता है?’
‘देखना, निकल न जाए.’
‘बदमाश आज पकड़ा गया.’
पुलिस ने कहा,‘पीछे रहो, पीछे रहो.’
ख़ुशी से भरी जनता घुड़सवार पुलिसमैन के पीछे बाढ़-सी बढ़ती और उमड़ती हुई चलने लगी. यह क्या कम सौभाग्य की बात है कि साक्षात एक ऐसे पापी के दर्शन हो रहे हैं!
‘क्या है? क्या है?’
‘देखते नहीं, सामने क्या है?’
‘ओह, यह! पाजी.’
कृतार्थ होकर अत्यन्त उत्साह के साथ पूछने वाला भीड़ के साथ हो लिया.
‘अपना नाम इसने मौलाबख्श बताया है, पर असली जैनुद्दीन यही है.’
‘जैनुद्दीन!’
‘सौ-सौ के छह नोट इसके जांघिये की जेब में मिले हैं.’
‘अब ले जाकर लड़की बेच देता. अजी इनका गिरोह है, गिरोह.’
‘मुसलमान क्यों बढ़ रहे हैं? इसी से तो.’
‘कौन कहता है लड़की मुसलमान ख़ानदान की है, और यह शख्स हिन्दू गुण्डा है?’
‘झूठ, मुसलमान है.’
‘हरगिज नहीं, काफ़िर है.’
‘वह ज़िन्दा क्यों है?’
‘तुम झूठे हो.’
‘तुम नालायक हो.’
‘कोई मर्द नहीं है, जो यहीं उसे करनी का मजा चखा दे.’
पुलिस,‘पीछे रहो, पीछे रहो.’
भीड़ बढ़ती ही चली गई. हिन्दू भी थे, मुसलमान भी. इसमें दो राय न थी कि यह शख्स जिन्दा न बचने पाए. और सचमुच सबको यह बुरा मालूम हो रहा था कि यह पुलिस कौन चीज़ है, जो सामने आकर उनके और उस बदमाश के बीच, यानी इन्साफ़ और जुर्म के बीच, हायल है.
रेल का पुल आते-आते तीन-चार हज़ार आदमी हो गए होंगे.
जैसे समन्दर के बीच में बूंद-बूंद नहीं होती, वैसे ही भीड़ में आदमी नहीं रहता.
भीड़ का अपने में एक अस्तित्व होता है, और एक व्यक्तित्व. वह अतर्क्य भी होता है.
‘सीधे चलो, सीधे चलो!’
‘कोतवाली! कोतवाली!’
लड़की सहमी-सहमी चल रही थी. उसने ज़ोर से भगीरथ जी का हाथ पकड़ रखा था. उसकी समझ में न आता था, यह क्या है. एक नि:शब्द त्रास उसके मन पर छा रहा था, और बाबाजी को भी बोध हो रहा था कि परिस्थिति साधारण नहीं रह गई है. लोगों की भीरुता और मूर्खता पर उन्हें बड़ी झुंझलाहट हो रही थी.
घुड़सवार ने आगे बढ़कर बाबा से पूछा,‘तुम कहां जा रहे हो?’
‘आप देख तो रहे हैं, मैं जिधर जा रहा हूं.’
‘किस मुहल्ले में रहते हो?’
‘जिसमें रहता हूं, वहीं जा रहा हूं.’
‘मैं घर जाऊंगी बाबाजी, घर.’
पुल के आगे उनका रास्ता मुड़ता था. मुड़ने लगे, तभी घुड़सवार ने उनके सामने आकर कहा,‘सीधे चलना होगा.’
यह बाबा के लिए अप्रत्याशित था. पूछा,‘कहां?’
‘कोतवाली.’
‘क्यों?’
‘मैं कहता हूं, इसलिए?’
‘आप कहते हैं, इसलिए? या भीड़ कहती है, इसलिए?’
सवार ने उत्तर न दिया. वह लौट गया, और उसने समझ लिया, यह आदमी वैसा नहीं है जैसा ख़याल है.
दोनों चुपचाप सीधे कोतवाली की तरफ़ बढ़ चले.
जुलूस पीछे-पीछे आ रहा था. बात अब तक दूर-दूर तक फैल गई थी. अब चौक से भी जुलूस को गुज़रना हुआ. पांच से दस, पन्द्रह-बीस हज़ार तक भीड़ पहुंच गई. टेलीफ़ोन से पुलिस के कई दस्ते आ गए थे, पर भीड़ को शान्त रखना मुश्क़िल हो रहा था.
शोर बेहद था, और उसमें अब पक्ष भी पड़ने लगे थे.
मुस्लिम पक्ष और हिन्दू पक्ष.
परिस्थिति भीषण होती जा रही थी, और लड़की के कारण बाबाजी को चिन्ता होने लगी थी. पर मालूम होता था, बात अब वश से बाहर हो गई है. क्या मेरी बात सुनने योग्य इस जनस्थिति में कोई होगा?
‘अरे, यह लड़की तो दीनानाथ की है.’
‘दीनानाथ! हेड मास्टर दीनानाथ?’
‘ओह, दीनानाथ की?’
चुटकी बजाते बात फैल गई कि दीनानाथ की लड़की को एक मुसलमान गुण्डा उड़ाकर ले आया है.
हिन्दू पक्ष के क्रोध की सीमा न रही, और मुस्लिम पक्ष का उत्साह तनिक मन्द हो गया. तब दो-एक मुसलमानों को सूझा कि पुलिस से कहें कि मामले की जांच भी पहले की या नहीं.
दो-एक शरीफ़ मुसलमान उस समय पुलिस इन्स्पेक्टर के पास गए. तभी बाबाजी ने इन्स्पेक्टर के पास पहुंचकर कहा,‘आप यह क्या ग़ज़ब कर रहे हैं; आप क्या चाहते हैं? आख़िर इस बेचारी लड़की को तो बाप के पास जाने दीजिए. पता मैं बताता हूं, सिपाही के साथ लड़की को घर भेज दीजिए. मैं आपके सामने ही हूं.’
मुसलमान सज्जनों ने कहा,‘जी हां, कोतवाल साहब, यह शरीफ़ आदमी मालूम होते हैं. पता तो लीजिए कि क्या बात है.’
पुलिस भीड़ में से उन्हें एक ख़ाली दुकान की तरफ़ ले गई. वहां बाबाजी ने मकान का पता दिया. और तय हुआ कि एक सिपाही वहां जाए, पूरी बात मालूम करके आए, तब तक दोनों यहीं रहें.
इस बीच बात आग की तरह फैलती रही.
महावीर दल, अर्जुन सेना, भीम सेना संगठन, हिन्दू रक्षा सभा और अखाड़ा बजरंगबली आदि सदल-बल मौके पर आ गए. इधर हुसैन गोल और रफीकाने इस्लाम तथा रजाकाराने दीन भी चौकन्ने हो गए.
इधर दीनानाथ जी चार मित्रों के साथ भोजन कर रहे थे. दीनानाथ जी की लड़की भगा ली गई. यह इस सभा से उस सभा तक सब को मालूम हो गया था. दीनानाथ को ही बतलाने की या इनसे पूछने की ज़रूरत किसी को नहीं हुई थी. वह निश्चिन्त, प्रसन्न भोजन कर रहे थे. तभी नौकर ने ख़बर दी,‘बाबूजी, एक सिपाही आपको पूछ रहा है.’
‘क्या चाहता है?’
‘पूछता है, आपकी कोई लड़की है?’
‘अबे, है तो उससे क्या है?’
‘कहता है, ज़रूरी काम से दरोगा साहब ने फ़ौरन आपको बुलाया है.’
‘कह दो, मुझे फुर्सत नहीं है.’
नौकर गया और फिर लौटकर उसने ख़बर दी.
‘जी, वह तो जाता ही नहीं. कहता है, आपकी लड़की वहां है और आपका वहां चलना बहुत ज़रूरी है.’
‘होने दो लड़की वहां. मैं अभी नहीं जा सकता. और, वह आदमी अभी नहीं जाना चाहता, तो उसे खड़ा रहने दो वहीं.’
नौकर गया, और दोस्तों में फिर ठट्ठा होने लगा.
‘देखो! यह पुलिस है! कोई ग़ुलाम बैठा है कि फौरन हुक्म पर दौड़ा जाए!’
‘आख़िर लड़की कहां है?’
‘होती कहां? भगीरथ जी के साथ है. फिर उनके साथ कहीं भी हो. फिकर क्या है.’
उधर जनता में न्याय की भूख और हिंसा की प्यास ख़ूब बढ़ रही थी. चौक में एक दुकान के भीतर बेंच पर भगीरथजी बैठे थे, उनसे चिपटी-सिमटी सुखदा, कुर्सी पर इन्सपेक्टर थे, आस-पास सिपाही. और चौक की चौड़ी सड़क एक फलांग तक नरमुण्डों से पटी थी. जो सिपाही भेजा गया था, उसके लौटने की प्रतीक्षा की जा रही थी. न्याय रुका हुआ था.
जनता ख़ाली थी, और उसका मद उत्तरोत्तर बढ़ रहा था.
बातचीत से दरोगाजी को मालूम हो गया था कि यह बाबा शरीफ़ आदमी है. लेकिन इस भूखी और मतवाली जनता के बीच में अब इस बाबा को आज़ाद छोड़ना जानवरों के बीच में छोड़ना है, फिर उसकी बोटी बाक़ी न बचेगी.
सिपाही ने आकर ख़बर दी कि मास्टर दीनानाथ ने उसे घर से बेइज्जत करके निकाल दिया है, और कुछ जवाब नहीं दिया.
इस पर तय हुआ कि दोनों को कोतवाली ले चलना होगा. लेकिन पैदल ले चलना ख़तरे से ख़ाली न था, इससे तांगा मंगवाया गया. तांगा चला, और भीड़ भी चली.
‘देखो! पुलिस को चकमा देता था.’
‘अब जाएगा कहां?’
‘अब तो यहीं इसको बहिश्त दिखाई देगी.’
दारोगा तांगे में आगे बैठे थे, लड़की के साथ बाबा पीछे. उस वक़्त लड़के बाबा पर कंकड़ियां फेंक निकले थे, लोग बेंत चुभो रहे थे, कभी-कभी जूते भी पास आ गिरते थे, और लड़की बाबा की गोद में दुबकी जा रही थी.
ज्यों-त्यों दोनों कोतवाली के अन्दर ले जाए गए, और भीड़ बाहर तैनात हो गई.
शहर भर में सनसनी फैल गई थी. दल-के-दल कोतवाली के सामने पहुंच रहे थे. कोई ख़ाली हाथ न था. लाठी, डण्डे, बल्लम, जिससे जो हुआ साथ ले आया था. सबको ख़बर थी,‘मास्टर दीनानाथ की लड़की उड़ाई गई, मास्टर दीनानाथ की!’
‘अजी सोलह वर्ष की है. तुमने नहीं देखा? ख़ूबसूरत, कि ग़ज़ब की ख़ूबसूरत!’
‘अभी ब्याह नहीं हुआ.’
‘और पढ़ाओ लड़कियों को. जभी तो ब्याह जल्दी करना चाहिए.’
‘सगाई हो गई थी, ब्याह बैसाख में हो जाता.’
‘अजी, पहले से लाग-साख होगी. नहीं तो इतनी उमर की लड़की को कौन ले जा सकता है.’
इधर यह सब कुछ था, उधर मास्टर दीनानाथ के कानों भनक न थी. उन्हें अचरज अवश्य था कि अभी तक सुखदा और भगीरथजी घूमकर आए नहीं. पर सोच लेते थे. अब आते ही होंगे. चिन्ता की ज़रूरत हो सकती है, यह सम्भावना तक उनके पास न फटकती थी.
तभी पड़ोसी मनोहरलाल बाहर से ही चिल्लाते घर में दाखिल हुए
‘मास्टर जी, मास्टर जी, लड़की मिल गई!’
‘क्या-आ?’
‘अजी, लड़की ग़ायब हो गई थी न, वह मिल गई. और वह गुण्डा भी पकड़ लिया गया है. लाइए. मिठाई खिलाइए.’
‘क्या कह रहे हैं आप!’
‘मैं कहता हूं, अब से होशियार रहना चाहिए.
मुसलमानों को आप जानते ही नहीं है. जी हां, और बनिए कांग्रेसी!
आस्तीन के सांप हैं, साहब, आस्तीन के.’
दीनानाथ जी ने कुछ हंसना भी चाहा, लेकिन बांह पकड़कर उतावली से पूछा,‘मनोहरलाल, क्या कह रहे हो?’
‘अजी, मैं वहीं से आ रहा हूं. लखूखा आदमी इकट्ठा है. उसकी बोटी भी बच जाए, तो मेरा नाम नहीं. साला.’
‘कहां से आ रहे हो? कहां इकट्ठा है?’
‘कहां से? जनाब वहां से जहां अब भी गुण्डा मौजूद है, और लड़की भी है. आप लड़की की शादी क्यों नहीं कर देते?’
‘मनोहरलाल!’ दोनों बाहों से मनोहरलाल को झकझोरकर दीनानाथ ने पूछा,‘कहां हैं वे लोग?’
‘कहां हैं! क्यों क्या अब भी कोतवाली में वह नहीं बैठा है. लेकिन मैं कहता हूं कुछ दम का और मेहमान है वह. फिर तो उसका बाल भी नहीं मिलेगा.’
दीनानाथ ने साइकिल संभाली और भागे. भीड़ के पास पहुंचे तो किसी ने उन्हें पहचानकर बधाइयां दीं
‘मास्टरजी, लड़की मिल गई.’
‘यही मास्टर है? इसी की लड़की है? शर्म की बात है.’
‘जगह दो, जगह.’
‘लड़की की हिफ़ाज़त होती नहीं, पढ़ाने का शौक़ है. बुरा हो इस पढ़ाई का.’
भीड़ को चीरते हुए दीनानाथ कोतवाली में दाखिल हुए. लड़की के बाप के आने की बात पर भीड़ में नशे की एक और लहर आ गई. अन्दर दारोगा साहब ने कहा,‘आइए, मास्टर साहब, आइए.’
‘यह आप क्या ग़ज़ब कर रहे हैं. लड़की कहां है?’ उस कमरे में पहुंचे, तो लड़की इनसे चिपट गई. दारोगाजी ने पूछा,‘यह आपकी लड़की है?’
‘जी हां, साहब! और यह मेरे दोस्त बाबा भगीरथ जी हैं.’
‘ओ हो! माफ़ कीजिए, इनको बड़ी तक़लीफ़ उठानी पड़ी.’
‘लेकिन जनाब, आपने भी तो ग़ज़ब किया. देखिए न, कितना हजूम जमा है.
विचार होने लगा कि इस भीड़ में से कैसे बाबाजी को ले जाना होगा. आख़िर, यह सोचा कि मास्टर जी साथ रहेंगे तब ज़्यादा ख़तरा नहीं है.
पुलिस की मदद से तांगे में सवार हुए, और मास्टर जी बराबर साइकिल लेकर चले.
‘मास्टर जी, यह गुण्डा है?’
‘अरे, मास्टर की लड़की भगाने वाला यही है.’
‘साला, जाने न पाए.’
मास्टर ने चिल्लाया,
‘अरे, क्या ग़ज़ब करते हो?’
लेकिन साहसी व्यक्तियों ने बढ़-बढ़कर भगीरथजी के धौल-धप्पे जमाने शुरू किए.
तांगा दौड़ा.
पत्थर फिंके.
दीनानाथ साइकिल उड़ाते जा रहे थे.
भीड़ एकाएक कुछ स्तब्ध रह गई थी, और तांगा इतने में निकल गया. यही कुशल हुई.
लेकिन रास्ते में स्वयंसेवकों के दल अभी चले आ रहे थे.
देखा, मास्टर दीनानाथ तांगे के बराबर साइकिल पर जा रहे हैं, और तांगे पर लड़की के साथ एक मुसलमान-सा बैठा है.
‘मास्टरजी, यही है?’
-और दे डण्डा!
‘मास्टरजी की लड़की यही तो है जी!’
…और पांच-सात आदमी दौड़े तांगे की तरफ़ लाठियां उठाए. कुछ लाठियां तांगे की छत पर पड़ीं. एक-आध बाबा पर भी. पत्थर भी ख़ासे बाबा को लगे. पर ज्यों-त्यों आखिर तांगा घर पहुंच ही गया.
लेकिन बाबाजी ने न अपना जांघिया बदला, न भले मानसों की तरह कुर्ताकमीज कुछ पहनना शुरू किया.
‘ओ हो! बाबा जी आप थे. मैं मोटर पर जा रहा था, भीड़ मैंने भी देखी थी. क्या पता था, आप वहां घिरे थे. आप भी ख़ूब ही हैं.’
‘भीड़ तो हमने देखी थी. लेकिन बाबाजी, आप ठीक तरह क्यों नहीं रहते.’
बाबाजी को इसमें कुछ सुख या दुःख नहीं जान पड़ता कि वह मौत से बच गए. वह हंस देते हैं, और बाबा छोड़कर कुछ और बनना नहीं चाहते.
Illustration: Pinterest