दुष्यंत कुमार की मशहूर ग़ज़ल ‘मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूं’ की पंक्तियां ‘तू किसी रेल-सी गुज़रती है, मैं किसी पुल-सा थरथराता हूं’ प्रेम की नज़ाकत के साथ ही व्यथा को भी मुकम्मल ढंग से बयां करती है. प्रेम और विरह को जोड़ती यह ग़ज़ल कमाल है!
मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूं
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूं
एक जंगल है तेरी आंखों में
मैं जहां राह भूल जाता हूं
तू किसी रेल-सी गुज़रती है
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूं
हर तरफ़ ऐतराज़ होता है
मैं अगर रौशनी में आता हूं
एक बाज़ू उखड़ गया जबसे
और ज़्यादा वज़न उठाता हूं
मैं तुझे भूलने की कोशिश में
आज कितने क़रीब पाता हूं
कौन ये फ़ासला निभाएगा
मैं फ़रिश्ता हूं सच बताता हूं
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