दिनों-दिन प्रकृति के साथ मनुष्य के टूट रहे रिश्ते की सटीक व्याख्या करती है रघुवीर सहाय की कविता ‘वसंत आया’. अब ऋतुओं के बदलने का पता हमें अपने आसपास की प्रकृति को देखकर नहीं, बल्कि कैलेंडर से मालूम होता है. कवि रघुवीर सहाय ने इस विडंबना और विरोधाभास को बड़ी ख़ूबसूरती से गढ़ा है इस कविता में.
जैसे बहन ‘दा’ कहती है
ऐसे किसी बंगले के किसी तरु (अशोक) पर कोई चिड़िया कुऊकी
चलती सड़क के किनारे लाल बजरी पर चुरमुराए पांव तले
ऊंचे तरुवर से गिरे
बड़े-बड़े पियराए पत्ते
कोई छह बजे सुबह जैसे गरम पानी से नहाई हो
खिली हुई हवा आई, फिरकी-सी आई, चली गई
ऐसे, फ़ुटपाथ पर चलते चलते चलते
कल मैंने जाना कि वसंत आया
और यह कैलेंडर से मालूम था
अमुक दिन अमुक बार मदनमहीने की होवेगी पंचमी
दफ़्तर में छुट्टी थी-यह था प्रमाण
और कविताएं पढ़ते रहने से यह पता था
कि दहर-दहर दहकेंगे कहीं ढाक के जंगल
आम बौर आवेंगे
रस-रंग-गंध से लदे-फंदे दूर के विदेश के
वे नंदन-वन होवेंगे यशस्वी
मधुमस्त पिक भौंर आदि अपना-अपना कृतित्व
अभ्यास करके दिखावेंगे
यही नहीं जाना था कि आज के नगण्य दिन जानूंगा
जैसे मैंने जाना, कि वसंत आया
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