क्रांतिकारी हमेशा दूसरों के घर में ही अच्छा लगता है. यह सच्चाई उस लड़की से बेहतर कौन जान सकता है, जिसने प्यार नहीं क्रांति को अंजाम दिया था. उस क्रांति के बाद उसकी ज़िंदगी में क्या कुछ होता है, उसका मर्मस्पर्शी लेखा-जोखा है डॉ संगीता झा की कहानी ‘वह क्रांतिकारी लड़की’.
पांच दिनों पहले ही भाई दूज था और उसी दिन से आयशा उर्फ़ रीता अपने अतीत में खो-सी गई थी. आज तक समझ नहीं आ रहा था कि कौन-सा पलड़ा ज़्यादा भारी था. बचपन के घर, रिश्तों को छोड़ अपने प्यार रेहान को चुना था. तब लगा प्यार ही सब कुछ है और रेहान ना मिला तो वो मर ही जाएगी. आज भी अपनी बेटियों को इतनी बड़ी-बड़ी बातें करती देखती है मसलन,“माई लाइफ़ इज़ माई लाइफ़, नो बडी कैन डिक्टेट देयर टर्म्स टू मी.”
ठीक यही क्रांतिकारी विचार कुछ रीता के भी थे, तभी तो सबके विरोध के बावजूद रीता से आयशा बन गई. ऐसा नहीं था कि रेहान ने उन्हें मजबूर किया था. उन दोनों के पास कोई चारा ही नहीं था सिवाय निकाह करने के. रेहान को रितेश बना नहीं सकती थी, इससे आर्य समाज में शादी नहीं हो सकती थी. कोर्ट मैरिज के लिए एक महीने की नोटिस देनी पड़ती थी. दोनों परिवारों का घोर विरोध, इससे निकाह ही सबसे सरल तरीक़ा था. धीरे-धीरे देश का इतना ध्रुवीकरण होने लगा कि उनके यहां आने वाले दोस्त फ़ैमिली फ़्रेंड भी अब्बास, जावेद, जमील हो गए. वो भी रस्से वाली सब्ज़ी से सालन और कोरमे में आ गई. ये बदलाव इतनी आसानी से हो गया कि इसकी भनक उन्हें ख़ुद ही नहीं पड़ी.
वो रेहान के प्यार में इस कदर खो गई कि और कुछ याद ही ना रहा. मायके वालों के लिए तो वो मर ही गई थी. वो भाई जो बचपन में या तो घर में बगीचे की घास छील या अम्मा-पापा के पैर दबा सालभर की कमाई भाई दूज में अपनी प्यारी बहन रीता के हाथ में रख देते थे, आज रीता की शक्ल से भी उन्हें नफ़रत थी. कभी सोचती कि क्या इतना बड़ा गुनाह किया था क्या? जिसकी इतनी बड़ी सज़ा…
होली, राखी, दिवाली… सारे त्यौहार उनके बचपन को फिर एक मीठी लेकिन थोड़ी दर्द भरी याद के साथ सामने खड़े कर देते थे. सारे त्यौहार कोई ना कोई कहानी लिए रहते थे, मसलन होली में भक्त प्रह्लाद और होलिका, दिवाली में राम का अयोध्या आना और ना जाने कितनी कहानियां जो उन्हें दादी सुनाया करती थीं. यहां तो ना नानी थी ना दादी. क्या मां भी इतनी निष्ठुर हो सकती है?
रीता यानी मैं और मां हमेशा एक साथ चिपके रहते, हर त्यौहार की तैयारी साथ करते. ख़ास कर भाई दूज और राखी जहां दोनों भाई अपना सर्वस्व अपनी प्यारी बहन रीता पर न्योछावर कर देते. क्या मेरा ख़ुद को इतना महत्व देना इतना नागवार गुज़रा कि किसी ने भी पलट कर नहीं देखा. पता नहीं देश को भी कौन-सा घुन खा रहा है. मुझे प्रेम सिखाने वाली सखियों ने भी शुक्लाइन, ठकुराइन बनने के बाद मुझसे अपने संबंध कम से कर लिए हैं. मेरी अपनी देवरानी शबाना ने भी अपनी बेटियों को मेरे घर भेजना कम कर दिया है. जिसका कारण मेरी बेटियों की बेबाक़ी और मेरा सालों पहले उठाया गया क्रांतिकारी क़दम है. मैं बचपन से ही पढ़ाई और एक्स्ट्रा कैरीकुलर एक्टिविटी में काफ़ी अच्छी थी, इससे ना केवल अपनी बल्कि अपनी सहेलियों के बच्चों को भी वादविवाद, भाषण, मोनोप्ले की ट्रेनिंग देती थी. बचपन में सब मौसी-मौसी कह अपने काम कराने आती थीं. ज्यों ही शादी की उम्र पास आई, उनके मेरे घर आने पर मेरी ही सहेलियों ने पाबंदी लगा दी. त्यौहारों पर त्यौहार आते रहते थे, बार-बार दिल पर बचपन और घर दस्तक देते थे. रेहान अपने करियर और काम में इतने मशगूल थे कि उन्हें मेरी तड़प बेगानी लगती थी. हमेशा समझाते,“बी प्रैक्टिकल, ग्रो. आर यू मैड इन चीज़ों के मायने नहीं है. एक रिसर्च पेपर लिखो पब्लिश करो. बेटियों पर ध्यान दो, उनका करियर बहुत ज़रूरी है.’’
इस बार भाई दूज पर बचपन का एक भाई दूज बार-बार याद आया.
मैं गुड्डी शायद पांचवीं कक्षा में थी और दोनों छोटे भाई तीसरी और दूसरी कक्षा में थे. हम तीनों अक्सर कभी हल्दीघाटी तो कभी बक्सर के युद्ध में लिप्त रहते थे. वो एक भाई दूज का दिन था और मैं सुबह से नहा धो कर तैयार बैठी थी. अम्मा ने बताया कि इस दिन बहन भाई की उम्र की कामना करती है. जिस तरह गंगा यमुना जो यमराज की बहनें थीं, उन्होंने अपने भाई यम की उम्र अपनी धारा की तरह बढ़ने की कामना की थी. ठीक उसी तरह हर बहन अपने भाई के हाथ में पान, चांदी का सिक्का, सुपारी रख चंदन और सिन्दूर लगा एक लोटे से पानी डालते हुए कहती है,“जैसे गंगा यमुना यम के हाथ न्योते, हम अपने भाई के हाथ न्योते. जैसे गंगा यमुना की धारा बहे वैसे मेरे भाई की उम्र बढ़े.’’
उसके बाद छोटी-सी पूजा कर भाई की आयु दूज जोड़ी जाती है और भाइयों को गालियां भी दी जाती है. ऐसा माना जाता है कि उस दिन गाली देने से भाई की उम्र भी बढ़ती है. हर साल मैं गालियां दे सारी कसर पूरी कर लेती थी. लेकिन उस दिन सुबह से दोनों भाई ग़ायब थे. मैंने भी उनके हाथ न्योतने के बाद ही कुछ खाने की ठानी थी. अम्मा पूरे घर में अपने बाल गोपाल को ढूंढ़ रही थीं, लेकिन हाथ निराशा ही थी. अम्मा मुझसे बार-बार पूछ रही थीं, कहीं मैंने उनसे लड़ाई तो नहीं की है. मुझे तो याद ही नहीं आ रहा था कि पिछले दो दिनों में हमारा कोई युद्ध हुआ हो. मैं भूखी वहीं उसी ज़मीन पर जो मैंने अपने भाइयों का हाथ न्योतने के लिए लीप पोत कर तैयार की थी, पर ही ढेर हो गई. अम्मा की आंख भी वहीं कुर्सी पर अपने बेटों के इंतज़ार में थक कर मुंद सी गईं. थोड़ी देर बाद अम्मा की आंख पर कुछ ठंडा-ठंडा सा लगने पर उन्होंने आंखें खोली तो पाया उनके दोनों बाल गोपाल मिट्टी और धूल से सने उनके सामने थे. बड़े बेटे बबलू ने उन्हीं मिट्टी सने हाथों से अम्मा की आंखों को पीछे से दबा ली थी. सारी मिट्टी अम्मा के चेहरे और साड़ी पर लग गई. अम्मा थोड़ा ग़ुस्सा कर बोलीं,“ये क्या है? मालूम था ना आज भाई दूज है, बहन सुबह से भूखी बैठी है. कहां ग़ायब थे तुम लोग? और ये गंदगी! मेरी साड़ी गंदी कर दी.”
दोनों बेटे मायूस हो गए और थकान बेचैनी उनके चेहरे से भी झलक रही थी. बबलू ने धीरे से कहा,“अम्मा तुम ना कहती थी कि भाई दूज के दिन भाई अपनी कमाई से उपहार ख़रीद बहन को देते हैं. हमें तो कोई काम नहीं आता. हमने आपके बगीचे की पूरी घास छील दी है. सुबह से हम दोनों भी तो भूखे प्यासे वहीं थे. हमें हमारा मेहताना दे दें, ताकि हम गुड्डी दीदी को कुछ पैसे उपहार स्वरूप दे सकें.’’
अम्मा की आंखों से अश्रुधारा बहने लगी और बिना परवाह कि साड़ी पूरी कीचड़ से सन जाएगी उन्होंने दोनों को बांहों में भर लिया और बड़े देर तक रोती रहीं. अम्मा ने फिर मुझ रीता को झझकोर कर जगाया और वो एक यादगार भाई दूज मनाया. अम्मा को अपने बेटों पर गर्व तो था ही उस दिन तो उनकी छाती और भी चौड़ी हो गई थी. उन्हें अपने भाई से शिकायत थी कि वो उन्हें नहीं पूछता है, क्योंकि उन दिनों ससुराल में लड़की की तभी इज़्ज़त बनी रहती थी, जब मायके वाले हर त्यौहार में ससुराल वालों के लिए तोहफ़े भिजवाया करते थे. उन्होंने दोनों बेटों को पीठ थपथपाते हुए ऐलान किया,“अब मुझे कोई चिंता नहीं है तेरी गुड्डी. मेरे दोनों लाल मेरे जाने के बाद भी तेरा ध्यान रखेंगे.’’
बेचारी कहां जानती थी अपने जिगर के टुकड़े जैसी बेटी से जब वो ही नाता तोड़ बैठी हैं तो फिर बेटे कहां से इस सो कॉल्ड कुलटा बहन जिसने ख़ानदान की इज़्ज़त की धज्जियां उड़ा दी थी से नाता रखते.
समय बीतता गया लेकिन एक परम्परावादी परिवार के सदस्यों ने रीता के इस क्रांतिकारी क़दम को चेहरे पर कालिख पोतने की संज्ञा दी. उसने सहेलियों से सुना था, उसके इस क़दम का ठीकरा भी अम्मा के सर पर ही फोड़ा गया. आता जाता हर नत्थु ख़ैरा अम्मा को ताने देता,“यही संस्कार दिए थे बेटी को! नाक कटा कर चली गई. बच्ची के संस्कार मां से होते हैं.’’
बेचारी…अम्मा जो उन्हें नहीं मिला उन्होंने मुझे देने की कोशिश की. आज़ादी, पढ़ाई और सारे शौक़ पूरे करने की चाहत. उन्हें क्या पता था कि उनकी रीता उनके ही मुंह पर थप्पड़ मार कर चली जाएगी. जब उन्हें पता चला होगा कि उनकी रीता आयशा बन गई है तो शायद वो जीते जी मर गई होंगी. अम्मा तो गुड्डी-गुड्डी करती जल्दी ही परलोक सिधार गईं. मैंने मिलने की कोशिश भी की थी, जब वे बीमार थीं, लेकिन बचपन में दीदी-दीदी करते ना थकने वाले भाइयों ने बाहर से ही लौटा दिया. पापा ने तो शायद मेरा श्राद्ध ही कर दिया होगा. जहां-जहां नारी स्वतंत्रता या औरतों के हक़ की बात होती, मुझे ही चीफ़ गेस्ट कर बुलाया जाता. कॉलेज में लड़कियां मुझे अपना आदर्श मानतीं और मुझ जैसी बनने का प्रण लेतीं, बेचारी…उन्हें क्या पता मैंने क्या-क्या खोया है. अपना बचपन, सारे तीज त्यौहार, सारे नाते रिश्ते, जो मेरे जीवन का अटूट हिस्सा थे. हर त्यौहार के साथ कुछ ना कुछ यादें जुड़ी थीं. अक्षय तृतीया में गुड़िया का ब्याह जिसमें दोनों भाई सर पर गमछे को साफ़े की तरह बांध मेरी बेटी यानी गुड़िया के मामा बनते थे. काश रिश्ते और प्यार का ऐक्शन रीप्ले हो पाता और मैं फिर से गुड्डी बन अपनी वही ज़िंदगी जी पाती.
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