भारत जोड़ो यात्रा में एक शख़्स लगातार महीनों तक सिर्फ़ जोड़ने की बात और काम कर रहा है, महज़ मोहब्बत बिखेर रहा है और हर किसी की मोहब्बत को बांहों में भर रहा है तो यह मानना ही होगा कि यह भारतीय राजनीति में इंसानियत का एक नया दौर है. ख़ासकर तब, जब आपके माथे पर एक पार्टी की नाकामयाबी की तमाम तोहमत धरी हुई है और जब आपके सिर पर पार्टी को उबारने की चुनौती भी रखी गई है, वैसे में पार्टी को पूरी तरह छोड़ कर, महज़ देश को जोड़ कर चलने की यह कोशिश असाधारण है. ‘छत्तीसगढ़’ के संपादक सुनील कुमार का इस यात्रा पर यह विश्लेषण पढ़ें.
राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा ने दो महीने से अधिक का सफ़र तय कर लिया है और वह अब तक आधा दर्जन राज्यों से गुज़र चुकी है. इसके बाद आधा दर्जन से अधिक राज्य और दो महीने से अधिक का वक़्त अभी बाक़ी है. कुल मिलाकर 3570 किलोमीटर पैदल चलकर यह यात्रा कन्याकुमारी से कश्मीर पहुंचेगी और इसे औपचारिक रूप से तो कांग्रेस पार्टी ने शुरू किया है, लेकिन यह मोटेतौर पर साम्प्रदायिकता विरोधी राजनीतिक दलों और ग़ैर-राजनीतिक लोगों की एक मिलीजुली कोशिश हो रही है. कांग्रेस ने इसे देश में कट्टरता और नफ़रत की राजनीति से लड़ने की एक मुहिम बनाया है और मोटेतौर पर यह राहुल गांधी की अकेले की कोशिश की तरह शोहरत पा रही है.
राहुल ने किसी तरह से अपने को कांग्रेस के ऊपर लादने की कोशिश नहीं की है, लेकिन उनके व्यक्तित्व की शोहरत ने कांग्रेस को अपने आप इस यात्रा में पीछे कर दिया है, इस यात्रा के मुखिया ही इस मक़सद के झंडाबरदार की तरह उभरकर सामने आए हैं. दिलचस्प बात यह है कि बहुत से राजनीतिक विश्लेषक इसे कांग्रेस की एक और नासमझी बता रहे हैं, क्योंकि जब हिमाचल और गुज़ररात में चुनाव हैं, तब यह यात्रा उन प्रदेशों से दूर चल रही है और राहुल गांधी इन प्रदेशों में चुनाव प्रचार से अलग भी हैं. वे इस यात्रा में भी कांग्रेस को एक पार्टी की तरह बढ़ावा देने के बजाय, यात्रा के मक़सद पर टिके हुए हैं और शायद यह एक बड़ी वजह है कि इसे शोहरत मिल रही है. ऐसा भी नहीं है कि हिमाचल और गुजरात में दोनों में ही कांग्रेस की संभावनाएं शून्य देखते हुए यह यात्रा और राहुल गांधी, इसके चुनावी इस्तेमाल से दूर हैं. सच तो यह है कि हिमाचल में कांग्रेस भाजपा के मुकाबले टक्कर देते दिख रही है और वहां तो इस यात्रा का कोई चुनावी इस्तेमाल हो सकता था, लेकिन कांग्रेस के भीतर कुछ लोगों की समझदारी अभी बची हुई है जो भारत के जोड़ने के इसके मक़सद को किसी राज्य के चुनावी नफ़े से ऊपर लेकर चल रही है.
राहुल गांधी की रोज़ाना कई तस्वीरें उनके सोशल मीडिया पेज पर सामने आती हैं, और इस यात्रा में उनके साथ चलने वाले बहुत से ग़ैर-कांग्रेसी लोग, ग़ैर-राजनीतिक लोग और दूसरी पार्टियों के लोग भी उन तस्वीरों को आगे बढ़ा रहे हैं. मोटेतौर पर आज यहां लिखने की वजह 65 दिनों से अधिक तक रोजाना ही राहुल की कई तस्वीरों को देखना है. इन तस्वीरों में उनका एक अलग ही व्यक्तित्व उभरकर सामने आया है जो कि राजनीति से परे का है,और राह चलते साथ आने वाले लोगों को सचमुच ही भारत जोड़ो की तरह जोड़ने वाला है. जिस तरह से शहर, गांव, क़स्बों में औरत, बच्चे, लड़कियां, बूढ़े, मज़दूर दौड़-दौड़ कर उनके साथ कुछ दूरी तक पैदल चलने की कोशिश कर रहे हैं, वह देखने लायक़ है.
आज का वक़्त कांग्रेस के लिए बहुत निराशा का दौर है, क्योंकि इस पार्टी ने पिछले कई चुनावों में महज़ खोया ही खोया है. कुछ हफ़्ते पहले तक तो इस पार्टी की जवाबदारी राहुल और उनकी मां पर ही थी. ऐसे निराशा के दौर में देश की आज की नंबर एक की सबसे बुनियादी ज़रूरत को लेकर राहुल गांधी अगर इतने लंबे सफ़र पर निकले हैं तो यह ख़ुद के सामने रखी गई एक अभूतपूर्व और अनोखी चुनौती भी है. जिस तमिलनाडु में राजीव गांधी के हत्यारों को कल सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से जेल से छोड़ा गया है, उसी तमिलनाडु में अपना पिता खोने वाले राहुल गांधी वहां से पैदल चलकर, लगभग बिना किसी हिफ़ाज़त के, जन सैलाब से घिरे हुए निकलकर दूसरे प्रदेशों में पहुंचे हैं, वह देखने लायक़ है. जहां देश के बड़े से लेकर छोटे-छोटे नेताओं तक को अपनी हिफ़ाज़त के इंतज़ाम की दीवानगी रहती है, वहां पर राहुल गांधी जिस बेफ़िक्री से राह चलते लोगों से मिल रहे हैं, उनकी मोहब्बत का जवाब दे रहे हैं, बच्चों से लेकर बड़ों तक को लिपटा रहे हैं, वह बेफ़िक्री और वह इंसानियत देखने लायक़ है. देखने लायक़ इसलिए भी है कि हिन्दुस्तान की राजनीति में यह आमतौर पर देखने नहीं मिलती है. किसी नेता की ज़िंदगी के किसी एक दिन में घंटे भर अगर यह दिख भी जाए, तो भी वह बड़ी बात रहती है, और राहुल महीनों से इसी ज़िंदगी को जी रहे हैं,और देश के सबसे बड़े अभिनेता भी इतने महीनों तक चेहरे पर मासूम मुस्कुराहट लिए हुए, बिना थके हुए, बिना बौखलाए और चिढ़े हुए, बिना नफ़रत बिखेरे हुए नहीं चल सकते.
आज जहां हिन्दुस्तानी राजनीति में लोग एक दिन में कई-कई बार भारत तोड़ने की कोशिश करते हैं, नफ़रत का सैलाब छोड़ने की कोशिश करते हैं, जहां लोगों का दिन नफ़रत की बातों के बिना गुज़रता नहीं है, लोगों को नफ़रत का लावा फैलाए बिना रात नींद नहीं आती, वहां पर एक आदमी (भारतीय राजनीतिक भाषा में नौजवान), लगातार महीनों तक अगर सिर्फ़ जोड़ने की बात और काम कर रहा है, महज़ मोहब्बत बिखरा रहा है और हर किसी की मोहब्बत को बांहों में भर रहा है, तो यह भारतीय राजनीति में इंसानियत का एक नया दौर है. और सोशल मीडिया पर अनगिनत लोग, अमूमन ऐसे लोग जो कि कांग्रेसी नहीं हैं, वे अगर राहुल गांधी पर फ़िदा हो रहे हैं, तो यह छोटी बात नहीं है. आज के दौर में तो लोग नेताओं से नफ़रत बहुत आसानी से कर सकते हैं, मोहब्बत किसी से करने की गुंजाइश नहीं रहती.
राहुल गांधी के ये महीने किसी भी चुनावी पैमानों पर नापने से परे के हैं, वे कांग्रेस के भी एक पार्टी की तरह काम से परे के हैं. यह हिन्दुस्तान के लोगों को इतने क़रीब से, पैदल चलते हुए, उनके हाथ थामे उनसे बातें करते हुए, उनके कांधों पर हाथ रखे उनकी आंखों में झांकते हुए इस मुल्क़ को इतने भीतर से देखने का एक नया सिलसिला है, आज के नेताओं के बीच तो यह अनोखा है ही, हिन्दुस्तान के इतिहास में भी यह अपनी किस्म की एक सबसे लंबी कोशिश है और यह अपने अब तक की शक्ल में एक नया इतिहास गढ़ते दिख रही है. जहां वोट पाने का कोई मक़सद ठीक सामने खड़ा न हो, जहां कोई चुनाव प्रचार न हो, और जहां देश को जोड़ने के लिए मोहब्बत की बातें की जाएं, वह पूरा सिलसिला नफ़रत का सैलाब फैलाने के मुक़ाबले कम नाटकीय तो लगेगा ही, कम सनसनीखेज भी लगेगा, इस पर तालियां भी कम बजेंगीं और वोटरों को उस हद तक रिझाया नहीं जा सकेगा, जिस हद तक नफ़रत उन्हें अपनी तरफ़ खींच सकती है, लेकिन यह देश को जोड़ने की एक कोशिश ज़रूर है. यह ऐसी कोशिश है जिसने प्रशांत भूषण सरीखे उन जागरूक लोगों को भी अपनी तरफ खींचा है, जो कि कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार को गिराने के दौर में एक प्रमुख आंदोलनकारी थे, आज उन्हें भी देश को जोड़ना अधिक ज़रूरी लग रहा है और इसलिए वे कांग्रेस में न रहते हुए भी, कांग्रेस के समर्थक भी नहीं रहते हुए, इस यात्रा में राहुल गांधी के साथ चलते दिखे हैं.
आज हिन्दुस्तान में नफ़रत और हिंसा का गंडासा लेकर लोगों के बीच सद्भाव के टुकड़े-टुकड़े करने की जो कामयाब कोशिश जारी है, उसका यह एक अहिंसक और शांतिपूर्ण जवाब है जो कि गांधी की गौरवशाली परंपरा के मुताबिक़ है. दूसरा गांधी बनना किसी के लिए भी आसान बात नहीं है, लेकिन गांधी की बताई राह पर चलना उतना मुश्क़िल भी नहीं है और राहुल गांधी आज इसी बात को साबित करने में लगे हुए हैं. लोग महज़ इतना याद करके देखें कि क्या उन्होंने हिन्दुस्तान में किसी राजनेता की लगातार महीनों की हज़ारों ऐसी तस्वीरें देखी हैं, जिनमें से एक में भी बदमिज़ाजी नहीं है, नफ़रत नहीं है, हिंसा नहीं है, सिर्फ़ मोहब्बत है. यह आसान नहीं है. ख़ासकर, तब जब आपके माथे पर एक पार्टी की नाकामयाबी की तमाम तोहमत धरी हुई है, और जब आपके सिर पर पार्टी को उबारने की चुनौती भी रखी गई है, वैसे में पार्टी को पूरी तरह छोड़ कर, महज़ देश को जोड़ कर चलने की यह कोशिश असाधारण है.
एक बात यह भी ज़रूर लगती है कि 2014 का चुनाव हारने के बाद राहुल गांधी और उनकी पार्टी ने अगर ऐसी जनयात्रा निकाली होती तो शायद वह पार्टी के डूबते भविष्य को कुछ बचा सकती थी, लेकिन यह बात भी अपनी जगह सही है कि भारत को जोड़ने की ज़रूरत 2014 में शायद उतनी नहीं लग रही थी, जो इन बीते बरसों में अब खड़ी हो चुकी है, और शायद इसीलिए यह यात्रा योगेन्द्र यादव से लेकर दूसरे ग़ैरकांग्रेसी लोगों को अपनी तरफ़ खींच रही है. राहुल गांधी की इस शानदार कोशिश पर कहने के लिए हमारे पास बस दो शब्द हैं-मोहब्बत ज़िंदाबाद!
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