किसी भी भाषा की समृद्धि उसके साहित्य को समृद्ध करती है. पर प्यार करने के लिए भाषा की समृद्धि नहीं भावनाओं की गहराई चाहिए. कुछ अधूरी ध्वनियां और अधमिटे अक्षर भी प्यार की बातें समझा सकते हैं. भाषाओं के खांचे में बंटी दुनिया में प्यार की भाषा की पड़ताल करती है कुंवर नारायण की कविता ‘प्यार की भाषाएं’. प्यार उन भाषाओं में भी समझा और महसूस किया जा सकता है, जिन भाषाओं में शब्द नहीं होते.
मैंने कई भाषाओं में प्यार किया है
पहला प्यार
ममत्व की तुतलाती मातृभाषा में…
कुछ ही वर्ष रही वह जीवन में
दूसरा प्यार
बहन की कोमल छाया में
एक सेनेटोरियम की उदासी तक
फिर नासमझी की भाषा में
एक लौ को पकड़ने की कोशिश में
जला बैठा था अपनी उंगुलियां
एक परदे के दूसरी तरफ़
खिली धूप में खिलता गुलाब
बेचैन शब्द
जिन्हें होंठों पर लाना भी गुनाह था
धीरे धीरे जाना
प्यार की और भी भाषाएं हैं दुनिया में
देशी-विदेशी
और विश्वास किया कि प्यार की भाषा
सब जगह एक ही है
लेकिन जल्दी ही जाना
कि वर्जनाओं की भाषा भी एक ही है
एक-से घरों में रहते हैं
तरह-तरह के लोग
जिनसे बनते हैं
दूरियों के भूगोल…
अगला प्यार
भूली बिसरी यादों की
ऐसी भाषा में जिसमें शब्द नहीं होते
केवल कुछ अधमिटे अक्षर
कुछ अस्फुट ध्वनियां भर बचती हैं
जिन्हें किसी तरह जोड़कर
हम बनाते हैं
प्यार की भाषा
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