• होम पेज
  • टीम अफ़लातून
No Result
View All Result
डोनेट
ओए अफ़लातून
  • सुर्ख़ियों में
    • ख़बरें
    • चेहरे
    • नज़रिया
  • हेल्थ
    • डायट
    • फ़िटनेस
    • मेंटल हेल्थ
  • रिलेशनशिप
    • पैरेंटिंग
    • प्यार-परिवार
    • एक्सपर्ट सलाह
  • बुक क्लब
    • क्लासिक कहानियां
    • नई कहानियां
    • कविताएं
    • समीक्षा
  • लाइफ़स्टाइल
    • करियर-मनी
    • ट्रैवल
    • होम डेकोर-अप्लाएंसेस
    • धर्म
  • ज़ायका
    • रेसिपी
    • फ़ूड प्लस
    • न्यूज़-रिव्यूज़
  • ओए हीरो
    • मुलाक़ात
    • शख़्सियत
    • मेरी डायरी
  • ब्यूटी
    • हेयर-स्किन
    • मेकअप मंत्र
    • ब्यूटी न्यूज़
  • फ़ैशन
    • न्यू ट्रेंड्स
    • स्टाइल टिप्स
    • फ़ैशन न्यूज़
  • ओए एंटरटेन्मेंट
    • न्यूज़
    • रिव्यूज़
    • इंटरव्यूज़
    • फ़ीचर
  • वीडियो-पॉडकास्ट
  • लेखक
ओए अफ़लातून
Home बुक क्लब नई कहानियां

हमदम: डॉ संगीता झा की कहानी

डॉ संगीता झा by डॉ संगीता झा
February 10, 2023
in नई कहानियां, बुक क्लब
A A
Humdum_story-by_Dr-Sangeeta-Jha
Share on FacebookShare on Twitter

मालकिन दीपा और सचहचरी सहायिका मीरा की बोरियत से भरती जा रही ज़िंदगी में तब रोमांचक आश्चर्य की एंट्री होती है, जब उनके बगल वाले बंगले में चार महिलाएं रहने आती हैं. हर दिन के साथ उन महिलाओं से जुड़ा कोई न कोई राज़ बेपर्दा होता है और दीपा-मीरा का उनकी ओर आकर्षण बढ़ता जाता है. पढ़ें, सकारात्मकता से भरी यह प्यारी-सी कहानी.

“अरे मी ऊपर छत पर जाओ और जो भी सामान धूप में रखा है, ले आओ.”
ये थी मेरी हेल्पर सुख दुःख की साथी मीरा जो बरसों से साथ थी. मेरा घर उसका घर था और हमारे बीच सब कुछ साझा था. हम दोनों की एक ही दुनिया थी. जहां मेरे दोनों बेटे अमेरिका में जा बसे थे, वहीं उसकी दुनिया अंधेरी थी यानी दुनिया की नज़रों में वो बांझ थी. उसके शराबी पति ने दूसरी शादी कर उसे छोड़ दिया था. मेरे बच्चों की नज़र में मैं एक ज़िद्दी मां थी जो अमेरिका में बसना नहीं चाहती थी और बच्चों की ख़ुशी से ज़्यादा मुझे अपनी ख़ुशियां प्यारी थीं. पता नहीं क्यों मुझे मेरे शहर की ये तंग गलियां और गॉसिप करते लोग ही बड़े भाते थे. हम दोनों की ज़िंदगी लगभग एक-सी थी केवल वर्ग का फ़र्क़ था जो मेरी ज़िन्दगी में उसकी ज़रूरत ने पूरी तरह से मिटा दिया था. हम दोनों यानी मैं और मी दिवाली की सफ़ाई कर रहे थे साथ ही अपने दिमाग़ के जाले भी साफ़ कर रहे थे, जो लगभग नामुमक़िन सा था. घर की पुरानी चीज़ें या तो फेंक रहे थे या उन्हें झाड़ कर छत पर धूप दिखा रहे थे. मेरे चिल्लाने पर मी ऊपर तो गई पर नीचे आने का नाम ही नहीं ले रही थी. मैं भी मन ही मन सोच रही थी कि ऐसा क्या हो गया जो ये मैडम ऊपर अटकी तो पूरी तरह जा अटकी… थोड़ी देर बाद वो दौड़ी-दौड़ी नीचे आई और मुझसे कहने लगी,“दी बाजू वाले बंगले में कोई आए हैं. बड़ा सामान उतर रहा है ट्रक से.’’ इतना कह वह फिर दौड़ कर ऊपर चली गई.
वो मुझे दी कह पुकारती है इसके दो मायने हैं एक दो मेरे नाम दीपा का पहला अक्षर और दूसरा दीदी का पहला अक्षर. हम अपनी ज़िन्दगी इस छोटे-से शहर में भी अपनी तरह जीते हैं.
हम दोनों के गुज़ारे लायक़ मेरे पास पैसा था और अमेरिका में डॉलर के धनी बेटे भी थे. क्या फ़र्क़ पड़ता था कि मैं मालकिन और वो नौकरानी, या कहिए वो तो अब मेरी लाइफ़ लाइन बन चुकी थी. दोनों मिलकर खाना बनाते, खाते, गाना गाते, नाचते और घर पर ही
ओटीटी पर सारे सिरीज़ और मूवी देखते. पढ़ने की और अपने को ज़माने की दौड़ में बराबर करने की कोई उमर नहीं होती. ये सब मैंने मीरा को देखकर जाना. जिसे ठीक से हिंदी बोलना भी नहीं आता था, अब मेरे साथ बैठ ना केवल काइट रनर नॉवेल पर अपनी टिप्पणी देती है, बल्कि धड़ल्ले से अंग्रेज़ी में गालियां भी देने लगी थी. प्री दिवाली पीरियड चल रहा था, इससे हम दोनों कभी सामान जमाने तो कभी पुराने सामान को छत पर सुखाने में व्यस्त थे. समय बहुत कम था और ये मैडम छत पर ही जा कर अटक गई थीं. ऐसे समय में मेरे अंदर की मालकिन जाग जाती थी और मुझे लगता कि ये मेरी बात सुन ही नहीं रही है. काम की व्यस्तता इतनी थी कि मुझे बगल में क्या हो रहा है इसमें भी कोई दिलचस्पी नहीं थी और ये मैडम अपना पागलपन छोड़ ही नहीं रही थीं. ख़ैर उम्र का अंतर भी था, मैं साठ और वो चालीस. जब बड़े देर तक वो नीचे नहीं आई तो मैं ही ऊपर पहुंच गई. बरसों से बंद पड़ी बाजू वाली हवेली के बाहर पांच ट्रक खड़े थे और चार मैडम सामान उतरवा रही थीं. सभी बड़ी मॉडर्न सी थीं. एक को छोड़ तीनों ने पैंट शर्ट पहन रखी थी. उस अकेली ने फ़्रॉक पहन रखी थी. सबकी भवे तराशी हुई, आंखों में आइ मेकअप और होंठों पर लाली थी. उम्र सबकी चालीस से साठ के बीच थी. साथ में कोई मर्द नहीं दिखा. मैंने मी यानी मीरा को ज़ोर से चिमटा और कहा,“चलो नीचे मी मैडम, पूरा दिन पड़ा है आपकी जासूसी के लिए. क्यों परेशान कर रही हो ख़ुद को? पांच ट्रक में सामान है तो जल्दी तो जाएंगी नहीं. बहुत समय मिलेगा जासूसी के लिए. उनके ख़ानदान, पूर्वज और हर तिलस्मी रहस्य से तुम पर्दा उठाने में क़ामयाब हो जाओगी. अभी तो बहुत काम पड़े हैं मी साथ चलो.’’
उस दिन की हमारी तहक़ीक़ात तो वहीं ख़त्म हो गई, लेकिन पूरे समय सामान खिसकाने और ठोकने की आवाज़ें आती रहीं. अच्छे पड़ोसी की भूमिका निभाते हुए ड्राइवर राजेश के हाथों पूरी सब्ज़ी और साफ़ पानी भिजवाया. दो बार गरम गरम चाय और बिस्कुट भी भिजवाया. मी तो वहां ख़ुद जाने के लिए मचल रही थी, लेकिन मैंने ही उसे रोक लिया, घर पर इतना काम जो था. ड्राइवर मी को बता रहा था कि वहां कोई पुरुष था ही नहीं, वही चारों मिलकर सामान सरका रही थीं और दीवार में कीलें भी ठोंक रहीं थीं. मी ने उसकी चुटकी भी ली,“तुम्हीं बन जाते उनके मर्द! करवा देते मदद.’’
राजेश ने कहा,“अरे देखा नहीं है ना तुमने! इसी से ऐसा कह रही हो. बाप रे चारों की चारों इतनी हट्टी कट्टी हैं मेरे जैसे चार को एक साथ पटक दें. नहीं तो जाओ आज़मा के देख लो.’’
मैं तो कुछ घर के कामों में तो कुछ बेटों से वीडियो कॉल में इतनी व्यस्त थी कि सिर्फ़ इन दोनों की बातें ही सुन रही थी. लेकिन उनके घर से काफ़ी आवाज़ें आती रहती थीं. क़रीब पांच दिन तक तो ट्रक ही आते रहे. मेरी पूरी सफ़ाई धनतेरस के एक दिन पहले ही ख़त्म हुई. धन तेरस की शाम जब छत पर पहुंची तो पाया कि बाजू वाली मनहूस कोठी पूरी तरह से जगमग कर रही थी और ख़ूब गाना बजाना चल रहा था. मेरे पास समय कम था इससे ज़्यादा पता लगाने का ना समय था ना जिज्ञासा. सोचा दिवाली के बाद सारी तहक़ीक़ात करूंगी. दिवाली में भी ख़ूब फ़टाकों का शोर बग़ल से आता रहा. ड्राइवर और मी ने भी उनके घर जा दिवाली मनाई. मैं ही सकुचाती रही. भले मीरा और राजेश को घर के ही सदस्य के रूप में रखा था, लेकिन हमारा रिश्ता घर तक ही सीमित था. बाहर तो मैं उनके साथ मालकिन ही थी, लोकलाज भी कोई चीज़ होती है. उनके साथ दौड़-दौड़ कर तो मैं अपनी जिज्ञासा शांत नहीं कर सकती थी. दिवाली बीत गई पर मेरे काम ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे. रोज़ मी और राजेश नई-नई ख़बर देते थे जो पड़ोसी घर की ही रहती थी. कहां सालों की मनहूसियत और अब चौबीस घंटे की चहल पहल. त्यौहार सारे बीत गए और दिसंबर का महीना भी आ गया. अब मुझे भी थोड़ी बोरियत होने लगी थी. सोचा थोड़ा पड़ोस में जान पहचान बढ़ाई जाए.
एक दिन मुझे सारी रात जागना पड़ा, पड़ोस से हथौड़े की आवाज़ जो आ रही थी. सोचा सुबह होते ही विनती करूंगी कि रात को इस तरह के काम ना करें.
मैं पहुंचती इसके पहले ही चार देवियां मेरे द्वार पर हाज़िर थीं और ढेर सारे सामान के साथ, जिसमें मेरा सारा बचपन समाया हुआ था. उनके साथ था नसीम. चाची के हाथ से बने जैसा अंडे का हलवा, अम्मा की सुगंध वाली गुझिया और मेरे बचपन की दोस्त एंड्रिया के यहां बनने वाले छोटे-छोटे पैनकेक, साथ ही गुरुद्वारे में बंटने वाला वाहेगुरु का प्रसाद. मैं कुछ बोल पाती उसके पहले चारों ने हाथ जोड़ कर कहा,“दी हम शर्मिंदा हैं कल रात के लिए ,आप तो जानती हैं कि प्लम्बर मिलना कितना मुश्क़िल है. बड़ी मुश्क़िल से कल रात सारे नल ठीक करवाए. सॉरी आपको पहले बताना भूल गए थे. ये घर शायद सालों बंद था इससे बहुत सारा इलेक्ट्रिकल और प्लंबिंग वर्क करवाना पड़ा सॉरी सॉरी.”
उनकी बातों में इतना अपनापन था कि मैं रात की तक़लीफ़ लगभग भूल गई. थोड़ी-सी जो जानकारी मिली कि वे चार सहेलियां हरमीत, उमा, उज्मा और मेरी एक साथ रहती हैं और उनका एक एनजीओ है जिसका नाम उन्होंने ख़ुद के नाम पर हम यानी एचयूयूएम रखा है. हरमीत उनकी लीडर है और ये लोग अंडर प्रिविलेज़्ड औरतों के लिए सब कुछ करते हैं यानी एजुकेशन, पारिवारिक अत्याचार से मुक्ति और एम्प्लॉयमेंट सारा कुछ करती हैं. अपने काम उसके रिज़ल्ट से सारी बड़ी ख़ुश हैं. उनके पास पांच सौ से भी ज़्यादा औरतें काम करती थीं. ठीक बांग्लादेश के बैंक की प्रयोग की तरह हर स्त्री की इस एनजीओ में भागीदारी थी. वहां पढ़ने आनेवाली स्त्रियां ही बाद में वहां टीचर बन जातीं, सिलाई सीखने वाली बाद में ट्रेनर. कुल मिलाकर ज़्यादा मुनाफ़ा नहीं, क़रीब-क़रीब तीन सौ परिवार इन चारों पर निर्भर थे.
उन चारों की अलग-अलग दास्तान थी जिसकी वजह से ये आपस में जुड़े. सभी ने परिस्थितियों के आगे घुटने टेकने से ज़्यादा लड़ कर आगे बढ़ने का रास्ता अपनाया.
हरमीत एक अच्छे परिवार से थी, उसने दिल्ली विश्वविद्यालय से इकोनॉमिक्स में बीए किया. पोस्ट ग्रैजुएशन के दौरान वो एक ज़ागीरदार परिवार के लड़के गुलशन से मिली, जो हरियाणा का जाट था. कॉफ़ी हाउस, बड़े-बड़े डिस्कशन और घंटों हाथ पकड़ कॉलेज की कैंटीन में बैठने के बाद कब वो उसकी दुम हिलाने वाली पप्पी बन गई उसे ख़ुद ही पता नहीं चला. घरवालों का विरोध देख दोनों ने ख़ुद ही दोस्तों के साथ आर्य समाज में साथ जीने मरने की क़समें खा लीं. तब हरमीत पोस्ट ग्रैजुएशन छोड़ एक प्राइवेट कॉलेज में इकोनॉमिक्स की ट्यूटर बन गई और बड़े घर का लड़का गुलशन पहाड़गंज की बरसाती में फ्रस्ट्रेटेड यूथ. आपस में इतने झगड़े होने लगे कि गुलशन उसे छोड़ अपनी बड़ी हवेली में चला गया. ना उसने हरमीत की कभी ख़बर ली और हरमीत के आत्मसम्मान ने कभी उन्हें गुलशन के पास जाने दिया. उनके अन्दर की इस चोट ने उन्हें ज़िंदगी में कुछ कर गुजरने के लिए प्रेरित किया जिसका रिज़ल्ट हरमीत, उमा, उज्मा और मेरी का साथ था.
उमा भी क़रीब-क़रीब उसकी ही तरह सास और पति के ज़ुल्मों का शिकार एक बेबस स्त्री थी. एक दिन उन जुल्मों से तंग हो घर छोड़ निकल गई और वो तो उमा की क़िस्मत थी कि वो उसी दिन हरमीत से मिली तो जीवन की राह ही बदल गई.
उनमें जो तीसरे नम्बर की उज्मा, उसे देख कर कुछ याद सा आ गया. हमारे ही मोहल्ले में क़रीब बीस साल पहले एक मुसलमान परिवार रहा करता था, जिसके मुखिया थे मोहम्मद करिमुल्ला ख़ान. उन्हें सब ख़ान चाचा के नाम से पुकारा करते थे. ख़ान चाचा की तीसरे नंबर की बेटी उनकी शान थी उज्मा ख़ान, जो स्कूल में खेल कूद में अव्वल नंबर थी. बाद में पता चला कि ख़ान चाचा ने अपनी लाड़ली बेटी का रिश्तेदारों के बहकावे में आकर एक अमीर अधेड़ से निकाह पढ़वा दिया. शादी के दूसरे दिन ही अपने जूडो कराटे का कमाल दिखा उज्मा पति का घर छोड़ आई. लोगों के तानों से बचने के लिए ख़ान चाचा अपना ख़ुद का घर आनन फ़ानन में बेच कहीं चले गए. उस घटना के दो साल बाद हमारे ही कालोनी में एक हाई एंड मसाज पार्लर खुला, जिसकी मालकिन इंगलिश में बातें करती थी. पूरे मोहल्ले में उस पार्लर की चर्चा थी. मैं और मी भी वहां मसाज कराने गए. ये उन दिनों की बात थी जब सौ रुपए में ही अच्छी से अच्छी मसाज वाली घर पर अच्छी मालिश कर चली जाती थी. वहां हज़ार रुपये सुन मी तो चिल्लाने लगी. वहां प्यारी सी सर पर हेड फ़ोन लगाए उज्मा को मालकिन के रूप में देख बड़ा अच्छा लगा. मुझे देख बड़ी ख़ुश हुई,“वेलकम भाभी! कैसी हैं?”
मैंने पूछा,“तुम कैसी हो?”
वो ठहाके मार कर हंसने लगी,“कैसी दिख रहीं हूं? बहुत ख़ुश हूं बिलकुल ख़ुश अपनी मर्ज़ी की मालकिन.’’
मुझ पर फिर से उसने नज़र डाली और एक विषाद की रेखा उसके माथे पर उभरी और धीमी आवाज़ में उसने कहा,“आप भी असमंजस में होंगी कि मैं और मसाज पार्लर! लेकिन शायद एक उभरती प्रतिभाशाली एथलीट का हमारे देश में ऐसे ही मर्डर होता है. मैं अपनी क़िस्मत को ही दोष देती हूं. वो अब्बा ही थे जो मुझे मेरे पैशन को जीने के लिए प्रेरित करते थे. मेरे हर मुक़ाबले में मेरे साथ रहते थे. एक बार खेल के मैदान में मुक़ाबले के बाद मुझे एक लड़के के साथ कोल्ड ड्रिंक पीते क्या देख लिया, ख़ुद के अंदर एक ज़ालिम बाप पैदा कर लिया. मैं लाख सफ़ाई देती रही लेकिन उनके अंदर का प्यारा बाप तो मर चुका था. तीसरे ही दिन मेरा निकाह उनके ही हमउम्र के साथ पढ़वा दिया. निकाह के दूसरे दिन मैंने अपने जूडो कराटे वाले दांव जो अब्बू ने ही सिखाए थे आज़मा उस घर से हमेशा के लिए विदा ले ली. अपने उसी दोस्त की मदद से ये पार्लर खोला और अपने स्कूल में लड़कियों को खेल भी सिखाती हूं.’’
मैं उसकी बातें सुनती जा रही थी और मन ही मन उसके हौसले की दाद भी दे रही थी. उसने बताया उसके पार्लर में काम करने वाली सारी लड़कियां ठीक उसकी तरह क़िस्मत की मारी हुईं हैं, जिसे वो आर्थिक मदद के अलावा ज़िंदगी से लड़ने का हौसला भी देती है. थोड़े दिनों बाद पता चला कि उसके सो कॉल्ड पति पॉलिटिकली स्ट्रॉन्ग बैकग्राउंड रखते थे. उन्होंने गुंडे भिजवा कर वो पार्लर ही बंद करवा दिया. आज सालों बाद उज्मा यहां दिखी. ना उसने ना मैंने अपनी पुरानी पहचान का ज़िक्र किया, दोनों ने ही चुप्पी साध ली.
इसी तरह मेरी भी अपने पति की एडल्ट्री का शिकार थी. कुल मिला कर चारों सहेलियां अपने आसपास कुछ बदलाव लाना चाहती थीं. अपनी अपनी धार्मिक पहचान उन्होंने बाक़ी रखी थी, जिसका सबूत दिवाली, क्रिसमस, संक्रांति और मिलाद उन्नवी का उनके घर सेलिब्रेशन था. चारों अपने-अपने ईश्वर पर बड़ी आस्था रखते थे.
उसके बाद मेरा और मी का वहां आना-जाना लगा रहता. मुझे भी अपने हुनर यानी कुकिंग के कुछ टिप्स वहां आने वाली महिलाओं को सिखा कर बहुत आनंद आता था. कभी वहां हम सब मिल डांस, तो कभी अन्ताक्षरी खेलते. मेरी और मी की ज़िंदगी पूरी तरह से बदल गई थी. मैं स्कूल में बैडमिंटन चैंपियन थी, जो लगभग भूल ही गई थी. मैंने जहां छोटी लड़कियों को बैडमिंटन खिलाना शुरू किया. वहीं मी कबड्डी सिखा रही थी. बच्चे जब भी कॉल करते, मैं या तो थक के चूर रहती या बिज़ी. तभी मैंने एक निर्णय लिया कि मेरे घर और पैसों की बच्चों को कोई ज़रूरत नहीं है और ना ही वो लोग इंडिया वापस आने वाले हैं, तो क्यों ना अपने जीवन को सार्थक बनाया जाए. मैंने हम ग्रुप के साथ ख़ुद और मीरा को भी जोड़ने का प्रस्ताव रखा जो उन्होंने ख़ुशी-ख़ुशी मान लिया और वो ग्रुप एचयूयूएम यानी हम से दीपा और मीरा के जुड़ जाने से ‘हमदम’ बन गया. यहां द यानी दीपा का द था और आख़िरी म यानी मीरा का. दोनों घरों के बीच की दीवार तोड़ एक बड़ा सा आशियाना बना दिया गया और बाहर बड़ा सा एक बोर्ड ‘हमदम’ का लगा दिया.

Illustration: Pinterest

इन्हें भीपढ़ें

फटी एड़ियों वाली स्त्री का सौंदर्य: अरुण चन्द्र रॉय की कविता

फटी एड़ियों वाली स्त्री का सौंदर्य: अरुण चन्द्र रॉय की कविता

January 1, 2025
democratic-king

कहावत में छुपी आज के लोकतंत्र की कहानी

October 14, 2024
त्रास: दुर्घटना के बाद का त्रास (लेखक: भीष्म साहनी)

त्रास: दुर्घटना के बाद का त्रास (लेखक: भीष्म साहनी)

October 2, 2024
पढ़ना-लिखना सीखो ओ मेहनत करने वालों: सफ़दर हाशमी की कविता

पढ़ना-लिखना सीखो ओ मेहनत करने वालों: सफ़दर हाशमी की कविता

September 24, 2024
Tags: Dr Sangeeta JhaDr Sangeeta Jha ki kahaniDr Sangeeta Jha ki kahani HumdumDr Sangeeta Jha storiesHindi KahaniHindi StoryHindi writersHumdumKahaniNai Kahaniकहानीडॉ संगीता झाडॉ संगीता झा की कहानियांडॉ संगीता झा की कहानीडॉ संगीता झा की कहानी हमदमनई कहानीहमदमहिंदी कहानीहिंदी के लेखकहिंदी स्टोरी
डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा हिंदी साहित्य में एक नया नाम हैं. पेशे से एंडोक्राइन सर्जन की तीन पुस्तकें रिले रेस, मिट्टी की गुल्लक और लम्हे प्रकाशित हो चुकी हैं. रायपुर में जन्मी, पली-पढ़ी डॉ संगीता लगभग तीन दशक से हैदराबाद की जानीमानी कंसल्टेंट एंडोक्राइन सर्जन हैं. संपर्क: 98480 27414/ [email protected]

Related Posts

ग्लैमर, नशे और भटकाव की युवा दास्तां है ज़ायरा
बुक क्लब

ग्लैमर, नशे और भटकाव की युवा दास्तां है ज़ायरा

September 9, 2024
लोकतंत्र की एक सुबह: कमल जीत चौधरी की कविता
कविताएं

लोकतंत्र की एक सुबह: कमल जीत चौधरी की कविता

August 14, 2024
बहुत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले: भवानी प्रसाद मिश्र की कविता
कविताएं

बहुत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले: भवानी प्रसाद मिश्र की कविता

August 12, 2024
Facebook Twitter Instagram Youtube
Oye Aflatoon Logo

हर वह शख़्स फिर चाहे वह महिला हो या पुरुष ‘अफ़लातून’ ही है, जो जीवन को अपने शर्तों पर जीने का ख़्वाब देखता है, उसे पूरा करने का जज़्बा रखता है और इसके लिए प्रयास करता है. जीवन की शर्तें आपकी और उन शर्तों पर चलने का हुनर सिखाने वालों की कहानियां ओए अफ़लातून की. जीवन के अलग-अलग पहलुओं पर, लाइफ़स्टाइल पर हमारी स्टोरीज़ आपको नया नज़रिया और उम्मीद तब तक देती रहेंगी, जब तक कि आप अपने जीवन के ‘अफ़लातून’ न बन जाएं.

संपर्क

ईमेल: [email protected]
फ़ोन: +91 9967974469
+91 9967638520
  • About
  • Privacy Policy
  • Terms

© 2022 Oyeaflatoon - Managed & Powered by Zwantum.

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

No Result
View All Result
  • सुर्ख़ियों में
    • ख़बरें
    • चेहरे
    • नज़रिया
  • हेल्थ
    • डायट
    • फ़िटनेस
    • मेंटल हेल्थ
  • रिलेशनशिप
    • पैरेंटिंग
    • प्यार-परिवार
    • एक्सपर्ट सलाह
  • बुक क्लब
    • क्लासिक कहानियां
    • नई कहानियां
    • कविताएं
    • समीक्षा
  • लाइफ़स्टाइल
    • करियर-मनी
    • ट्रैवल
    • होम डेकोर-अप्लाएंसेस
    • धर्म
  • ज़ायका
    • रेसिपी
    • फ़ूड प्लस
    • न्यूज़-रिव्यूज़
  • ओए हीरो
    • मुलाक़ात
    • शख़्सियत
    • मेरी डायरी
  • ब्यूटी
    • हेयर-स्किन
    • मेकअप मंत्र
    • ब्यूटी न्यूज़
  • फ़ैशन
    • न्यू ट्रेंड्स
    • स्टाइल टिप्स
    • फ़ैशन न्यूज़
  • ओए एंटरटेन्मेंट
    • न्यूज़
    • रिव्यूज़
    • इंटरव्यूज़
    • फ़ीचर
  • वीडियो-पॉडकास्ट
  • लेखक

© 2022 Oyeaflatoon - Managed & Powered by Zwantum.