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आपकी तारीफ़? (व्यंग्यात्मक कहानी: अनूप मणि त्रिपाठी)

मुगालता काल के हौवा से मिलिए, हां! आईना साथ रखिएगा

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
April 12, 2023
in नई कहानियां, बुक क्लब
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आपकी तारीफ़? (व्यंग्यात्मक कहानी: अनूप मणि त्रिपाठी)
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वो हौवा, जिसे अब तक अपनी सूरत भी नहीं मिली है; जो हर उस व्यक्ति की सूरत में ढल जाता है, जो उसके सपोर्ट में है; जो बिना बोले भी हर भाषा बोल सकता है, क्या आप ऐसे हौवा से मिले हैं? अब जबकि हम-आप मुगालता काल में जी रहे हैं एक बार उस हौवा से मिलने के लिए आईना ज़रूर देख लीजिएगा, बाल बनाने वाला, दर्पण भी कहलाने वाला आईना नहीं, दिल में मौजूद आईना! क्यों? वो तो आप अनूप मणि त्रिपाठी की इस व्यंग्यात्मक कहानी को पढ़ कर समझ ही जाएंगे.

‘कौन हो तुम!’ होश में आते ही मैं पूछता हूं.
‘हौवा!’
‘हौवा!!!’
‘जी सिरिमान हौवा!’ वह कहता है.
‘तुम्हारा चेहरा क्यों नहीं दीख रहा!’ मैं अपनी आंखें मलता हूं.
‘क्योंकि अभी मुझे अपनी सूरत नहीं मिली है सिरिमान!’
‘फिर भी तुम बोल रहे हो!’ मैं खुद को टटोलता हूं.
‘बोल सकता हूं… लेकिन मुझे बोलने की ज़रूरत नहीं पड़ती!!!’
‘क्या बक रहे हो!’ मुझे ग़ुस्सा आता है.
‘मेरे बारे में लोग बात करते हैं. मेरे जन्म के बाद मैं एक शब्द भी नहीं बोलता सिरिमान.’
‘तो अभी तुम्हारा जन्म नहीं हुआ है मिस्टर!’ मैं शांत होने की कोशिश करता हूं.
‘हां, तभी मैं चेहेरा विहीन हूं!’
‘या तो तुम पागल हो या मैं हो गया हूं!’
‘अभी रुकिए सिरिमान! कई पागल होने वाले हैं!’
‘जी सिरिमान जी!’ मैं व्यंग्य में बोलता हूं.

‘बाज़ार में बस मुझे खड़े होने की देर है!’ वह इतरा कर कहता है.
‘फिर किस बात की देर है?’ मैं उसे चुनौती देता हूं.
‘यही तो कमाल है, मैं ख़ुद खड़ा नहीं हो सकता!’
‘पर अभी तो हो! बेवकूफ़!’ मैं चीख़ता हूं.
‘मुझे खड़ा किया जाता है सिरिमान!’
‘जैसे बिजूका’
‘बिलकुल सिरिमान!’
‘मगर चिड़िया से तुम्हारा क्या कनेक्शन है?’
‘है, पर यहां मैटर दूसरा है सिरिमान!’
‘मुझे सिरिमान मत कहो!’ मैं चिढ़ जाता हूं.
‘तो वोटर कहूं सिरिमान!’ वह हंसता है.
‘मुझे नागरिक कहो!’
‘यू मीन सिटिज़न!’ वह अंग्रेज़ी झाड़ता है.
‘तुम्हें इंग्लिश आती है?’
‘मैं दुनिया की हर भाषा जानता हूं सिरी…!’ वह सिरिमान कहते-कहते रुक जाता है.
‘तुम बस यह बताओ कि मैटर क्या है!’ मैं उसे उसके मैटर की याद दिलाता हूं.
‘मैटर को छोड़ो, फ़ैक्ट बताता हूं!’
‘तो बताओ न!’ मैं अधीर होकर कहता हूं.
‘मुझे इसलिए खड़ा किया जाता है, ताकि चिड़िया खेत होती रहे!’ वह बताता है.
‘मतलब!’
‘वोट की फसल ऐसे ही कटती और काटी जाती है नागरिक बाबू!’
यह सुनकर मैं सहम जाता हूं. मैं वहां से निकलने की सोचता हूं.
‘तुम रहते कहां हो!’ मैं पूछता हूं.
‘ठंडे बस्ते में!’ वह जवाब देता है.
‘अभी मैं कहां हूं!’
‘ठंडे बस्ते में!’
‘मगर मुझे गर्मी क्यों लग रही!’
‘ये तो कुछ भी नहीं! बाहर देखना अभी! चलो साथ में निकलते हैं!’ वह आगे कहता है.
‘ऐसे, बिना शक्ल के?’ उसे मैं याद दिलाता हूं.
‘बाहर तो चलो! मेरी शक्ल ख़ुद-ब-ख़ुद दिख जाएगी!’
यह कहते हुए वह मेरी आंख पर पट्टी बांध देता है.
वह मुझे अपने साथ लेकर बाहर निकलता है. देखते ही देखते माहौल गरम हो जाता है. वह चुप है. बिलकुल चुप. मगर लोग बातें कर रहे हैं. और मैं उन्हें चुपचाप सुन रहा हूं.
‘हमें इतिहास ग़लत पढ़ाया गया है!’
‘अब हम इतिहास बदल देंगे!’
‘हमारे देश में हमें ही इतिहास में ग़लत दिखाया गया है!’
‘इतिहास में उनका ही महिमामंडन है!’
‘ऐसा ही चलता रहा तो बहुसंख्यक अल्पसंख्यक हो जाएंगे!’
‘क्या, चल क्या रहा है?’ मैं उससे पूछता हूं
‘मुगालता काल!’ वह जवाब देता है.
‘ये सब तुम्हारी वजह से हो रहा! तुम्हारी वजह से लोग लड़ रहे हैं!’ मैं ग़ुस्से से कहता हूं.
‘सो तो है!’ वह दो टूक कहता है.
‘अब तुम अपनी आंखों से पट्टी उतार सकते हो!’ वह शांत स्वर में कहता है.

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मैं पट्टी उतार देता हूं और उसका चेहेरा देखने की कोशिश करता हूं.
‘क्या मज़ाक है? तुम तो वैसे के वैसे ही हो!’
वह खिलखिलाकर हंसता है और कहता है, ‘वैसे भी बात चेहरे की नहीं है, समझ की है. कल को मेरा चेहेरा दूसरा भी हो सकता है!’
‘झूठा! मक्कार!’ मैं उसका असली रूप बताता हूं.
‘मेरी सूरत की तरह से मेरी जगह भी बदलती रहती है!’ वह मुझे अनसुना करते हुए कहता है.
अचानक वह गंभीर हो जाता है. कहता है,’आज यहां खड़ा हूं, कल अख़बार में खड़ा कर दिया जाऊंगा तो परसों टीवी के स्टूडियो में! बैनर से कब किताब में प्रवेश कर जाऊं और किताब से कब पर्चे में बदल जाऊं… यह मैं ख़ुद भी नहीं जानता!!’
‘घिनौना!’ मैं उसे लानत भेजता हूं.
‘वो तो मैं हूं!’ वह मुस्कुराता है.
‘अपना चेहेरा क्यों नहीं दिखाता बे!’ मैं बौखलाकर कहता हूं.
‘जो मेरे सपोर्ट में हैं, उसे ही मेरा चेहेरा समझ लो!’
‘बकवास नहीं! सच सच बोल!’
‘जो लोग मिलकर मुझे खड़ा करते हैं, तुम चाहो तो उनका चेहेरा समझ लो मुझे!’ उसने दूसरी तजवीज़ पेश कर दी.
‘तो क्या इनका चेहरा समझ लूं तुम्हें?’ मैं ग़ुस्से से एक होर्डिंग की ओर इशारा करता हूं, जिसमें एक व्यापारी, एक नेता, एक उपदेशक और एक विदेशी मेहमान हाथ उठाए हुए खड़े हैं.
यह कहकर मैं उसके उत्तर की प्रतीक्षा करता हूं.
मगर यह क्या?
मेरे देखते ही देखते वह उस होर्डिंग में समा जाता है. मेरे चेहरे की हवाइयां उड़ने लगतीं हैं. मैं होर्डिंग में उसे को बुरी तरह से खोजने लगता हूं, मगर मुझे होर्डिंग में हौवा की जगह व्यापारी, नेता, उपदेशक और विदेशी मेहमान ही दीखते हैं!

फ़ोटो: फ्रीपिक
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