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Home ज़रूर पढ़ें

लोकतंत्र को बचाने के लिए अब नागरिकों को निभानी होगी अपनी ज़िम्मेदारी

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
December 21, 2023
in ज़रूर पढ़ें, नज़रिया, सुर्ख़ियों में
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लोकतंत्र को बचाने के लिए अब नागरिकों को निभानी होगी अपनी ज़िम्मेदारी
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हाल ही में संसद के 141 सांसदों को निलंबित कर दिया गया. इसके अलावा पिछले 10 वर्षों की भाजपा की सरकार की हुकूमत में हर ख़ास-ओ-आम यह भी महसूस कर पा रहा है कि संवैधानिक संस्थाएं स्वतंत्रतापूर्वक कार्य नहीं कर पा रही हैं. विपक्ष भी आम लोगों के मुद्दों को उस तरह उठाने में कामयाब नहीं हो पा रहा है, जैसा कि उसे होना चाहिए. और मेन स्ट्रीम मीडिया लोकतंत्र की हत्या में अपनी सक्रिय भूमिका निभा रहा है. ऐसे में जानेमाने पत्रकार सलमान अरशद का मत है कि अब समय आ गया है कि देश के नागरिक ही अपनी ज़िम्मेदारी निभाते हुए लोकतंत्र को बचाने की पहल करें.

हमारी संसद ने वर्तमान सत्र के लिए 141 सांसदों को निलंबित कर दिया है, इस वजह से कहा जा रहा है कि मोदी जी तानाशाही की ओर बढ़ रहे हैं. संसद से किसी सत्र के लिए सांसदों को निलंबित करना कोई पहली बार नहीं हुआ है, कांग्रेसी हुकूमतों के दौर में भी ऐसा हुआ है इसलिए जिनको लगता है कि भाजपा की हुकूमत में ये कोई बड़ा अनोखा या नया काम हुआ है तो वे सही नहीं हैं. इतना ज़रूर है कि 141 सांसदों को निलंबित करने का रिकॉर्ड ज़रूर पहली बार हुआ है. और वैसे भी “पहली बार” मोदी जी का मशहूर जुमला है, वो, उनकी पार्टी और उनके समर्थक “पहली बार” को अक्सर महिमामंडित करते रहते हैं.

इस कार्यवाही का असर क्या होगा, ये ज़रूर गंभीर चिंतन का विषय है. हलांकि ये पूर्ण बहुमत की सरकार है और इसके लिए संसद के भीतर कोई बिल या प्रस्ताव पास करवा लेना कोई मुश्किल काम नहीं है, लेकिन जो थोड़ा-बहुत विरोध या विमर्श विपक्ष के रहते होता, अगर उस संभावना को ही ख़त्म या सीमित कर दिया जाए तो यह संसदीय लोकतंत्र के लिए घातक है, लेकिन लगता नहीं है कि मोदी जी और उनकी टीम को इस बात की कोई चिंता है.

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कहा जा रहा है कि भाजपा संसदीय लोकतंत्र को ख़त्म कर रही है. इस आरोप को सिरे से खारिज़ भी नहीं किया जा सकता, लेकिन आपको समझना होगा कि भाजपा आरएसएस की एक शाखा मात्र है और आरएसएस तो शुरू से ही लोकतंत्र के पक्ष में नहीं है. आप देखें तो पाएंगे कि आरएसएस के अन्दर ही लोकतंत्र नहीं है. आरएसएस अपने समूह में बहुत सीमित विमर्श की इजाज़त देती है वो भी सिर्फ़ कुछ लोगों को. ऐसे में अब तक उन्होंने लोकतांत्रिक निज़ाम के साथ तालमेल बिठाया हुआ है, ये भी कम नहीं है.

मोदी जी के दोनों कार्यकाल को मिलाकर देखा जाए तो हमें लोकतंत्र को क्रमिक रूप से अलविदा कहने का एक ट्रेंड दिखाई देता है. पार्टी के भीतर मोदी जी और अमित शाह के अलावा बाक़ी चेहरे बहुत कम नज़र आते हैं. मीडिया में भी केवल ‘‘मोदी मोदी’’ ही होता रहता है यानी मोदी जी को पार्टी ही नहीं देश से भी बड़ा दिखाया जा रहा है. ये प्रवृत्ति किसी भी पार्टी या देश के लिए शुभ नहीं कही जा सकती ख़ास तौर पर एक लोकतांत्रिक देश में.

यही नहीं, मोदी जी की हुकूमत में तमाम संवैधानिक संस्थाओं के काम को देखा जाए तो ऐसा लगता है जैसे उन्हें स्वतंत्र रूप से काम करने में कोई बाधा है. यह बाधा क्या है और कहां से उपस्थित हो रही है, यह पड़ताल और विमर्श का मुद्दा है. लेकिन भारत में संसदीय लोकतंत्र की सेहत के लिए यह अच्छा संकेत नहीं है.

यह भी एक बहुत ज़रूरी सवाल है कि क्या हमारी संसद और इस संसदीय सियासत के सभी खिलाड़ी “हमारे” रह गए हैं?
पिछले लगभग 30 वर्षों के चुनावों को देखें तो क्रमिक रूप से आम जनता और उससे जुड़े मुद्दे सियासत से ग़ायब हुए हैं और इसके लिए भी सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदारी भाजपा की ही है, क्योंकि उसने जीवन से जुड़े मुद्दों की जगह धर्म को बड़ी मज़बूती से स्थापित किया और जनता ने भी धर्म आधारित मुद्दों पर वोट देकर इस सियासत को मज़बूत किया.

हालांकि भाजपा पर इस आरोप के बावजूद ये सवाल भी बहुत ज़रूरी है कि जब भाजपा धर्म को सियासत के केंद्र में ला रही थी, तब दूसरे दल जनता के मुद्दों पर सियासत क्यों नहीं कर पाए? क्यों कांग्रेस सहित दूसरे तमाम दल साम्प्रदायिक सियासत का मज़बूती से विरोध नहीं कर पाए, उलटे दूसरे दलों ने भी साम्प्रदायिकता को अपनी सियासत में कम या ज़्यादा जगह भी दी.

पूर्वाग्रह के बिना ध्यान देकर सोचिए, क्या सच में विपक्ष केवल भाजपा से लड़ रहा है? मीडिया जो कि लोकतंत्र और संविधान के हत्यारो यानी किलर की भूमिका निभा रहा है, विपक्ष उसका बहिष्कार नहीं कर पाया, सोशल मीडिया के ज़रिए हमारे जैसे कई लोग पत्रकारिता कर रहे हैं और व्यक्तिगत प्रयासों से ही हर महीने कुछ हज़ार या लाख लोगों तक पहुँच रहे हैं, क्या ये काम विपक्ष नहीं कर सकता? ईवीएम को लेकर बहुत बातें हो रही हैं, क्या विपक्ष ये मांग नहीं कर सकता कि अगर बैलेट पेपर से चुनाव नहीं होता तो वह चुनाव में भाग नहीं लेगा?

अभी जब सांसद बाहर खदेड़े जा रहे हैं तो विपक्ष सामूहिक इस्तीफ़ा देकर देश को सकारात्मक सन्देश दे सकता था!
मुझे लगता है कि विपक्ष बहुत हद तक आधारहीन सियासत कर रहा है, उनके पास न कोई विचारधारा है न विज़न और न ही कोई राजनितिक कार्यक्रम, वो बस इंतज़ार कर रहा है कि जनता भाजपा से तंग आकर इन्हें सत्ता सौंप दे, देखा जाए तो आज तक यही हो भी रहा है. दूसरी तरफ़ संघ और भाजपा के पास हवा हवाई ही सही कम से कम दिखाने को हिन्दू राष्ट्र का झुनझुना तो है!

बुलडोज़र न्याय, थोड़ी लिंचिंग, थोड़े दंगे और मीडिया का मुसलमान और पाकिस्तान करते रहना इस झुनझुने को उर्जा देते रहेंगे और भाजपा की सत्ता बनती रहेगी. बावजूद इसके हमारे सांसद और हमारी संसद अब हमारे मुद्दे पर न तो बात करते हैं और न ही काम, देश पर ये लोग इतना क़र्ज़ लाद चुके हैं जितनी आम आदमी कल्पना भी नहीं कर सकता और जनता के मुद्दे सियासत के केंद्र में कहीं हैं ही नहीं.

अब आपके विचारार्थ ये सवाल, कि जो संसद अपनी जनता के जीवन से इतनी कटी हुई है, क्या वो संसद देश की संसद है? और अगर हमारी संसद, हमारी नहीं रही तो देश के एक नागरिक के रूप में हम सब की क्या ज़िम्मेदारी है? इस पर सोचेंगे तो बेहतर भविष्य का कोई रास्ता ज़रूर निकलेगा.

फ़ोटो साभार: पिन्टरेस्ट

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