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पलाश के फूल: आकांक्षा पारे काशिव की कहानी

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
March 30, 2021
in नई कहानियां, बुक क्लब
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पलाश के फूल: आकांक्षा पारे काशिव की कहानी
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पलाश के खिलने के मौसम में वो लड़की अपने प्रेम को याद करती है और याद करती है उस होली को जो उसके रंग ले उड़ी. जीवन से भरी, पलाश में प्यार खोजती यह लड़की अब जिस होली की कामना करती है, पाठक भी उस होली के आने की कामना से भर उठता है. जानिए, आख़िर क्या है उसकी कामना…

पलाश के फूल फिर दहकने लगे हैं. उन्हें देख ऐसा लगता है कि पेड़ सिरों से सुलग उठे हैं. मैं जब भी उन्हें नज़रभर देखती हूं मुझे महसूस होता है कि उनके साथ-साथ मेरा मन भी सुलग उठता है. कॉलोनी में लाइन से लगे ऐसे ढेरों पेड़ हैं, जो सिरों से सुलगते हुए भी बिलकुल चुपचाप खड़े रहते हैं. उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि वे बहुत सारे अंगारे सिर पर उठाए खड़े हैं. बावजूद इसके पेड़ बिलकुल भी नहीं चिल्लाते. चिल्लाती तो मैं भी नहीं. वरना हर किसी को मालूम नहीं पड़ जाता कि मेरे अंदर भी पिछले चार सालों में कुछ दहक रहा है. जब पलाश फूल जाता है, पतझड़ दस्तक देता है तो मुझे उसकी बहुत याद आती है. उसी की जो हमारे सामने वाली पट्टी में सातवें घर में रहता था. अब वो वहां नहीं रहता. लेकिन उसके मम्मी-पापा अब भी वहां रहते हैं. आंखों पर चश्मा चढ़ाए उसकी मम्मी शाम के धुंधलके में थाली में पता नहीं क्या चुनती रहती हैं? मैं रोज उनके घर के सामने से निकलती हूं पर वो कभी भी मुझे नहीं देखतीं. पता नहीं क्यों? शायद अब तक नाराज़ हैं मुझसे. पता है जब पलाश में फूल आते हैं, तब पतझड़ भी आता है. कितनी अजीब बात है ना एक तरह पेड़ खाली हो जाते हैं और दूसरी ओर पलाश के पेड़ फूलों से भर जाते हैं. फूल भी ऐसे-वैसे नहीं शोख लाल रंग के. लाल रंग प्रेम का होता है… उसी ने मुझे बताया था. लेकिन अब मुझे पलाश के फूलों से ज़्यादा पतझड़ अच्छा लगता है. इस वक्त सारे पेड़ खाली हो जाते हैं, जैसे कोई लुटेरा आकर उन्हें लूट गया हो. हर तरफ़ पत्ते बिखर जाते हैं. ठूंठ से पेड़ किसी को नहीं भाते. मां को तो बिल्कुल नहीं. लेकिन यह मौसम मुझे अच्छा लगता है, क्योंकि हर गिरनेवाला पत्ता नए पत्ते के लिए जगह जो बना देता है. हर जानेवाला आनेवाले को ज़िंदगी देकर जाता है. पतझड़ बताता है कि ज़िंदगी का एक चक्र पूरा होने के बाद फिर घूम जाता है. ख़ाली पेड़ फिर कोशिश करता है और हरा-भरा हो जाता है. मैं भी ऐसी ही होना चाहती हूं. फिर से हरी-भरी पर… पता नहीं कौन रोक लेता है मुझे? कभी-कभी मुझे उसकी दीदी भी दिख जाती है. उन्हें पतझड़ इसलिए अच्छा लगता था, क्योंकि जब हम कॉलेज से साथ-साथ लौटते थे तब उस सुनसान रास्ते पर पत्ते हमारे क़दमों के नीचे चरमराते रहते थे और कुछ ऐसे गिरते जैसे हमारा स्वागत कर रहे हों. अब भी कभी-कभी वे रास्ते में मिल जाती हैं, पर अब सिर्फ़ देखकर मुस्करा देती हैं. बात नहीं हो पाती हममें. मन करता है, उनसे पूछूं,‘‘पलाश…पलाश के फूल बीनने चलेंगी मेरे साथ?’’

फिर पुए की महकवाला मौसम आ गया है. हर घर से उठती पुए की मीठी महक मुझे अब भी उतनी ही अच्छी लगती है. यह बात अलग है कि अब मैं पुए नहीं खाती. नाराज़गी है मुझे किसी से. मैंने तय किया है कि जब तक मुझे कोई मनाएगा नहीं, मैं पुए नहीं खाऊंगी. लेकिन यह बात किसी को नहीं मालूम. क्योंकि रसोई में तो मैं मां का पूरा हाथ बंटाती हूं. पुए के लिए गुड़ घोलती हूं, जब वे गोल-गोल पुए घी की कड़ाही में छोड़ती हैं, तो सोने की रंगत में रंग कर मैं ही उन्हें बाहर निकालती हूं. होली जब भी नज़दीक आने लगती है, कितना काम बढ़ जाता है. मां को रसोई में हमेशा मेरा साथ चाहिए. बाबा हैं कि मेरे सिवा किसी के साथ बाजार जाने को तैयार नहीं हैं. और मेरी बड़ी प्यारी दीदी? उनकी तो पूछो मत वह हमेशा नया सलवार-कुर्ता ख़रीदती है, मेरे साथ जा कर. बिल्कुल सफ़ेद. वह कहती है कि जब सफेद रंग पर रंगीन बौछारें पड़ती हैं तो कितना अच्छा लगता है. वह ख़ूब मस्ती करती है और शाम तक भूत बन कर लौटती है. नहीं लौटती थी. अब वह ससुराल में है और इतनी मस्ती नहीं करती. बाबा को सिर्फ़ गुलाल लगाना अच्छा लगता है. पहले जब मैं होली खेलती थी, तब ख़ूब सारे रंग ख़रीदती थी. वह मुझे कहता था कि टेसू के फूलों से बना रंग इतना पक्का होता है कि कभी नहीं छूटता. पर अब मुझे पता है कि ऐसा कोई रंग नहीं होता, जो कभी न छूटे. अब मुझे समझ में आता है वह डराने के लिए ऐसा कहता था. और मैं थी कि उसकी बातों में आ जाती थी. लेकिन अब मैं उसकी बातों में नहीं आनेवाली. पर अब वह आता नहीं हमारे यहां. किसी के यहां भी नहीं जाता वह. वह यहां रहता ही नहीं, तो मिलेगा कैसे किसी से?

होली को सिर्फ़ एक हफ़्ता रह गया है, इसलिए मुझे उसकी बहुत याद आने लगी है. पहली बार हमारी पहचान होली पर ही हुई थी. उसके पापा नर्मदा प्रोजेक्ट में चीफ़ इंजीनियर थे और बाबा जूनियर इंजीनियर. उसके पापा वहां ऑफ़िसर थे फिर भी होली पर वे ही आए थे बाबा से मिलने. उसके पापा को बहुत शौक़ था होली खेलने का. सबको इकट्ठा कर ख़ूब धमाल मचाते थे. अब तो वे भी होली नहीं खेलते. पहली बार वह होली पर अपने पापा के साथ ढीला निक्कर पहने आया था. मैं और दीदी ख़ूब हंसे थे, बाबा के पीछे छुप-छुप कर. कुछ दिनों बाद ही एग्ज़ाम थे और वह था कि पूरा दिन रंग में सना घूमता रहा था. वह दीदी की क्लास में पढ़ता था और उस क़स्बे के सबसे अच्छे स्कूल में. लेकिन पढ़ने में एकदम बुद्धू. उस साल वह फेल हो गया. मैंने और दीदी ने उसे फेलू-फेलू कहकर ख़ूब चिढ़ाया था. फिर वह मेरी क्लास में आ गया. उसके पापा ने उसे हमारे सरकारी स्कूल में ही भर्ती करा दिया. वह अपनी दीदी से नहीं पढ़ता था इसलिए अब रोज़ हमारे घर पढ़ने आता था. मेरी दीदी हम दोनों को एक साथ बैठा कर पढ़ाती थी. बेचारा दीदी के बराबर था, मगर इतनी मार खाई उसने दीदी की कि बस. फिर भी क्या हुआ बारहवीं पास वो भी थर्ड डिवीज़न.

मैं कॉलेज जाने लगी और उसने पढ़ाई छोड़ दी. मां उसे पसंद नहीं करती थीं, वो पढ़ता नहीं था इसलिए. मां को गधे बच्चे अच्छे नहीं लगते. फिर भी वह रोज़ आ जाता था. बड़ी मज़ेदार बातें करता था. धीरे-धीरे मां उसे प्यार करने लगीं और… और मैं भी. पर मैंने किसी को नहीं बताया, दीदी को भी नहीं सच्ची. ऐसे ही पतझड़ के एक दिन जब न सर्दी की ठिठुरन होती है, न गर्मियों की झुलस. ऐसे ही एक दिन जब पलाश के फूल मौसम को शर्मीले गालों की तरह लाल कर देते हैं, तब उसने मेरा हाथ पकड़ लिया था. कहा तो बहुत कुछ था उसने मेरे कानों के बिल्कुल क़रीब आकर, पर अब मुझे कुछ भी याद नहीं. उस दिन उसी ने बताया था, मेरे गालों पर भी दो पलाश के फूल हैं. एकदम लाल. वह बचपन से मेरे यहां आया करता था. मैं उससे बहुत लड़ती थी, चिढ़ाती थी. मगर उस दिन के बाद न जाने मुझे क्या हुआ… मैंने उससे लड़ना बन्द कर दिया, बिल्कुल. किसी को पता नहीं चला कि अब मैं उसकी दीदी के साथ कॉलेज से घर लौटने के बजाय एक्स्ट्रा पीरियड का बहाना क्यों बना देती हूं. किसी को भी पता नहीं चला, शायद मुझे भी नहीं. सर्दियों में वह अपनी बांहों में मुझे जकड़े रहता… पता नहीं कितनी देर. बारिश में पुराने डाकघर की टपकती छत के नीचे हम घंटों खड़े रहते, गर्मयों में मुझे वह वहां ले जाता, जहां बांध का काम चल रहा होता. फिर अपने हाथ का सहारा देकर वह मुझे नीचे उतारता और हम कहीं सिमटी, कहीं बहती नर्मदा के बीच तब तक बैठे रहते जब तक धूप पीली न पड़ जाती. मैं अक्सर आकाश के कोने को उसके साथ सुनहरा होते देखती. लौटते पंछियों को देखकर अपने एक छोटे-से घर की कल्पना करती. दिन ऐसे ही बीतते चले गए, मैंने हिसाब नहीं रखा उन दिनों का इसलिए वे रूठ गए और जल्दी बीत गए. इतनी जल्दी कि मेरी दीदी की शादी नज़दीक आ गई और मुझे एहसास तक नहीं हुआ. वह भी आया था शादी में. बहुत काम किया उसने दौड़-दौड़ कर. मां तो आज भी कहती है, ‘घर का लडक़ा होता, तो भी इतना काम नहीं करता.’ पर उसकी तो आदत ही थी किसी के यहां पर भी जी तोड़कर काम करने की. चाहे किसी का भी काम क्यों न हो. हमारी पूरी कॉलोनी में एक वही है, जिसका कोई दुश्मन नहीं है. बाबा हमेशा मज़ाक में उससे कहते थे, ‘तुम्हें तो कहीं का पीआरओ होना चाहिए.’ आज भी सब उसे बहुत प्यार करते हैं. वो यहां नहीं रहता फिर भी सब उसे याद करते हैं, हर दिन. मुझे पता है, मां और बाबा भी उसे याद करते हैं, लेकिन किसी से कुछ कहते नहीं हैं.

सब कहते हैं मैं पागल हूं, कुछ भी बोलती रहती हूं, कहीं भी उठकर चली जाती हूं. मैं किसी को समझा ही नहीं पाती कि मैं पागल नहीं हूं. पहले मैं पास के स्कूल में पढ़ाने जाया करती थी, मगर अब नहीं जाती. मैं जब भी बाहर निकलती हूं, सब मुझे अजीब निगाहों से घूरते रहते हैं. मुझे सब पता है, लोग मेरे बारे में क्या कहते हैं. पर मुझे किसी की परवाह नहीं है. बस मैं कभी-कभी यूं ही पुराने डाकघर तक चली जाती हूं. पहले भी तो जाती थी, तब कोई कुछ नहीं कहता था. अब सब बातें बनाते हैं. मां उसकी मम्मी को बहुत याद करती हैं, लेकिन हमारी बातचीत बंद है न उनसे इसलिए आना-जाना नहीं होता. इस बार जब होली आएगी, मैंने सोचा है मैं उसके घर जाऊंगी. मां ही तो कहती हैं, होली के दिन गले मिलकर सारी दुश्मनी ख़त्म हो जाती है. सारे शिकवे दूर करने का दिन है यह. फिर हममें तो दुश्मनी भी नहीं है, प्यार है ख़ूब सारा प्यार. इस बरस जब होली पूजन होगी, सब उसके आसपास इकट्ठे होंगे और जब उसमें आग लगा दी जाएगी, मैं चीखकर भागूंगी नहीं. मैं खड़ी रहूंगी उसके सामने. जलती लकड़ियों में मुझे किसी की चिता दिखाई नहीं देगी. मैं अपने आंसुओं से उसे ठंडा कर दूंगी. मैं भूल जाऊंगी चार साल पहले ऐसे ही फागुन के मौसम में आख़िरी बार उसे देखा था, जब शाम को होली जलनेवाली थी. वह अकेला लेटा था जमीन पर चुपचाप. अपने पसंदीदा लाल रंग में रंगा, खून से लथपथ.

उसकी मम्मी कहती हैं, वह मेरे लिए टेसू के फूल इकट्ठे करने गया था. मगर मां कहती हैं, ऐसा नहीं था. सब बस झगड़ते ही रहे. किसी ने मुझसे कुछ नहीं पूछा. वह चला गया चुपचाप, मुझसे भी बिना कुछ कहे. उस शाम होली के बजाय उसका शरीर जला. अगले दिन हम सब बिना रंग के सूखे बैठे रहे. तब से उसके और मेरे घर का आंगन बेरंग ही रहता है. लेकिन इस बार मैंने सोचा है, जब सब रंग में सराबोर होंगे, मैं हाथ में गुलाल की पुड़िया लिए उसके दरवाज़े पर खड़ी रहूंगी. मुझे पूरा यक़ीन है, आंटी मुझे भीतर ले जाएंगी और हाथ में पुए की प्लेट पकड़ाकर चुपके से पीछे से आकर मेरे गालों को लाल कर देंगी. मैं उन पर बिगड़ूंगी और वे हंसते-हंसते पहले ही तरह दोहरी हो जाएंगी. क्या हुआ जो वह यह सब देखने के लिए घर पर नहीं होगा. उसकी तस्वीर तो यह नज़ारा देखेगी ही और मेरे पुए खाने के चटोरेपन पर हंसेगी भी. जब मैं पानी की बौछार से बचने के लिए आंगन में दौडूंगी तो वहां उसकी काले रंग की टूटी हुई बाइक भी तो होगी… क्या हुआ जो पलाश नहीं है. मेरे… और उसके पसंदीदा फूल तो हैं… उसका पसंदीदा त्यौहार तो है…


फ़ोटो: इन्स्टाग्राम (parama_chitrakari)

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