गंगा-जमनी तहज़ीब क्या होती है और क्या होता है इसका प्रेम? इसे वही जानता है, जिसने इसे क़रीब से देखा हो. पेंटर चाचा और बड़े भाईसाब के बीच के संबंधों को तसनीम की इस कहानी में पढ़ कर आप इन गंगा-जमनी संबंधों की गहराइयों में अनायास ही उतरते जाते हैं और जब आप इस प्रेम में डूबते हैं, उसके सौंधेपन में गुम होने लगते हैं, तब कहानी का अंत आपकी आंखों को नम छोड़ जाता है.
रविवार के दिन भी इस गली में सन्नाटा पसरा रहता. गर्मी की भरी दोपहर में निकलता भी कौन, जब सूरज यूं तपता कि सावन में अकेला मन. अभी भी सन्नाटा ही था इतना कि कुत्ते भी गली के बीचोंबीच से अंदर जाने के रास्ते पर बनी पोल के नीचे की ठंडी मिट्टी पर चुपचाप लेटे थे. इन कुत्तों के पास ही कुछ खटिया भी लगी थी, जिन पर कुछ बुज़ुर्ग आंखें मूंदे करवट ले रहे थे. यह सहजीवन भी अजीब है. जब दो जातियां इस सूरज की उगलती आग पर निढाल हो जाती हैं तो एक-दूसरे को ठेलने की जगह, एक साथ बैठी नज़र आती हैं. पोल की ठंडी रेत और इसके गुम्बद की आड़ में सोने के लिए न तो कुत्तों को फ़ुरसत थी कि उन बुज़ुर्गों पर भौंकते और न ही उन बुज़ुर्गों को कोई मतलब कि उन्हें वहां से दुत्कारते. दोनों ही एक-दूसरे को बिना परेशान किए, कुदरत का कहना मान रहे थे, जैसे दोनों के पास और कोई विकल्प ही न हो. यह भी अच्छा ही है कि कोई विकल्प नहीं था, वरना तो दोनों एक ज़मीन के टुकड़े पर एक साथ न होते. उन दिनों इस मोहल्ले के घरों में दिन में आठ-दस घंटे बिजली न रहना आम बात थी. और बिजली भी ऐन उसी वक़्त जाती, जब सूरज अपना ताव दिखा रहा होता और लोग टेबल पंखे के आसपास अपने लिए जगह खोज रहे होते. उनका आराम करने का मन बनाना बिजलीघर वालों को इतना नागवार गुज़रता कि ठीक उसी समय वो अघोषित बिजली कटौती शुरू कर देते.
तो साहब पूरी गली में सन्नाटा पसरा था. किसी पंखे की आवाज़ तक न आ रही थी और न ही किसी मिनख के बोलने की. बोलते भी क्या, गर्मी से बचने का जतन करें कि बात में अपनी उर्जा गंवाएं?
जब गली सूनसान थी, उसी समय वो दोनों मोड़ से गली के अंदर दाख़िल हुए. अपनी एक आंख से वो साथ चल रही बीवी को तिरछी नज़र से देख रहा था. चेहरे से पसीना टपक रहा था कि ललाट पर लगा लाल तिलक भी धुलने लगा, पसीना टपके भी क्यूं न चार किलोमीटर पैदल चलकर यहां आया था. साथ लगभग भागते हुए चल रही बीवी जो थी, लम्बा पेट तक का घूंघट निकाल, अपनी सीधे पल्लू की साड़ी की आगे की सलवटें पकड़ कभी उठाती, कभी गिराती. गली के मोड़ तक पहुंचते-पहुंचते पेंटर चचा ने आंखें फाड़ ली. एक पत्थर की आंख और एक ठीक आंख. जो ठीक थी, वो अभी और लाल करने की फ़िराक़ में थे, ताकि उनका ग़ुस्सा साफ़ दिखाई दे सके. बीवी भी कहां पीछे रहने वाली थी, कुछ-कुछ सुबकना शुरू कर दिया घूंघट में.
तो पेंटर चचा अपनी एक आंख लाल करते और उनकी बीवी यानी चाची अपने घूंघट को ठीक करते सुबकते हुए घर की फाटक पर पहुंच गई. फाटक का एक पल्ला हमेशा बंद ही रहता और जो खुलता, उससे चिपककर खड़ी चाची को पेंटर चचा ने कोहनी से दूर करने की कोशिश की और आगे होकर ख़ुद अंदर चले. कसमसाती हुई चाची उनके पीछे चल दी. फाटक खुलने की आवाज़ से ही चौक में पलंग पर बैठ पंखा झल रही भाभी ने जाली के दरवाज़े से बाहर झांका. जौहर की नमाज़ पढ़ पलंग पर आ बैठे बड़े भाईसाहब ने जवाब के इंतज़ार में उनकी ओर देखा.
‘‘पेंटर भाईसाब हैं. हां, बहू भी है साथ.’’
यह कहते भाभी पलंग से उठ गई और जाकर जाली का दरवाज़ा खोल दिया. पेंटर चचा ने हमेशा की तरह दूर से ही नमस्ते किया और चाची नीचे बैठ पंजे से लेकर घुटने तक के पैर दबाने लगी. उनका सुबकना भी धीरे-धीरे चल रहा था. उन्हें पता था कि धीरे-धीरे सुबकने पर भी भाभी सुन लेतीं और कारण ज़रूर पूछतीं.
‘’अरे, उठो. कितनी बार कहा है, यह पैर दबाना छोड़ दो. लम्बा घूंघट छोड़ दो, पर तुम तो इतने सालों में ज़रा भी नहीं बदलीं.’’
‘‘रे बा दयो भाभी, बड़ां की इज्जत करबा भूल जायली.’’
पेंटर चचा का तंज सुन चाची झल्ला गई. भाभी हमेशा की तरह बिना कुछ बोले चौक की ओर चल दी. और पीछे-पीछे दोनों.
‘’बड़ा भाईसाब न ढोक.’’
पेंटर चचा ने पलंग पर बैठे बड़े भाईसाब के पैर पर हाथ लगाया.
‘‘बैठ, बड़े दिन बाद आया.’’
‘’बहू भी आपको ढोक दे रही है.’’ भाभी ने कहा तो बड़े भाईसाब ने बिना देखे हाथ से आशीर्वाद का इशारा कर दिया.
दोनों कमरे में जा बैठीं. हमेशा की तरह भाभी पलंग पर थीं तो चाची उनके क़दमों में नीचे बैठी थीं. भाभी का ध्यान खींचने के लिए वो लगातार सुबके जा रही थीं. भाभी समझ चुकी थी कि आज फिर कोई जूतम-पैजार का क़िस्सा है. उन्होंने कहा तो कुछ नहीं बस चाची के कंधे पर थपकी दी. पलंग के साथ वाली कमरे की खिड़की चौक में लगे बड़े भाईसाब के पलंग पर खुलती. वहीं एक ओर भाभी थीं तो दूसरी ओर बड़े भाईसाब.
‘‘हां, भई, अब फूटी आंख ही तरेरता रहेगा कि कुछ कहेगा भी. देख कैसे ग़ुस्से में नथूने फुला रहा है बैठा-बैठा.’’
‘‘ई नौटंकीबाज लुगाई न समझा ल्यो भाईसाब. नी तो की बुरा हो जावेलो तो मने दोस मत दीजो.’’
यह सुनते ही झुककर बैठे बड़े भाईसाब कुछ सीधे हुए और आंखें फाड़ लीं.
‘‘अरे ओ पेंटर, ये तेरी गालियां और तैश मेरी फाटक से बाहर छोड़ आया कर. समझा.’‘
पेंटर चचा को डोज़ मिल गया. आधा-अधूरा लगा टीका भी पसीना पोंछने में उतर चुका था और आंखों का ग़ुस्सा जाता रहा. अकड़कर बैठे पेंटर चचा पर बड़े भाईसाब के शब्दों ने ऐसे असर किया कि वो झुककर बैठ गए.
‘‘और की करूं भाईसाब. बताओ. पतो है क म्ह सुबह पांच बज्या ही पूजा कर चाय पीउ हूं, तो बो आ छह बजे सक लावे. खाणो के टैम होवे जद तो या चूल्हो सिलगावणे बैठे है. साग बनावे जिको लूण घणो कर देवे और म्हे कुछ केवूं तो आपरी रीस टाबरा पर निकाले है. म्ह तो परेशान हो ग्यो ई से.’’
भीतर से सुबकने की आवाज़ तेज़ हो गई. बड़े भाईसाब ने खिड़की पर तिरछी नज़र डाली और पेंटर चचा की ओर रुख़ किया.
‘‘तो क्या करेगा. मशीन समझ रखी है उसे. वो चाहे तब काम करे, ना मन तो ना भी करे. और चूल्हा कब तक सुलगवाएगा. गैस लाकर दे इसे.’’
‘’हां, गैस दिलाद्यो इनै. जणा सगला ने सुलगा देवेगी,’’ पेंटर चचा ने मुंह बिगाड़ा.
बीच में ही भाभी ने खिड़की में से बड़े भाईसाब को इशारा किया.
‘‘बहू कह रही है कि इन्हें आज भी मारा.’’
यह कहते सुनते ही चाची की सुबकियां रोने में बदल गई थीं. कभी पैर आगे करती तो कभी बाजू आगे करती भाभी को अपने ज़ख़्म बता रही थीं. जबकि पैर और बाजू दोनों ही कपड़ों से ढंके पड़े थे. ज़ख़्म कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे, फिर भी वो दिखाने की पूरी कोशिश कर रही थीं.
बड़े भाईसाब ने बस ग़ुस्से में पेंटर चचा को देखा. उन्होंने अपने एक सही आंख उनसे बचाने की कोशिश की और दूसरी ओर ताकने लगे.
‘‘कई करूं भाईसाब. ओ ही मजबूर करे है. जबान ना चलावे तो क्यूं मारू म्ह.’’
‘’देख भई, मैं पहले ही कह चुका हूं. औरत पर हाथ उठाए तो मेरे घर आने की ज़रूरत नहीं. इसके बाद भी सोच रहा कि मैं तेरा कुछ पक्ष लूंगा तो तू गलत है.’’
‘‘थै लियो कद हो म्हारो पक्ष. रोजीना ही थे तो इकी ही सुणो हो. जियाणे सारो कसूर तो म्हारौ ही रे ग्यो. म्ह ही पागल हूं, जीको हाथ उठाउं.’’
इस बार नौटंकी की बारी पेंटर चचा ने लपक ली और बड़े भाईसाब को सोचने पर मजबूर कर दिया. वो कुछ सोचते, इससे पहले ही अंदर सुबकते हुए धीरे-धीरे चाची, भाभी से अपना दुखड़ा कहने लगीं. चाची इतनी आवज़ में बोलतीं कि भाभी कान में सुन बड़े भाईसाब से कह दें. वो बड़े भाईसाब के सामने न बोलतीं. उनके यहां जेठ से आवाज़ का भी परदा था यानी आवाज़ भी जेठ के पास नहीं पहुंचनी चाहिए.
भाभी बोलीं,‘’बहू कह रही है कि यह वक़्त पर सब बना देती है, पर भाईसाब बात-बात पर गलती निकालते हैं और पीहर भेज देने की धमकी दी.’’
‘‘क्यूं तेरे घर में बहू के रहने की जगह नहीं है क्या?इतना बड़ा घर किस काम का. इसीलिए ब्याह कर लाया कि बात-बात में पीहर भेजने की धमकी दे रहा है. वैसे भी तुझ काणा को दे कौन रहा था बेटी? एहसान मान बहू का कि तुझे इतने नाज़-नखरों से रख रही है. ऐसे तो नहीं कटने वाली. और ऐसे तो तेरी-मेरी भी नहीं कटने वाली,’’ बड़े भाईसाब ने पेंटर चचा के आगे हथेली लहराते हुए कहा.
‘‘बस म्नै गाल्यां काढ ल्यो थे. इकी छाती भी ठंडी पड़ जासी. म्ह ते यूं आवू हूं कि थे कि समझाओ इन्नै. म्हारा जीणा हराम कर रख्यो ह.’’
और कमरे से फिर सुबकियां विलाप में बदल गईं. चाची के रोनेवाले टेप रिकॉर्ड को मालूम है कि कब बेस बढ़ाना है और कब घटाना है. और यह रोना जेठ की हमदर्दी में बदलकर उसके पास वापस लौटता.
‘‘चल अब ग़ुस्सा छोड़. बहू तू भी रोना बंद कर. यूं लड़ते रहोगे तो बच्चों को क्या अच्छा माहौल दोगे तुम लोग. यह छोटी-छोटी बातें छोड़ो और हंसते-खेलते रहो.’’ बड़े भाईसाब ने अपना आख़िरी हथियार डाला.
‘’भाई साब म्ह तो यही चाउ हूं क सुख सांति बनी रे. पण ओ ही ताव दिलावे है.’’
‘‘ये क्यूं दिलाएगी ताव. तेरा ही दिमाग़ ख़राब है, पल-पल में ग़ुस्सा फूट पड़ता है. देख, उस दिन भी तू तौकीर पर कैसा पिल पड़ा था.’’
‘‘तो, कईं करतो. म्हारे बड़े भाईसाब ने कोई की कैवे और म्ह बर्दाश्त कर ल्यूं की. नी, म्ह तो कौन करूं.’’
बड़े भाईसाब हंस दिए. हाथ की थपकी पेंटर चचा की जांघ पर मारी.
फ़ैसला कुल मिलाकर चाची के पक्ष में हुआ था, सो वो घूंघट में हाथ डाले अपनी आंखें पोंछने का आख़िरी वाला उपक्रम करने लगीं.
बड़े भाईसाब को सभी बड़े भाईसाब ही कहा करते. अपने परिवार में सबसे बड़े बेटे थे. मोहल्ले में भी. यह मोहल्ला आधा तो काजियों का था और आधा तिवारियों की गली के नाम से जाना जाता. पर पूरा ही मोहल्ला काजियों से लेकर तिवारियों तक के घरों के लोग उन्हें बड़े भाईसाब ही कहते. क़स्बे में बड़ी इज़्ज़त थी. कभी बरामदे में बैठ जाते तो नमस्ते करने वालों से लेकर सलाम करने वालों तक की लाइन लग जाती. वो सिर पर टोपी लगाए, तस्बीह फिराते इशारे में ही सभी का जवाब दे देते.
पेंटर चचा से भाईसाब का बचपन का याराना था. दोनों पांचवीं तक पीलती स्कूल में पढ़ा करते. पीलती स्कूल उनके बचपन में क़स्बे में एक ही स्कूल था. जो क़स्बे की आबादी से कुछ दूर था. स्कूल का नाम क्या था, यह तो किसी ने नहीं देखा, पर उसकी दीवारें पीली मिट्टी को घोल को पोती गई थीं, सो वो इस क़स्बे वालों के लिए पीलती स्कूल था. कक्षा में सबसे लम्बे और रौबदार दिखाई पड़ते पेंटर चचा ने तो पांचवीं पढ़, पढ़ाई से इतिश्री कर ली और अपने पुश्तैनी काम दरवाज़ों, दीवारों पर रंग करने में लग गए.
बड़े भाईसाब का रौब पेंटर चचा पर ऐसा रहा कि वो हर काम उनसे पूछ कर करते. वैसे भी बड़े भाईसाब ज़्यादा पढ़ लिए वो ज़्यादा समझदार हैं, यही बात उसके मन में रम गई. घर में रसोई बनवानी हो, घर की मरम्मत कराने, मां-बापू को इलाज के लिए कौन-से शहर ले जाना है, से लेकर बच्चों को कौन से स्कूल में पढ़ाना है और बच्चों की सालगिरह पर कितना ख़र्च करना है, सवामणी के चूरमे में क्या-क्या डलेगा, तक की राय बड़े भाईसाब के घर के चौक में बैठकर ही ली जाती.
उनका ईद मिलन और दीवाली का स्नेह मिलन भी बड़े भाईसाब के इसी चौक में निपट जाया करता. सबसे बड़ी बात कि पेंटर चचा और चाची की लड़ाई भी इस चौक में आकर ही ख़त्म हुआ करती. जब तक बड़े भाईसाब से लानतें-मलामतें न खा लेते, पेंटर चचा के दिमाग़ को सुकून न मिलता.
अब लोग इसे गंगा-जमनी तहज़ीब कह लेते हैं, पर यह मारवाड़ी, उर्दू, हिंदी तहज़ीब थी. एक ओर से पूरी मारवाड़ी तो दूसरी ओर उर्दू, हिंदी के शब्दों के साथ मारवाड़ी टोन हुआ करता. मारवाड़ की हवा-पानी की तासीर ही ऐसी है कि उर्दू, हिंदी क्या, अंग्रेजी बोल लो, पर वो मारवाड़ी टोन न जाया करता. यहां की बोलियां ऐसी ही हैं, जैसे एक ही राग पर कई सारे गीत गाए जा रहे हों.
तो, बड़े भाईसाब से लानतें-मलामतें खाकर पेंटर चचा के दिमाग़ को सुकून मिल जाता तो बड़े भाईसाब के साथ चौक से बाहर फाटक से पहले बने बगीचे में चक्कर लगा लेते.
‘‘देख ल्यो भाई साब. म्ह कीयो हो नी, इ जगा चायना गुलाब घणो ही उपजसी,’’ पेंटर चचा ने कुछ अकड़ते हुए गुलाब पर हाथ फिराया और अपनी एक आंख की भौहें चढ़ाकर बड़े भाईसाब की ओर देखा.
‘‘अरे भई, पेंटर. तेरी पारखी नज़र का ही मुरीद हूं मैं. एक से एक दरख़्त लगाकर चमका दिया, इस छोटे से बगीचे को.’’
बड़े भाईसाब ने उसके कंधे पर हाथ मारा. घमंड में पेंटर चचा ने सीने में हाथ बांध लिए और मुस्काने लगे.
‘‘अबके नयो रातरानी लगा देउ. देख जो, कियां महकसी पूरो घर. पूरो घर कांई पूरो महल्लो महक सी.’’
‘‘रातरानी देख, वो फैल रही तेरी लगाई हुई. रातभर महकती है.’’
अपनी याददाश्त कम जान पेंटर चचा थोड़े सकपकाए. सीने पर बंधे हाथ नीचे हो गए.
‘’मतलब अबकी नयी आई है रातरानी. बी की खुसबू घणी तेज है,’’ उन्होंने अपने आपको सही करने की कोशिश की.
बगीचा बड़े भाईसाब के घर में ज़रूर था. पर देखभाल सारी पेंटर चचा ही किया करते. नए पौधे लगाने, पुराने पौधे हटाने, दूब काटने, दूब के किनारे मेड़ बनाने का काम वो ही सप्ताह में एक बार आकर कर देते. महीने में एक बार घर के आंगन में बकरियों की मींगनियों से सुखाई खाद भी पीसकर पौधों में डाल जाते.
बगीचा हरा होता रहा, महकता रहा और दोस्ती फलती रही. बच्चे बड़े हुए पेंटर चचा और चाची का झगड़ा ख़त्म तो नहीं हुआ, पर कम हो गया था. पर बड़े बेटे की शादी होते ही फिर नया कलेश घर में था. अब बहू की लड़ाई भी काजियों के मोहल्ले के इस चौक में आ जाया करती.
‘‘भाभी आज तो गजब ही कर दी यो तारो, बहू की बात में आ हिस्सो मांग लियो. काल सूं बाप को कालजो खा रयो. थांको देवर कीसो है, थै जाणो हो वां को गुस्सैल सभाव. वा भी ठान लिया कि तारो नै घर के बारे काढ़ ही दम लेसी. म्ह कांई करूं, कठै जाउं. दोनों बातां म म्हारो तो घर बिगड़सी.’’
चौक में पलंग पर बैठी भाभी के कदमों में घूंघट कर बैठी चाची आज अकेली आई थी. भाभी से कही तो खिड़की के उस ओर कमरे में बैठे बड़े भाईसाब ने भी कान लगाके सुन ली. भाभी के कुछ कहने से पहले ही पेंटर चचा के घर फ़ोन लगा दिया.
‘‘तारो, अभी के अभी घर आओ.’’
‘‘जी ताउ जी,’’ बस इतना भर जवाब आया.
कुछ ही देर में हाथ जोड़े तारो बड़े भाई साब के क़दमों में बैठा था.
‘‘क्या है यह सब. मां-बाप इसीलिए पालते हैं कि तुम उनसे हिस्सा मांगो? क्या हिस्सा है तेरा? कुछ नहीं मिलेगा तुझे. जाना है तो अपने दम पर जा.’’
‘‘ताउजी, म्ह कांई करूं बताओ. मां और आपरी बीनणी रोजीना की लड़े. म्ह काम करबा न जाउ क आंकी लड़ाइयां सुलटातो रहूं. म्ह परेशान हो ग्यो. मने कौन चाहिजे हिस्सो. म्हा तो आने और थांकी बीनणी, सब ने छोड़ जांसू,’’ तारो रुंआसा हो गया.
‘‘हूं. तो यह है बात. बहू यह तो ठीक नहीं. छोटी बहू तो अभी नई है. उम्र में भी छोटी है. लड़ने से काम थोड़े ही चलेगा. तू तो बड़प्पन रख. उसे भी समझा. बेटी बनाकर बात कर. बात मानेगी. यूं तारो को परेशान करोगे, कल के दिन यह छोड़ जाएगा, तब क्या कर लोगे तुम लोग. भलाई यही है कि समझदारी दिखाओ.’’
सालों में पहली बार बहू को बड़े भाईसाब से कुछ सुनने को मिला. हमेशा उनका पक्ष लेने वाले बड़े भाईसाब आज उसे समझा रहे थे. वो घूंघट की ओट में शर्मिंदा हो गई.
‘’भाभी, भाई साब ने कै द्यो. जियां कहसी, बो ही करसू. आगै सूं कोई शिकायत न आवेगी.’’
चौक की यह बैठकी कभी ख़त्म न होती.
अक्टूबर में फिर इसी चौक में बैठकी लगी. इस बार लड़ाई नहीं, अपने चार बेटों में से सबसे छोटे बेटे की शादी पर राय लेने आ पहुंचे पेंटर चचा और चाची.
‘’भाईसाब बे कैवे है कि नौम्बर क सावा में शादी कर ल्यो. अब कियां करूं. नौम्बर में तो आ ग्या मुर्रम. म्है और भाईसाब मुर्रम क जलूस की तैयारयां करसी क शादी की.’’
‘‘हां, तो मोहर्रम कौन-सा हमारा रास्ता रोक रहा है. एक बार तू शामिल नहीं होगा तो क्या हो जाएगा. तू तो भगवान का नाम लेकर हां कर दे.’’
‘‘बहू कह रही है कि इसके बाद सावे अगले साल मार्च में आएंगे. तब तक लड़की वाले नहीं रुक सकते. तब उनके बेटे की शादी करनी है उन्हें,’’ भाभी ने हमेशा की तरह खिड़की से बहू की बात रखी.
‘‘हां, तो कोई परेशानी नहीं है. छह नवंबर का कह रहे हैं ना. कर लेंगे शादी. बोल देना समधी को.’’
‘‘अब थै ही देख ल्यो. मनै तो जंचे कौने. मोहर्रम का ढोल मा आपणे घरै डीजे बाजे जणा चोखा कौने लागे.’’
‘‘फालतू बातों से काम नहीं चलता पेंटर. अच्छे काम जब हो, तब कर ही लेना चाहिए. मोहर्रम तो वैसे भी चार तारीख़ को ही हो जाएगा. अपनी शादी तो छह को है ना. कर ले.’’
और यूं शादी की तारीख़ भी यहां तय हो गई.
चांद की एक तारीख़ से मुहर्रम के मातमी ढोलों की आवाज़ चारों ओर से सुनाई देने लगी. बड़े भाईसाब के पैर में अब दिक़्क़त होने लगी थी, सो छड़ी लिए चारों मोहल्लों के एक चौक में बज रहे ढोलों को देखने चल पड़े. ढोल तो क्या देखने थे, वहां हथाई पर उनके हमउम्र मिल जाया करते तो ढोलों की तेज़ आवाज़ के बीच भी चिल्ला-चिल्लाकर बातें कर लिया करते.
ठीक इसके दूसरे दिन गणेश मंदिर जाकर दोनों परिवार शादी का कार्ड चढ़ाकर गणेश जी को न्यौता भी दे आए. इधर पेंटर चचा शादी में व्यस्त हो चले तो बड़े भाईसाब और भाभी मुहर्रम में.
चांद की नौ तारीख़ को शाम को क़स्बेभर के ताजियों का मुकाम तक पहुंचने का जुलूस निकला. ढोलों की आवाज़ पर पेंटर चचा बार-बार उठ खड़े होते, ताजियों को कंधा देने की चाह में, पर बाई यानी उनकी मां पकड़ बिठा लेती.
‘‘सगणा के टैम कठै जासी मोहर्रम म.’’
वो बेमन से बैठ गए. बचपन से अब तक हर साल ताजियों को कंधा देते आए हैं और आज घर में बैठना उन्हें नागवार गुज़र रहा था. अभी कुछ ही देर में बेटे के तेल बान की रस्म थी.
उनका मन ऐसा ख़राब हुआ कि तेल बान तो होता रहा, वो तो अपने कमरे में चादर ओढ़ सो गए.
इधर भाईसाब ताजियों पर चढ़ने वाले सेहरों के जुलूस में वो छड़ी के सहारे चारों मोहल्लों के चौक में पहुंच गए. आधी रात तक ताजियों के सामने दुआएं मांगते रहे कि हरेंद्र की शादी ठीक से निपट जाए. बिना पेंटर के उठाए किसी झगड़े के. वो जानते थे कि पेंटर घर का कोई काम लड़े बिना पूरा न करता.
पर पेंटर चचा तेल बान तक तो किसी से भी नहीं लड़े. कमरे की चारपाई पर गहरी नींद सोए रहे. सुबह तारो ने झिंझोड़ उठाया तो चौंक गए.
‘‘कंई हुयो तारो.‘’
‘‘पापाजी, ताउजी चालता रया.’’
‘‘हैं, कई कैवे है. होश में कौने के?’’ उन्होंने तारो को झिंझोड़ा.
‘‘हां, पापाजी, ताउ जी नै दिल को दोरों पड़ ग्यो,’’ यह कहते हुए तारो फूट-फूटकर रोने लगा.
पेंटर चचा वहीं चारपाई पर ढह गए. कुछ देर तक तो ज़ुबान ही नहीं खुली. घूंघट काढ़े रोती चाची भी उनके क़दमों में बैठ गई.
‘‘ई तो नी हो सकै है. ई तो नी हो सकै है. बड़े भाईसाब इयां कियां चालता रै सके. घर तो काम पड्यो है,’’ वो अचानक उठे और दौड़ पड़े दरवाज़े की ओर. बाई ने हाथ पकड़ रोक लिया.
‘‘कांई गजब करै है, पेंटरया. गणेशजी नै नौत दीयो, घर में थाम रोप दीयो. अब न जा सकै है तू बठै.’’
पेंटर चचा बिफर पड़े.
‘‘कीयां कौन जा सकूं हूं. म्हारा बड़ा भाईसाब चालता रिया और म्ह अठे बैठ शादी मांडू. ओ नी हो सके है.’’
‘‘तू कांई समझै है, आ सुन म्हारो कलैजा ठंडों है. आग बाल री है. पर कांई करा, छोरा आपां तो कौन जा सकां. समझले, अपसगुन कौन करणो.’’
चाची भी पेंटर चचा को हाथ जोड़ समझाने लगी. भाइयों ने पकड़कर उन्हें बैठा लिया और कहा कि वो बड़े भाईसाब को कंधा देने नहीं जा सकते. वो ख़ामोश बैठे रहे. बिलकुल नहीं लड़े. उनकी एक आंख रोए जा रही थी.
घर में मेहंदी, हल्दी की ख़ुशबू और गीतों की आवाजों के बीच मातमी धुनें पेंटर चचा को सुनाई दे रही थी. याद आया. आज ही है मुहर्रम. आज तो ताजिए दफ़नाए जाएंगे और बड़े भाईसाब भी. और दोनों को कांधा न देने का मलाल कभी पेंटर चचा को उद्वेलित करता तो उनकी आंखों से बहते आंसू, इस ग़ुस्से को ठंडा करते जाते. वो अपने कमरे से बाहर ही न निकले.
और मुहर्रम की इस दस तारीख़ को बड़े भाईसाब ताजियों की मातमी धुन में दफ़नाए गए.
रातीजगा की रात इस घर के कच्चे आंगन में डीजे लग गया. परिवार के जवान लड़का-लड़की अपने मारवाड़ी गीत तय कर रहे थे कि किस-किस पर डांस करना है. डीजे जैसे ही शुरू हुआ और पहले गीत की तेज़ आवाज़ के साथ ही पेंटर चचा अपने कमरे से बाहर निकले और कच्चे आंगन में आकर बड़ा स्पीकर उठाया और उसे फेंक दिया. अचानक कच्चे चौक में बैठी औरतों और जवानों में सन्नाटा छा गया. पेंटर चचा चिल्ला रहे थे.
‘‘बेसर्मो, म्हारो भाई मर ग्यो और था नै नाचबा की सूझ री. भागो, भागो अठै सूं. कोई नी नाचसी, कोई शादी कौन होसी अठै.’’
पेंटर चचा के भाइयों और चाची समेत रिश्तेदारों ने ग़ुस्से में कांप रहे पेंटर चचा को पकड़ा. किसी तरह कमरे में ले जाकर समझाया और इस बात पर राजी हुए कि यहां डीजे नहीं बजेगा, पर सगणा के गीत औरतें गा लेंगी.
दूसरे दिन सुबह फेरे होते ही पेंटर चचा चुपचाप वहां से निकल गए. आशीर्वाद समारोह में सब उन्हें ढूंढ़ते रहे. पर वो तो अपने बड़े भाईसाब के चौक में बैठे थे.
‘‘बंट्या, कठै छोड़ आयो रै म्हारा भाई नै. ले चल मनै भी. माफी मांग ल्यूं. सारी उमर म्ह परेशान करता रया वा नै. और आखिरी टैम पर कांधों भी कौन दे सक्यो.’’
वो बंट्या के साथ अब इस कब्रिस्तान में थे और बड़े भाईसाब की कब्र से लिपट कर रो रहे थे. रोकर जैसे ही दिल हलका हुआ कुछ याद आया उन्हें. कब्र के सिरहाने की मिट्टी को अपने हाथ से हटाकर गड्डा किया. साथ लाए थैले से छोटा सा पौधा निकाला और वहां मिट्टी से ढंक दिया. थैले में पड़ी पानी की बोतल निकाली और पौधे को सींच दिया.
‘‘ओ रातरानी है भाई साब. नई वाली. ई की खुशबू तेजआसी.’’
यह कहते वो तेज़ी से कब्रिस्तान से निकल गए.
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट